मिट्टी एक अमूल्य संसाधन है जिसका उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए। कृषि कार्यों के लिए उपयुक्त मृदाओं पर खेती ही की जानी चाहिए, न कि निर्माण कार्य। मकान, पार्क एवं मनोरंजन स्थलों के लिए बंजर एवं अनुपजाऊ भूमि का ही उपयोग करना चाहिए। भूमि का उचित चयन कार्य ही सफलता का द्योतक होता है। इससे हमारी उपजाऊ भूमि भी सुरक्षित रहेगी तथा विकास कार्य भी होते रहेंगे। भू-संसाधन संरक्षण देश के सामार्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः यह समय की मांग है कि इस पहलू पर विशेष ध्यान दिया जाए।मिट्टी या मृदा जीवन-भरण का एक महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि मनुष्य के भोजन का उत्पादन इसी पर निर्भर करता है। अतः कृषि के क्षेत्र में मृदा को ‘मेरुदंड’ की संज्ञा दी गई है। किसी भी देश की सुख-समृद्धि तथा विकास के लिए उस देश की मृदा और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का अच्छा होना नितांत आवश्यक है। हमारे देश में एक चिंतनीय विषय बन गया है कि उत्पादक भूमि निरंतर कम हो रही है। भूमि की प्रति व्यक्ति उपलब्धता वर्ष 1950 में 0.48 हेक्टेयर थी जो वर्ष 2000 तक घटकर 0.15 हेक्टेयर हो गई। इतना ही नहीं जो भूमि उपलब्ध है उसका भी प्रति वर्ष 16.35 टन प्रति हेक्टेयर की दर से कटाव हो रहा है।
यह एक विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर तो उपजाऊ मिट्टी भू-क्षरण द्वारा नष्ट हो रही है, दूसरी ओर हम अपनी आवश्यकता के लिए इसी उपजाऊ कृषि भूमि पर मकान बनाते चले जा रहे हैं। यही नहीं सड़कें, रेल लाइनें तथा नहरों आदि का जाल भी हमने इन्हीं उपजाऊ कृषि क्षेत्र पर पहले से ही रखा है। बाग-बगीचे तथा अन्य मनोरंजक स्थलों के लिए भी कृषि भूमियों का उपयोग किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में कृषि योग्य उपजाऊ भूमि निरंतर कम होती जा रही है।
मिट्टी पौधों की वृद्धि के लिए एक प्राकृतिक माध्यम है। अच्छी उपज के लिए मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों का फसल के अनुसार होना अत्यावश्यक है। इन तीनों में से किसी भी एक गुण में ह्रास होने से उपज प्रभावित होती है। आजकल किसान मिट्टी के भौतिक गुणों को बिना ध्यान में रखे खेती कर रहे हैं, फलस्वरूप उन्हें आशान्वित उत्पादन प्राप्त नहीं हो रहा है। मिट्टी की भौतिक अवस्था दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है और देश की खाद्यान्न स्थिति भी प्रभावित हो रही है।
मिट्टी के भौतिक गुण उसके कणों की मात्रा, आकार, आकृति, विन्यास आदि पर निर्भर करते हैं। इसके साथ ही मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा, रन्ध्रों का आयतन, रूप और किसी एक निश्चित समय पर रन्ध्रों में हवा और पानी के अनुपात का भी मिट्टी के भौतिक गुणों पर प्रभाव पड़ता है।
मिट्टी की संरचना, गठन, घनत्व, सरंध्रता, रंग, पारगम्यता, तापक्रम, हवा और पानी का अनुपात आदि मिट्टी के महत्वपूर्ण भौतिक गुण हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर मिट्टी की भौतिक दशा अच्छी या खराब कही जाती है।
मिट्टी की जलधारण क्षमता, जल प्रवेश की गति, वायु संचार, मिट्टी का तापक्रम, पौधों को खड़ा रखने की क्षमता, उर्वरकों का उपयोग, मिट्टी में होने वाली रासायनिक और जैविक क्रियाएं और भूमि-सुधारकों का उपयोग आदि कार्य मिट्टी के भौतिक गुणों पर ही निर्भर करते हैं।
