जिस देश को आज से 20 साल के बाद पानी के भयंकर संकट का सामना करना पड़ेगा, उसके लिए भूमिगत पानी का सही उपयोग करना बहुत ही महत्वपूर्ण है पर इस मामले में भी देश की भूमिगत जल संपदा और उसके उपयोग से संबधित पूरे आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी कुछ अनुमान इस प्रकार है: बताया जाता है कि 300 मीटर गहराई में लगभग 3 अरब 70 क.हे.मी. (करोड़ हेक्टेयर मीटर) पानी का भंडार मौजूद है, जो यहां की सालाना बारिश से लगभग 10 गुना ज्यादा है। इस खजाने का ज्यादा हिस्सा दुबारा भरा नहीं जा सकेगा। 1972 के दूसरे सिंचाई आयोग ने अंदाज बताया था कि बारिश तथा रिसन के द्वारा लगभग 6.7 क.हे.मी. पानी फिर भरा जाता है। पानी का प्रबंध आज से बेहतर हो और फिर भरे जाने की इस प्रक्रिया को बढ़ाया जाए तो यह आंकड़ा भी बढ़ सकता है। हाल के परीक्षणों से मालूम हुआ है कि भारतीय प्रायद्वीप जिन ‘कड़ी चट्टानों’ का बना है- देश की भूमि का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा वही है- उन चट्टानों के नीचे पहले के अनुमान से कहीं ज्यादा पानी मौजूद है। इस प्रकार केंद्रीय भूजल बोर्ड के ताजा आंकड़ों के अनुसार सालाना 4.23 क.हे.मी. पानी काम में लाया जा सकता है जबकि आज केवल 1 क.हे.मी. ही काम आ रहा है।
कुछ लोगों का मत है कि सिंधु-गांगेय मैदानों में भूमिगत जल का व्यापक उपयोग किया जा सकता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष श्री बलबीर वोरा कहते हैं, “देश के उत्तर पश्चिमी और दक्षिण के जिन जल-बहुल मैदानों में हरीत क्रांति हुई, वह कोई चमत्कारिक घटना नहीं थी। उसका मुख्य कारण यह था कि वहां भूमिगत पानी खूब उपलब्ध था और सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर उसका उपयोग भी किया गया।”
सतही पानी की अपेक्षा भूमिगत पानी के उपयोग में कई सुविधाएं हैं। भूमिगत जल के जलाशयों में, सतही जलाशयों की तरह पानी का रिसाव नहीं होता और वाष्पीकरण भी बहुत कम होता है। भूमिगत पानी फौरन जहां चाहे वहां यानी जहां इस्तेमाल करना हो वहीं प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन सतह के जलाशय बनाने के लिए ठीक जगह खोजनी पड़ती है और पानी के बंटवारे का प्रबंध बड़ा महंगा होता है। भूमिगत जल के प्रदूषित होने का खतरा ना के बराबर है और लागत खर्च जल वापस हो जाता है। पानी के जमाव वाली समस्या भी नहीं है, खासकर वहां पानी की सतह ऊंची है।
भूमिगत जल के उपयोग का लोकप्रिय तरीका है नलकूप। देश में नलकूपों का प्रचलन कोई 50 साल पहले हुआ। 30 के दशक में उत्तर के मेरठ जिले में सार्वजनिक नलकूपों से सिंचाई का सिलसिला शुरू हुआ। 1950-51 में देश भर में 5,000 नलकूप तैयार करने की योजना सोची गई थी। तब खुले कुएं 39 लाख थे। 60 के दशक में देश भर में सूखा पड़ा, अकाल की सी हालत हो गई तो धड़ाधड़ नलकूप खुदने लगे। जहां 50 के दशक में 2,000 और 60 के दशक में 50,000 नलकूप लगे, वहां 60 के दशक के बाद एक ही साल में 1,72,000 निजी नलकूप खुदने लगे। श्री बीडी धवन अपनी पुस्तक ‘डेवलपमेंट ऑफ ट्यूबवेल इरिगेशन इन इंडिया’ में लिखते हैं, “70 के दशक में सालाना जितने निजी नलकूप लगे वे उसी दौरान हर वर्ष खुदने वाले देश भर के खुले सादे कुओं की संख्या के बराबर थे। ये सार्वजनिक नलकूपों की संख्या से तो सौ गुना ज्यादा थे।”
