बारिश जोरों से हो रही थी। हम डॉ. रघुवीर चंद का इंतजार कर रहे थे। वे भूटान के कांगलुंग कॉलेज में अध्यापक हैं। इससे पहले वे कुमाऊं विश्वविद्यालय में अध्यापक थे। भूटान में कोलंबो प्लान के अंतर्गत अध्यापक हैं। इससे पहले द.ग्रा.स्व. मंडल और पहाड़ द्वारा जो यात्राएं की गई थी उनमें वे सक्रिय रहे हैं तथा पहाड़ के सक्रिय सदस्य हैं। डॉ. चंद का अगले दिन टेलीफोन आया था कि वे कलकत्ता में हैं। यहां पर समुद्री तूफान से हवाई सेवाएं स्थगित हो गई हैं। इसलिए हम तब से ही सोच रहे थे कि यदि डॉ. चंद समय से नहीं पहुंच पाए तो हमारा प्रस्थान कब होगा? 25 मई 2009 को दिन के 1 बजे जब हम गुवाहाटी हवाई अड्डे से बाहर निकले तो जोर की बारिश हो रही थी। यद्यपि बंगाल की खाड़ी में हवा के दबाव के बारे में तो समाचार पत्रों में पढ़ा था। किंतु हमारे मन में इस बात का जरा सा भी अहसास नहीं था कि इतनी दूर गुवाहाटी में भी मूसलाधार बारिश हो रही होगी। टैक्सी ड्राइवर ने नेम प्लेट हाथ में रखी थी पर उसमें मेरा नाम गलत लिखा था। पर उसके नीचे आई.आई.टी. लिखा होने से मैंने ड्राइवर से पूछा कि क्या यह टैक्सी प्रोफेसर काकोटी जी ने भेजी है? मालिक से बात करने के बाद वह हमें टैक्सी में बिठाने में सहमत हो गया। हवाई अड्डे से आई.आई.टी. लगभग 25 किलोमीटर दूर है। बाहर बारिश की तेज बौछारों के बीच से हम आगे बढ़ते जा रहे थे। ब्रह्मपुत्र के दर्शन हुए। नेहरू ब्रिज से ब्रह्मपुत्र के विशाल पाट पर हमारी निगाहें एकटक लगी रही। ब्रह्मपुत्र अपनी लंबी यात्रा के बाद थकने के बजाय और तेजी और प्रचंडता के साथ आगे बहती जा रही थी।
इस विशाल पुल को पार कर लगभग दो सौ मीटर के बाद हम दायीं और आई.आई.टी. के रास्ते पर चल पड़े। पहाड़ियों, तालाबों एवं हरियाली से भरा हुआ आई.आई.टी. का विशाल कैंपस बहुत ही सुंदर है। गेस्ट हाउस भी खुला हुआ है। उसके सामने जो पार्क है वह वृक्षों से आच्छादित है। अग्रभाग में विभिन्न प्रजातियों के वृक्ष पुष्पों से आच्छादित हैं।
आई.आई.टी. गेस्ट हाउस में हमारा इंतजार डॉ. अनिल गोस्वामी कर रहे थे। डॉ. गोस्वामी पहले एक कॉलेज के प्राचार्य रहे हैं। पिछले वर्षों से आई.आई.टी. गुवाहाटी में ग्रामीण प्रौद्योगिकी कार्य समूह के अतिरिक्त समन्वयक हैं। वे बहुत सज्जन एवं विद्वान भी हैं।
दोपहर के बाद वे हमें आई.आई.टी के कैंपस में ले गए। जहां ग्रामीण प्रौद्योगिकी से संबंधित विभिन्न मॉडल बने हुए थे। इनमें कई प्रयोग उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के लिए बहुत उपयोगी हैं। कुछ मॉडल तो अब गाँवों में भी पहुंच गए।
26 मई को प्रातः काल हम कामाख्या देवी के मंदिर को गए। वहां पर गोस्वामी जी ने मंदिर समिति को हमारे आने की जानकारी दे दी थी। साथ ही मंदिर के एक पुरोहित श्री काकीनाथ शर्मा पंडा, जो पिछली बार मिले थे, बदरीनाथ की यात्रा कर चुके थे। वो भी साथ हो लिए। उनके होने से दर्शन तत्काल हो गए। शर्मा जी के आग्रह पर उनके घर में नाश्ता करने के बाद हम ब्रह्मपुत्र के किनारे कुछ देर रुके। फिर आई.आई.टी. पहुंचे।
बारिश जोरों से हो रही थी। हम डॉ. रघुवीर चंद का इंतजार कर रहे थे। वे भूटान के कांगलुंग कॉलेज में अध्यापक हैं। इससे पहले वे कुमाऊं विश्वविद्यालय में अध्यापक थे। भूटान में कोलंबो प्लान के अंतर्गत अध्यापक हैं। इससे पहले द.ग्रा.स्व. मंडल और पहाड़ द्वारा जो यात्राएं की गई थी उनमें वे सक्रिय रहे हैं तथा पहाड़ के सक्रिय सदस्य हैं। डॉ. चंद का अगले दिन टेलीफोन आया था कि वे कलकत्ता में हैं। यहां पर समुद्री तूफान से हवाई सेवाएं स्थगित हो गई हैं। इसलिए हम तब से ही सोच रहे थे कि यदि डॉ. चंद समय से नहीं पहुंच पाए तो हमारा प्रस्थान कब होगा?
यात्रा में अभी तक हम चार लोग थे। प्रोफेसर शेखर पाठक, प्रो. उमा भट्ट तथा डॉ. ललित पंत ने यात्रा आयोजन किया तथा इस यात्रा में मुझे भी सम्मिलित किया। अंत में 3.30 बजे डॉ. रघुबीर चंद आई.आई.टी. गेस्ट हाउस में पहुंच गए। हम सबके चेहरों पर प्रसन्नता दौड़ गई। डॉ. अनिल गोस्वामी जी ने पहले ही बता दिया था कि यहां पर आप हमारे मेहमान हैं तथा उन्होंने जानकारी दी कि प्रोफेसर काकोटी ने भूटान की सीमा तक गाड़ी का प्रबंध करने को कहा है।
इस प्रकार हमने गुवाहाटी से चार बजे सायं प्रस्थान किया। बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। आखिर रंगिया तक पहुंचते-पहुंचते बारिश थम गई। 6.30 शाम को हम कुमारीकट्टा पहुंचे, जहां हम प्रख्यात गांधीवादी कार्यकर्ता श्री रवींद्रनाथ उपाध्याय से मिले। रवींद्र भाई पिछले पचास वर्षों से इस क्षेत्र में रचनात्मक कार्य द्वारा सेवा में लगे हैं। वे खादी एवं ग्रामोद्योगों के द्वारा लोगों को रोज़गार एवं स्वावलंबी बनाने में प्रयत्नशील रहे हैं। बोडो आंदोलन के दौरान रवींद्र भाई पर हमला हुआ था। हमलावरों को लगा कि वे मर गए हैं, इसलिए उन्होंने उसके बाद उन्हें छोड़ दिया था। 1960 में चीन के आक्रमण के बाद तिब्बत से मिले हुए इलाकों में सेवा के लिए शांति केंद्रों की स्थापना की गई थीं। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर श्री जयप्रकाश नारायण जी की अध्यक्षता में सीमा क्षेत्र समन्वय समिति बनी थी। इसमें राष्ट्रीय स्तर की गांधीवादी संस्थाओं के प्रतिनिधि शामिल थे। तब से एक शांति सैनिक के नाते वे इस क्षेत्र की सेवा में रत हैं। वर्तमान में लगभग अठासी वर्ष की उम्र में भी काफी सक्रिय हैं। राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष के साथ ही खादी कमीशन की प्रयोग समिति में भी हैं। उनके साथ यहां पर हमारे साथियों को मिलकर बहुत अच्छा लगा। उनके साथ आधा घंटे तक चर्चा की। उसके बाद सात बजे हमने वहां से प्रस्थान किया। रास्ते में जगह-जगह टिमटिमाते बिजली के बल्बों के बीच में मकान और झोपड़ियां दिखाई दे रही थी। ज्यादा भीड़-भाड़ भी नहीं थी। कुछ ही मिनटों में हम एक बड़े से द्वार के सामने पहुंचे। ड़ा. रघुबीर चंद द्वार से सटे एक कमरे में भूटान पुलिस से प्रवेश की अस्थायी आज्ञा लेने चले गए।
हमारे सामने भूटान देश का द्वार था। परंपरागत ढंग से सजे इस द्वार को देख कर मैं तो चौधियां गया। यहां पर एक दर्जन के करीब भूटान के जवान निगरानी रखे थे, जिनमें कुछ महिलाएं भी थी। कुछ ही देर बाद चंद जी हम चारों को अंदर ले गए जहां चारों का हाथ में रखा सामान चेक कर जाने दिया गया। अब हम भूटान के अंदर सौन्दुप जोनखर में थे। रात के ठौर के लिए एक साफ-सुथरा होटल मिल गया था, जिसकी मालकिन तो भूटानी महिला थी किंतु यहां पर कर्मचारी भारत के असम राज्य के थे।
27 मई। सुबह बाहर झांका तो हमारे होटल के सामने सड़क के दोनों तरफ के मकान एक जैसे तिमंजिले दिखे। सभी पर एक जैसा पेंट पुता था। इनमें से अधिकांश होटल लग रहे थे। यह भी देखा कि इनका संचालन महिलाएं कर रही थीं।
सुबह हम जल्दी तैयार हो गए। अपने-अपने पास पोर्टों को लेकर इमिग्रेशन कर्यालय में गए। वहां पर उसके निदेशक सांगे तेन जिंग मिले। उन्होंने बताया कि वे देहरादून आई.एम.ए. से प्रशिक्षित हैं। उनसे भूटान के साहित्य और संस्कृति पर चर्चा हुई। ऑफ़िस में भूटान के राजाओं के चित्र तथा भगवान बुद्ध की मूर्ति के आगे दीपक जल रहे थे। उन्होंने आधे घंटे के अंदर ही हमें भूटान यात्रा का परमिट दे दिया तथा कहां-कहां परमिट चेक होगा, इसकी जानकारी भी दे थी।
सौन्दुप जोनखर को संक्षिप्त में एस.जे. कहते हैं। भूटान में प्रवेश करते ही यहां की अलग पहचान देखने को मिलती है। मकानों की वास्तुकला हो या उन पर पेंटिंग एवं नक्कासी बहुत अच्छे तरह से सजाए गए हैं। कहीं कोई लापरवाही नहीं। मकान छोटा हो या बड़ा, जौंग हो या मंदिर सब जगह पेंटिंग से सजावट किया हुआ मिल जाएगा। इसी प्रकार पहनावा भी अपना है। उसका सभी पालन करते हैं। राजा हो या साधारण नागरिक सहज रूप से अपने पहनावे पर गौरव महसूस करते हैं। स्कूल या दफ्तर सभी जगह एकरूपता है। इस सबको बचाए रखना मुझे तो बहुत बड़ी बात लगी। एस.जे. से जैसे-जैसे हम आगे बढ़े सब जगह यही देखने को मिला। यदि कोई इसका पालन नहीं कर रहा है तो पूछने पर पता चला कि वह मूलतः भूटानी नहीं है।
टैक्सी आगे बढ़ती गई। रास्ते में घने जंगल, गहरी-घाटियां एवं उनके बीचों-बीच पतली सी रेखा जैसी नदियां दिखाई दे रही थी। यहां पर आठ हजार फुट के ऊंचाई से सड़क गुजरती है। इस ऊंचाई से प्रकृति का अद्भुत नज़ारा दिखाई दे रहा था। आगे हम देवथांग होते हुए रिर्सबू पहुंचे। वहां पर सुस्ताए थे कि ड्राइवर ने बताया टायर पंचर हो गया। टायर को उठाने के लिए उसके पास जैक नहीं था। क्या होगा? इसी उधेड़ बुन में थे कि एक कार आई। उसके ड्राइवर ने टायर बदलने में मदद की। इस प्रकार वहां पर हमें डेढ़ घंटे तक रुकना पड़ा। एस.जे. से हमने एक बजे प्रस्थान किया। हमें बताया गया कि आगे एक-दो स्थानों पर सड़क पर कार्य चल रहा है। वहां पर दो घंटे रुकना पड़ेगा। लेकिन उस स्थान के पास पहुंचने पर पता चला कि आज कार्य रोक दिया गया है। इसलिए हमारी टैक्सी आगे बढ़ती गई। रास्ते में घने जंगल, गहरी-घाटियां एवं उनके बीचों-बीच पतली सी रेखा जैसी नदियां दिखाई दे रही थी। यहां पर आठ हजार फुट के ऊंचाई से सड़क गुजरती है। इस ऊंचाई से प्रकृति का अद्भुत नज़ारा दिखाई दे रहा था। आगे हम देवथांग होते हुए रिर्सबू पहुंचे। वहां पर सुस्ताए थे कि ड्राइवर ने बताया टायर पंचर हो गया। टायर को उठाने के लिए उसके पास जैक नहीं था। क्या होगा? इसी उधेड़ बुन में थे कि एक कार आई। उसके ड्राइवर ने टायर बदलने में मदद की। इस प्रकार वहां पर हमें डेढ़ घंटे तक रुकना पड़ा। अब तो स्टेपनी भी नहीं थी। रास्ते भर पंचर ठीक करने वाला भी नहीं था। इसलिए ऊपर वाले के भरोसे से आगे बढ़ रहे थे।
सामने की पहाड़ियों पर झूमखेती का सा दृश्य दिखाई दे रहा था। सूर्य ढलता जा रहा था। स्टेपनी के कारण हमारी धड़कने बढ़ती जा रही थी। ड्राइवर तेजी से टैक्सी को भगा रहा था। उसे वापस लौटना था। अंधेरा हो चला था। सड़क पर वाहनों का चलना बंद हो गया था। आगे हमें दूर रोशनियां जगमगाती दिखी। डॉ. चंद ने बताया कि यही कांगलुंग कॉलेज का कैंपस है। इस प्रकार 158 किलोमीटर की यात्रा के बाद हम 9 बजे डॉ. चंद के आवास के सामने खड़े थे। कॉलेज के गेस्ट हाउस मे ठहराने का प्रबंध था पर हमने निर्णय लिया कि डॉ. चंद के साथ ठहरेंगे। सभी ने भोजन बनाने में सहयोग किया, लेकिन मुख्य ज़िम्मेदारी उमा जी ने संभाली। इस प्रकार पहले दिन की यात्रा के बाद हमने रात 12 बजे विश्राम किया।
29 मई सुबह कमरे से बाहर आया तो आस-पास एवं दूर तक पहाड़ों पर बादल पसरे थे। बीच-बीच में बूंदाबांदी हो रही थी। 11 बजे के लगभग रघुबीर जी के साथ कॉलेज कैंपस गए। पहले चौराहे पर बहुत बड़ा मणीचक्र स्थापित किया गया है। आते जाते हर कोई उसे घुमाता रहता है। मणी के दाहिने ओर से जाना पड़ता है।
बताया गया कि शरब्से कॉलेज भूटान का सबसे पुराना कॉलेज है। अब तो यह कॉलेज रायल यूनिवर्सिटी ऑफ भूटान का कैंपस है। कैंपस साफ-सुथरा तथा एक विशाल क्षेत्र में फैला है। छात्रों और अध्यापकों के लिए पूरी आवासीय व्यवस्था है। 350 छात्र-छात्राएं हाईस्कूल से लेकर स्नातक तक पढ़ाई करते हैं। 98 अध्यापक हैं। प्रिंसिपल के बजाए निदेशक मुखिया हैं।
31 अध्यापक भारतीय हैं। इनमें से कुछ तो कोलंबों प्लान के अंतर्गत आए हैं। बाकी अस्थायी नियुक्त पर सीधे आए हैं। कैंपस पेड़ों से आच्छादित हैं। इसलिए उसकी शोभा दूर से दिखाई देती है। जितने भवन हैं बाहर से पेंटिंग करने के कारण बहुत सुंदर लगते हैं।
भूटानी लड़के-लड़कियां एवं अध्यापक अपने राष्ट्रीय पहनावे में रहते हैं। पुरुषों के लिए धौं तथा स्त्रियां कीरा पहनती हैं। बताया गया कि वास्तुकला के अंतर्गत 13 प्रकार की कलाएं हैं। पेंटिंग-कारपेंटरी आदि सभी वास्तु से जुड़ी हैं। विद्यालय में धार्मिक शिक्षा का अलग विभाग है। जिसे लामा लोग ही पढ़ाते हैं। कॉलेज में आधा घंटे तक प्रार्थना होती है। जिसमें सभी छात्र एवं अध्यापक उपस्थित होते हैं। हर बुधवार को 2.30 बजे से 4.30 तक मस्तिष्क मिलन होता है।
कॉलेज में हम निदेशक श्री सिंगे नामगेल से मिले। उनके कमरे में भूटान के पांचों राजाओं के चित्र हैं। उन्होंने बताया कि कॉलेज के सभी भवन भूटान के उत्कृष्ट वास्तु कला के आधार पर निर्मित किए गए हैं। यहां तक कि दरवाज़े, खिड़कियों के परदे कलात्मक ढंग से लगाए हैं।
कॉलेज के बीच में बौद्ध पताका को भी स्थापित किया गया है। निदेशक के अलावा हमने भूटानी एवं भारतीय अध्यापकों से भेंट की। इस प्रकार आज के दिन हमने कांगलुंग कॉलेज को देखने एवं समझने में ही बिताया।