यदि मिट्टी की भौतिक दशा अच्छी है तो उसकी रक्षा करनी चाहिए। यदि खराब हो तो उसे सुधार कर फसल के अनुरूप बनाना अत्यावश्यक है। मिट्टी की भौतिक दशा सुधारने के लिए किसानों को कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए, जैसे उचित समय पर खेत की जुताई, ठीक प्रकार से तंसःकर्षण क्रियाएं, मिट्टी के कटाव को रोकना, उचित फसल-चक्र अपनाना, हरी खाद और कार्बनिक खादों का उपयोग, पलवार का उपयोग, उचित जल-निकास का प्रबंध और भू-सुधारकों का उपयोग आदि। इसके अतिरिक्त रेतीली और अधिक भारी मिट्टियों की भौतिक दशा सुधारने के लिए वैज्ञानिकों ने नई विधियां निकाली हैं।
किसानों को चाहिए कि फसल की प्रकृति के अनुसार खेत में उचित नमी होने पर ही जुताई और अंतःकर्षण क्रियाएं करें। इससे मिट्टी की भौतिक अवस्था पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। खेत में कम या अधिक नमी होने पर जुताई करने से मिट्टी की संरचना बिगड़ जाती है जिसका पौधों की वृद्धि और फसल उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
मिट्टी में कार्बनिक और हरी खाद का उपयोग लाभदायक सिद्ध हुआ है। इससे मिट्टी के महत्वपूर्ण गुणों- जैसे जलधारण क्षमता, जल प्रवेश की गति, वायुसंचार और मिट्टी के तापक्रम पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है जो पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक हैं।
हरी खाद के लिए मुख्य रूप से फलीदार फसलें जैसे- ढेंचा, सनई, सेंजी, बरसीम इत्यादि फसलें उचित रहती हैं। कार्बनिक खादों में मुख्य रूप से गोबर की खाद और कम्पोस्ट उपयोग किया जा सकता है।
मिट्टी की उचित भौतिक दशा बनाए रखने में फसल-चक्र का भी महत्वपूर्ण योगदान है। किसी निश्चित क्षेत्र पर, एक निश्चित अवधि तक, फसल को हेरफेर कर बोना ही फसल-चक्र कहलाता है, जैसे कपास के बाद मटर या गेहूं। इससे मिट्टी की भौतिक दशा के साथ-साथ उर्वराशक्ति भी अच्छी बनी रहती है। फसल-चक्र में फलीदार फसलें अवश्य लेनी चाहिए।
क्षारीय भूमि में सोडियम की अधिकता से मिट्टी की भौतिक अवस्था बिल्कुल ही खराब हो जाती है। अतः इसे सुधारने के लिए कार्बनिक खाद, जिप्सम, सल्फर पाइराइट, गंधक का अम्ल आदि सुधारकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण करवाकर प्रयोगशाला की सिफारिशों के अनुसार करना चाहिए।
मिट्टी की सतह से मृदा-जल भाप के रूप में सदैव उड़ता रहता है। इससे मिट्टी की नमी में कमी आने के कारण मिट्टी के भौतिक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस क्षति को रोकने के लिए जमीन की सतह को मिट्टी या किसी अन्य पदार्थों जैसे धान की पुआल, गेहूं का भूसा या डंठल, सूखे खरपतवार आदि से ढक देना चाहिए।
भारी मिट्टियों में पानी रूक जाने से मिट्टी के भौतिक गुण- जैसे वायु संचार और तापक्रम पर बुरा प्रभाव पड़ता है, जिससे फसल की उपज में भारी कमी आ जाती है। अतः सघन फसल उत्पादन में खेत में जल-निकास की व्यवस्था होनी अत्यावश्यक है।
खेत में जल निकास का उचित प्रबंध न होने से पौधों की जड़ों को आवश्यकतानुसार श्वसन के लिए वायु नहीं मिल पाती है। मिट्टी में मौजूद लाभदायक जीवाणु भी वायु की कमी से अपना कार्य बन्द कर देते हैं। ऐसी स्थिति में पौधे को पोषक तत्व उचित मात्रा में प्राप्त नहीं होते हैं। कभी-कभी तो कुछ ऐसे पदार्थ मिट्टी में बन जाते हैं जो पौधों के लिए हानिकारक होते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि अधिक समय तक खेत में पानी भरा रहने से मिट्टी की संरचना, सरंध्रता, गठापन और मृदा-वायु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः उन खेतों में, जहां जल रूकने की समस्या हो, जल-निकास का उचित प्रबंध करना अनिवार्य है, जिससे मिट्टी में जल और वायु का उचित अनुपात बना रहे जोकि मिट्टी में विद्यमान जीवाणुओं और पौधों की जड़ों के लिए अत्यावश्यक है।
