भूमिगत जल में आर्सेनिक संदूषण (Arseic Contamination) भारत के पेयजल परिदृश्य में सबसे गंभीर मुद्दों में से एक है। केंद्रीय भूमि जल बोर्ड (Central Ground Water Board-CGWB) की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, 21 राज्यों में आर्सेनिक का स्तर भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards-BIS) द्वारा निर्धारित 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर की अनुमन्य सीमा से अधिक हो गया है। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी बेसिन के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम इस मानव-प्रवर्तित भू-गर्भीय घटना से सबसे अधिक प्रभावित हैं। भारत में आर्सेनिक संदूषण की आधिकारिक तौर पर पुष्टि पहली बार वर्ष 1983 में पश्चिम बंगाल में की गई थी। इसके चार दशक बाद यह परिदृश्य और भी गंभीर हो गया है।
जल शक्ति मंत्रालय के राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम (National Rural Drinking Water Programme-NRDWP) द्वारा प्रकाशित नवीनतम आँकड़ो के अनुसार, पश्चिम बंगाल में लगभग 9.6 मिलियन, असम में 1.6 मिलियन, बिहार में 1.2 मिलियन, उत्तर प्रदेश में 0.5 मिलियन और झारखंड में 0.013 मिलियन लोग भूमिगत जल में आर्सेनिक संदूषण से प्रभावित हैं।
केंद्रीय भूमि जल बोर्ड जल संसाधन मंत्रालय (जल शक्ति मंत्रालय), भारत सरकार का एक अधीनस्थ कार्यालय है। वर्ष 1970 में कृषि मंत्रालय के तहत समन्वेषी नलकूप संगठन को पुन:नामित कर केंद्रीय भूमि जल बोर्ड की स्थापना की गई थी। वर्ष 1972 के दौरान इसका आमेलन भू-विज्ञान सर्वेक्षण के भूजल स्कंध के साथ कर दिया गया था। केंद्रीय भूमि जल बोर्ड एक बहु संकाय वैज्ञानिक संगठन है, जिसमें भूजल वैज्ञानिक, भूभौतिकविद, रसायनज्ञ, जल वैज्ञानिक, जल मौसम वैज्ञानिक तथा अभियंता कार्यरत हैं। इसका मुख्यालय फरीदाबाद में स्थित है। यह भूजल संसाधनों की योजना और प्रबंधन पर राज्यों तथा अन्य प्रयोक्ता अभिकरणों को सुझाव देने के अतिरिक्त विभिन्न हितधारकों को वैज्ञानिक भूजल अन्वेषण, विकास एवं प्रबंधन की दिशा में तकनीकी जानकारी भी उपलब्ध कराता है। बोर्ड विभिन्न अनुसंधानों के माध्यम से उत्सर्जित आँकड़ो के आधार पर नियमित रूप से वैज्ञानिक रिपोर्ट का प्रकाशन करता है तथा दावाधारकों के मध्य इसका प्रचार-प्रसार करता है। केंद्रीय भूमि जल बोर्ड का कार्य वैज्ञानिक अध्ययन, ड्रिलिंग द्वारा अन्वेषण करना, भूमिजल प्रणाली की निगरानी करना, आंकलन, संवर्धन, प्रबंधन और देश के भूमिगत जल संसाधनों का विनिर्माण करना है।
गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी बेसिन में प्रभावित राज्यों में से प्रत्येक के लिये विभिन्न स्रोतों द्वारा निर्दिष्ट आर्सेनिक संदूषण (प्रदूषण) की उपस्थिति एक हैरान करने वाली स्थिति निर्मित करती है। उदाहरण के लिये, बिहार में वर्ष 2016 से राज्य लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग (Public Health Engineering Department-PHED) के आँकड़ो का दावा है कि 13 ज़िलों के भूमिगत जल में आर्सेनिक का प्रदूषण है। जबकि वर्ष 2018 में CGWB द्वारा प्रकाशित डेटा राज्य लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के आँकड़ो का खंडन करता है, इसके अनुसार बिहार में 18 ज़िले खतरे में हैं। हालाकि, उसी वर्ष NRDWP द्वारा प्रकाशित डेटा 11 ज़िलों के आर्सेनिक प्रभावित होने का दावा करता है।