देश के जल-बहुल क्षेत्रों में नलकूपों से सिंचाई में इतनी तेजी से बढ़ोतरी होने का मुख्य कारण यही था कि उससे पानी निकालना बहुत आसान था और उसका नियंत्रण पूरी तरह किसान के अपने हाथ में था। इससे किसान जब खेत में पानी देना जरूरी हो, उसी समय पूरी मात्रा में पानी दे सकता है। इसके विपरीत नहर सिंचाई में पानी देने का जिम्मा अकसर नौकरशाहों के हाथ में होता है जो ठीक से काम नहीं करते और प्रायः भ्रष्ट भी होते हैं।
सन् 1977 के आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर, बल्कि 90 प्रतिशत नलकूप पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में हैं। सिंधु-गांगेय मैदानों की भूमि रेत और जलमय है इसलिए उथले नलकूप, जिसे फिल्टर पाइंड भी कहते हैं, खुदवाना कई किसानों के लिए सुलभ होता है। 70 के दशक में जब नलकूपों का दौर चोटी पर था, एक निजी नलकूप लगवाने में मुश्किल से 10,000 रुपये खर्च होते थे। लेकिन पथरीली जगहों में, जहां अकसर 1000 फुट नीचे पानी लगता था, वहां जरूर एक लाख रुपये तक खर्च आता था। ऐसी हालत में या तो सरकार को बीच में लाना पड़ता या फिर कुछ लोग मिलजुल कर लगवाते थे।
नलकूप आम तौर पर सिंचाई के लिए ही लगाए जाते हैं, भले ही उसका उपयोग घरेलू काम में भी होता है। सूखे और अधसूखे इलाकों में नलकूपों पर हैंडपंप भी लगा देते हैं जिससे घरेलू इस्तेमाल में काफी सुविधा हो जाती है। 1961 में देश के कुल 2,58,000 हेक्टेयर खेत नलकूपों से सींचे जाते था। यह कुल सिंचित जमीन का केवल एक प्रतिशत था। 1974 में 55 लाख 60 हेक्टेयर यानी करीब 17 प्रतिशत की सिंचाई नलकूपों से होने लगी है। दस की अवधी में देश में कुओं से सिंचित भूमि 75 लाख हेक्टेयर थी। यानी नलकूपों से बहुत कम लागत में काफी ज्यादा।
कुछ लोगों का मत है कि सिंधु-गांगेय मैदानों में भूमिगत जल का व्यापक उपयोग किया जा सकता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष श्री बलबीर वोरा कहते हैं, “देश के उत्तर पश्चिमी और दक्षिण के जिन जल-बहुल मैदानों में हरीत क्रांति हुई, वह कोई चमत्कारिक घटना नहीं थी। उसका मुख्य कारण यह था कि वहां भूमिगत पानी खूब उपलब्ध था और सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर उसका उपयोग भी किया गया।”
सतही पानी की अपेक्षा भूमिगत पानी के उपयोग में कई सुविधाएं हैं। भूमिगत जल के जलाशयों में, सतही जलाशयों की तरह पानी का रिसाव नहीं होता और वाष्पीकरण भी बहुत कम होता है। भूमिगत पानी फौरन जहां चाहे वहां यानी जहां इस्तेमाल करना हो वहीं प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन सतह के जलाशय बनाने के लिए ठीक जगह खोजनी पड़ती है और पानी के बंटवारे का प्रबंध बड़ा महंगा होता है। भूमिगत जल के प्रदूषित होने का खतरा ना के बराबर है और लागत खर्च जल वापस हो जाता है। पानी के जमाव वाली समस्या भी नहीं है, खासकर वहां पानी की सतह ऊंची है।
