भूमिगत संसाधनों पर बढ़ता दबाव एक चुनौती

भूमि में विकास की अपार संभावनाएं हैं। भूमि पर्यावरण संतुलन की आधारशिला है, इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए उचित फसल चक्र अपनाकर, मिट्टी की जांच के आधार पर बीज, फसल व रासायनिक खादों के उपयुक्त चयन को सुनिश्चित करके, बहु-फसली पद्धति के आधार पर भूमि के अनुकूलतम उपयोग को प्राथमिकता प्रदान करके, जैविक खाद व वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग करके भूमि की उर्वरता को बनाए रखना संभव है। ये सभी कार्यक्रम भूमि संरक्षण की दिशा में मील के पत्थर साबित होंगे।सभी प्राकृतिक संसाधनों में भूमि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि मानव तथा अन्य जीव-जन्तु भूमि पर निवास करते हैं। खेती और कारखानों की स्थापना, सड़कें व रेल यातायात, नहरें, जलाशय आदि भूमि पर ही बनाए जाते हैं। वन सम्पदा को बढ़ाने व पशुपालन के लिए चारागाहों का विकास भी भूमि पर ही संभव है। यही नहीं, विश्व के सम्पूर्ण कच्चे माल की प्राप्ति का स्रोत भूमि ही है।

भूमि प्रकृति का एक आधारभूत एवं महत्वपूर्ण संसाधन है। भूमि पर संसार की विभिन्न उत्पादन क्रियाएं निर्भर हैं। भूमि संसाधनों से उपलब्ध उत्पादों के आधार पर ही किसी देश की अर्थव्यवस्था का विकास होता है। अतः किसी देश के आर्थिक विकास में भूमि संसाधनों का महत्वपूर्ण स्थान है। भूमि संसाधनों की पर्याप्त उपलब्धता से देश के आर्थिक विकास की राह सुगम हो जाती है तथा भूमि संसाधनों की अपर्याप्तता के कारण आर्थिक विकास की प्रक्रिया धीमी हो जाती है।

मानव के अधिकांश कार्य भूमि पर तथा भूमि के माध्यम से ही संचालित होते हैं। भूमि संसाधनों का उपयोग विविध प्रकार से मानव की विभिन्न आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है। मनुष्य की आवास, भोजन, आवागमन हेतु संचार साधनों, ईंधन, फल, फूल, सब्जी इत्यादि अनेक आवश्यकताओं की परिपूर्ति भूमिगत संसाधनों पर ही निर्भर है।

ज्ञातव्य है कि भूमि संसाधनों में वृद्धि किया जाना संभव नहीं है। एक तरफ बढ़ती जनसंख्या व आय में बढ़ोतरी के कारण वृद्धि उत्पादों की मांग उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है जबकि बढ़ती जनसंख्या, नगरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति, औद्योगिकीकरण तथा अन्य कार्यों हेतु भूमि का उपयोग गैर-कृषि कार्यों में निरंतर बढ़ता जा रहा है। ऐसी विषम स्थिति में खाद्यान्नों की मांग व पूर्ति में अंतराल उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है जिसके कारण विश्व खाद्य संकट की भयावह समस्या से जूझ रहा है।

विश्व में भूमिगत संसाधन मरुस्थल, पहाड़, मैदानी क्षेत्र और पठार आदि विभिन्न प्रारूपों में उपलब्ध हैं तथा इनका उपयोग भी जंगल, मरुस्थल, घास भूमि, नदियों व झीलों आदि के रूप में किया जाता है। हमारे देश में कुल भूमि संसाधन 328.73 मिलियन हेक्टेयर हैं जिसमें से 306 मिलियन हेक्टेयर भूमि के उपयोग संबंधी आंकड़े उपलब्ध हैं। भूमि उपयोग के लेखे-जोखे (रिपोर्टिंग क्षेत्र या ज्ञापित क्षेत्र) का दायित्व भू-राजस्व विभाग पर है।