29 मई। 9.30 बजे कॉलेज में गए। वहां पर कॉलेज के छात्रों एवं अध्यापकों से हिमालय के पर्यावरण के बारे में वार्ता हुईं। मेरी हिंदी वार्ता का अंग्रेजी में अनुवाद डॉ. शेखर पाठक ने किया। पूरा हाल भरा हुआ था। उसके बाद हिमालय एवं चिपको आंदोलन पर स्लाइड दिखाई। डॉ. शेखर ने तिब्बत पर स्लाइड दिखाई। लोगों ने इसे पसंद किया। लड़कों ने प्रश्न भी पूछे। दोपहर बाद मुख्य वन अधिकारी हमें अपने कार्य को दिखाने ले गया। उन्होंने वन विभाग द्वारा किया गया वृक्षारोपण का कार्य दिखाया। यह वनीकरण धूमी प्रजाति का था। इसी प्रकार पहाड़ी के दूसरी ओर भी इसी प्रजाति का वृक्षारोपण किया गया था। यद्यपि पेड़ खूब बड़े हो गए हैं। उनका जीवित प्रतिशत भी अच्छा दिख रहा था फिर भी बाहर से आयातित प्रजाति के पेड़ ऐसे लग रहे थे जैसे इन्हें यहां थोपा गया हो। इसके आस-पास प्राकृतिक जंगल और प्राकृतिक उत्पादन अलग से दिख रहा था। भूटान वनस्पतियों के मामले में समृद्ध हैं फिर इस प्रकार की प्रजाति क्यों? इसका जवाब नहीं मिला। रास्ते में मक्का एवं आलू की फसल बहुतायत में देखी। कहीं धान भी बोया गया है। दिन-भर बादल आते रहे, बरसे भी और हटते भी रहे। कांगलुंग की ऊंची चोटी से दूर-दूर तक पहाड़ों का अद्भूत दृश्य दिखाई दे रहा था। खेतों में समूह के रूप में महिलाओं की डार की डार दिखाई दे रही थी।
30 मई को जल्दी तैयार होकर हम तासीगांग गए। कांगलुंग से यह स्थान 22 किमी. नीचे है। यह जिला मुख्यालय है। यहां पर जोंग (किला) एक टीले पर है। बाजार भी है और कुछ होटल भी हैं। आस-पास के गांव वालों का बाजार भी है तथा गांव के लोग अपने उत्पाद को लेकर बेचते भी देखे गए। मुख्य रूप से सब्जी, जिसमें वनों से एकत्रित सब्जी दाल-मिर्च तथा सुखाई हुई मछलियाँ भी शामिल हैं।
तासीगांग में हमें मुख्य वनाधिकारी भी मिल गए थे। वे हमारे साथ आगे तक आए। हम अब गमरी चू के किनारे-किनारे आगे बढ़े। गमरी नदी में भी बाढ़ के लक्षण साफ दिख रहे थे। नदी के दोनों पाटों पर सिल्ट एवं बड़े-बड़े पत्थर मीलों तक फैले हुए दिखे। बताया गया कि सन् 2004 में प्रलंयकारी बाढ़ आई। इसकी सहायक कोरगढ़ी चू में भी बाढ़ आई। बहुत बड़ा भूस्खलन आया। उसके कारण नदी रूक गई और अस्थायी लेक बन गई। उसके टूटने से भयंकर तबाही पूरी घाटी में हुई। नदी के आस-पास के खेत एवं मकान नष्ट हुए। रास्ते में वोकेशनल इंस्टीट्यूट था। उसके भी दो मकान बह गए थे। इसके बाद ऊंचाई पर रंगजुंग मठ मिला। इसकी छवि देखते ही बनती हैं। इसके पास स्तूपों की भी कतार है। साफ-सफाई और पेंटिंग से मठ भव्य दिखाई दे रहा था।
यहां से हम फिर पहाड़ी पर चढ़ते गए। कई घूमों को पार कर रादी रेंज हेड-क्वाटर पहुंचे। इसके गेट के पास लिखा था कि यहां बिना परंपरागत पोशाक में प्रवेश न करें। हम रुक गए तो हमारे साथ में चल रहे वन विभाग के कार्यकर्ता ने बताया कि यह बंदिश आप लोगों पर नहीं है। इसके साथ में एक व्यक्ति की बहुत बड़ी नर्सरी है। जिसमें अनेकों प्रजाति के पौधे हैं। इसमें सभी स्थानीय प्रजाति के पौधे हैं। वन विभाग की ओर से इन्हें प्रोत्साहन मिलता रहता है। इस इलाके में कई प्रजाति के पौधे होते हैं। साथ ही, आलू भी। फलों के पेड़ भी बहुतयात में हैं। मक्का के बीजों को चपटा करने की एक मशीन भी लगी है। उसे चपटा कर पैकेटों में बंद कर बेचा जाता है।
रेंज कार्यालय में पता चला कि स्थानीय लोगों को साल भर जलाने के लिए एक परिवार को एक ट्रक लकड़ी दी जाती है। इसी प्रकार मकान बनाने के लिए 80 कड़ी तथा 8 पेड़ जंगल में दिए जाते हैं। जिससे मकान बना सके। मकान की मरम्मत के लिए भी 3 से लेकर पांच तक पेड़ दिए जाते हैं। मकानों पर अधिकांश सामग्री लकड़ी से बनी होती है।
रादी रेंज कार्यालय में भोजन करने के बाद लगभग 20 किलोमीटर आगे तक गए। यहां तक मोटर सड़क है। यहां पर छोटा सा बाजार है। यहां से आगे पैदल का रास्ता जाता है। यह बाजार मुख्य रूप से ब्रोक्पा (घुमंतू पशुचारकों) का है। ये बुग्यालों में ऊंचाई वाले स्थानों में रहते हैं। इनके मुख्य पशु भेड़, याक और घोड़े हैं। यहां से इनके आवास तक में तीन दिन में पहुंचा जा सकता है। इनका पहनावा अलग है और पहचान भी अलग है। डॉ. रघुवीर चंद ने इन पर शोध पूर्वक एक पुस्तक लिखी है। जिसे पहाड़ ने प्रकाशित किया है।
यहां पर कुछ ब्रोक्पा लोग सामान लेने आए थे। उनसे संपर्क करने के बाद हम वापस शाम तक कांगलुंग लौटे।
आगे हम काफी ऊंचाई वाले नायूजिंग के ऊंचे पहाड़ी इलाके में आए। यहां रास्ते में हैलोक आदि के विशाल वृक्ष दिखाई दिए। ऊपर चट्टानी इलाक़ा है। दो बहुत बड़े-बड़े जलप्रपात भी रास्ते में मिले। यहां प्रकृति के अपने साम्राज्य को समझने का प्रयास किया। सूक्ष्म से लेकर बड़ी वनस्पति ने इस धरती को अपने आगोश में ले लिया है, जहां पर जिसको अवसर मिला वहीं पर उसने अपने को फैला दिया। कहीं कोई टकराहट नहीं। सभी में आगे बढ़ने की होड़ लगी है। फरन का उपनिवेश भी देखने को मिलता है। कांगलुंग से प्रस्थान करने से पूर्व महाविद्यालय के बाहर स्थित बौद्ध मठ में दर्शन किए। उस समय प्रार्थना चल रही थी। भिक्षुकों से हॉल भरा था। छात्र भी उसमें शरीक थे। 7 बजे प्रस्थान किया। मांसीगौंग के मोड़ से हमारा रास्ता अलग हो गया था। यहां पर से वनाधिकारी ने फॉरेस्टर को गाईड के रूप में हमारे साथ भेज दिया था। कई घुमावदार-मोड़ों को पार करते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। शेखर विदाई गीत गा रहे थे। हम भी उसे दुहरा रहे थे। रघुबीर चंद को विदा होना था। चार दिन से उनका साथ था। छाजम में परमिट देखे गए। डॉ. रघुबीर जांच वाले अधिकारी को जानते हैं इसलिए असुविधा नहीं हुई। रघुवीर जी को विदा करके हम वांग चू नदी को पार करते हुए आगे बढ़े। वांग चू में सिल्ट बहने से उसका रूप बदला था। नदी काफी वेग में थी। हम तीस किलोमीटर तक वांग चू के किनारे चले बाद में दाई ओर से शेरी चू के किनारे-किनारे बढ़े। शेरी चू का पानी साफ था। शेरी चू को पार करने के बाद चढ़ाई थी। चीड़ का जंगल था। बीच-बीच में चौड़ी पत्ती के पेड़ भी थे। रास्ते में जैट्रोफा के प्राकृतिक रूप से उत्पन्न पौध भी देखने को मिली।
हम अब 5 हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर थे। जंगल के बीच में एक रेस्तारां था। उसमें गए। उसके अंदर की बनावट देखने लायक थी। मेहमानों के बैठने को पारंपरिक तरीके से आसन बिछे थे। साफ सुथरा था। सारा काम महिलाओं के ज़िम्मे था। यहां पर कुछ स्थानीय सामग्री बिक्री के लिए थी। पर काफी मंहगी थी। पत्थर एवं लकड़ी का सजावटी सामान भी उपलब्ध था। बाहर से फूलों के गमलों से सजाया गया था। रेस्तरां का मालिक सफाई पर विशेष ध्यान दे रहा था। हमारे आने से पहले एक दो वाहन यहां पर रुके थे। उन्होंने सड़क के पास पैकेट आदि फेंक रखे थे, जिसे मालिक ने उठा कर कूड़ेदान में डाल दिया।
फिर चढ़ाई ओर दिखी। अनेकों मोड़ों को पार करते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। इधर झूम खेती भी होती है। आबादी बिखरी हुई है। लोगों के मकान काफी ऊंचे और दुमंजिले हैं। चौड़ी पत्ती के जंगलों का समूह सा है। हमने एक पास पार किया। उसके बाद मोगरा जिला मुख्यालय मिला। भोजन चंग खोला में किया। रास्ते में गांव वाले समूह में मक्का की गोड़ाई निराई करते हुए दिखे। लगता है कि यहां बारी-बारी से पड़याल ही रही होगी। यह दृश्य कई गाँवों में देखने को मिला। कई जगह गांव बिखरे हुए खेतों के बीच-बीच में मकान बनाए गए हैं। इधर मकई और आलू की फसल ज्यादा बोई गई है। खेतों से सटे हुए जंगल हैं। लगता है कि इस इलाके में पहले झूम खेती होती होगी। बहुत कम इलाके में अब झूम के लक्षण दिखाई देते हैं। मकई की फसल कई जगह पकने की स्थिति में है। गांव के आस-पास तेमूला के पेड़ हैं, जिनका लौपिंग किया गया है। यह गाँवों के आस-पास हर कहीं दिखाई दे जाता है। लोगों ने बाउंड्री एवं खेतों की बाड़ भी लकड़ी से ही बनाई है।
आगे हम काफी ऊंचाई वाले नायूजिंग के ऊंचे पहाड़ी इलाके में आए। यहां रास्ते में हैलोक आदि के विशाल वृक्ष दिखाई दिए। ऊपर चट्टानी इलाक़ा है। दो बहुत बड़े-बड़े जलप्रपात भी रास्ते में मिले। यहां प्रकृति के अपने साम्राज्य को समझने का प्रयास किया। सूक्ष्म से लेकर बड़ी वनस्पति ने इस धरती को अपने आगोश में ले लिया है, जहां पर जिसको अवसर मिला वहीं पर उसने अपने को फैला दिया। कहीं कोई टकराहट नहीं। सभी में आगे बढ़ने की होड़ लगी है। फरन का उपनिवेश भी देखने को मिलता है। दूर-दूर जहां तक नजर जा रही है हरे नीले पहाड़ दिखाई दे रहे हैं। बीच में बादल अवश्य इनसे टकराते हुए ऊपर की ओर जा रहे हैं।
रास्ते में सफेद बुरांश, जिसे हम सेमरू कहते हैं और यहां इसे ऐतो-मैता कहते हैं, देखने को मिला। आगे सिंगोर दिखा। एक लंबे चौड़े बुग्याल के बीचों-बीच मकान और खेत फैले हैं, जहां पशु चराई कर रहे हैं। ढालदार यह बुग्याल देखते ही बनता है। इसके चारों ओर के ऊपरी ढाल में घने जंगल फैले हैं। जो मुख्य रूप से फर प्रजाति के हैं। सिंगोर के बुग्याल की ढलान में छोटे लाल गुलाबी रंग के बुरांश के फूल दिखे। आगे सड़क के आजू-बाजू फर की वृक्षावली, लाईन पर खड़े ऐसा लगता है। जैसे ये किसी का इंतजार कर रहे हैं। इसके आस-पास सफेद और गुलाबी बुराश के पुष्प अपने होने का अहसास करा रहे हैं। हम ऊपर चढ़ते जा रहे हैं। अब जहां भी पानी का नाला मिला वहीं पिछले 26-27 मई को हुई अतिवृष्टि के कारण आया मलबा एवं बड़े-बड़े बहकर आए पेड़ हैं। सड़क के नुकसान के चिह्न दिखाई दे रहे हैं।
आगे 12400 फीट की ऊंचाई पर स्थित थ्रिम सिंगला (पास) पार किया। इसके आस-पास भी विशाल तरू खड़े हैं। ऊपर की तरफ सेमरू फैला है। अन्य पासों की तरह ही इसे भी पहाड़ी के चारों तरफ से पताकाओं से सजा रखा है। यह यहां की परंपरा है। छोटे मंदिर भी मोटर मार्ग में बने हैं।
हम नेशनल पार्क के इलाके से आगे बढ़ रहे थे। बुरांश के फूलों का भी पार्क दूर-दूर तक फैला हुआ है। ऐसा लग रहा था कि धरती का श्रृंगार करने के लिए कोई पीछे नहीं रहना चाहता है। सफेद रंग-बिरंगे फूल और पत्तियां अब अपने यौवन के आखिरी दौर में बढ़ रहे हैं।
आगे ब्लू-पाईन के जंगलों के बीच से हमारी गाड़ी सरपट आगे बढ़ रही थी। विशाल सुरई व ब्लू-पाईन के वृक्ष जिन पर झूला झूल रहा था, अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव में हैं। उनकी दो पीढ़ी भी साथ-साथ बढ़ रही है। कहीं-कहीं हैलोक और फर के पेड़ भी दिखाई दे रहे हैं।
गेजम में सड़क के ऊपर नीचे पेड़ों के ठूठ दूर-दूर तक फैले हैं। बताया गया कि यह सब मोटर मार्ग के निर्माण के समय काटे गए थे। इतनी बड़ी मात्रा में सड़क के लिए पेड़ों के काटे जाने का कोई औचित्य नहीं लगता है। ये ठूठ अपने ऊपर हुई त्रासदी की कहानी बयां कर रहे हैं। गेजम में हमने सूजा (नमकीन चाय) पी। इस चाय में घी को मथा जाता है। यह काफी पौष्टिक होती है। यहां पर एक ड्रम में मां-बेटी गर्म पानी में खुले में स्नान कर रहीं थीं। बताया गया कि इस पानी में पत्थर गर्म करके रखे जाते हैं, जिससे देर तक पानी गर्म रहता है। आखिरी में शाम के आठ बजे हम झिलमिल प्रकाश के बीच बुमथांग पहुंचे, जहां हमारा इंतजार बांगचुक पर्यावरण संरक्षण संस्थान के अधिकारी कर रहे थे।
यहां हम एक स्थानीय होटल में पहुंचे, जिसमें स्थानीय कला एवं पेटिंग का मिश्रण था। कमरा पूरी तरह से ब्लू-पाईन की लकड़ी से निर्मित था। जिसकी हल्की गंध बयान कर रही थी कि यह सब पेड़ों की बलि करके ही निर्मित किया गया है। कमरे के अंदर बुखारी लगी थी। जिसे जलाकर कमरों को गर्म किया जाता है। यहां भी पेड़ का ही बलिदान शामिल है।
इस होटल का नाम कैला-तयांग है। होटल का मालिक नेपाली मूल का है। पता चला कि 1967 में यहां आया। एक भूटानी महिला से शादी की और यहीं बस गया। यह होटल बुमथांग का सबसे अच्छा होटल माना जाता है। रात्रि का भोजन पर्यावरण संस्थान के निदेशक की ओर से था। हमारे लिए शाकाहारी भोजन का प्रबंध किया गया था।
सुबह बाहर का नज़ारा अद्भुत था। बुमथांग के चारों ओर जंगलों का साम्राज्य था। दूर-दूर तक नीले-गहरे रंग का समुद्र-सा फैला हुआ है। बीचों-बीच चामखरस्यू (नदी) बह रही है। नदी के आर-पार मठों की भरमार है। एक ओर दूर-दूर तक फैली बस्ती है, तो दूसरी ओर होटलों की भरमार है। होटलों में सभी प्रकार के गोश्त पकते हैं। करछी अलग-अलग रहती है। यह सुनकर संतोष हुआ कि दुकानों में ज्यां (नमकीन) व सामान्य चाय भी मिलती है।
यहां पर उग्येन वांगचुक पर्यावरण संरक्षण संस्थान है। यह संस्थान इसी दशक में स्थापित हुआ। इसमें रेंज अधिकारियों को प्रशिक्षण के साथ ही सार्टिफिकेट कोर्स भी चलता है। रेंजर प्रशिक्षण में चार महिलाएं भी हैं। 12वीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इस कोर्स में शामिल हो जाते हैं। यह संस्थान एक कोठीनुमा मकान में चल रहा है। अन्य मकानों की तरह यह भी सुंदर स्थान पर है। यहां हम लोगों ने चिपको आंदोलन एवं हिमालय की पारिस्थितिकी से संबंधित पारदर्शियां दिखाई। शेखर जी ने तिब्बत यात्रा की पारदर्शियां दिखाई जो बहुत आकर्षक हैं। मुख्य रूप से कैलाश तथा माउंट एवरेस्ट तथा मानसरोवर के चित्र बहुत सुंदर हैं।
बूमथांग के पास ही लखाई मोनेष्ट्री है। यहां पर दो-तीन दिन से मेला लगा है। पूजा की आज समाप्ति थी, इसलिए बहुत भीड़ थी। बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी तबके के लोग थे। कई लोग हाथ में माला जप रहे थे। इनमें महिलाएं भी थी। कुछ लोग मणी-चक्र घुमा रहे थे। मंदिर के चारों तरफ लोग बैठे जप कर रहे थे। यहां से कुछ दूर पर कुरजै धारा है। यह पवित्र जलधारा मानी जाती है। यहां पर जल भरने वालों की लाईन लगी थी। इसकी पवित्रता का कारण पद्मसंभव जी का इस स्थान पर आना बताया जाता है। उनके स्पर्श से इस जल को पीने से रोग मुक्त हो जाने की बात परंपरा से कही जाती है।
