जब बारिश का पानी जमीन पर गिरता है तो इसका कुछ भाग सतह पर बहकर नालों, नदियों एवं झीलों में चला जाता है, कुछ पौधों द्वारा प्रयोग किया जाता है, कुछ वाष्पित होकर वातावरण में चला जाता है और कुछ जमीन में रिस जाता है। कल्पना कीजिए कि बालू के ढेर पर उड़ेला हुआ एक गिलास पानी कहाँ चला जाता है। यह पानी रेत के कणों के बीच रिक्त स्थानों में चला जाता है। ठीक इसी तरह कुछ जलराशि भूतल की ऊपरी परत से रिस-रिस कर जमीन के नीचे चली जाती है और यही जल भूमि जल बनता है।
वह जलराशि जो भूसतह की ऊपरी परत से रिस-रिस कर अंतःस्त्रवण क्रिया द्वारा मृदा की परत में फिर उससे नीचे अवमृदा परत में तथा उसके नीचे अधस्थः शैल परत में जमा रहती है, भूमिगत जल कहलाती है। भूजल के नीचे इन चट्टानों को जिनमें भूमि जल पाया जाता है, जलभृत या जलभरा (Aquifer) कहते हैं। बलुई क्षेत्रों में यह जलभृत आमतौर पर विभिन्न आकार-प्रकार के रेत एवं बजरी के मिश्रण से मिलकर बनता है। कठोर चट्टानों के क्षेत्र में उथले गहराई में अपक्षयित (Weathered) हिस्सों सें एवं गहरी गहराई में विभंगों (Fractures) एवं संधियों (Joints) में पाया जाता है। जलभृत पारगम्य होते हैं क्योंकि इनमें एक दूसरे से जुड़े हुए रिक्त स्थान होते हैं जिनमें पानी का बहाव होता है। इन मृदा एवं चट्टानों में जल बहाव इस बात पर निर्भर करता है कि इनमें पाये जाने वाले रिक्त स्थान किस आकार - प्रकार के हैं और कितनी अच्छी तरह एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
चित्र -1 भूसतह के नीचे मृदा एवं विभंयों में उपस्थित भूजल
जल-चक्र
जब बारिश का पानी धरातल पर गिरता है तो इसका कुछ भाग नदी-नालों के द्वारा समुद्र में चला जाता है। कुछ रिस कर भूमि जल बनता है। समुद्री जल वाष्पीकृत होकर बादल बन जाता है जो संघनन के उपरांत वर्षा के रूप में पुनः धरातल पर आ जाता है। प्रकृति में यह प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है, जिसे हम जलचक्र कहते है। जलचक्र में निम्न क्रियाएं सम्मिलित है /
- वाष्पीकरण एवं वाष्पोत्सर्जन
- संघनन या अवक्षेपण
- अवरोधन; बहाव, रिसाव एवं भंडारण
चित्र-2 जलीय चक्र
भूमिजल को प्रभावित करने वाले शैल गुण :
भौम जल पारगम्य स्तर समूहों में मिलता है, जिन्हें जलभृत कहा जाता है। इनकी संरचना के कारण साधारण क्षेत्रीय स्थितियों में इनके भीतर पर्याप्त जल गतिशील रहता है। इन जलमृत्तों में भूजल की उपस्थिति एवं गति को प्रभावित करने वाले शैल गुण निम्न हैं।
सरंध्रता (Porosity) : शैल के रिक्त स्थानों में भौम जल पाया जाता है जिन्हें रिक्ति अंतराल अथवा रंध्र कहा जाता है। शैल की सरंध्रता इन्ही अंतरालों का माप है। इसको शैल के कुल आयतन में उपस्थित रिक्तियों के आयतन के अनुपात या प्रतिशत के रूप में दर्शाया जाता है। सरंध्रता मुख्यतः दो प्रकार की होती है -
प्रारंभिक सरंध्रता :- यह मृदा खण्ड, रेत और बजरी की परतों एवं बलुर्ई चट्टानों के गठन के दौरान बनती है।
चित्र- 3 प्रारंभिक सरंध्रता
द्वितीयक सरंध्रता :- यह शैल उत्पत्ति के पश्चात बनती है। यह शैल के अपक्षयित, संधियों, विभंगों तथा विलयन रंध्रों एवं वनस्पतियों द्वारा उत्पन्न रिक्तियों के कारण बनती है।
चित्र- 3 द्वितीयक सरंध्रता
पारगम्यता (Permeability) :- शैल का वह गुण या क्षमता जिससे कोई भी तरल पदार्थ या गैस उसमें से होकर प्रवाहित हो सकती है। शैल की पारगम्यता की मात्रा उनके रन्ध्रों के प्रमाप तथा आकार एवं आपसी जुड़ाव के प्रमाप और आकार तथा विस्तार पर निर्भर करती है।