हमारे देश में कुल ज्ञापित क्षेत्र का केवल 45.8 प्रतिशत भाग ही शुद्ध बोए गए क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल है। सिंचाई सुविधाओं का विस्तार करके तथा उपलब्ध सिंचाई सुविधाओं के दक्ष व पूर्ण उपयोग को सुनिश्चित करके शुद्ध बोया गया क्षेत्र बढ़ाया जाना संभव है ताकि देश को खाद्य संकट के प्रहार से कुछ हद तक बचाया जा सके। शुष्क कृषि तकनीक विकास के उपयोग को बढ़ावा देकर भूमि कटाव से हुई बेकार भूमि को खेती योग्य बनाकर तथा शुद्ध बोया गया क्षेत्र बढ़ाकर भूमि के संतुलित उपयोग को सुनिश्चित किया जा सकता है। इसी तरह, बहुफसली कृषि प्रणाली को अधिक प्रोत्साहित करके भूमि के प्रभावी उपयोग की दिशा में कदम बढ़ाया जा सकता है।

भूमिगत संसाधनों में वन संसाधनों का महत्वपूर्ण स्थान है। वनों से ही इमारती लकड़ी, कागज उद्योग हेतु कच्चा माल, जड़ी-बूटियां, दवाईयां, शहद, लाख, चंदन, फल, फूल, इत्र आदि की प्राप्ति होती है। पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से वनों का महत्वपूर्ण स्थान है। वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाकर तथा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस की मात्रा को कम करके वन वातावरण को स्वच्छ व प्रदूषण रहित करने में मदद पहुंचते हैं तथा साथ ही भूमंडलीय उष्णता को कम करते हैं तथा वर्षा की मात्रा को बढ़ाते हैं।

वनाच्छादित क्षेत्र के संकुचन के कारण सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण-संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसा अनुमान प्रस्तुत किया गया है कि विश्व की लगभग एक चैथाई जमीन बंजर हो चुकी है और ऐसा अंदेशा है कि आगामी कुछ वर्षों में सूखा प्रभावित क्षेत्र की लगभग 70 प्रतिशत जमीन बंजर हो जाएगी जिससे विश्व के सौ देशों की एक अरब से अधिक जनसंख्या के जीवन अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा।चिंताजनक तथ्य है कि वनों का मानव व पर्यावरण संरक्षण हेतु महत्वपूर्ण स्थान होने के बावजूद भी देश में वन-आवरण में तीव्र गति से ह्रास हो रहा है। हमारे देश की कुल ज्ञापित भूमि का लगभग 22.5 प्रतिशत भाग वनों के अधीन है जोकि पर्यावरणीय संतुलन हेतु वांछित 33 प्रतिशत भाग से काफी कम है। ईंधन व इमारती लकड़ी हेतु वृक्षों की कटाई, खेती हेतु जंगलों का सफाया, चारागाह हेतु वनों का उपयोग तथा घर, सड़क व रेलमार्ग हेतु वनों की कटाई आदि के कारण वनाच्छादित क्षेत्र में निरंतर कमी हो रही है जोकि पर्यावरण संतुलन के लिए घातक है।

वनों की अंधाधुंध व अवैध कटाई एवं वन क्षेत्र के संकुचन के कारण देश में जल संकट गहराता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल एनवायरमेंटल आउटलुक ने भी जल संकट व भूमि की बंजरता के लिए वनों की तेजी से होती हुई कटाई को उत्तरदाई ठहराते हुए बताया है कि वनों की कटाई के कारण मिट्टी की ऊपरी सतह बह जाने के फलस्वरूप कृषि योग्य दस प्रतिशत भूमि बंजर हो जाएगी तथा विश्व की आधी से अधिक आबादी पानी की कमी से प्रभावित होगी। यही नहीं, बढ़ती जनसंख्या व बढ़ते उद्योगों के कारण विध्वंस होते वनों एवं जंगलों के कारण ‘जलवायु परिवर्तन’ एवं ‘बढ़ते तापमान’ जैसी ज्वलंत समस्याओं से जूझता हुआ सम्पूर्ण विश्व विनाश के कगार पर खड़ा है।