इसके पास से चमखर चू बहती है। चमखूर चू में पिछली 26-27 मई को आई प्रलयंकारी बाढ़ में 6 लोगों की मृत्यु होने की जानकारी मिली। नदी के दोनों तटों पर खेती का भी नुकसान हुआ व पेड़ भी बहकर आए, जिनके ठूठ नदी के दोनों ओर पड़े हुए दिखाई दिए। इतनी जल्दी ही नदी का पानी साफ हो गया है। इसके जलागम में खूब हरियाली दिख रही थी। लगता है पानी स्वच्छ होने का यही कारण रहा हो।
चार किलोमीटर आगे थांग बी गांव में गए। गांव के प्राइमरी स्कूल का भवन काफी बड़ा है। सजाया भी गया है। पेंटिंग स्कूल के भवनों पर भी की गई थी। इधर आलू की खेती का काफी विस्तार हुआ है। जंगलों के बाद इस मौमस में आलू की खेती की हरियाली चारों और फैली है। यहां पर लोगों की आमदनी का एक स्रोत परंपरागत कपड़ों की बुनाई है। यह कार्य पहले स्वावलंबन के लिए होता था। अब तो अतिरिक्त सामान की बिक्री की जाती है।
सुबह आसमान में काले बादल छाए थे। सात बजे हमने प्रस्थान किया। चमखर चू नदी के किनारे हम कुछ दूर तक आगे बढ़े। फिर चढ़ाई शुरू हो गई थी। रास्ते में ब्लू-पाईन की वृक्षावलियां के बीचों-बीच हमारी कार आगे बढ़ रही थी। यहां भी भोजपत्र की वृक्षावलियां देखने को मिली। रिंगाल फूलने से वे सर्वत्र सूख गए हैं। बीच-बीच में कांचूला (मैपल) के वृक्ष भी बहुत सुहावने लग रहे थे। आगे हम किकिला (पास) पहुंचे। यहां एक ओर विशाल वृक्ष खड़े हैं तो दूसरी ओर रिंगाल के ठूठों से भरे चारागाह हैं। पहाड़ और नदियों को पार करते हुए छू में हाईस्कूल के पास पहुंचे।
यहां का नज़ारा देखने लायक था। लड़के-लड़कियां हाथों में बुरांश प्रजाति के पौधों को लेकर उत्साह से उनका रोपण कर रहे थे। पता चला कि चौथे राजा वांगचुक के राज्याभिषेक की याद में 2 जून को पूरे देश में सामाजिक वानिकी दिवस पौधारोपण कर मनाया जाता है। रास्ते में भी छात्र स्कूल से फावड़ा लेकर लौट रहे थे। फिर हम एक के बाद एक मोड़ों को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे। इस क्षेत्र में भी भोजपत्र, रिंगाल, बुरांश, कांचुला, बांज, उतीस, चमखड़ीक, पांगर, गड़भैंस और गढ़पीपल के घने जंगल हैं। इसके आगे 3300 मीटर की ऊंचाई पर योतुला पास है। इसके आसपास मनोहारी बुग्याल (चारागाह) भी दिखाई दिए। आगे चंवर गायों का एक बहुत बड़ा काफिला भी देखने को मिला। दूध पीते छोटे-छोटे बच्चे बहुत अच्छे लग रहे थे।
भूटान की जैव विविधता को देखते हुए याद आया कि यह देश दुनिया के हाट-स्पॉटों में से एक है। योतुला को पार करने के बाद घने जंगल के बीच से आगे बढ़ रहे थे। दूर-दूर झूम खेती भी दिखाई दे रही थी। रास्ते में टौंगसा-जौग (किला) भी देखा। हमने उतरते-उतरते आगे मांगदी चू (नदी) को पार किया। यह नदी काफी बड़ी है। बताया जाता है कि इसका जलग्रहण क्षेत्र विशाल हैं। इसके आगे एक सीधा खड़ा थुमादा पहाड़ है। जिसके नीचे सीधी चट्टान है। बताया जाता है कि पहले अपराधी को दंड देने के लिए चट्टान से नीचे फेंका जाता था। जहां उसकी मृत्यु हो जाती थी। इससे आगे हम मोरू-खरसू, भोजपत्र, गढ़भैंस के जंगलों से आगे बढ़ते हुए 12000 फीट की ऊंचाई पर स्थित थिलेला (पास) पर पहुंचे। पास के एक तरफ सेमरू – सफेद बुरांश-फैला हुआ है तो दूसरी ओर रिंगाल के ठूठों की भरमार है। यहां भी ऊंचाई पर बुग्याल फैला है।
आगे बांगडी, जोकि पुनाखा-चू नदी के तट पर बसा है, पहुंचे। वहां से दांयी ओर पुनाखा चू नदी के किनारे होते हुए पुनाखा पहुंचे। रास्ते में 26-27 मई को हुई अतिवृष्टि से भारी विनाश देखा। लोगों के खेत आदि नष्ट हुए हैं। साद दो सौ मीटर दूर तक फैली दिखी। नदी के क्षेत्र में टो कटिंग को भी देखा। बाढ़ से नष्ट हुए पेड़ों के ढेर जगह-जगह देखने को मिले। आगे पौंचू और मौंचू नदियों का संगम है। इन दोनों नदियों के संगम के बाद ही इसका नाम पुनाखाचू है। संगम के मध्य भाग में जौंग (किला) है। जौंग में जाने के लिए लकड़ी का पुल बना हुआ है। जिस पर दोनों ओर से सुंदर दरवाज़े बने हैं तथा ऊपर से ढका गया है। जौंग भी काफी बड़ा है। यह जौंग सन् 1637 का बना था। इन दोनों नदियों का जलागम बहुत विस्तृत है। जब हम संगम में थे तो दूर जंगलों में आग का धुंआ दिख रहा था। मौंचू जौमलर तथा पौंचू कान्चेला से उद्गमित होती बताई गई है। जहां के लिए पैदल नौ-दस दिन का रास्ता है।
रास्ते में वनस्पति उद्यान मिला, फिर घुमावदार रास्ते और घने जंगलों के बीचों बीच होते हुए हम दोचुला पहुंचे। यहां पर 108 स्तूप बने हुए हैं, जो इस टीले पर बहुत ही सुंदर दिखते हैं। इसके सामने एक मंदिर हैं जहां विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ दी गई हैं। यहां से चारों ओर का दृश्य मनोहारी है। आगे हम चिलचिलाती रोशनी में थिम्पु पहुंचे।
थिम्पू भूटान की राजधानी है। भूटान की आबादी 6 लाख 72 हजार के आसपास बताई गई है। थिम्पु के बीचों-बीच थिम्पू चू बहती है। नदी के दांयी ओर ढाल में मुख्य शहर फैला है। इसी तरफ जौंग भी है। विभिन्न मंत्रालय एवं बाजार भी हैं। ऊपर की ओर जंगलों के बीचों-बीच रानियों और उनके परिवार वालों के लिए महल और आवास हैं। थिम्पू के आस-पास की पहाड़ियां ब्लू-पाईन के विकासमान जंगलों से आच्छादित हैं। इसी जंगल के बीचों-बीच टाकिन संरक्षण बाड़ा हैं। टाकिन के बारे में मैंने पहले न सुना था न देखा था। टाकिन का आगे का भाग एक बड़े बकरे की तरह है। पिछला हिस्सा गाय की तरह है। इसके पीछे एक कहानी बताई जाती है कि सन् 1455 के आसपास एक चमत्कारी लामा जी को एक दिन गाय और बकरी की हड्डियां बिखरी पड़ी मिली। उन्हें चमत्कार दिखाने को कहा गया। लामा ने बिखरी हड्डियों को जोड़कर उन पर प्राण का संचार किया तो वह टाकिन बन कर जंगल में भाग गया। ये टाकिन उसी के वंशज बताए जाते हैं। इस लामा के चमत्कार की कई कहानियां बताई जाती हैं। इस प्रकार उत्तरी भूटान के जंगलों में टाकिन पाया जाता है।
थिम्पू में स्थानीय संस्कृति केंद्र है। इस केंद्र द्वारा परंपरागत शैली के प्राचीन मकान में यहां के लोगों की दिनचर्या से जुड़ी सभी गतिविधियाँ दिखाई गई हैं। जिससे बाहर के लोगों को यहां के जीवन और संस्कृति के बारे में एक झलक समझने को मिल सके।
यहां एक आधुनिक राष्ट्रीय पुस्तकालय है, जिसमें भूटानी के अलावा अन्य भाषाओं की भी अनेक पुस्तकें है। भूटान अब पर्यटन की दृष्टि से बाहरी दुनिया को आकर्षित कर रहा है। मुख्य रूप से भारतीय पर्यटक ही यहां अधिक आते हैं। इनमें असम और पश्चिम बंगाल के लोग ज्यादा आते हैं। यहां पर पर्यटक मुख्य रूप से मार्च, अप्रैल, मई तथा सितंबर, अक्टूबर एवं नवंबर में आते हैं।
पर्यटक निदेशक दमजम रिनजिन ने बताया कि पर्यटकों से दो सौ पैंसठ डालर प्रति व्यक्ति प्रति दिन के हिसाब से लिया जाता है। इसके अंतर्गत उन्हें सुविधाएँ आदि दी जाती हैं। यह सुविधा पर्यटक एजेंसियों के माध्यम से दी जाती है। अभी तक 419 एजेंसियाँ हैं। पर्यटन के बारे में हमारी कुछ नीतियाँ हैं, उनका पालन किया जाता है। प्रकृति को समझना एवं उससे प्यार करना पहली शर्त होती है। साथ ही हाई वैल्यू, लो वाल्यूम का ध्यान रखा जाता है।
थिम्पू जौंग (किला) में राजा के दफ्तर के अलावा कई अन्य महत्वपूर्ण मंत्रालय हैं। इसके आगे प्रधानमंत्री का कार्यालय है। भूटान के प्रधानमंत्री श्री लियोन छेम जिग्मी वाई थिनले जी ने बहुत ही सरलता से हमें मिलने का समय दिया। जितनी सरलता से हमें मिलने का समय दिया, उससे भी अधिक सहजता से उनके साथ बातचीत हुई। उन्होंने पृथ्वी पर गहराते पर्यावरण संकट पर चिंता व्यक्त की तथा इसके लिए हिमालय के संरक्षण पर जोर दिया। उन्होंने राष्ट्रीय प्रसन्नता-समग्र राष्ट्रीय आनंद के उनके (GNH) राष्ट्र के लक्ष्य के बारे में भी विस्तृत जानकारी दी तथा हम लोगों द्वारा किए जा रहे वनों के संरक्षण और वनीकरण के चिपको कार्य की प्रशंसा भी की।
बातचीत के लिए आधे घंटे का समय निश्चित किया गया था। लेकिन बातचीत सवा घंटे तक चली। कब समय बीत गया, पता ही नहीं चला। उन्होंने जी.एन.एच. संबंधी तथा कुछ अन्य पुस्तकें भी भेंट में दी। इसके भूटान के कृषि मंत्री डॉ. पेमा जी ज्ञामते से मिले। वे हमारे पूर्व परिचित थे। उन्होंने भी भूटान के जंगलों तथा वन्यजीवों के बारे में सरकार द्वारा दिए जा रहे कार्यों की जानकारी दी।
अगले दिन वन मंत्रालय के सभा कक्ष में करमा डुकपा निदेशक की अध्यक्षता में वरिष्ठ वनाधिकारियों एवं वैज्ञानिकों से विचारों का आदान प्रदान हुआ। इनमें से अधिकांश भारतीय वन सेवा के अधिकारी थे। जो देहरादून से अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई वानिकी से पूरी तरह परिचित थे। साथ ही चिपको आंदोलन को जानते थे। उन्हें स्लाइड भी दिखाई गई। सायं को वन मंत्रालय द्वारा दिए गए भोज में शामिल हुए। भूटान के कृषि सचिव श्री शेरूब ग्यालिस्तिन भी उपस्थित थे। उन्होंने उपहास में बताया कि वनाधिकारी उपनिवेशवादी मनोवृत्ति के हैं। इन्हें अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव लाना चाहिए। ये तो अपनी सोच को बदलने के लिए तैयार ही नहीं है। उन्होंने देहरादून से ही प्रशिक्षण प्राप्त किया है।
अगले दिन विश्व पर्यावरण दिवस था। विश्व पर्यावरण का एक स्थानीय संस्थान में आयोजन किया गया था। इसमें हमें भी शामिल होने का निमंत्रण मिला था। इस संस्थान में नव युवा लामाओं को शिक्षा दी जाती है। इस आयोजन में भूटान के कृषि मंत्री, राष्ट्रीय पर्यावरण कमीशन के उप मंत्री, सासंद एवं विदेशी राजनयिकों के अलावा बौद्ध भिक्षु एवं स्थानीय नागरिकों ने भाग लिया। शुभारंभ एवं समापन पर सबने मिलकर प्रार्थना की, बीच के समय औपचारिक व्याख्यान हुए।
इस प्रकार थिम्पू और उसके आसपास की स्मृतियाँ संजोकर हमने आगे का रास्ता पकड़ा। कुछ ही किलोमीटर हम आगे बढ़े थे कि वीरान और रोखड़ वाले इलाके में हम थे। इससे पहले तो हम घने एवं विकासमान जंगलों के बीच से गुजरे थे। आगे हम थिम्वो चू और पारोचू के संगम, जिसे छाजम के नाम से पुकारा जाता है, के पास थे। यहां से एक रास्ता पारो तथा दूसरा रास्ता है, तथा तीसरा रास्ता गेदू-फुटसिलिंग की ओर जाता है। इस प्रकार यहां पर संगम के अलावा चौरास्ता भी है।
अगले दिन विश्व पर्यावरण दिवस था। विश्व पर्यावरण का एक स्थानीय संस्थान में आयोजन किया गया था। इसमें हमें भी शामिल होने का निमंत्रण मिला था। इस संस्थान में नव युवा लामाओं को शिक्षा दी जाती है। इस आयोजन में भूटान के कृषि मंत्री, राष्ट्रीय पर्यावरण कमीशन के उप मंत्री, सासंद एवं विदेशी राजनयिकों के अलावा बौद्ध भिक्षु एवं स्थानीय नागरिकों ने भाग लिया। शुभारंभ एवं समापन पर सबने मिलकर प्रार्थना की, बीच के समय औपचारिक व्याख्यान हुए। हम पारो की तरफ बढ़े। कुछ दूर तक यह इलाक़ा भी वीरान था। पारो सुंदरतम इलाकों में है। तन तरफ से घाटियों में फैला हुआ। घाटी का अपना नज़ारा है। यहां जिधर देखो घाटी फैली हुई है। बीचों-बीच पारोचू बहती है। पारोचू में हर घाटी से बहने वाली धारा मिलती है। ऊपर की ओर घने हरे जंगल हैं। सड़क के दोनों किनारों पर मजनू की वृक्षावलियां हैं, सेब और अखरोट के बाग भी यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं। बीचबीच में जहां भी पानी की धारा है, उससे छूकर मणी चलाया जाता है। यहां पर भी 11वीं शताब्दी से पनचक्की (घराट) द्वारा अनाज की पिसाई का इतिहास है। उसी को आधार मानकर मणीचक्र मणीचक्र चलाया जाता है। पारो में भूटान का एक मात्र हवाई अड्डा है। यहां पर होटलों, रेस्तराओं की भरमार है। होटलों में स्थानीय व्यंजन तो परोसे ही जाते हैं, साथ ही सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता है। स्थानीय कलाकृतियों एवं पोंटिंग से मकानों को रंग-बिरंगे ढंग स सजाया गया है।
पारो से ऊपर की ओर जाने पर टकछांग (टाइगर नेस्ट) में चट्टानों के बीच में मंदिर बने हैं। उसे देखा। इस चट्टान के निचले भाग में घना जंगल है। बीच-बीच में बस्ती भी हैं। अंत में पारोचू बहती है। इधर होटलों का लगातार विस्तार हो रहा है। उद्यान भी इधर-उधर देखे जा सकते हैं। यहां की घाटियां बहुत सुंदर हैं। इसीलिए पर्यटकों की इस क्षेत्र में दिनों-दिन बढ़ोत्तरी हो रही है।
आगे खंडहर के रुप में डूग्यल जौंग है। बताया जाता है कि तिब्बत और भूटान की लड़ाई में यह जौंग नष्ट हुआ था। जौंग एक टीले में बना है। इसका बाहरी परकोटा है। फिर अंदर एक ऊंची इमारत है। इसके अंदर पेड़ उग आए हैं। दीवारों पर दरारे हैं। कब कौन पत्थर गिर जाए, कौन सी दीवार टूटकर गिर जाए, यह डर लगा रहता है।
यहां से सामने ऊंचाई पर एक ग्लेशियर भी दिखता है। उसके नीचले भाग में बुग्याल फैला हुआ है। बुग्याल और ग्लेशियर को धीरे-धीरे बादलों ने घेर लिया था। इस पहाड़ को केवे गांवरी कहा जाता है। यहां पर पानी की धारा से छूकर मणी चलता है। जहां भी जलधाराएं हैं, छोटे-छोटे छूकर मणी देखने को मिल जाते हैं।