जल प्रवाह की वह गति जो इकाई समय में इकाई ढाल के तहत प्रवाह के समकोण पर मापित इकाई क्षेत्रफल से होकर गुजरती है, उसे पारगम्यता कहते हैं। आजकल पारगम्यता के स्थान पर जलीय चालकता का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है। जिसकी इकार्ड मीटर प्रतिदिन है।
संचारणीयता या संचारणशीलता (Transmissivity)
यह जलभृत के जल संचार क्षमता का माप है। संतृप्त जलभृत के पूर्ण मोटाई व इकाई, चौड़ाई से इकाई जलीय प्रवणता पर प्राप्त जल प्रवाह की दर को जलभृत की संचारणीयता या संचारणशीलता (Transmissivity) कहा जाता है, जो वर्ग मीटर प्रति दिन (M2/Day) में दर्शायी जाती है।
चित्र-4 परस्पर जुड़ी हुईं सरंध्र पारगम्यता बढ़ाते हैं
विशिष्ट उत्पाद ( Specific Yield) :-- संतृष्त शैल की वह क्षमता जिसमें गुरुत्व बल द्वारा जल निकलता है, उसे विशिष्ट उत्पाद कहते हैं। इसे गुरुत्व बल के अंतर्गत संतृप्त शैल से निकले जल एवं शैल के आयतन के अनुपात के तौर पर दर्शाया जाता है । इसे प्रतिशत में थी व्यक्त किया जाता है।
विभिन्न भूविज्ञानी संरचनाओं का वर्गीकरण उनके जल ग्राह्यता गुण के आधार पर किया जा सकता है। इनमें सबसे अच्छा वर्गीकरण शैल सरंध्रता एवं पारगम्यता के आधार पर किया गया है जो इस प्रकार है -
जलभृत (Aquifer)) :- जलभृत एक संतृप्त भूवैज्ञानिक शैल परत संरचना या संरचनाओं का समूह है जिसमें पारयस्यता होती है और जो कुओं और झरनों को पर्याप्त मात्रा में पानी की आपूर्ति कर सकता है। इन्हें भौम जलाशय, जलभृत या जलयुक्त शैल समूह भी कहा जाता है ।
एक्विक्लूड: (Aquiclude): वह अपारगम्य शैल समूह है जो जलयुक्त होता है, किन्तु उससे पर्याप्त मात्रा में जल का पारगमन नहीं होता। मृतिका इसका एक उदाहरण है।
एक्वीटार्ड (Aquitard): एक संतृप्त परन्तु कम पारगम्यता का शैल समूह है जिससे जल का पारगमन पड़ोसी जलभृत के तुलना में धीमी गति से एवं कम होता है। दूसरे शब्दों में वे शैल परतें जो आंशिक पारगम्य होती हैं और जिनसे पानी का पारगमन पड़ोसी जलभृत की तुलना में धीमी गति से और अपर्याप्त मात्रा में होती है। एक्वीटार्ड कहलाती है। उदाहरणतः बलुई मृतिका।
एक्वीफ्यूज (Aquifuge) : वह अपारगम्य समूह है जो न तो जल को ग्रहण करता है, न ही इसका पारगमन करता है। उदाहरण - ठोस आग्नेय चट्टानें एवं तलछटी चूना पत्थर चट्टानें । इन वर्णित भूजलीय जलभृतों की विशेषताओं को संक्षिप्त में निम्न तालिका में व्यक्त किया गया है।
जलभृत प्रकार |
विशेषता |
एक्यूफर |
संतृप्त, सरन्त्र एवं पारगम्य भंडारण क्षमताएं, जल धारण एवं उपज |
एक्विक्लूड |
संतृप्त, सरन्ध्र एवं अपारगम्य, भंडारण क्षमता; जल धारण लेकिन उपज नहीं |
एक्वीटार्ड |
संतृप्त, सरंध्र, एवं आंशिक पारगम्य,भंडारण क्षमता; केवल रिसाव ही संभव |
एक्वीफ्यूज |
असंतृप्त असरन्ध्र एवं अपारगम्य,भण्डार क्षमता लगभग शून्य |
जलभृतों के प्रकार -
जलभृतों का एक अन्य वर्गीकरण, किसी क्षेत्र में भौमजल बेसिन में इनकी स्थिति और भौमजल स्तर की स्थिति के आधार पर किया जाता है। इस आधार पर जलभृत मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं -
1. अपरिरुद्ध जलभृत
2. परिरुद्ध जलभृत
अपरिरुद्ध जलभृत (Unconfined Aquifer)-