वनाच्छादित क्षेत्र के संकुचन के कारण सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण-संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसा अनुमान प्रस्तुत किया गया है कि विश्व की लगभग एक चैथाई जमीन बंजर हो चुकी है और ऐसा अंदेशा है कि आगामी कुछ वर्षों में सूखा प्रभावित क्षेत्र की लगभग 70 प्रतिशत जमीन बंजर हो जाएगी जिससे विश्व के सौ देशों की एक अरब से अधिक जनसंख्या के जीवन अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा। उच्च जीवन-स्तर की अभिलाषा, शीघ्र विकास को प्राथमिकता एवं उपभोक्तावादी संस्कृति अपनाने की वजह से मानव भूमिगत संसाधनों का अनियंत्रित रूप से अतिदोहन कर रहा है, जिसके कारण जमीन व जंगल का विनाश अनवरत जारी है। इन सबके कारण भूमि एवं पर्यावरण-संकट चरम सीमा पर पहुंच गया है। पर्यावरण संरक्षण व वन संरक्षण का चोली-दामन का साथ है। अतः पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए वनों की अवैध कटाई पर रोक लगाते हुए वन संरक्षण की दिशा में प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए।

यही नहीं, जनसंख्या विस्फोट, शहरीकरण तथा औद्योगिकीकरण के कारण भूमि संसाधनों पर बढ़ते दबाव और उनके अतिशोषण के कारण भूमि का निम्नीकरण हो रहा है जोकि कृषि क्षेत्र के विकास के लिए हानिप्रद है। कृषि का मुख्य आधार भूमि है जबकि भूमि की क्षति प्रायः अनुतक्रमणीय होती है अर्थात एक बार पूरी तरह नष्ट होने के बाद नियत समय में यह उत्पन्न नहीं होती है। वनों व वृक्षों की अवैध कटाई, खनन, रासायनिक खादों व कीटनाशकों के अत्युपयोग, अपशिष्टों व औद्योगिकीकरण के कारण भूमि का निम्नीकरण हो रहा है जिसके कारण भूमि की उर्वराशक्ति नष्ट या कम हो रही है।

योजना आयोग के अनुसार देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 65 प्रतिशत भाग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भूमि निम्नीकरण से प्रभावित है। भूमि निम्नीकरण के कारण भूमि बंजर हो जाती है तथा वहां उत्पादन किया जाना संभव नहीं है।यही नहीं, कई स्थानों पर नहरों के द्वारा सिंचाई होने से जलमग्नता के कारण भी भूमि कृषि योग्य नहीं रहती है। वर्तमान समय में देश का प्रत्येक राज्य भूमि निम्नीकरण की समस्या से ग्रस्त है। योजना आयोग के अनुसार देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 65 प्रतिशत भाग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भूमि निम्नीकरण से प्रभावित है। भूमि निम्नीकरण के कारण भूमि बंजर हो जाती है तथा वहां उत्पादन किया जाना संभव नहीं है।

भूमि निम्नीकरण को दूर करने हेतु फसल चक्र परिवर्तित करना चाहिए। औद्योगिक अपशिष्टों के निस्तारण की उपयुक्त व्यवस्था करके एवं जैविक खाद के प्रयोग को प्रोत्साहित करके भी भूमि निम्नीकरण की समस्या का कुछ हद तक समाधान संभव है।

