झारखंड का एक बड़ा हिस्सा खनन तथा इससे सम्बन्धित कार्य कलापों से प्रभावित है। खुली खदानों, विशेषकर कोयला खदानों में खनन कार्य समाप्ति के बाद उस स्थल को अपने वास्तविक रूप में लाने का प्रावधान है, जिससे मृदा जल का वानस्पतिक संसाधन पुनर्जीवित हो सके। जल की एक-एक बूँद जिन्दगी के लिये झारखंड की प्रस्तावित जलनीति का यह मूल मंत्र राज्य के सर्वांगीण विकास में जल की महत्ता को दर्शाता है। प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित आर्थिक विकास के परिक्षेत्रों यथा कृषि तथा उद्योग में जल एक अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण संसाधन है, जिसकी सतत उपलब्धता इनके टिकाऊ विकास की गारन्टी होती है। झारखंड यद्यपि खनिज संसाधनों से परिपूर्ण भूभाग है, यहाँ की अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि ही है, जिसके विकास में जल सबसे प्रमुख संसाधन है। झारखंड में धरातल की संरचना तथा पहाड़ों के विन्यास के कारण वर्षाजल का असमान वितरण होता है, हालाँकि यहाँ वर्षा 100-140 सेमी तक होती है। विशेषकर राज्य के पूर्वी तथा उत्तर पश्चिमी भाग सामान्य से कम वर्षा प्राप्त करते हैं। खासकर, गढ़वा, चतरा, संतालपरगना क्षेत्र आदि इस प्राकृतिक असमानता के शिकार होते रहे हैं। राज्य की प्रमुख पाँच नदियों की प्रवाह प्रणाली यथा दामोदर, स्वर्णरेखा, उत्तरी कोयल, दक्षिणी कोयल तथा गुमानी का उद्गम इसी भूभाग पर होता है। जो सतही जल प्रणाली की 60 प्रतिशत हिस्सेदारी है।
राज्य के कृषि क्षेत्र नदी घाटियों में ही अवस्थित है तथा उद्योगों का तंत्र भी मुख्यतः दामोदर तथा स्वर्णरेखा घाटी में ही फैला हुआ है। अतः अब नदी परितंत्र की प्राकृतिक अवस्था में किसी भी परिवर्तन का प्रभाव सीधे कृषि तथा औद्योगिक विकास पर पड़ता है। औद्योगीकरण तथा इससे सम्बन्धित शहरीकरण की आँधी का प्रभाव राज्य के जलस्रोतों पर भी पड़ा, जो वर्तमान में इनके प्रदूषण तथा उपलब्धता में कमी के रूप में हमारे समक्ष है तथा जिसका सीधा परिणाम भूगर्भीय जल का अन्धाधुन्ध दोहन है। राज्य में जल के सम्बन्ध में नीति का अभाव तथा कानूनी प्रावधानों का धुंधलापन इस समस्या के निदान में स्पीड ब्रेकर की भूमिका निभा रही हैं। राज्य की प्रस्तावित जलनीति, में आर्थिक विकास, गरीबी उन्मूलन तथा क्षेत्रीय असन्तुलन में कमी लाने के लिये जल प्रबन्धन पर विशेष बल देने तथा इन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु नदी बेसिन आधारित जल प्रबन्धन, इस प्रबन्धन में उपयोग करने वाले जनमानस की सीधी भागीदारी तथा नई तकनीकों के समावेश की चर्चा है। नदी बेसिन आधारित विकास की अवधारणा का प्रणेता भी झारखंड रहा है। जहाँ दामोदर बेसिन परियोजना का, जो स्वतंत्र भारत की पहली बहुद्देश्यीय नदी घाटी परियोजना है, प्रयोग हुआ। इस परियोजना में जल को विकास के एक साधन के बजाय आर्थिक संसाधन के रूप में रखा गया, जिसका परिणाम यह है कि राज्य में दामोदर बेसिन के चार बाँधों के डूब क्षेत्र तो हैं, पर इन पर आधारित सिंचाई प्रणाली नहीं है। जनमानस की सीधी भागीदारी का न होना इसका एक कारण है।
झारखंड राज्य पंचायत अधिनियम में भी गैर अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभाओं को मात्र जल प्रबंधन का अधिकार है, लेकिन अनुसूचित क्षेत्रों की भाँति स्वामित्व तथा प्रबन्धन का अधिकार नहीं है। इस प्रावधान का दुरुपयोग कुछ राज्यों में जल प्रणाली के निजीकरण के रूप में भी हुआ है। प्राकृतिक संसाधनों के संदर्भ में कानूनी समानता से प्रबंधन सुव्यवस्थित हो सकता है राज्य की धरातलीय विशेषताओं के कारण नहरों द्वारा व्यापक सिंचाई प्रणाली सम्भव नहीं है। अतः यहाँ का पारम्परिक जल प्रबंधन व्यवस्था