इस इलाके में भी 26-27 मई को प्रलयंकारी बाढ़ आई थी। नदी में पेड़ों के ठूठ के ढेर इधर-उधर जमा हैं, जो पिछली बाढ़ की याद दिलाते हैं। इस सड़क पर भी दोनों ओर विलो के पेड़ कतार में खड़े हैं। लगता है ये आगंतुकों के स्वागत के लिए खड़े हैं।
जौखांग में यहां का राष्ट्रीय संग्रहालय का भवन ऊंची पहाड़ी पर है। यहां से पारोघाटी बहुत सुंदर लगती है। यह संग्रहालय छह मंजिला भवन है। इसमें भगवान बुद्ध से लेकर उनके शिष्यों के बारे में क्रमबद्ध जानकारी दी गई है। जीवन पद्धति, खानपान, पहनावे पर भी जानकारी मिलती है। इसके अलावा मठों, मंदिरों तथा जौंग के निर्माण काल के बारे में जानकारी दी गई है। यहां के प्रसिद्ध जौंग पुनाखा जौंग का स्थापना वर्ष 1637 लिखा है। जो यहां दर्ज जौंगों में सबसे पुराना है। यहां के जौंग और मंदिरों में प्रवेश के लिए विशेष अनुमति लेनी पड़ती है। जौंगों के अंदर दो प्रकार का प्रशासन चलता है। एक धार्मिक तथा दूसरा प्रशासनिक। दोनों के अलग-अलग मुखिया हैं।
संग्रहालय से वापस लौटते हुए हमें रास्ते में छात्रों की टीम इधर-उधर से पॉलीथीन एवं कूड़ा करकट एकत्रित करते हुए दिखी। इस कूड़े को बड़े-बड़े बैगों में एकत्रित किया जा रहा था। इनके साथ-साथ अध्यापक भी चल रहे थे।
पहाड़ों में मुख्य मोटर मार्ग के पास एक मैदान में तीरंदाजी खेली जा रही थी। सौ मीटर की दूरी पर एक दूसरे छोर से तीर फेंके जा रहे थे। तीरंदाज सज-धज कर आए थे। उनके तीर भी चमक रहे थे। तीरंदाजी के अलावा हर जगह युवा लोग कैरम खेलते हुए दिखाई देते हैं।
आगे हम इस सुंदर घाटी को पार करते हुए छाजम पहुंचे। छाजम से फिर चढ़ाई लगती है। गढ़बैस, गढ़पीपल, बांज, ब्लू-पाईन के घने जंगलों के बीच से रास्ता जाता है। सबसे ऊंचाई पर व्याईस चपचा है। आगे दंतक परियोजना का आधार शिविर है।
यहां से आगे नदी किनारे तक उतरना पड़ा। 26-27 मई को इस क्षेत्र में भी भयंकर भूस्खलन हुआ था। मोटर मार्ग कुछ दिनों के लिए बंद किया गया था। रास्ते में मलबा अभी भी जमा है। जिसे दंतक प्रोजेक्ट के कार्यकर्ता मुस्तैदी से साफ करते हुए दिखाई दिए। आगे 366 मेगावाट की चुखा जलविद्युत परियोजना कुछ दूरी पर दिखाई दे रही थी। इसके अलावा पुंखा आदि कई प्रोजेक्टों की श्रृंखला भी है।
आगे रास्ता बहुत खतरनाक था। ड्राइवर बता रहा था कि इस रास्ते में ऊपर से मलबा गिरने का भय बना रहता है। नीचे सीधी घाटी है। मोटर मार्ग को चौड़ा किया जा रहा था। उसका मलबा नीचे के भाग में पेड़ों को रौंदता हुआ सीधे नदी में जाता है। बताया गया कि पिछले दिनों की अतिवृष्टि के बाद यहां पर स्थित विद्युत परियोजना पर साद के कारण समस्या पैदा हो गई थी। वास्तव में अभी तक इस दिशा में कार्य ही नहीं हुआ है। सड़क भी बने और मिट्टी का क्षरण भी कम से कम हो इसके लिए तो एक सरल उपाय यह है कि नीचे की ओर से दीवार बनाई जाए और ऊपर से सीमित कटाव किया जाए। बेशक इसमें खर्चा ज्यादा आ सकता है लेकिन दूसरी ओर परियोजनाओं का नुकसान होता है। उसकी गिनती ही नहीं की जाती है। विभागों या मंत्रालयों में अंतरविभागीय समन्वय नहीं दिखता है। यह बात हमारे देश के पहाड़ी इलाकों में भी देखी जा सकती है।
गेदू ढालदार पहाड़ी पर सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर स्थित है। यह एक बड़ा कस्बा जैसा लगता है। पहले यहां पर निर्माणाधीन विद्युत परियोजना का आधार शिविर था। उसके लिए आवासीय भवनों की भरमार है पर अब यह सारा शिविर कार्यालय टाला के आसपास ही बन गया है। इस प्रकार ग्रीन पॉवर कार्पोरेशन, जोकि भूटान में विद्युत परियोजनाओं का संचालन करता है, के कैंपस में इनका चौमंजिला गेस्ट हाउस भी है। यह ऊंचाई पर स्थित है। यहां से आसपास का दृश्य दिखाई देता है। यहां पर ऊपरी भाग में घना जंगल है। आसपास पानी के कई स्रोत हैं।
ग्रीन पॉवर परियोजना के ये अधिकांश भवन अब गेदू कॉलेज आफ बिज़नेस स्टडीज, जो रॉयल यूनिवर्सिटी ऑफ भूटान का कैंपस है, को हस्तांतरित हो गए हैं। बताया गया कि कुछ ही दिनों में सारा कैंपस उन्हीं को सौंप दिया जाएगा।
कॉलेज में सभी छात्रों को आवासीय सुविधा है तथा ऊपर से हर छात्र को पांच सौ रुपये अतिरिक्त दिए जाते हैं। लड़के-लड़कियों की संख्या लगभग बराबर है। लड़कियों के दो छात्रावास हैं। वहीं उनका भोजनालय एवं छुटफुट सामान की एक छोटी सी दुकान भी है। कॉलेज के डायरेक्टर, जिनसे हमने सायंकाल को ही भेंट की, तो हमें पूरे परिसर में और फिर छात्राओं के हॉस्टल में ले गए। यहां भूटान के राज्यभर की छात्राएं पढ़ती हैं। एक-एक- कमरे में दो-दो छात्राएं हैं। यहां लड़के-लड़कियों का आपसी मिलन सामान्य बात है। हॉस्टल में लड़के काम पड़ने पर आया जाया करते हैं। डायरेक्टर का एक-एक छात्र-छात्रा से सीधा-सीधा संवाद है। वे कमरों में जाकर उनके स्वास्थ्य तथा पढ़ाई के बारे में पूछताछ करते रहते हैं और इसी प्रकार अन्य समस्याओं असुविधाओं पर बातचीत कर उनका निराकरण करते हैं। जब वे कमरों में मिलने गए तो कोई हलचल नहीं थी। उनके भोजनालय में भी गए। उसे भी सहज रूप से एक नजर से देख लिया। पता चला कि यह उनका रोज का काम है। भूटान में शिक्षा पर खूब जोर दिया जा रहा है। जो लड़के मैरिट में आते हैं और यहां पर उस विषय की पढ़ाई नहीं हो सकती है तो उन्हें बाहर के मुल्कों में भेजा जाता है, जिसका पूरा खर्चा सरकार उठाती है। मुख्य रूप से भारत के अलग अलग शहरों में सैकड़ों लड़के-लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। इससे पहले आज ही रास्तें में हमें बंगलूरू में कानून की पढ़ाई करने वाली दस छात्र-छात्राएं मिली थी, जो बंगलूरू से गर्मियों के अवकाश पर अपने घर लौट रहे थे।
स्कूल कॉलेजों में भारतीय अध्यापक भी हैं। कुछ तो कोलंबो प्लान के अंतर्गत डेपूटेशन पर हैं। कुछ अस्थाई तौर पर सीधे नियुक्त हैं। विभागाध्य तो स्थानीय अध्यापक ही हैं। जैसे-जैसे यहां के व्यक्ति खास विषयों के ज्ञाता बन जाते हैं तो ये पद उनके लिए आरक्षित हो जाते हैं। पूरे देश में रॉयल यूनिवर्सिटी आफ भूटान के अंतर्गत अलग-अलग विषयों के आठ महाविद्यालय हैं। इन महाविद्यालयों में एक तिहाई के करीब भारतीय अध्यापक हैं। अन्य विभागों में भी भारतीय हैं। श्रमिकों के रूप में भी भारतीयों की तादाद काफी हैं। नेपाली भी बहुत हैं। नगरों, बाजारों में सभी हिन्दी बोल एवं समझ लेते हैं। इसलिए मुझे तो भाषा की कोई दिक्कत नहीं हुई गेदू में नमी एवं पानी खूब है। जब मैं सुबह दो किलोमीटर दूर जंगल में घूमने गया तो वहां छोटी-बड़ी सघन हरियाली थी। फरण प्रजाति के पौधों की बहुतायत थी, जो कि हमारे इलाके में भी मिलते हैं। कछ प्रजातियों की सब्जी भी बनती है। यहां से जब मैं वापस गेस्ट हाउस लौटा तो मेरे बदन में दो जोंक चिपकी हुई थीं। पहले से मुझे इसका कोई अनुमान नहीं था।
सात जून की सुबह-सुबह हमसे गेदू-गेस्ट में ग्रीन पॉवर परियोजना के प्रबंधक निदेशक छेवांग रिनजिन, टाला प्रोजेक्ट के मुख्य अभियंता थिनले दौरजी मिलने आए थे। उन्होंने जानकारी दी कि उनके यहां जलविद्युत परियोजना की प्रचुर संभावनाएं हैं। विस्थापन का संकट भी नहीं है।
टाला प्रौजेक्ट से 692 मेगावाट, चुखा से 366 मेगावा, पुनाखा से 64 मेगावाट, मुनगा से 66 मेगावट तथा कुल 1488 मेगावाट। जाड़ों में मात्र 300 मेगावाट रहता है भविष्य में 1200 मेगावाट पुनाखा, 114 मेगावाट देया चू परियोजना प्रस्तावित हैं। उन्होंने बताया कि शहरी आबादी को 100 फीसदी बिजली दी गई है। ग्रामीण हाउस होल्ड को 60 प्रतिशत दी गई है। 40 प्रतिशत और दी जानी है।
विस्थापन के बारे में उन्होंने बताया कि ये परियोजना नीचे घाटी में है इसलिए विस्थापन बहुत कम है। विस्थापन उतनी बड़ी समस्या नहीं है। परियोजना के आसपास के जंगलों के साथ छेड़छाड़ तो होगी ही। उसे कम से कम करने का प्रयास किया जा रहा है।
10 बजे हमने गेदू से प्रस्थान किया। दसेक किलोमीटर चलने के बाद फुन्टसिलिंग के लिए दो रास्ते हैं। मुख्य मोट मार्ग पर सुधार का कार्य चल रहा था इसलिए वह रास्ता बंद था। दूसरा मार्ग पहले वाले से 25 किलोमीटर लंबा है। हमें दूसरे रास्ते से जाना पड़ा। यहां से उतार था। कुछ दूर जाने पर तेज बारिश शुरू हो गई, बादल आते-जाते रहे। रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। ड्राइवर बहुत सावधानी से वाहन चला रहा था। बता रहा था कि बारिश में यह रास्ता बहुत खतरनाक है। लैंड स्लाइड हो जाता है, पत्थर गिरते रहते हैं। गुवाहाटी से जब हमने 26 मई को प्रस्थान किया था तो उस दिन भी मूसलाधार बारिश हो रही थी। आज भूटान छोड़ते हुए भी मूसलाधार वर्षा हुई। हम चलते-चलते गा रहे थे, दिल का घोड़ा कस कर दौड़ा, मार चला मैदान। चलता मुसाफिर ही पायेगा और मुकाम रे..।
अब हम भूटान के तराई में फसाका में पहुंच गए थे। यहां सड़ांध वाली गर्मी थी। सुपारी के पेड़ों के साथ ही बांस की वृक्षावलियों के बीचों बीच छोटे-छोटे घरों के बीच से गुजरते हुए हम फुटसिलिंग में भूटान के द्वार पर पहुंचे। शोर-शराबा, गर्मी तपन के बीच हम पसीने से लथ-पथ हो रहे थे। भूटान द्वार के पास हमने अपने गाइड को विदा किया। भूटान के कलात्मक द्वार की ओर निहारते हुए जयगांव से आगे प्रस्थान किया तथा 6 बजे तक हम सिलीगुड़ी पहुंच गए थे। गर्मी से बेहाल थे। पास के बाजार में हो-हल्ला, धक्का-मुक्की के बीच हम थोड़ी देर टहलने के बाद वापस गेस्ट हाउस लौट गए।
आठ जून को नाश्ता करने के बाद शेखर तथा ललित ने दार्जिलिंग के लिए प्रस्थान किया। जहां उन्हें पूर्व निर्धारित कार्यक्रम में भाग लेना था। मैं तथा उमा जी ने बागडोगरा हवाई अड्डे के लिए प्रस्थान किया।
बागडोगरा हवाई अड्डे पर बोर्डिंग पास लेने के बाद हम दोनों चैकिंग के बाद जहाज में बैठने के बुलावे का इंतजार कर रहे थे कि घोषणा हुई कि जहाज की उड़ान रद्द हो गई है। हम एक दूसरे को देखने लगे कि अब क्या होगा? मुसाफिर प्रतिरोध कर रहे थे। एयरलाईन का कोई भी व्यक्ति वहां पर नहीं था। कहा जा रहा था कि अपना बोर्डिंग पास रद्द करवा दें तथा सामान वापस ले जाएं। कोई सुनने वाला नहीं था। अंत में हमें बोर्डिंग पास रद्द करवाना पड़ा। नीचले तल पर इंडियन एयर लाईंस वालों से बात की तो उनका एक ही जवाब था कि कल के लिए भी पक्का भरोसा नहीं है। जिनका पूरा टिकट है, उनको तो होटल एवं कल के जहाज़ में भेजने का प्रबंध हो जाएगा। किंतु रियायती टिकट वालों को कोई आश्वासन नहीं दे सकते हैं। यह सब सुन कर हम सन्न रह गए। एयर लाईन वालों ने हमारे टिकट पर अपना नम्बर लिख दिया तथा लगातार संपर्क करने को कहा। हमने सामान लिया। गेस्ट हाउस वालों से फिर संपर्क किया। उन्होंने कहा कि आप लोगों का गेस्ट हाउस में फिर से स्वागत है।
हमने जहाज के उड़ान के रद्द होने की जानकारी शेखर को भी दे दी थी हमारे लिए अनिश्चय की स्थिति बनी हुई थी। धक-धक हो रहा था। आखिर रात को शेखर का फोन आया कि जीवन पांडे, जिनके पास वे ठहरे थे, ने न जाने किसी से संपर्क कर हम दोनों का सुबह के नियमित जहाज़ से स्थान पक्का करवा दिया है। कुछ देर बाद एयरलाईंस वालों ने इसकी पुष्टि की तथा अगले दिन सुबह 9 बजे हम दिल्ली के लिए रवाना हुए।
इस विशाल पुल को पार कर लगभग दो सौ मीटर के बाद हम दायीं और आई.आई.टी. के रास्ते पर चल पड़े। पहाड़ियों, तालाबों एवं हरियाली से भरा हुआ आई.आई.टी. का विशाल कैंपस बहुत ही सुंदर है। गेस्ट हाउस भी खुला हुआ है। उसके सामने जो पार्क है वह वृक्षों से आच्छादित है। अग्रभाग में विभिन्न प्रजातियों के वृक्ष पुष्पों से आच्छादित हैं।
आई.आई.टी. गेस्ट हाउस में हमारा इंतजार डॉ. अनिल गोस्वामी कर रहे थे। डॉ. गोस्वामी पहले एक कॉलेज के प्राचार्य रहे हैं। पिछले वर्षों से आई.आई.टी. गुवाहाटी में ग्रामीण प्रौद्योगिकी कार्य समूह के अतिरिक्त समन्वयक हैं। वे बहुत सज्जन एवं विद्वान भी हैं।
दोपहर के बाद वे हमें आई.आई.टी के कैंपस में ले गए। जहां ग्रामीण प्रौद्योगिकी से संबंधित विभिन्न मॉडल बने हुए थे। इनमें कई प्रयोग उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के लिए बहुत उपयोगी हैं। कुछ मॉडल तो अब गाँवों में भी पहुंच गए।
26 मई को प्रातः काल हम कामाख्या देवी के मंदिर को गए। वहां पर गोस्वामी जी ने मंदिर समिति को हमारे आने की जानकारी दे दी थी। साथ ही मंदिर के एक पुरोहित श्री काकीनाथ शर्मा पंडा, जो पिछली बार मिले थे, बदरीनाथ की यात्रा कर चुके थे। वो भी साथ हो लिए। उनके होने से दर्शन तत्काल हो गए। शर्मा जी के आग्रह पर उनके घर में नाश्ता करने के बाद हम ब्रह्मपुत्र के किनारे कुछ देर रुके। फिर आई.आई.टी. पहुंचे।
बारिश जोरों से हो रही थी। हम डॉ. रघुवीर चंद का इंतजार कर रहे थे। वे भूटान के कांगलुंग कॉलेज में अध्यापक हैं। इससे पहले वे कुमाऊं विश्वविद्यालय में अध्यापक थे। भूटान में कोलंबो प्लान के अंतर्गत अध्यापक हैं। इससे पहले द.ग्रा.स्व. मंडल और पहाड़ द्वारा जो यात्राएं की गई थी उनमें वे सक्रिय रहे हैं तथा पहाड़ के सक्रिय सदस्य हैं। डॉ. चंद का अगले दिन टेलीफोन आया था कि वे कलकत्ता में हैं। यहां पर समुद्री तूफान से हवाई सेवाएं स्थगित हो गई हैं। इसलिए हम तब से ही सोच रहे थे कि यदि डॉ. चंद समय से नहीं पहुंच पाए तो हमारा प्रस्थान कब होगा?