इसी तरह, वतर्मान में भूमि कटाव या भूमि अपरदन की समस्या भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। वनों की कटाई, पशुओं द्वारा अति चराई, बिना सुधार के खनन, लवणीकरण करने वाली सिंचाई, जलाक्रांत खेती आदि के कारण भूमि अपरदन होता है। वास्तव में अविवेकपूर्ण कृषि पद्धतियों एवं उपयुक्त प्रबंधन की कमी के कारण ही भूमि का कटाव अनवरत जारी है जिसके कारण भूमि की उत्पादकता कम होने से विश्व में खाद्य संकट की ज्वाला उग्र हो रही है। ज्ञातव्य है कि विश्व की फसली भूमि का लगभग तीसरा भाग भूमि कटाव की समस्या से ग्रस्त है। देश में अत्यधिक वर्षा वाले क्षत्रों में भी उपजाऊ मिट्टी जल के साथ बहकर चली जाती है जिसके कारण ऐसे क्षत्रों में कृषि के लिए उपजाऊ मिट्टी का अभाव हो जाता है। देश के थार मरुस्थल में इस समस्या का गंभीर रूप देखने को मिलता है।

भूमि अपरदन के दुष्प्रभावों की ओर संकेत करते हुए कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि देश में प्रतिवर्ष अपरदन के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 25 लाख टन फास्फेट तथा 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि भूमि क्षरण को रोका जाए तो प्रत्येक वर्ष लगभग 6 हजार मिलियन टन की ऊपरी परत को नुकसान से बचाया जा सकता है। ऐसा करके देश की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करके आथिर्क विकास की गति को तेज करना संभव है।

देश में जलाक्रांत एवं लवणीकरण की समस्या भी बढ़ रही है। ऐसा अनमुान है कि देश में प्रतिवर्ष जलाक्रांत एवं लवणीकरण से लगभग 10 अरब रुपए की हानि होती है। किसानों द्वारा आवश्यकता से अधिक सिंचाई करने के कारण तथा निकास व्यवस्था ठीक नहीं होने से पानी भूमि के नीचे इकटठे होने से भूमि जलाक्रांत हो जाती है।यही नहीं, देश में जलाक्रांत एवं लवणीकरण की समस्या भी बढ़ रही है। ऐसा अनमुान है कि देश में प्रतिवर्ष जलाक्रांत एवं लवणीकरण से लगभग 10 अरब रुपए की हानि होती है। किसानों द्वारा आवश्यकता से अधिक सिंचाई करने के कारण तथा निकास व्यवस्था ठीक नहीं होने से पानी भूमि के नीचे इकटठे होने से भूमि जलाक्रांत हो जाती है। नहरों द्वारा सिंचाई क्षेत्रों में जल-जमाव की समस्या अधिक है। इंदिरा गांधी नहरी क्षेत्र का भी बहुत बड़ा हिस्सा जल जमाव की समस्या से ग्रस्त है।

देश में कुल कृषि क्षेत्र का 2.4 प्रतिशत क्षेत्र लवणीयता व क्षारीयता से प्रभावित है। यह समस्या उन क्षेत्रों में अधिक है जहां वर्षा कम होती है तथा वाष्पीकरण की दर वर्षण दर से अधिक होती है। दीर्घकाल तक लवणीय पानी से सिंचाई तथा खेतों में जल-निकासी की उचित व्यवस्था नहीं होने से यह समस्या बढ़ जाती है। देश में इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित राज्य उत्तर प्रदेश है। तत्पश्चात् पंजाब, गुजरात, पश्चिम बंगाल व राजस्थान हैं। ज्ञातव्य है कि देश में सिंचाई कुप्रबंधन के कारण करीब छह-सात मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता से प्रभावित है तथा करीब छह मिलियन हेक्टेयर भूमि जल जमाव के कुचक्र में फंसी हुई है। कृषि में जल के अत्यधिक उपयोग तथा जल जमाव के कारण भूमि अलवणीय हो जाती है जिसके कारण उसकी उर्वराशक्ति कम हो जाती है। भूमि की उर्वराशक्ति क्षीण होने का खामियाजा न केवल किसान वर्ग को अपितु सम्पूर्ण देश को उठाना पड़ता है।