सतही जल के प्रबंधन पर आधारित रही है। राज्य के अल्प वर्षा क्षेत्रों में पारम्परिक जल प्रबंधन तकनीक जैसे आहर, पइन, तालाब आदि सबसे अधिक पाए जाते हैं। सम्भवतः यहाँ के जनमानस ने जल की महत्ता को सही रूप में पहचाना हो। सतही जल प्रबंधन प्रणाली जो वर्तमान में जल छाजन कार्यक्रम के रूप में सक्रिय है, के वैज्ञानिक प्रबंधन से भूगर्भीय जल भंडार का भी पोषण होता है। यह भूगर्भीय जल राज्य की नदी प्रणाली के कुल जल प्रवाह का एक तिहाई भाग प्रदान करती है। फलतः वर्षाविहीन काल में भी नदियों में कुछ जल प्रवाह होता रहता है। नदियों के उद्गम क्षेत्रों में वर्षाजल के प्रवाह को जलछाजन तकनीकों से धीमा कर नदी बेसिन में जल के प्रवाह काल को बढ़ाया जा सकता है।
वर्षा आधारित नदियों के क्षेत्र में यह प्रक्रिया ज्यादा लाभदायी होती है। राज्य में मात्र 22 प्रतिशत क्षेत्र में ही कृषि सम्भव हो पाती है, जबकि करीब 30 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि परती ही रह जाती है। करीब पाँच प्रतिशत कृषि योग्य बन्जर भूमि भी है, जो मुख्यतः उच्च भूभागों (टांड़) में अवस्थित है, जहाँ सतही जल प्रबंधन कर नीचे के प्रवाही भाग में जल की उपलब्धता को बढ़ाया जा सकता है। शहरी क्षेत्रों में भूगर्भीय जल का दोहन अति तीव्र गति से हो रहा है। फलतः भूगर्भीय जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है। शहरी जीवन पद्धति में कुल जल उपयोग का मात्र एक चौथाई ही पेय तथा खाद्य सम्बन्धी क्षेत्रों में होता है तथा शेष गैर भोज्य क्षेत्रों में ही होता है। केंद्रीय भूगर्भीय जल प्राधिकरण ने देश के अनेक भागों में भूगर्भीय जल के अवैज्ञानिक दोहन पर रोक लगाई है। अनेक राज्य सरकारों ने भवन अधिनियम में रूफ टॉप रेनवाटर हार्वेस्टिंग को आवश्यक बना दिया है। आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, लक्षद्वीप, पांडिचेरी आदि ने इसे आवश्यक विधायी प्रावधान बना दिया है। केरल में 100 वर्गमीटर से बड़े भवनों में इन जल संरक्षण प्रावधानों का निर्माण आवश्यक कर दिया है। भूगर्भीय जल के प्रबंधन सम्बन्धी प्रावधानों की आवश्यकता झारखंड की जल नीति में प्रमुखता से होनी चाहिए, ताकि कारगर नियमों तथा जनभागीदारी से इसका कार्यान्वयन किया जा सके। झारखंड का एक बड़ा हिस्सा खनन तथा इससे सम्बन्धित कार्य कलापों से प्रभावित है। खुली खदानों, विशेषकर कोयला खदानों में खनन कार्य समाप्ति के बाद उस स्थल को अपने वास्तविक रूप में लाने का प्रावधान है, जिससे मृदा जल का वानस्पतिक संसाधन पुनर्जीवित हो सके। कारगर वैधानिक प्रावधों की कमी से खनन क्षेत्रों की जल प्रणाली अस्त-व्यस्त होती जा रही है। खनन आधारित उद्योगों ने जल प्रदूषण की समस्या को इतना बढ़ा दिया है कि दामोदर नदी का जल किसी भी मानवोपयोगी कार्य के लिये सुरक्षित नहीं है। कुछ ऐसी ही स्थिति स्वर्ण रेखा तथा अन्य सतही जल प्रणालियों की हो रही है।
लक्ष्य प्राप्ति हेतु कुछ प्रमुख आयाम विचारणीय है
1. सतही और भूगर्भीय जल के सांयुक्तिक प्रयोग की नीति
2. शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्रों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रक्रिया का अनुपालन आवश्यक हो।
3. भूगर्भीय जल के दोहन पर नियंत्रण का प्रावधान
4. उद्योगों में उपयोग में लाए जाने वाले जल का पुनर्चक्रण
5. लघु जलस्रोतों के उद्गम क्षेत्र में जल छाजन विकास कार्यक्रमों की प्राथमिकता
6. सतही जल प्रदूषण को रोकने के लिये कारगर कानूनी प्रयास।
7. जल प्रबंधन तथा उपयोग की कुशलता के आधार पर उद्योगों में रेटिंग व्यवस्था-रेटिंग के आधार पर आर्थिक लाभ तथा दंड दोनों का प्रावधान हो।
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