यात्रा में अभी तक हम चार लोग थे। प्रोफेसर शेखर पाठक, प्रो. उमा भट्ट तथा डॉ. ललित पंत ने यात्रा आयोजन किया तथा इस यात्रा में मुझे भी सम्मिलित किया। अंत में 3.30 बजे डॉ. रघुबीर चंद आई.आई.टी. गेस्ट हाउस में पहुंच गए। हम सबके चेहरों पर प्रसन्नता दौड़ गई। डॉ. अनिल गोस्वामी जी ने पहले ही बता दिया था कि यहां पर आप हमारे मेहमान हैं तथा उन्होंने जानकारी दी कि प्रोफेसर काकोटी ने भूटान की सीमा तक गाड़ी का प्रबंध करने को कहा है।
इस प्रकार हमने गुवाहाटी से चार बजे सायं प्रस्थान किया। बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। आखिर रंगिया तक पहुंचते-पहुंचते बारिश थम गई। 6.30 शाम को हम कुमारीकट्टा पहुंचे, जहां हम प्रख्यात गांधीवादी कार्यकर्ता श्री रवींद्रनाथ उपाध्याय से मिले। रवींद्र भाई पिछले पचास वर्षों से इस क्षेत्र में रचनात्मक कार्य द्वारा सेवा में लगे हैं। वे खादी एवं ग्रामोद्योगों के द्वारा लोगों को रोज़गार एवं स्वावलंबी बनाने में प्रयत्नशील रहे हैं। बोडो आंदोलन के दौरान रवींद्र भाई पर हमला हुआ था। हमलावरों को लगा कि वे मर गए हैं, इसलिए उन्होंने उसके बाद उन्हें छोड़ दिया था। 1960 में चीन के आक्रमण के बाद तिब्बत से मिले हुए इलाकों में सेवा के लिए शांति केंद्रों की स्थापना की गई थीं। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर श्री जयप्रकाश नारायण जी की अध्यक्षता में सीमा क्षेत्र समन्वय समिति बनी थी। इसमें राष्ट्रीय स्तर की गांधीवादी संस्थाओं के प्रतिनिधि शामिल थे। तब से एक शांति सैनिक के नाते वे इस क्षेत्र की सेवा में रत हैं। वर्तमान में लगभग अठासी वर्ष की उम्र में भी काफी सक्रिय हैं। राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष के साथ ही खादी कमीशन की प्रयोग समिति में भी हैं। उनके साथ यहां पर हमारे साथियों को मिलकर बहुत अच्छा लगा। उनके साथ आधा घंटे तक चर्चा की। उसके बाद सात बजे हमने वहां से प्रस्थान किया। रास्ते में जगह-जगह टिमटिमाते बिजली के बल्बों के बीच में मकान और झोपड़ियां दिखाई दे रही थी। ज्यादा भीड़-भाड़ भी नहीं थी। कुछ ही मिनटों में हम एक बड़े से द्वार के सामने पहुंचे। ड़ा. रघुबीर चंद द्वार से सटे एक कमरे में भूटान पुलिस से प्रवेश की अस्थायी आज्ञा लेने चले गए।
हमारे सामने भूटान देश का द्वार था। परंपरागत ढंग से सजे इस द्वार को देख कर मैं तो चौधियां गया। यहां पर एक दर्जन के करीब भूटान के जवान निगरानी रखे थे, जिनमें कुछ महिलाएं भी थी। कुछ ही देर बाद चंद जी हम चारों को अंदर ले गए जहां चारों का हाथ में रखा सामान चेक कर जाने दिया गया। अब हम भूटान के अंदर सौन्दुप जोनखर में थे। रात के ठौर के लिए एक साफ-सुथरा होटल मिल गया था, जिसकी मालकिन तो भूटानी महिला थी किंतु यहां पर कर्मचारी भारत के असम राज्य के थे।
27 मई। सुबह बाहर झांका तो हमारे होटल के सामने सड़क के दोनों तरफ के मकान एक जैसे तिमंजिले दिखे। सभी पर एक जैसा पेंट पुता था। इनमें से अधिकांश होटल लग रहे थे। यह भी देखा कि इनका संचालन महिलाएं कर रही थीं।
सुबह हम जल्दी तैयार हो गए। अपने-अपने पास पोर्टों को लेकर इमिग्रेशन कर्यालय में गए। वहां पर उसके निदेशक सांगे तेन जिंग मिले। उन्होंने बताया कि वे देहरादून आई.एम.ए. से प्रशिक्षित हैं। उनसे भूटान के साहित्य और संस्कृति पर चर्चा हुई। ऑफ़िस में भूटान के राजाओं के चित्र तथा भगवान बुद्ध की मूर्ति के आगे दीपक जल रहे थे। उन्होंने आधे घंटे के अंदर ही हमें भूटान यात्रा का परमिट दे दिया तथा कहां-कहां परमिट चेक होगा, इसकी जानकारी भी दे थी।
सौन्दुप जोनखर को संक्षिप्त में एस.जे. कहते हैं। भूटान में प्रवेश करते ही यहां की अलग पहचान देखने को मिलती है। मकानों की वास्तुकला हो या उन पर पेंटिंग एवं नक्कासी बहुत अच्छे तरह से सजाए गए हैं। कहीं कोई लापरवाही नहीं। मकान छोटा हो या बड़ा, जौंग हो या मंदिर सब जगह पेंटिंग से सजावट किया हुआ मिल जाएगा। इसी प्रकार पहनावा भी अपना है। उसका सभी पालन करते हैं। राजा हो या साधारण नागरिक सहज रूप से अपने पहनावे पर गौरव महसूस करते हैं। स्कूल या दफ्तर सभी जगह एकरूपता है। इस सबको बचाए रखना मुझे तो बहुत बड़ी बात लगी। एस.जे. से जैसे-जैसे हम आगे बढ़े सब जगह यही देखने को मिला। यदि कोई इसका पालन नहीं कर रहा है तो पूछने पर पता चला कि वह मूलतः भूटानी नहीं है।
टैक्सी आगे बढ़ती गई। रास्ते में घने जंगल, गहरी-घाटियां एवं उनके बीचों-बीच पतली सी रेखा जैसी नदियां दिखाई दे रही थी। यहां पर आठ हजार फुट के ऊंचाई से सड़क गुजरती है। इस ऊंचाई से प्रकृति का अद्भुत नज़ारा दिखाई दे रहा था। आगे हम देवथांग होते हुए रिर्सबू पहुंचे। वहां पर सुस्ताए थे कि ड्राइवर ने बताया टायर पंचर हो गया। टायर को उठाने के लिए उसके पास जैक नहीं था। क्या होगा? इसी उधेड़ बुन में थे कि एक कार आई। उसके ड्राइवर ने टायर बदलने में मदद की। इस प्रकार वहां पर हमें डेढ़ घंटे तक रुकना पड़ा। एस.जे. से हमने एक बजे प्रस्थान किया। हमें बताया गया कि आगे एक-दो स्थानों पर सड़क पर कार्य चल रहा है। वहां पर दो घंटे रुकना पड़ेगा। लेकिन उस स्थान के पास पहुंचने पर पता चला कि आज कार्य रोक दिया गया है। इसलिए हमारी टैक्सी आगे बढ़ती गई। रास्ते में घने जंगल, गहरी-घाटियां एवं उनके बीचों-बीच पतली सी रेखा जैसी नदियां दिखाई दे रही थी। यहां पर आठ हजार फुट के ऊंचाई से सड़क गुजरती है। इस ऊंचाई से प्रकृति का अद्भुत नज़ारा दिखाई दे रहा था। आगे हम देवथांग होते हुए रिर्सबू पहुंचे। वहां पर सुस्ताए थे कि ड्राइवर ने बताया टायर पंचर हो गया। टायर को उठाने के लिए उसके पास जैक नहीं था। क्या होगा? इसी उधेड़ बुन में थे कि एक कार आई। उसके ड्राइवर ने टायर बदलने में मदद की। इस प्रकार वहां पर हमें डेढ़ घंटे तक रुकना पड़ा। अब तो स्टेपनी भी नहीं थी। रास्ते भर पंचर ठीक करने वाला भी नहीं था। इसलिए ऊपर वाले के भरोसे से आगे बढ़ रहे थे।
सामने की पहाड़ियों पर झूमखेती का सा दृश्य दिखाई दे रहा था। सूर्य ढलता जा रहा था। स्टेपनी के कारण हमारी धड़कने बढ़ती जा रही थी। ड्राइवर तेजी से टैक्सी को भगा रहा था। उसे वापस लौटना था। अंधेरा हो चला था। सड़क पर वाहनों का चलना बंद हो गया था। आगे हमें दूर रोशनियां जगमगाती दिखी। डॉ. चंद ने बताया कि यही कांगलुंग कॉलेज का कैंपस है। इस प्रकार 158 किलोमीटर की यात्रा के बाद हम 9 बजे डॉ. चंद के आवास के सामने खड़े थे। कॉलेज के गेस्ट हाउस मे ठहराने का प्रबंध था पर हमने निर्णय लिया कि डॉ. चंद के साथ ठहरेंगे। सभी ने भोजन बनाने में सहयोग किया, लेकिन मुख्य ज़िम्मेदारी उमा जी ने संभाली। इस प्रकार पहले दिन की यात्रा के बाद हमने रात 12 बजे विश्राम किया।
29 मई सुबह कमरे से बाहर आया तो आस-पास एवं दूर तक पहाड़ों पर बादल पसरे थे। बीच-बीच में बूंदाबांदी हो रही थी। 11 बजे के लगभग रघुबीर जी के साथ कॉलेज कैंपस गए। पहले चौराहे पर बहुत बड़ा मणीचक्र स्थापित किया गया है। आते जाते हर कोई उसे घुमाता रहता है। मणी के दाहिने ओर से जाना पड़ता है।
बताया गया कि शरब्से कॉलेज भूटान का सबसे पुराना कॉलेज है। अब तो यह कॉलेज रायल यूनिवर्सिटी ऑफ भूटान का कैंपस है। कैंपस साफ-सुथरा तथा एक विशाल क्षेत्र में फैला है। छात्रों और अध्यापकों के लिए पूरी आवासीय व्यवस्था है। 350 छात्र-छात्राएं हाईस्कूल से लेकर स्नातक तक पढ़ाई करते हैं। 98 अध्यापक हैं। प्रिंसिपल के बजाए निदेशक मुखिया हैं।
31 अध्यापक भारतीय हैं। इनमें से कुछ तो कोलंबों प्लान के अंतर्गत आए हैं। बाकी अस्थायी नियुक्त पर सीधे आए हैं। कैंपस पेड़ों से आच्छादित हैं। इसलिए उसकी शोभा दूर से दिखाई देती है। जितने भवन हैं बाहर से पेंटिंग करने के कारण बहुत सुंदर लगते हैं।
भूटानी लड़के-लड़कियां एवं अध्यापक अपने राष्ट्रीय पहनावे में रहते हैं। पुरुषों के लिए धौं तथा स्त्रियां कीरा पहनती हैं। बताया गया कि वास्तुकला के अंतर्गत 13 प्रकार की कलाएं हैं। पेंटिंग-कारपेंटरी आदि सभी वास्तु से जुड़ी हैं। विद्यालय में धार्मिक शिक्षा का अलग विभाग है। जिसे लामा लोग ही पढ़ाते हैं। कॉलेज में आधा घंटे तक प्रार्थना होती है। जिसमें सभी छात्र एवं अध्यापक उपस्थित होते हैं। हर बुधवार को 2.30 बजे से 4.30 तक मस्तिष्क मिलन होता है।
कॉलेज में हम निदेशक श्री सिंगे नामगेल से मिले। उनके कमरे में भूटान के पांचों राजाओं के चित्र हैं। उन्होंने बताया कि कॉलेज के सभी भवन भूटान के उत्कृष्ट वास्तु कला के आधार पर निर्मित किए गए हैं। यहां तक कि दरवाज़े, खिड़कियों के परदे कलात्मक ढंग से लगाए हैं।
कॉलेज के बीच में बौद्ध पताका को भी स्थापित किया गया है। निदेशक के अलावा हमने भूटानी एवं भारतीय अध्यापकों से भेंट की। इस प्रकार आज के दिन हमने कांगलुंग कॉलेज को देखने एवं समझने में ही बिताया।
29 मई। 9.30 बजे कॉलेज में गए। वहां पर कॉलेज के छात्रों एवं अध्यापकों से हिमालय के पर्यावरण के बारे में वार्ता हुईं। मेरी हिंदी वार्ता का अंग्रेजी में अनुवाद डॉ. शेखर पाठक ने किया। पूरा हाल भरा हुआ था। उसके बाद हिमालय एवं चिपको आंदोलन पर स्लाइड दिखाई। डॉ. शेखर ने तिब्बत पर स्लाइड दिखाई। लोगों ने इसे पसंद किया। लड़कों ने प्रश्न भी पूछे। दोपहर बाद मुख्य वन अधिकारी हमें अपने कार्य को दिखाने ले गया। उन्होंने वन विभाग द्वारा किया गया वृक्षारोपण का कार्य दिखाया। यह वनीकरण धूमी प्रजाति का था। इसी प्रकार पहाड़ी के दूसरी ओर भी इसी प्रजाति का वृक्षारोपण किया गया था। यद्यपि पेड़ खूब बड़े हो गए हैं। उनका जीवित प्रतिशत भी अच्छा दिख रहा था फिर भी बाहर से आयातित प्रजाति के पेड़ ऐसे लग रहे थे जैसे इन्हें यहां थोपा गया हो। इसके आस-पास प्राकृतिक जंगल और प्राकृतिक उत्पादन अलग से दिख रहा था। भूटान वनस्पतियों के मामले में समृद्ध हैं फिर इस प्रकार की प्रजाति क्यों? इसका जवाब नहीं मिला। रास्ते में मक्का एवं आलू की फसल बहुतायत में देखी। कहीं धान भी बोया गया है। दिन-भर बादल आते रहे, बरसे भी और हटते भी रहे। कांगलुंग की ऊंची चोटी से दूर-दूर तक पहाड़ों का अद्भूत दृश्य दिखाई दे रहा था। खेतों में समूह के रूप में महिलाओं की डार की डार दिखाई दे रही थी।
30 मई को जल्दी तैयार होकर हम तासीगांग गए। कांगलुंग से यह स्थान 22 किमी. नीचे है। यह जिला मुख्यालय है। यहां पर जोंग (किला) एक टीले पर है। बाजार भी है और कुछ होटल भी हैं। आस-पास के गांव वालों का बाजार भी है तथा गांव के लोग अपने उत्पाद को लेकर बेचते भी देखे गए। मुख्य रूप से सब्जी, जिसमें वनों से एकत्रित सब्जी दाल-मिर्च तथा सुखाई हुई मछलियाँ भी शामिल हैं।
तासीगांग में हमें मुख्य वनाधिकारी भी मिल गए थे। वे हमारे साथ आगे तक आए। हम अब गमरी चू के किनारे-किनारे आगे बढ़े। गमरी नदी में भी बाढ़ के लक्षण साफ दिख रहे थे। नदी के दोनों पाटों पर सिल्ट एवं बड़े-बड़े पत्थर मीलों तक फैले हुए दिखे। बताया गया कि सन् 2004 में प्रलंयकारी बाढ़ आई। इसकी सहायक कोरगढ़ी चू में भी बाढ़ आई। बहुत बड़ा भूस्खलन आया। उसके कारण नदी रूक गई और अस्थायी लेक बन गई। उसके टूटने से भयंकर तबाही पूरी घाटी में हुई। नदी के आस-पास के खेत एवं मकान नष्ट हुए। रास्ते में वोकेशनल इंस्टीट्यूट था। उसके भी दो मकान बह गए थे। इसके बाद ऊंचाई पर रंगजुंग मठ मिला। इसकी छवि देखते ही बनती हैं। इसके पास स्तूपों की भी कतार है। साफ-सफाई और पेंटिंग से मठ भव्य दिखाई दे रहा था।
यहां से हम फिर पहाड़ी पर चढ़ते गए। कई घूमों को पार कर रादी रेंज हेड-क्वाटर पहुंचे। इसके गेट के पास लिखा था कि यहां बिना परंपरागत पोशाक में प्रवेश न करें। हम रुक गए तो हमारे साथ में चल रहे वन विभाग के कार्यकर्ता ने बताया कि यह बंदिश आप लोगों पर नहीं है। इसके साथ में एक व्यक्ति की बहुत बड़ी नर्सरी है। जिसमें अनेकों प्रजाति के पौधे हैं। इसमें सभी स्थानीय प्रजाति के पौधे हैं। वन विभाग की ओर से इन्हें प्रोत्साहन मिलता रहता है। इस इलाके में कई प्रजाति के पौधे होते हैं। साथ ही, आलू भी। फलों के पेड़ भी बहुतयात में हैं। मक्का के बीजों को चपटा करने की एक मशीन भी लगी है। उसे चपटा कर पैकेटों में बंद कर बेचा जाता है।
