भारतीय गणतंत्र की प्रथम संसद के उद्घाटन पर हम आशा कर रहे थे कि राष्ट्रपति के अभिभाषण में लोकहित के लिए किसी नई नीति का प्रतिपादन होगा और जनता पर आजकल जो भारी बोझ है, उसे कम करने के लिए कोई ठोस कदम प्रस्तावित किया जाएगा। किंतु हमें बहुत निराशा हुई है। भाषण में देश की उन समस्याओं को सुलझाने की, जो हमारे सम्मुख मुंह बाए खड़ी हैं, उत्कट भावना की झलक नहीं मिली।देश के सम्मुख आज अनाज की प्रबल समस्या है। अनाज की कमी, ऊंचे मूल्य, दुर्भिक्ष की स्थिति देश के कई भागों में व्याप्त है। इस समस्या पर उन्होंने प्रकाश डाला है, किंतु किस भाषा में? 'दुर्भिक्ष' शब्द का बिना प्रयोग किए रायलसीमा का जिक्र किया गया है। दक्षिणी भारत, बिहार, मध्य प्रदेश, हिसार और सुंदरबन के भागों को तो छोड़ ही दिया गया है। इससे क्या वास्तविक स्थिति का चित्रण हो सकता है?
कभी-कभी हमें आश्चर्य होने लगता है कि सरकार को पूरी स्थिति का ज्ञान है भी या नहीं। भाषण में यह नहीं बताया गया है कि खाद्य संकट का सामना करने के लिए क्या ठोस प्रयत्न किए जा रहे हैं। हमसे कहा जाता है कि नैसर्गिक विपत्तियों के कारण यह मुसीबत आई है। कितने ही खाद्यमंत्री आए और चले गए, किंतु अभी तक इस समस्या का कारण वही का वही बना हुआ है- नैसर्गिक विपत्तियां। क्या कोई आधुनिक सरकार सदैव ही इस प्रकार के बहाने बनाती रह सकती है। सरकार को 'शब्दों द्वारा नहीं, ठोस कार्य द्वारा इसका समाधान करना चाहिए। जमींदारी उन्मूलन के संबंध में सरकार की ढुलमुल नीति के कारण अनेक किसान भूमि से बेदखल कर दिए गए हैं और इससे एक करोड़ एकड़ भूमि निकल गई है, जिसका अर्थ होता है 20 लाख टन अनाज प्रतिवर्ष की हानि। 'अधिक अन्न उपजाओ' आंदोलन की ही बात लीजिए। कागजों पर तो बहुत अन्न उपजा लिया गया है, किंतु वास्तव में कुछ हुआ नहीं है। हमने करोड़ों रुपये इसमें खर्च किए हैं। सिंचाई का मामला लीजिए। बिना सिंचाई के खेती में सुधार नहीं हो सकता। सरकार ने नदी घाटी परियोजनाओं को हाथ में लिखा है पहले तो ये योजनाएं छह से 10 वर्ष की अवधि में पूरी होंगी, फिर इनसे छह करोड़ एकड़ भूमि खेती में लाई जा सकेगी, जिससे 30 लाख टन अनाज उत्पादित हो सकेगा। किंतु इस बीच हमारी आबादी भी तो बढ़ जाएगी और खाद्य की मांग ज्यों की त्यों बनी रहेगी।
सिंचाई के लिए आवश्यक है कि छोटी-छोटी सिंचाई परियोजनाएं चालू की जाएं। विभिन्न राज्यों में लोग स्वेच्छापूर्वक श्रम करके नहरें, तालाब और कुएं बना लें। किंतु इसके लिए उनमें उत्साह और जोश भरने की आवश्यकता है और यह जोश भुखमरी की हालत में उत्पन्न नहीं किया जा सकता। इसलिए सबसे पहले जरूरी है कि भूमि का पुनः विभाजन किया जाए। किंतु कांग्रेस सरकार ने पांच वर्षों में कुछ नहीं किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार समस्या की गंभीरता के प्रति सचेत नहीं है। हम चाहते हैं कि व्यावहारिक व्यक्ति हमारे अर्थतंत्र और देश निर्माण का भार ग्रहण करें। लोग स्वेच्छा से कार्य करने को तैयार हैं। यदि सरकार ने ठीक से काम किया होता, तो हम 40 लाख टन और अनाज उत्पन्न कर सकते थे। इसलिए यह प्रकृति का नहीं मनुष्य का बनाया हुआ अकाल है।
'स्वतंत्रता सेनानी व सांसद के 19 मई, 1952 को संसद में दिए गए भाषण के संपादित अंश ।'
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