इसी तरह, देश में बाढ़ के कारण कृषि योग्य भूमि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बाढ़ के पानी के बहाव के साथ मिट्टी की ऊपरी उर्वरा परत भी बह जाती है। पानी के साथ बहने वाली इस परत में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम व मैगनीशियम के साथ अन्य सूक्ष्म तत्व भी बह जाते हैं जिसके कारण भूमि अनुपजाऊ हो जाती है। ज्ञातव्य है कि राजस्थान का थार मरुस्थल पूर्व में हरा-भरा था किंतु वनों की अत्यधिक कटाई, अत्यधिक पशुचारण, बाढ़ व वातावरण में परिवर्तन के कारण यह क्षेत्र मरुस्थल में तब्दील हो गया। मरुस्थल के विस्तार को रोकने के लिए जल के सदुपयोग, शुष्क खेती, वनस्पति की कटाई पर रोक, चारागाह का विकास आदि किया जाना चाहिए।

कृषि व देश के विकास में भूमि के योगदान व महत्व को दृष्टिगत रखते हुए सरकार प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही भूमि संरक्षण हेतु कई कार्यक्रम आयोजित कर रही है तथा इन कार्यक्रमों में समयानुसार परिवर्तन व संशोधन भी कर रही है ताकि देश की बढ़ती जनसंख्या को खाद्य सुरक्षा का कवच प्रदान किया जा सकें। हाल ही में, सरकार भू-संरक्षण हेतु नई पहल करते हुए ‘मिट्टी परीक्षण’ पर विशेष ध्यान दे रही है। किसानों को मिट्टी की जांच हेतु प्रेरित कर रही है ताकि मृदा-जांच के अनुरूप संतुलित रासायनिक खादों के उपयोग, बीज के उपयुक्त प्रकार आदि के बारे में किसानों को सही जानकारी मिल सके जिससे भूमि की उर्वरता भी बनी रहे तथा उत्पादन भी अधिक हो सके। देश में कनार्टक, असम, केरल, तमिलनाडू, हरियाणा और ओडिशा में मृदा परीक्षण हेतु केंद्रीय प्रयोगशालाएं स्थापित की गई हैं तथा विभिन्न राज्यों में अलग से प्रयोगशालाएं भी संचालित की जा रही हैं।

इसी तरह तमिलनाडू में खरपतवार के नाश हेतु रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर अतिसूक्ष्म शाकनाशी विकास परियोजनाएं चलाई जा रही हैं जिसका विस्तार सम्पूर्ण देश में किया जाना चाहिए। इन सब कार्यक्रमों के अतिरिक्त भूमि संरक्षण हेतु यह जरूरी है कि वृहद स्तर पर खाली पड़ी भूमि और पहाड़ी ढालों पर वृक्षारोपण किया जाए ताकि भूमि की उर्वरता नष्ट नहीं हो।

इसी तरह, उचित फसल-चक्र अपनाकर भूमि की उर्वरता बनाए रखना संभव है। फसल-चक्र में दलहनी फसलों का समावेशन जरूरी है ताकि वायुमंडलीय नाइट्रोजन का यौगिकीकरण मिट्टी के साथ होने से भूमि में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ती रहे। भूमि अपरदन पर रोक लगाने हेतु सहायक नदियों पर छोटे-छोटे बांधों का निर्माण किया जाना चाहिए तथा नहरों से होने वाले जल-रिसाव को रोकने की दिशा में सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए ताकि नहरों के निम्न क्षेत्रों में जलमग्नता की समस्या पर रोक लगाई जा सके। छोटे व सीमांत किसानों को नीम की खली व पत्तियां, फसल कटाई के अवशेष इत्यादि को खेत में दबाने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ सके। कृषि कार्यों हेतु जैविक व वानस्पतिक खादों के उपयोग को बढ़ावा देकर टिकाऊ खेती के माध्यम से खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी को कायम रखना संभव है।