रेंज कार्यालय में पता चला कि स्थानीय लोगों को साल भर जलाने के लिए एक परिवार को एक ट्रक लकड़ी दी जाती है। इसी प्रकार मकान बनाने के लिए 80 कड़ी तथा 8 पेड़ जंगल में दिए जाते हैं। जिससे मकान बना सके। मकान की मरम्मत के लिए भी 3 से लेकर पांच तक पेड़ दिए जाते हैं। मकानों पर अधिकांश सामग्री लकड़ी से बनी होती है।
रादी रेंज कार्यालय में भोजन करने के बाद लगभग 20 किलोमीटर आगे तक गए। यहां तक मोटर सड़क है। यहां पर छोटा सा बाजार है। यहां से आगे पैदल का रास्ता जाता है। यह बाजार मुख्य रूप से ब्रोक्पा (घुमंतू पशुचारकों) का है। ये बुग्यालों में ऊंचाई वाले स्थानों में रहते हैं। इनके मुख्य पशु भेड़, याक और घोड़े हैं। यहां से इनके आवास तक में तीन दिन में पहुंचा जा सकता है। इनका पहनावा अलग है और पहचान भी अलग है। डॉ. रघुवीर चंद ने इन पर शोध पूर्वक एक पुस्तक लिखी है। जिसे पहाड़ ने प्रकाशित किया है।
यहां पर कुछ ब्रोक्पा लोग सामान लेने आए थे। उनसे संपर्क करने के बाद हम वापस शाम तक कांगलुंग लौटे।
आगे हम काफी ऊंचाई वाले नायूजिंग के ऊंचे पहाड़ी इलाके में आए। यहां रास्ते में हैलोक आदि के विशाल वृक्ष दिखाई दिए। ऊपर चट्टानी इलाक़ा है। दो बहुत बड़े-बड़े जलप्रपात भी रास्ते में मिले। यहां प्रकृति के अपने साम्राज्य को समझने का प्रयास किया। सूक्ष्म से लेकर बड़ी वनस्पति ने इस धरती को अपने आगोश में ले लिया है, जहां पर जिसको अवसर मिला वहीं पर उसने अपने को फैला दिया। कहीं कोई टकराहट नहीं। सभी में आगे बढ़ने की होड़ लगी है। फरन का उपनिवेश भी देखने को मिलता है। कांगलुंग से प्रस्थान करने से पूर्व महाविद्यालय के बाहर स्थित बौद्ध मठ में दर्शन किए। उस समय प्रार्थना चल रही थी। भिक्षुकों से हॉल भरा था। छात्र भी उसमें शरीक थे। 7 बजे प्रस्थान किया। मांसीगौंग के मोड़ से हमारा रास्ता अलग हो गया था। यहां पर से वनाधिकारी ने फॉरेस्टर को गाईड के रूप में हमारे साथ भेज दिया था। कई घुमावदार-मोड़ों को पार करते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। शेखर विदाई गीत गा रहे थे। हम भी उसे दुहरा रहे थे। रघुबीर चंद को विदा होना था। चार दिन से उनका साथ था। छाजम में परमिट देखे गए। डॉ. रघुबीर जांच वाले अधिकारी को जानते हैं इसलिए असुविधा नहीं हुई। रघुवीर जी को विदा करके हम वांग चू नदी को पार करते हुए आगे बढ़े। वांग चू में सिल्ट बहने से उसका रूप बदला था। नदी काफी वेग में थी। हम तीस किलोमीटर तक वांग चू के किनारे चले बाद में दाई ओर से शेरी चू के किनारे-किनारे बढ़े। शेरी चू का पानी साफ था। शेरी चू को पार करने के बाद चढ़ाई थी। चीड़ का जंगल था। बीच-बीच में चौड़ी पत्ती के पेड़ भी थे। रास्ते में जैट्रोफा के प्राकृतिक रूप से उत्पन्न पौध भी देखने को मिली।
हम अब 5 हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर थे। जंगल के बीच में एक रेस्तारां था। उसमें गए। उसके अंदर की बनावट देखने लायक थी। मेहमानों के बैठने को पारंपरिक तरीके से आसन बिछे थे। साफ सुथरा था। सारा काम महिलाओं के ज़िम्मे था। यहां पर कुछ स्थानीय सामग्री बिक्री के लिए थी। पर काफी मंहगी थी। पत्थर एवं लकड़ी का सजावटी सामान भी उपलब्ध था। बाहर से फूलों के गमलों से सजाया गया था। रेस्तरां का मालिक सफाई पर विशेष ध्यान दे रहा था। हमारे आने से पहले एक दो वाहन यहां पर रुके थे। उन्होंने सड़क के पास पैकेट आदि फेंक रखे थे, जिसे मालिक ने उठा कर कूड़ेदान में डाल दिया।
फिर चढ़ाई ओर दिखी। अनेकों मोड़ों को पार करते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। इधर झूम खेती भी होती है। आबादी बिखरी हुई है। लोगों के मकान काफी ऊंचे और दुमंजिले हैं। चौड़ी पत्ती के जंगलों का समूह सा है। हमने एक पास पार किया। उसके बाद मोगरा जिला मुख्यालय मिला। भोजन चंग खोला में किया। रास्ते में गांव वाले समूह में मक्का की गोड़ाई निराई करते हुए दिखे। लगता है कि यहां बारी-बारी से पड़याल ही रही होगी। यह दृश्य कई गाँवों में देखने को मिला। कई जगह गांव बिखरे हुए खेतों के बीच-बीच में मकान बनाए गए हैं। इधर मकई और आलू की फसल ज्यादा बोई गई है। खेतों से सटे हुए जंगल हैं। लगता है कि इस इलाके में पहले झूम खेती होती होगी। बहुत कम इलाके में अब झूम के लक्षण दिखाई देते हैं। मकई की फसल कई जगह पकने की स्थिति में है। गांव के आस-पास तेमूला के पेड़ हैं, जिनका लौपिंग किया गया है। यह गाँवों के आस-पास हर कहीं दिखाई दे जाता है। लोगों ने बाउंड्री एवं खेतों की बाड़ भी लकड़ी से ही बनाई है।
आगे हम काफी ऊंचाई वाले नायूजिंग के ऊंचे पहाड़ी इलाके में आए। यहां रास्ते में हैलोक आदि के विशाल वृक्ष दिखाई दिए। ऊपर चट्टानी इलाक़ा है। दो बहुत बड़े-बड़े जलप्रपात भी रास्ते में मिले। यहां प्रकृति के अपने साम्राज्य को समझने का प्रयास किया। सूक्ष्म से लेकर बड़ी वनस्पति ने इस धरती को अपने आगोश में ले लिया है, जहां पर जिसको अवसर मिला वहीं पर उसने अपने को फैला दिया। कहीं कोई टकराहट नहीं। सभी में आगे बढ़ने की होड़ लगी है। फरन का उपनिवेश भी देखने को मिलता है। दूर-दूर जहां तक नजर जा रही है हरे नीले पहाड़ दिखाई दे रहे हैं। बीच में बादल अवश्य इनसे टकराते हुए ऊपर की ओर जा रहे हैं।
रास्ते में सफेद बुरांश, जिसे हम सेमरू कहते हैं और यहां इसे ऐतो-मैता कहते हैं, देखने को मिला। आगे सिंगोर दिखा। एक लंबे चौड़े बुग्याल के बीचों-बीच मकान और खेत फैले हैं, जहां पशु चराई कर रहे हैं। ढालदार यह बुग्याल देखते ही बनता है। इसके चारों ओर के ऊपरी ढाल में घने जंगल फैले हैं। जो मुख्य रूप से फर प्रजाति के हैं। सिंगोर के बुग्याल की ढलान में छोटे लाल गुलाबी रंग के बुरांश के फूल दिखे। आगे सड़क के आजू-बाजू फर की वृक्षावली, लाईन पर खड़े ऐसा लगता है। जैसे ये किसी का इंतजार कर रहे हैं। इसके आस-पास सफेद और गुलाबी बुराश के पुष्प अपने होने का अहसास करा रहे हैं। हम ऊपर चढ़ते जा रहे हैं। अब जहां भी पानी का नाला मिला वहीं पिछले 26-27 मई को हुई अतिवृष्टि के कारण आया मलबा एवं बड़े-बड़े बहकर आए पेड़ हैं। सड़क के नुकसान के चिह्न दिखाई दे रहे हैं।
आगे 12400 फीट की ऊंचाई पर स्थित थ्रिम सिंगला (पास) पार किया। इसके आस-पास भी विशाल तरू खड़े हैं। ऊपर की तरफ सेमरू फैला है। अन्य पासों की तरह ही इसे भी पहाड़ी के चारों तरफ से पताकाओं से सजा रखा है। यह यहां की परंपरा है। छोटे मंदिर भी मोटर मार्ग में बने हैं।
हम नेशनल पार्क के इलाके से आगे बढ़ रहे थे। बुरांश के फूलों का भी पार्क दूर-दूर तक फैला हुआ है। ऐसा लग रहा था कि धरती का श्रृंगार करने के लिए कोई पीछे नहीं रहना चाहता है। सफेद रंग-बिरंगे फूल और पत्तियां अब अपने यौवन के आखिरी दौर में बढ़ रहे हैं।
आगे ब्लू-पाईन के जंगलों के बीच से हमारी गाड़ी सरपट आगे बढ़ रही थी। विशाल सुरई व ब्लू-पाईन के वृक्ष जिन पर झूला झूल रहा था, अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव में हैं। उनकी दो पीढ़ी भी साथ-साथ बढ़ रही है। कहीं-कहीं हैलोक और फर के पेड़ भी दिखाई दे रहे हैं।
गेजम में सड़क के ऊपर नीचे पेड़ों के ठूठ दूर-दूर तक फैले हैं। बताया गया कि यह सब मोटर मार्ग के निर्माण के समय काटे गए थे। इतनी बड़ी मात्रा में सड़क के लिए पेड़ों के काटे जाने का कोई औचित्य नहीं लगता है। ये ठूठ अपने ऊपर हुई त्रासदी की कहानी बयां कर रहे हैं। गेजम में हमने सूजा (नमकीन चाय) पी। इस चाय में घी को मथा जाता है। यह काफी पौष्टिक होती है। यहां पर एक ड्रम में मां-बेटी गर्म पानी में खुले में स्नान कर रहीं थीं। बताया गया कि इस पानी में पत्थर गर्म करके रखे जाते हैं, जिससे देर तक पानी गर्म रहता है। आखिरी में शाम के आठ बजे हम झिलमिल प्रकाश के बीच बुमथांग पहुंचे, जहां हमारा इंतजार बांगचुक पर्यावरण संरक्षण संस्थान के अधिकारी कर रहे थे।
यहां हम एक स्थानीय होटल में पहुंचे, जिसमें स्थानीय कला एवं पेटिंग का मिश्रण था। कमरा पूरी तरह से ब्लू-पाईन की लकड़ी से निर्मित था। जिसकी हल्की गंध बयान कर रही थी कि यह सब पेड़ों की बलि करके ही निर्मित किया गया है। कमरे के अंदर बुखारी लगी थी। जिसे जलाकर कमरों को गर्म किया जाता है। यहां भी पेड़ का ही बलिदान शामिल है।
इस होटल का नाम कैला-तयांग है। होटल का मालिक नेपाली मूल का है। पता चला कि 1967 में यहां आया। एक भूटानी महिला से शादी की और यहीं बस गया। यह होटल बुमथांग का सबसे अच्छा होटल माना जाता है। रात्रि का भोजन पर्यावरण संस्थान के निदेशक की ओर से था। हमारे लिए शाकाहारी भोजन का प्रबंध किया गया था।
1-6-09 बुमथांग
सुबह बाहर का नज़ारा अद्भुत था। बुमथांग के चारों ओर जंगलों का साम्राज्य था। दूर-दूर तक नीले-गहरे रंग का समुद्र-सा फैला हुआ है। बीचों-बीच चामखरस्यू (नदी) बह रही है। नदी के आर-पार मठों की भरमार है। एक ओर दूर-दूर तक फैली बस्ती है, तो दूसरी ओर होटलों की भरमार है। होटलों में सभी प्रकार के गोश्त पकते हैं। करछी अलग-अलग रहती है। यह सुनकर संतोष हुआ कि दुकानों में ज्यां (नमकीन) व सामान्य चाय भी मिलती है।
यहां पर उग्येन वांगचुक पर्यावरण संरक्षण संस्थान है। यह संस्थान इसी दशक में स्थापित हुआ। इसमें रेंज अधिकारियों को प्रशिक्षण के साथ ही सार्टिफिकेट कोर्स भी चलता है। रेंजर प्रशिक्षण में चार महिलाएं भी हैं। 12वीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इस कोर्स में शामिल हो जाते हैं। यह संस्थान एक कोठीनुमा मकान में चल रहा है। अन्य मकानों की तरह यह भी सुंदर स्थान पर है। यहां हम लोगों ने चिपको आंदोलन एवं हिमालय की पारिस्थितिकी से संबंधित पारदर्शियां दिखाई। शेखर जी ने तिब्बत यात्रा की पारदर्शियां दिखाई जो बहुत आकर्षक हैं। मुख्य रूप से कैलाश तथा माउंट एवरेस्ट तथा मानसरोवर के चित्र बहुत सुंदर हैं।
सुबह आसमान में काले बादल छाए थे। सात बजे हमने प्रस्थान किया। चमखर चू नदी के किनारे हम कुछ दूर तक आगे बढ़े। फिर चढ़ाई शुरू हो गई थी। रास्ते में ब्लू-पाईन की वृक्षावलियां के बीचों-बीच हमारी कार आगे बढ़ रही थी। यहां भी भोजपत्र की वृक्षावलियां देखने को मिली। रिंगाल फूलने से वे सर्वत्र सूख गए हैं। बीच-बीच में कांचूला (मैपल) के वृक्ष भी बहुत सुहावने लग रहे थे। आगे हम किकिला (पास) पहुंचे। यहां एक ओर विशाल वृक्ष खड़े हैं तो दूसरी ओर रिंगाल के ठूठों से भरे चारागाह हैं। पहाड़ और नदियों को पार करते हुए छू में हाईस्कूल के पास पहुंचे।
संस्थान के निदेशक ने चिपको आंदोलन के अनुभवों के आधार पर जुड़ने की बात की। संस्थान के निदेशक श्री नंवाग नोरबू काफी सक्रिय दिख रहे थे। इसी रास्ते में टीले पर विशाल जंखर जौंग (किला) है। किले में अब तो जिले के प्रशासनिक एवं धार्मिक कार्यालय हैं। किला काफी ऊंचा है। ऊपर की मंजिलों पर चढ़ने के लिए संकरी लकड़ी की सीढ़ियां हैं। जोंग या मठ में जाने से पहले टोपी उतारनी पड़ती है। नंगे सिर से जाना पड़ता है। स्थानीय लोगों को अपनी परंपरागत वेश-भूषा में जाना पड़ता है। जोंग के अंदर से बाहर देखने के लिए जगह-जगह पर पुराने जमाने से छेद बने हैं। जहां से बाहर शत्रु की गतिविधियों को देखा जा सके। बताया जाता है कि पूरे भूटान में पहले 20 जौंग (किले) थे।बूमथांग के पास ही लखाई मोनेष्ट्री है। यहां पर दो-तीन दिन से मेला लगा है। पूजा की आज समाप्ति थी, इसलिए बहुत भीड़ थी। बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी तबके के लोग थे। कई लोग हाथ में माला जप रहे थे। इनमें महिलाएं भी थी। कुछ लोग मणी-चक्र घुमा रहे थे। मंदिर के चारों तरफ लोग बैठे जप कर रहे थे। यहां से कुछ दूर पर कुरजै धारा है। यह पवित्र जलधारा मानी जाती है। यहां पर जल भरने वालों की लाईन लगी थी। इसकी पवित्रता का कारण पद्मसंभव जी का इस स्थान पर आना बताया जाता है। उनके स्पर्श से इस जल को पीने से रोग मुक्त हो जाने की बात परंपरा से कही जाती है।