पश्चिम बंगाल में वर्ष 2014 में राज्य PHED द्वारा प्रकाशित आंकड़ों का दावा था कि 11 ज़िले आर्सेनिक संदूषण का सामना कर रहे थे। लेकिन CGWB द्वारा प्रकाशित वर्ष 2018 के आँकड़ो के अनुसार प्रभावित ज़िलों की संख्या 8 है, जबकि NRDWP द्वारा प्रकाशित वर्ष 2018 के आँकड़ो के अनुसार यह संख्या बढ़कर 9 हो जाती है। असम में NRDWP के वर्ष 2018 के आँकड़ो के अनुसार 18 ज़िले प्रभावित हैं, तो वहीं CGWB के वर्ष 2018 के आँकड़ो के अनुसार प्रभावित ज़िलों की संख्या 8 है। राज्य PHED द्वारा वर्ष 2017 में प्रकाशित आँकड़े 17 ज़िलों को आर्सेनिक प्रदूषण से प्रभावित बताते हैं। CGWB द्वारा प्रकाशित वर्ष 2018 के आँकड़ो के अनुसार उत्तर प्रदेश में प्रभावित ज़िलों की संख्या 12 है, जबकि वर्ष 2018 में प्रकाशित NRDWP की रिपोर्ट के अनुसार प्रभावित ज़िलों की संख्या 17 है। इसी प्रकार झारखंड में CGWB द्वारा प्रकाशित वर्ष 2018 के आँकड़ो के अनुसार 2 ज़िले प्रभावित हैं, तो वहीं वर्ष 2018 में प्रकाशित NRDWP की रिपोर्ट में तीन ज़िलों को शामिल किया गया है।
हाल ही में प्रकाशित कुछ शोधपत्रों में बताया गया है कि भूमिगत जल में आर्सेनिक संदूषण खाद्य शृंखला में प्रवेश कर गया है। किसानों द्वारा सिंचाई के लिये दूषित जल का उपयोग करने से जल के माध्यम से भोजन में आर्सेनिक के स्थानांतरण के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं। वर्ष 2008 में फूड एंड केमिकल टॉक्सिकोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, उबले हुए चावल, सब्जियों और दालों में आर्सेनिक की अत्यधिक मात्रा पाई गई। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि उबले या पके हुए चावल में आर्सेनिक की मात्रा कच्चे चावल के दानों की तुलना में लगभग 2.1 गुना अधिक थी। संयोगवश गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी बेसिन के मैदान कृषि के लिये अनुकूल हैं, यही कारण है कि इन राज्यों की खाद्य फसलों जैसे चावल, मक्का, मसूर और गेहूं तथा बागवानी फसलों में व्यापक रूप से आर्सेनिक की मात्रा पाई जाती है। खाद्य शृंखला में आर्सेनिक के प्रवेश से मानव समुदाय को त्वचा कैंसर व त्वचा संबंधी गंभीर क्षति का सामना करना पड़ता है।
सरकार को कृषि उपज के लिये इस्तेमाल होने वाले जल में आर्सेनिक की जाँच करनी चाहिये। सरकार व गैर सरकारी संगठनों को पेयजल और कृषि उत्पादों के लिये आर्सेनिक मुक्त जल सुनिश्चित करने के लिये अधिक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को इस विषय पर अनुसंधान को सुगम बनाने की दिशा में काम करना चाहिये, जो फसलों में आर्सेनिक के संचय की जाँच कर सके और प्रभावित क्षेत्रों की कृषि चिंताओं को दूर कर सके।
लेखक
डाॅ. दीपक कोहली, उपसचिव
वन एवं वन्य जीव विभाग, उत्तर प्रदेश
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