सर्वविदित तथ्य है कि खेती में कृषि रासायनों व कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से भूमि की उर्वरता पर प्रश्नचिह्न लग गया है। जैव उर्वरकों का उपयोग करने से एक तरफ भूमि में लाभकारी जीवाणुओं में अभिवृद्धि होती है तो दूसरी तरफ उत्पादन की गुणवत्ता भी बढ़ जाती है। सरकार जैविक उर्वरकों के उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को विभिन्न योजनाओं के माध्यम से अनुदान भी उपलब्ध करा रही है।

निसंदेह रूप से देश में बढ़ती जनसंख्या के कारण भूमि संसाधनों पर चारों तरफ से दबाव बढ़ता जा रहा है। यही नहीं, तीव्र आथिर्क विकास को प्राथमिकता प्रदान करने के कारण खेती योग्य भूमि का रकबा निरंतर कम हो रहा है, अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के उपयोग के कारण भूमि की उर्वरता क्षीण हो रही है, भूमि अपरदन व भूमि लवणीयता की समस्या गंभीर होती जा रही है। ऐसी चिंताजनक स्थिति में भूमि संरक्षण तथा वन संरक्षण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत भी भूमि संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य संपादित किये जा रहे हैं जिसको और अधिक प्रभावी व विस्तारित करने की आवश्यकता है। खेत का पानी खेत में रोकने की वजह से उर्वरा मिट्टी के बहाव पर कुछ हद तक रोक लगी है। किंतु इस बारे में किसानों को और जागरूक बनाना होगा ताकि उर्वरा मिट्टी बनी रहने के कारण किसानों को फायदा मिल सके। इसी तरह, वर्मी कम्पोस्ट के बारे में किसानों को जानकारी प्रदान करके व उसके उपयोग को बढ़ावा देकर भूमि संरक्षण की दिशा में सार्थक प्रयास किए जा सकते हैं।

भूमि में विकास की अपार संभावनाएं हैं। भूमि पर्यावरण संतुलन की आधारशिला है, इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए उचित फसल चक्र अपनाकर, मिट्टी की जांच के आधार पर बीज, फसल व रासायनिक खादों के उपयुक्त चयन को सुनिश्चित करके, बहु-फसली पद्धति के आधार पर भूमि के अनुकूलतम उपयोग को प्राथमिकता प्रदान करके, जैविक खाद व वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग करके भूमि की उर्वरता को बनाए रखना संभव है। ये सभी कार्यक्रम भूमि संरक्षण की दिशा में मील के पत्थर साबित होंगे। जिससे देश खाद्यान्नों के दृष्टिकोण से आत्मनिर्भर होकर देश के समस्त निवासियों को खाद्य सुरक्षा का कवच उपलब्ध करा पाएगा। इसके अतिरिक्त हमें किसानों को दोहरे उद्देश्य वाली ऐसे फसलों के उत्पादन को बढ़ाने हेतु प्रेरित करना होगा जिससे पशुओं के लिए चारा उप-उत्पाद के रूप में प्राप्त हो सके ताकि देश के पशुधन को भी सुरक्षित रखा जा सके।

भूमिगत संसाधनों की सीमितता एवं अनुत्क्रमणीयता को ध्यान में रखते हुए यह नितांत जरूरी है कि भूमि उपयोग का ढांचा अनुकूलतम, सुनियोजित व सतत् विकास के अनुरूप हो, गैर-कृषि उपयोगों हेतु भूमि का प्रयोग अनावश्यक रूप से नहीं हो, वनों के अधीन क्षेत्र में कटौती नहीं हो। इसी तरह, भूमि पर बढ़ते दबाव को दृष्टिगत रखते हुए भू-उपयोग हेतु अल्पकालीन व दीर्घकालीन आयोजन को अपनाया जाना आवश्यक है।

(लेखक राजकीय महाविद्यालय, नागौर के अर्थशास्त्र विभाग में व्याख्याता हैं।)

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