इसके पास से चमखर चू बहती है। चमखूर चू में पिछली 26-27 मई को आई प्रलयंकारी बाढ़ में 6 लोगों की मृत्यु होने की जानकारी मिली। नदी के दोनों तटों पर खेती का भी नुकसान हुआ व पेड़ भी बहकर आए, जिनके ठूठ नदी के दोनों ओर पड़े हुए दिखाई दिए। इतनी जल्दी ही नदी का पानी साफ हो गया है। इसके जलागम में खूब हरियाली दिख रही थी। लगता है पानी स्वच्छ होने का यही कारण रहा हो।
चार किलोमीटर आगे थांग बी गांव में गए। गांव के प्राइमरी स्कूल का भवन काफी बड़ा है। सजाया भी गया है। पेंटिंग स्कूल के भवनों पर भी की गई थी। इधर आलू की खेती का काफी विस्तार हुआ है। जंगलों के बाद इस मौमस में आलू की खेती की हरियाली चारों और फैली है। यहां पर लोगों की आमदनी का एक स्रोत परंपरागत कपड़ों की बुनाई है। यह कार्य पहले स्वावलंबन के लिए होता था। अब तो अतिरिक्त सामान की बिक्री की जाती है।
2-6-09
सुबह आसमान में काले बादल छाए थे। सात बजे हमने प्रस्थान किया। चमखर चू नदी के किनारे हम कुछ दूर तक आगे बढ़े। फिर चढ़ाई शुरू हो गई थी। रास्ते में ब्लू-पाईन की वृक्षावलियां के बीचों-बीच हमारी कार आगे बढ़ रही थी। यहां भी भोजपत्र की वृक्षावलियां देखने को मिली। रिंगाल फूलने से वे सर्वत्र सूख गए हैं। बीच-बीच में कांचूला (मैपल) के वृक्ष भी बहुत सुहावने लग रहे थे। आगे हम किकिला (पास) पहुंचे। यहां एक ओर विशाल वृक्ष खड़े हैं तो दूसरी ओर रिंगाल के ठूठों से भरे चारागाह हैं। पहाड़ और नदियों को पार करते हुए छू में हाईस्कूल के पास पहुंचे।
यहां का नज़ारा देखने लायक था। लड़के-लड़कियां हाथों में बुरांश प्रजाति के पौधों को लेकर उत्साह से उनका रोपण कर रहे थे। पता चला कि चौथे राजा वांगचुक के राज्याभिषेक की याद में 2 जून को पूरे देश में सामाजिक वानिकी दिवस पौधारोपण कर मनाया जाता है। रास्ते में भी छात्र स्कूल से फावड़ा लेकर लौट रहे थे। फिर हम एक के बाद एक मोड़ों को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे। इस क्षेत्र में भी भोजपत्र, रिंगाल, बुरांश, कांचुला, बांज, उतीस, चमखड़ीक, पांगर, गड़भैंस और गढ़पीपल के घने जंगल हैं। इसके आगे 3300 मीटर की ऊंचाई पर योतुला पास है। इसके आसपास मनोहारी बुग्याल (चारागाह) भी दिखाई दिए। आगे चंवर गायों का एक बहुत बड़ा काफिला भी देखने को मिला। दूध पीते छोटे-छोटे बच्चे बहुत अच्छे लग रहे थे।
भूटान की जैव विविधता को देखते हुए याद आया कि यह देश दुनिया के हाट-स्पॉटों में से एक है। योतुला को पार करने के बाद घने जंगल के बीच से आगे बढ़ रहे थे। दूर-दूर झूम खेती भी दिखाई दे रही थी। रास्ते में टौंगसा-जौग (किला) भी देखा। हमने उतरते-उतरते आगे मांगदी चू (नदी) को पार किया। यह नदी काफी बड़ी है। बताया जाता है कि इसका जलग्रहण क्षेत्र विशाल हैं। इसके आगे एक सीधा खड़ा थुमादा पहाड़ है। जिसके नीचे सीधी चट्टान है। बताया जाता है कि पहले अपराधी को दंड देने के लिए चट्टान से नीचे फेंका जाता था। जहां उसकी मृत्यु हो जाती थी। इससे आगे हम मोरू-खरसू, भोजपत्र, गढ़भैंस के जंगलों से आगे बढ़ते हुए 12000 फीट की ऊंचाई पर स्थित थिलेला (पास) पर पहुंचे। पास के एक तरफ सेमरू – सफेद बुरांश-फैला हुआ है तो दूसरी ओर रिंगाल के ठूठों की भरमार है। यहां भी ऊंचाई पर बुग्याल फैला है।
आगे बांगडी, जोकि पुनाखा-चू नदी के तट पर बसा है, पहुंचे। वहां से दांयी ओर पुनाखा चू नदी के किनारे होते हुए पुनाखा पहुंचे। रास्ते में 26-27 मई को हुई अतिवृष्टि से भारी विनाश देखा। लोगों के खेत आदि नष्ट हुए हैं। साद दो सौ मीटर दूर तक फैली दिखी। नदी के क्षेत्र में टो कटिंग को भी देखा। बाढ़ से नष्ट हुए पेड़ों के ढेर जगह-जगह देखने को मिले। आगे पौंचू और मौंचू नदियों का संगम है। इन दोनों नदियों के संगम के बाद ही इसका नाम पुनाखाचू है। संगम के मध्य भाग में जौंग (किला) है। जौंग में जाने के लिए लकड़ी का पुल बना हुआ है। जिस पर दोनों ओर से सुंदर दरवाज़े बने हैं तथा ऊपर से ढका गया है। जौंग भी काफी बड़ा है। यह जौंग सन् 1637 का बना था। इन दोनों नदियों का जलागम बहुत विस्तृत है। जब हम संगम में थे तो दूर जंगलों में आग का धुंआ दिख रहा था। मौंचू जौमलर तथा पौंचू कान्चेला से उद्गमित होती बताई गई है। जहां के लिए पैदल नौ-दस दिन का रास्ता है।
रास्ते में वनस्पति उद्यान मिला, फिर घुमावदार रास्ते और घने जंगलों के बीचों बीच होते हुए हम दोचुला पहुंचे। यहां पर 108 स्तूप बने हुए हैं, जो इस टीले पर बहुत ही सुंदर दिखते हैं। इसके सामने एक मंदिर हैं जहां विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ दी गई हैं। यहां से चारों ओर का दृश्य मनोहारी है। आगे हम चिलचिलाती रोशनी में थिम्पु पहुंचे।
3-6-09
थिम्पू भूटान की राजधानी है। भूटान की आबादी 6 लाख 72 हजार के आसपास बताई गई है। थिम्पु के बीचों-बीच थिम्पू चू बहती है। नदी के दांयी ओर ढाल में मुख्य शहर फैला है। इसी तरफ जौंग भी है। विभिन्न मंत्रालय एवं बाजार भी हैं। ऊपर की ओर जंगलों के बीचों-बीच रानियों और उनके परिवार वालों के लिए महल और आवास हैं। थिम्पू के आस-पास की पहाड़ियां ब्लू-पाईन के विकासमान जंगलों से आच्छादित हैं। इसी जंगल के बीचों-बीच टाकिन संरक्षण बाड़ा हैं। टाकिन के बारे में मैंने पहले न सुना था न देखा था। टाकिन का आगे का भाग एक बड़े बकरे की तरह है। पिछला हिस्सा गाय की तरह है। इसके पीछे एक कहानी बताई जाती है कि सन् 1455 के आसपास एक चमत्कारी लामा जी को एक दिन गाय और बकरी की हड्डियां बिखरी पड़ी मिली। उन्हें चमत्कार दिखाने को कहा गया। लामा ने बिखरी हड्डियों को जोड़कर उन पर प्राण का संचार किया तो वह टाकिन बन कर जंगल में भाग गया। ये टाकिन उसी के वंशज बताए जाते हैं। इस लामा के चमत्कार की कई कहानियां बताई जाती हैं। इस प्रकार उत्तरी भूटान के जंगलों में टाकिन पाया जाता है।
थिम्पू में स्थानीय संस्कृति केंद्र है। इस केंद्र द्वारा परंपरागत शैली के प्राचीन मकान में यहां के लोगों की दिनचर्या से जुड़ी सभी गतिविधियाँ दिखाई गई हैं। जिससे बाहर के लोगों को यहां के जीवन और संस्कृति के बारे में एक झलक समझने को मिल सके।
यहां एक आधुनिक राष्ट्रीय पुस्तकालय है, जिसमें भूटानी के अलावा अन्य भाषाओं की भी अनेक पुस्तकें है। भूटान अब पर्यटन की दृष्टि से बाहरी दुनिया को आकर्षित कर रहा है। मुख्य रूप से भारतीय पर्यटक ही यहां अधिक आते हैं। इनमें असम और पश्चिम बंगाल के लोग ज्यादा आते हैं। यहां पर पर्यटक मुख्य रूप से मार्च, अप्रैल, मई तथा सितंबर, अक्टूबर एवं नवंबर में आते हैं।
पर्यटक निदेशक दमजम रिनजिन ने बताया कि पर्यटकों से दो सौ पैंसठ डालर प्रति व्यक्ति प्रति दिन के हिसाब से लिया जाता है। इसके अंतर्गत उन्हें सुविधाएँ आदि दी जाती हैं। यह सुविधा पर्यटक एजेंसियों के माध्यम से दी जाती है। अभी तक 419 एजेंसियाँ हैं। पर्यटन के बारे में हमारी कुछ नीतियाँ हैं, उनका पालन किया जाता है। प्रकृति को समझना एवं उससे प्यार करना पहली शर्त होती है। साथ ही हाई वैल्यू, लो वाल्यूम का ध्यान रखा जाता है।
थिम्पू जौंग (किला) में राजा के दफ्तर के अलावा कई अन्य महत्वपूर्ण मंत्रालय हैं। इसके आगे प्रधानमंत्री का कार्यालय है। भूटान के प्रधानमंत्री श्री लियोन छेम जिग्मी वाई थिनले जी ने बहुत ही सरलता से हमें मिलने का समय दिया। जितनी सरलता से हमें मिलने का समय दिया, उससे भी अधिक सहजता से उनके साथ बातचीत हुई। उन्होंने पृथ्वी पर गहराते पर्यावरण संकट पर चिंता व्यक्त की तथा इसके लिए हिमालय के संरक्षण पर जोर दिया। उन्होंने राष्ट्रीय प्रसन्नता-समग्र राष्ट्रीय आनंद के उनके (GNH) राष्ट्र के लक्ष्य के बारे में भी विस्तृत जानकारी दी तथा हम लोगों द्वारा किए जा रहे वनों के संरक्षण और वनीकरण के चिपको कार्य की प्रशंसा भी की।
बातचीत के लिए आधे घंटे का समय निश्चित किया गया था। लेकिन बातचीत सवा घंटे तक चली। कब समय बीत गया, पता ही नहीं चला। उन्होंने जी.एन.एच. संबंधी तथा कुछ अन्य पुस्तकें भी भेंट में दी। इसके भूटान के कृषि मंत्री डॉ. पेमा जी ज्ञामते से मिले। वे हमारे पूर्व परिचित थे। उन्होंने भी भूटान के जंगलों तथा वन्यजीवों के बारे में सरकार द्वारा दिए जा रहे कार्यों की जानकारी दी।
4-6-09
अगले दिन वन मंत्रालय के सभा कक्ष में करमा डुकपा निदेशक की अध्यक्षता में वरिष्ठ वनाधिकारियों एवं वैज्ञानिकों से विचारों का आदान प्रदान हुआ। इनमें से अधिकांश भारतीय वन सेवा के अधिकारी थे। जो देहरादून से अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई वानिकी से पूरी तरह परिचित थे। साथ ही चिपको आंदोलन को जानते थे। उन्हें स्लाइड भी दिखाई गई। सायं को वन मंत्रालय द्वारा दिए गए भोज में शामिल हुए। भूटान के कृषि सचिव श्री शेरूब ग्यालिस्तिन भी उपस्थित थे। उन्होंने उपहास में बताया कि वनाधिकारी उपनिवेशवादी मनोवृत्ति के हैं। इन्हें अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव लाना चाहिए। ये तो अपनी सोच को बदलने के लिए तैयार ही नहीं है। उन्होंने देहरादून से ही प्रशिक्षण प्राप्त किया है।
5-6-09
अगले दिन विश्व पर्यावरण दिवस था। विश्व पर्यावरण का एक स्थानीय संस्थान में आयोजन किया गया था। इसमें हमें भी शामिल होने का निमंत्रण मिला था। इस संस्थान में नव युवा लामाओं को शिक्षा दी जाती है। इस आयोजन में भूटान के कृषि मंत्री, राष्ट्रीय पर्यावरण कमीशन के उप मंत्री, सासंद एवं विदेशी राजनयिकों के अलावा बौद्ध भिक्षु एवं स्थानीय नागरिकों ने भाग लिया। शुभारंभ एवं समापन पर सबने मिलकर प्रार्थना की, बीच के समय औपचारिक व्याख्यान हुए।
इस प्रकार थिम्पू और उसके आसपास की स्मृतियाँ संजोकर हमने आगे का रास्ता पकड़ा। कुछ ही किलोमीटर हम आगे बढ़े थे कि वीरान और रोखड़ वाले इलाके में हम थे। इससे पहले तो हम घने एवं विकासमान जंगलों के बीच से गुजरे थे। आगे हम थिम्वो चू और पारोचू के संगम, जिसे छाजम के नाम से पुकारा जाता है, के पास थे। यहां से एक रास्ता पारो तथा दूसरा रास्ता है, तथा तीसरा रास्ता गेदू-फुटसिलिंग की ओर जाता है। इस प्रकार यहां पर संगम के अलावा चौरास्ता भी है।
अगले दिन विश्व पर्यावरण दिवस था। विश्व पर्यावरण का एक स्थानीय संस्थान में आयोजन किया गया था। इसमें हमें भी शामिल होने का निमंत्रण मिला था। इस संस्थान में नव युवा लामाओं को शिक्षा दी जाती है। इस आयोजन में भूटान के कृषि मंत्री, राष्ट्रीय पर्यावरण कमीशन के उप मंत्री, सासंद एवं विदेशी राजनयिकों के अलावा बौद्ध भिक्षु एवं स्थानीय नागरिकों ने भाग लिया। शुभारंभ एवं समापन पर सबने मिलकर प्रार्थना की, बीच के समय औपचारिक व्याख्यान हुए। हम पारो की तरफ बढ़े। कुछ दूर तक यह इलाक़ा भी वीरान था। पारो सुंदरतम इलाकों में है। तन तरफ से घाटियों में फैला हुआ। घाटी का अपना नज़ारा है। यहां जिधर देखो घाटी फैली हुई है। बीचों-बीच पारोचू बहती है। पारोचू में हर घाटी से बहने वाली धारा मिलती है। ऊपर की ओर घने हरे जंगल हैं। सड़क के दोनों किनारों पर मजनू की वृक्षावलियां हैं, सेब और अखरोट के बाग भी यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं। बीचबीच में जहां भी पानी की धारा है, उससे छूकर मणी चलाया जाता है। यहां पर भी 11वीं शताब्दी से पनचक्की (घराट) द्वारा अनाज की पिसाई का इतिहास है। उसी को आधार मानकर मणीचक्र मणीचक्र चलाया जाता है। पारो में भूटान का एक मात्र हवाई अड्डा है। यहां पर होटलों, रेस्तराओं की भरमार है। होटलों में स्थानीय व्यंजन तो परोसे ही जाते हैं, साथ ही सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता है। स्थानीय कलाकृतियों एवं पोंटिंग से मकानों को रंग-बिरंगे ढंग स सजाया गया है।
6-6-09
पारो से ऊपर की ओर जाने पर टकछांग (टाइगर नेस्ट) में चट्टानों के बीच में मंदिर बने हैं। उसे देखा। इस चट्टान के निचले भाग में घना जंगल है। बीच-बीच में बस्ती भी हैं। अंत में पारोचू बहती है। इधर होटलों का लगातार विस्तार हो रहा है। उद्यान भी इधर-उधर देखे जा सकते हैं। यहां की घाटियां बहुत सुंदर हैं। इसीलिए पर्यटकों की इस क्षेत्र में दिनों-दिन बढ़ोत्तरी हो रही है।