अपरिरुद्ध जलभृत वह है जिसमें कि भौमजल स्तर संतृप्त भाग की ऊपरी सतह होता है। इस तरह के जलभृत में उपर की अपेक्षा नीचे एक परिरोधी संस्तर (Confining Bed) रहती है । इसके ऊपरी संतृप्त सतह को भौम जलस्तर (water table) कहते हैं। अपरिरुद्ध जलभृतों में बेधित कुपों में जल वायुमंडलीय दबाव पर होता है और जलभृत स्तर से ऊपर नहीं उठता। इस तरह के जलभृतों में भौम जलस्तर (Water table) को उथला जलस्तर (Phreatic Water Level) भी कहते हैं।
चित्र-5 जलभृतों के प्रकार एवं अनुभव
परिरुद्ध जलभृत (Confined Aquifer)-
परिरुद्ध जलभृतों को उस्त्रुत अथवा दाब युक्त जलभृत भी कहा जाता है। परिरुद्ध जलभृत ऊपर नीचे दोनों तरफ से अपारगम्य एक्विक्लूड या एक्वीटार्ड से बंधा होता है। कहीं-कहीं नीचे एक्वीफ्यूज भी होता है। इसमें भौमजल का दाब उपरिशायी अपेक्षाकृत अपारगम्य स्तरों के कारण वायुमंडलीय दाब से अधिक होता है। इस प्रकार के जलभृत को बेधित करने वाले कूप में जल स्तर परिरोधी संस्तर के तल के ऊपर पाया जाता है। परिरुद्ध जलभृत की दाब सतह एक काल्पनिक सतह होती है जो कि जलभृत के द्रावस्थैतिक दाब तल के ऊंचाई के सम्पाती होती है। किसी परिरुद्ध जलभृत को बेधित करने वाले कूप का जल तल उस बिंदु पर दाब सतह ( Piezometric Surface) की ऊंचाई दर्शाता है। यदि दाब सतह; भूसतह से अधिक ऊंचाई पर होती है तब प्रवाही कूप (Artesian or Auto flowing well) बन जाते हैं । इन कूपों से बिना पंप द्वारा ही संबंधित क्षेत्रों में स्वतः प्रवाह देखा जा सकता है।
भूमि जल निकासी रचनाएँ - भारत में उपयोगिता (जैसे घरेलू, कृषि एवं उद्योग ) के आधार पर विभिन्न प्रकार की जल निकासी रचनाएं बनाई जाती है। जैसे - कुएं, बोर कूप, नलकूप और झरने इत्यादि। इनकी रचना एवं बनावट स्थानीय भू-आकृतियों, भौमजलस्तर, जल उपज उपलब्ध संसाधन एवं उपयोगिता पर निर्भर करती है। इसमें वेधन मशीन के अलावा जल की मांग एवं आर्थिक पक्ष भी तथ्यात्मक भूमिका निभाते हैं। भूजल निकासी रचनाएं निम्न प्रकार की होती हैं -
खुदाई कूप (Dug-Well)- साधारणतः खुदाई कूप गोलाकार होते हैं पर कुछ जगह पर आयताकार एवं वर्गाकार कुएं भी पाये जाते हैं। इनका व्यास 1 से 10 मीटर एवं गइराई कुछ मीटर से 100 मीटर तक होती है जो स्थानीय भौमजल स्तर पर निर्भर करती है। कहीं-कहीं पुराने कूप सीढ़ीदार भी होते हैं।
उथले वेधित कूप (Shallow Bore-Well)-- इस प्रकार के कूप गहराई को ध्यान में रखकर मानव श्रम अथवा मशीन द्वारा बनाये जाते हैं। हाथ से बनाये कूपों की गहराई साधारणतः 15 मीटर तक होती है लेकिन शक्ति चालित वेधित कूपों की गहराई 100 मीटर तक होती है। इस प्रकार के कूपों का व्यास बहुत कम होता है।
गहरे वेधित कूप - गहरे वेधित कूपों का निर्माण केवल वेधन द्वारा ही होता है। Unconsolidated एवं बलुई संरचनाओं में गहरे कूपों का वेधन केवल टूल, घुर्णी वेधन ( Hydraulic Rotary) अथवा विपरीत घूर्णी (reverse rotary) वेधित मशीनों द्वारा होता है। अपने देश में गंगा यमुना नदियों के मैदानी भाग एवं समुद्री क्षेत्र में 100 से 1000 मीटर या उससे अधिक गहराई तक के नलकूप बनाये गये हैं । कठोर चट्टानी क्षेत्र में गहरे वेधित कूप डीटीएच (DTH) मशीन द्वारा बनाये जाते हैं। भारत में इस तरह के वेधित कूप जिनकी गहराई 40 मीटर से 200 मीटर या उससे भी अधिक है, लाखों की संख्या में बनाये गये हैं।
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