भूमिगत जल के उपयोग का लोकप्रिय तरीका है नलकूप। देश में नलकूपों का प्रचलन कोई 50 साल पहले हुआ। 30 के दशक में उत्तर के मेरठ जिले में सार्वजनिक नलकूपों से सिंचाई का सिलसिला शुरू हुआ। 1950-51 में देश भर में 5,000 नलकूप तैयार करने की योजना सोची गई थी। तब खुले कुएं 39 लाख थे। 60 के दशक में देश भर में सूखा पड़ा, अकाल की सी हालत हो गई तो धड़ाधड़ नलकूप खुदने लगे। जहां 50 के दशक में 2,000 और 60 के दशक में 50,000 नलकूप लगे, वहां 60 के दशक के बाद एक ही साल में 1,72,000 निजी नलकूप खुदने लगे। श्री बीडी धवन अपनी पुस्तक ‘डेवलपमेंट ऑफ ट्यूबवेल इरिगेशन इन इंडिया’ में लिखते हैं, “70 के दशक में सालाना जितने निजी नलकूप लगे वे उसी दौरान हर वर्ष खुदने वाले देश भर के खुले सादे कुओं की संख्या के बराबर थे। ये सार्वजनिक नलकूपों की संख्या से तो सौ गुना ज्यादा थे।”
देश के जल-बहुल क्षेत्रों में नलकूपों से सिंचाई में इतनी तेजी से बढ़ोतरी होने का मुख्य कारण यही था कि उससे पानी निकालना बहुत आसान था और उसका नियंत्रण पूरी तरह किसान के अपने हाथ में था। इससे किसान जब खेत में पानी देना जरूरी हो, उसी समय पूरी मात्रा में पानी दे सकता है। इसके विपरीत नहर सिंचाई में पानी देने का जिम्मा अकसर नौकरशाहों के हाथ में होता है जो ठीक से काम नहीं करते और प्रायः भ्रष्ट भी होते हैं।
सन् 1977 के आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर, बल्कि 90 प्रतिशत नलकूप पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में हैं। सिंधु-गांगेय मैदानों की भूमि रेत और जलमय है इसलिए उथले नलकूप, जिसे फिल्टर पाइंड भी कहते हैं, खुदवाना कई किसानों के लिए सुलभ होता है। 70 के दशक में जब नलकूपों का दौर चोटी पर था, एक निजी नलकूप लगवाने में मुश्किल से 10,000 रुपये खर्च होते थे। लेकिन पथरीली जगहों में, जहां अकसर 1000 फुट नीचे पानी लगता था, वहां जरूर एक लाख रुपये तक खर्च आता था। ऐसी हालत में या तो सरकार को बीच में लाना पड़ता या फिर कुछ लोग मिलजुल कर लगवाते थे।
नलकूप आम तौर पर सिंचाई के लिए ही लगाए जाते हैं, भले ही उसका उपयोग घरेलू काम में भी होता है। सूखे और अधसूखे इलाकों में नलकूपों पर हैंडपंप भी लगा देते हैं जिससे घरेलू इस्तेमाल में काफी सुविधा हो जाती है। 1961 में देश के कुल 2,58,000 हेक्टेयर खेत नलकूपों से सींचे जाते था। यह कुल सिंचित जमीन का केवल एक प्रतिशत था। 1974 में 55 लाख 60 हेक्टेयर यानी करीब 17 प्रतिशत की सिंचाई नलकूपों से होने लगी है। दस की अवधी में देश में कुओं से सिंचित भूमि 75 लाख हेक्टेयर थी। यानी नलकूपों से बहुत कम लागत में काफी ज्यादा।
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