आगे खंडहर के रुप में डूग्यल जौंग है। बताया जाता है कि तिब्बत और भूटान की लड़ाई में यह जौंग नष्ट हुआ था। जौंग एक टीले में बना है। इसका बाहरी परकोटा है। फिर अंदर एक ऊंची इमारत है। इसके अंदर पेड़ उग आए हैं। दीवारों पर दरारे हैं। कब कौन पत्थर गिर जाए, कौन सी दीवार टूटकर गिर जाए, यह डर लगा रहता है।
यहां से सामने ऊंचाई पर एक ग्लेशियर भी दिखता है। उसके नीचले भाग में बुग्याल फैला हुआ है। बुग्याल और ग्लेशियर को धीरे-धीरे बादलों ने घेर लिया था। इस पहाड़ को केवे गांवरी कहा जाता है। यहां पर पानी की धारा से छूकर मणी चलता है। जहां भी जलधाराएं हैं, छोटे-छोटे छूकर मणी देखने को मिल जाते हैं।
इस इलाके में भी 26-27 मई को प्रलयंकारी बाढ़ आई थी। नदी में पेड़ों के ठूठ के ढेर इधर-उधर जमा हैं, जो पिछली बाढ़ की याद दिलाते हैं। इस सड़क पर भी दोनों ओर विलो के पेड़ कतार में खड़े हैं। लगता है ये आगंतुकों के स्वागत के लिए खड़े हैं।
जौखांग में यहां का राष्ट्रीय संग्रहालय का भवन ऊंची पहाड़ी पर है। यहां से पारोघाटी बहुत सुंदर लगती है। यह संग्रहालय छह मंजिला भवन है। इसमें भगवान बुद्ध से लेकर उनके शिष्यों के बारे में क्रमबद्ध जानकारी दी गई है। जीवन पद्धति, खानपान, पहनावे पर भी जानकारी मिलती है। इसके अलावा मठों, मंदिरों तथा जौंग के निर्माण काल के बारे में जानकारी दी गई है। यहां के प्रसिद्ध जौंग पुनाखा जौंग का स्थापना वर्ष 1637 लिखा है। जो यहां दर्ज जौंगों में सबसे पुराना है। यहां के जौंग और मंदिरों में प्रवेश के लिए विशेष अनुमति लेनी पड़ती है। जौंगों के अंदर दो प्रकार का प्रशासन चलता है। एक धार्मिक तथा दूसरा प्रशासनिक। दोनों के अलग-अलग मुखिया हैं।
संग्रहालय से वापस लौटते हुए हमें रास्ते में छात्रों की टीम इधर-उधर से पॉलीथीन एवं कूड़ा करकट एकत्रित करते हुए दिखी। इस कूड़े को बड़े-बड़े बैगों में एकत्रित किया जा रहा था। इनके साथ-साथ अध्यापक भी चल रहे थे।
पहाड़ों में मुख्य मोटर मार्ग के पास एक मैदान में तीरंदाजी खेली जा रही थी। सौ मीटर की दूरी पर एक दूसरे छोर से तीर फेंके जा रहे थे। तीरंदाज सज-धज कर आए थे। उनके तीर भी चमक रहे थे। तीरंदाजी के अलावा हर जगह युवा लोग कैरम खेलते हुए दिखाई देते हैं।
आगे हम इस सुंदर घाटी को पार करते हुए छाजम पहुंचे। छाजम से फिर चढ़ाई लगती है। गढ़बैस, गढ़पीपल, बांज, ब्लू-पाईन के घने जंगलों के बीच से रास्ता जाता है। सबसे ऊंचाई पर व्याईस चपचा है। आगे दंतक परियोजना का आधार शिविर है।
यहां से आगे नदी किनारे तक उतरना पड़ा। 26-27 मई को इस क्षेत्र में भी भयंकर भूस्खलन हुआ था। मोटर मार्ग कुछ दिनों के लिए बंद किया गया था। रास्ते में मलबा अभी भी जमा है। जिसे दंतक प्रोजेक्ट के कार्यकर्ता मुस्तैदी से साफ करते हुए दिखाई दिए। आगे 366 मेगावाट की चुखा जलविद्युत परियोजना कुछ दूरी पर दिखाई दे रही थी। इसके अलावा पुंखा आदि कई प्रोजेक्टों की श्रृंखला भी है।
आगे रास्ता बहुत खतरनाक था। ड्राइवर बता रहा था कि इस रास्ते में ऊपर से मलबा गिरने का भय बना रहता है। नीचे सीधी घाटी है। मोटर मार्ग को चौड़ा किया जा रहा था। उसका मलबा नीचे के भाग में पेड़ों को रौंदता हुआ सीधे नदी में जाता है। बताया गया कि पिछले दिनों की अतिवृष्टि के बाद यहां पर स्थित विद्युत परियोजना पर साद के कारण समस्या पैदा हो गई थी। वास्तव में अभी तक इस दिशा में कार्य ही नहीं हुआ है। सड़क भी बने और मिट्टी का क्षरण भी कम से कम हो इसके लिए तो एक सरल उपाय यह है कि नीचे की ओर से दीवार बनाई जाए और ऊपर से सीमित कटाव किया जाए। बेशक इसमें खर्चा ज्यादा आ सकता है लेकिन दूसरी ओर परियोजनाओं का नुकसान होता है। उसकी गिनती ही नहीं की जाती है। विभागों या मंत्रालयों में अंतरविभागीय समन्वय नहीं दिखता है। यह बात हमारे देश के पहाड़ी इलाकों में भी देखी जा सकती है।
गेदू ढालदार पहाड़ी पर सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर स्थित है। यह एक बड़ा कस्बा जैसा लगता है। पहले यहां पर निर्माणाधीन विद्युत परियोजना का आधार शिविर था। उसके लिए आवासीय भवनों की भरमार है पर अब यह सारा शिविर कार्यालय टाला के आसपास ही बन गया है। इस प्रकार ग्रीन पॉवर कार्पोरेशन, जोकि भूटान में विद्युत परियोजनाओं का संचालन करता है, के कैंपस में इनका चौमंजिला गेस्ट हाउस भी है। यह ऊंचाई पर स्थित है। यहां से आसपास का दृश्य दिखाई देता है। यहां पर ऊपरी भाग में घना जंगल है। आसपास पानी के कई स्रोत हैं।
ग्रीन पॉवर परियोजना के ये अधिकांश भवन अब गेदू कॉलेज आफ बिज़नेस स्टडीज, जो रॉयल यूनिवर्सिटी ऑफ भूटान का कैंपस है, को हस्तांतरित हो गए हैं। बताया गया कि कुछ ही दिनों में सारा कैंपस उन्हीं को सौंप दिया जाएगा।
कॉलेज में सभी छात्रों को आवासीय सुविधा है तथा ऊपर से हर छात्र को पांच सौ रुपये अतिरिक्त दिए जाते हैं। लड़के-लड़कियों की संख्या लगभग बराबर है। लड़कियों के दो छात्रावास हैं। वहीं उनका भोजनालय एवं छुटफुट सामान की एक छोटी सी दुकान भी है। कॉलेज के डायरेक्टर, जिनसे हमने सायंकाल को ही भेंट की, तो हमें पूरे परिसर में और फिर छात्राओं के हॉस्टल में ले गए। यहां भूटान के राज्यभर की छात्राएं पढ़ती हैं। एक-एक- कमरे में दो-दो छात्राएं हैं। यहां लड़के-लड़कियों का आपसी मिलन सामान्य बात है। हॉस्टल में लड़के काम पड़ने पर आया जाया करते हैं। डायरेक्टर का एक-एक छात्र-छात्रा से सीधा-सीधा संवाद है। वे कमरों में जाकर उनके स्वास्थ्य तथा पढ़ाई के बारे में पूछताछ करते रहते हैं और इसी प्रकार अन्य समस्याओं असुविधाओं पर बातचीत कर उनका निराकरण करते हैं। जब वे कमरों में मिलने गए तो कोई हलचल नहीं थी। उनके भोजनालय में भी गए। उसे भी सहज रूप से एक नजर से देख लिया। पता चला कि यह उनका रोज का काम है। भूटान में शिक्षा पर खूब जोर दिया जा रहा है। जो लड़के मैरिट में आते हैं और यहां पर उस विषय की पढ़ाई नहीं हो सकती है तो उन्हें बाहर के मुल्कों में भेजा जाता है, जिसका पूरा खर्चा सरकार उठाती है। मुख्य रूप से भारत के अलग अलग शहरों में सैकड़ों लड़के-लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। इससे पहले आज ही रास्तें में हमें बंगलूरू में कानून की पढ़ाई करने वाली दस छात्र-छात्राएं मिली थी, जो बंगलूरू से गर्मियों के अवकाश पर अपने घर लौट रहे थे।
स्कूल कॉलेजों में भारतीय अध्यापक भी हैं। कुछ तो कोलंबो प्लान के अंतर्गत डेपूटेशन पर हैं। कुछ अस्थाई तौर पर सीधे नियुक्त हैं। विभागाध्य तो स्थानीय अध्यापक ही हैं। जैसे-जैसे यहां के व्यक्ति खास विषयों के ज्ञाता बन जाते हैं तो ये पद उनके लिए आरक्षित हो जाते हैं। पूरे देश में रॉयल यूनिवर्सिटी आफ भूटान के अंतर्गत अलग-अलग विषयों के आठ महाविद्यालय हैं। इन महाविद्यालयों में एक तिहाई के करीब भारतीय अध्यापक हैं। अन्य विभागों में भी भारतीय हैं। श्रमिकों के रूप में भी भारतीयों की तादाद काफी हैं। नेपाली भी बहुत हैं। नगरों, बाजारों में सभी हिन्दी बोल एवं समझ लेते हैं। इसलिए मुझे तो भाषा की कोई दिक्कत नहीं हुई गेदू में नमी एवं पानी खूब है। जब मैं सुबह दो किलोमीटर दूर जंगल में घूमने गया तो वहां छोटी-बड़ी सघन हरियाली थी। फरण प्रजाति के पौधों की बहुतायत थी, जो कि हमारे इलाके में भी मिलते हैं। कछ प्रजातियों की सब्जी भी बनती है। यहां से जब मैं वापस गेस्ट हाउस लौटा तो मेरे बदन में दो जोंक चिपकी हुई थीं। पहले से मुझे इसका कोई अनुमान नहीं था।
सात जून की सुबह-सुबह हमसे गेदू-गेस्ट में ग्रीन पॉवर परियोजना के प्रबंधक निदेशक छेवांग रिनजिन, टाला प्रोजेक्ट के मुख्य अभियंता थिनले दौरजी मिलने आए थे। उन्होंने जानकारी दी कि उनके यहां जलविद्युत परियोजना की प्रचुर संभावनाएं हैं। विस्थापन का संकट भी नहीं है।
टाला प्रौजेक्ट से 692 मेगावाट, चुखा से 366 मेगावा, पुनाखा से 64 मेगावाट, मुनगा से 66 मेगावट तथा कुल 1488 मेगावाट। जाड़ों में मात्र 300 मेगावाट रहता है भविष्य में 1200 मेगावाट पुनाखा, 114 मेगावाट देया चू परियोजना प्रस्तावित हैं। उन्होंने बताया कि शहरी आबादी को 100 फीसदी बिजली दी गई है। ग्रामीण हाउस होल्ड को 60 प्रतिशत दी गई है। 40 प्रतिशत और दी जानी है।
विस्थापन के बारे में उन्होंने बताया कि ये परियोजना नीचे घाटी में है इसलिए विस्थापन बहुत कम है। विस्थापन उतनी बड़ी समस्या नहीं है। परियोजना के आसपास के जंगलों के साथ छेड़छाड़ तो होगी ही। उसे कम से कम करने का प्रयास किया जा रहा है।
10 बजे हमने गेदू से प्रस्थान किया। दसेक किलोमीटर चलने के बाद फुन्टसिलिंग के लिए दो रास्ते हैं। मुख्य मोट मार्ग पर सुधार का कार्य चल रहा था इसलिए वह रास्ता बंद था। दूसरा मार्ग पहले वाले से 25 किलोमीटर लंबा है। हमें दूसरे रास्ते से जाना पड़ा। यहां से उतार था। कुछ दूर जाने पर तेज बारिश शुरू हो गई, बादल आते-जाते रहे। रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। ड्राइवर बहुत सावधानी से वाहन चला रहा था। बता रहा था कि बारिश में यह रास्ता बहुत खतरनाक है। लैंड स्लाइड हो जाता है, पत्थर गिरते रहते हैं। गुवाहाटी से जब हमने 26 मई को प्रस्थान किया था तो उस दिन भी मूसलाधार बारिश हो रही थी। आज भूटान छोड़ते हुए भी मूसलाधार वर्षा हुई। हम चलते-चलते गा रहे थे, दिल का घोड़ा कस कर दौड़ा, मार चला मैदान। चलता मुसाफिर ही पायेगा और मुकाम रे..।
अब हम भूटान के तराई में फसाका में पहुंच गए थे। यहां सड़ांध वाली गर्मी थी। सुपारी के पेड़ों के साथ ही बांस की वृक्षावलियों के बीचों बीच छोटे-छोटे घरों के बीच से गुजरते हुए हम फुटसिलिंग में भूटान के द्वार पर पहुंचे। शोर-शराबा, गर्मी तपन के बीच हम पसीने से लथ-पथ हो रहे थे। भूटान द्वार के पास हमने अपने गाइड को विदा किया। भूटान के कलात्मक द्वार की ओर निहारते हुए जयगांव से आगे प्रस्थान किया तथा 6 बजे तक हम सिलीगुड़ी पहुंच गए थे। गर्मी से बेहाल थे। पास के बाजार में हो-हल्ला, धक्का-मुक्की के बीच हम थोड़ी देर टहलने के बाद वापस गेस्ट हाउस लौट गए।
आठ जून को नाश्ता करने के बाद शेखर तथा ललित ने दार्जिलिंग के लिए प्रस्थान किया। जहां उन्हें पूर्व निर्धारित कार्यक्रम में भाग लेना था। मैं तथा उमा जी ने बागडोगरा हवाई अड्डे के लिए प्रस्थान किया।
बागडोगरा हवाई अड्डे पर बोर्डिंग पास लेने के बाद हम दोनों चैकिंग के बाद जहाज में बैठने के बुलावे का इंतजार कर रहे थे कि घोषणा हुई कि जहाज की उड़ान रद्द हो गई है। हम एक दूसरे को देखने लगे कि अब क्या होगा? मुसाफिर प्रतिरोध कर रहे थे। एयरलाईन का कोई भी व्यक्ति वहां पर नहीं था। कहा जा रहा था कि अपना बोर्डिंग पास रद्द करवा दें तथा सामान वापस ले जाएं। कोई सुनने वाला नहीं था। अंत में हमें बोर्डिंग पास रद्द करवाना पड़ा। नीचले तल पर इंडियन एयर लाईंस वालों से बात की तो उनका एक ही जवाब था कि कल के लिए भी पक्का भरोसा नहीं है। जिनका पूरा टिकट है, उनको तो होटल एवं कल के जहाज़ में भेजने का प्रबंध हो जाएगा। किंतु रियायती टिकट वालों को कोई आश्वासन नहीं दे सकते हैं। यह सब सुन कर हम सन्न रह गए। एयर लाईन वालों ने हमारे टिकट पर अपना नम्बर लिख दिया तथा लगातार संपर्क करने को कहा। हमने सामान लिया। गेस्ट हाउस वालों से फिर संपर्क किया। उन्होंने कहा कि आप लोगों का गेस्ट हाउस में फिर से स्वागत है।
हमने जहाज के उड़ान के रद्द होने की जानकारी शेखर को भी दे दी थी हमारे लिए अनिश्चय की स्थिति बनी हुई थी। धक-धक हो रहा था। आखिर रात को शेखर का फोन आया कि जीवन पांडे, जिनके पास वे ठहरे थे, ने न जाने किसी से संपर्क कर हम दोनों का सुबह के नियमित जहाज़ से स्थान पक्का करवा दिया है। कुछ देर बाद एयरलाईंस वालों ने इसकी पुष्टि की तथा अगले दिन सुबह 9 बजे हम दिल्ली के लिए रवाना हुए।
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