अधिक हल्की अथार्त् रेतीली मिट्टियों में, जिनकी जलधारण क्षमता बहुत कम होती है और जल-प्रवेश की गति तीव्र होती है और जिसके कारण घुलनशील पोषक तत्वों की बहुत अधिक मात्रा में क्षति होती है, पौधे पानी और पोषक तत्वों की कमी महसूस करने लगते हैं। ऐसी मिट्टियों को सुधारने के लिए कुछ विशेष तरीके काम में लेने चाहिए-जैसे भारी मिट्टी और कार्बनिक पदार्थ मिट्टी में मिलाना आदि।
आधुनिक अन्वेषणों के अनुसार रेतीली मिट्टियों की जलधारण क्षमता बढ़ाने और उनमें घुलनशील पोषक तत्वों की क्षति रोककर उपज में वृद्धि प्राप्त करने हेतु एक नवीन विधि है, जिसमें मिट्टी पर बुआई से पूर्व उचित नमी में 500 किलो करीब वजन का बेलन या रोलर 4 से 6 बार चलाया जाता है, जिससे मिट्टी सख्त की जाती है और उसकी भौतिक अवस्था सुधारी जाती है। प्रतिवेदनों के अनुसार यह विधि अपनाकर काफी किसान लाभान्वित हुए हैं।
भू-सर्वेक्षण से जो सूचना मिलती है वह मृदा प्रबंधन से सम्बन्धित होती है और उसकी व्यवस्था भी कई तरीकों से की जाती है। ऐसा ही व्याख्यात्मक एक भूमि क्षमता वर्गीकरण है जो मुख्यतः कृषि कार्यों के लिए विभिन्न प्रकार की मृदाओं की उपयोगिता बताता है। भूमि क्षमता वर्गीकरण भूमि के किसी भी भाग के उपयोग की सीमा निर्धारण करता है तथा संरक्षण की समस्याओं को स्पष्ट करने एवं संभावित उपचार सुझाने में सहायक होता है। भूमि का क्षमता वर्गीकरण निम्न तीन संवर्गों में किया जाता है-
1. क्षमता वर्ग- भूमि क्षमता के आठ वर्ग होते हैं, जिन्हें रोमन अंकों ( जैसे I, II, III, IV, V, VI, VII एवं VIII) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इनमें प्रथम चार तो फसलोत्पादन के लिए उपयुक्त मृदाएं होती हैं तथा शेष चार अनुपयुक्त होती हैं। लेकिन उनमें तीन चारागाह तथा घास आदि के लिए उपयुक्त होती हैं। अंतिम आठवां वर्ग इसके लिए भी अनुपयुक्त होता है। ये आठ वर्ग निम्नवत् हैं-
वर्ग-I: इस वर्ग की मृदाएं प्रायः सभी दृष्टिकोण से उचित होती हैं। समतल, गहरी, ये उपजाऊ तथा फसलोत्पादन के लिए बहुत उपयुक्त होती हैं। इस वर्ग में मृदाओं की जलधारण क्षमता अधिक होती है। इनमें जल निकास अच्छा होता है तथा दो फसलों की खेती की जा सकती है।
वर्ग-II: प्रायः ये वर्ग-I के प्रकार की मृदाएं होती हैं, परन्तु इनमें ढलान का प्रतिशत अधिक होता है जिससे अपरदन की सम्भावना रहती है। इनमें पारगम्यता तथा जल निकास मन्द गति से होता है तथा जलधारण क्षमता भी वर्ग- से कम होती है। इन विकारों के कारण इनमें फसलों के चुनाव में ध्यान देना पड़ता है।
वर्ग-III: यह देखा गया है कि वर्ग-I एवं II में जो फसलें उगाई जाती हैं वही फसलें इस वर्ग मृदाओं में उगाई जा सकती हैं। इस प्रकार की मृदाओं में खड़ी ढलान होने के कारण अपरदन की संभावना अधिक होती है। इन मृदाओं में फसलोत्पादन के लिए भू-संरक्षण, उचित फसल-चक्र, कार्बनिक खादों का उपयोग, नमी संचयन के उपाय तथा अन्यान्य पोषक तत्व की आवश्यकता रहती है।
वर्ग-IV: प्रायः इस वर्ग की मृदाएं बहुवर्षीय घास लगाने के लिए उपयुक्त होती हैं। परन्तु उचित प्रबन्ध के साथ फसलोत्पादन भी किया जा सकता है। इस वर्ग की मृदाओं में ढलान खड़े होते हैं मृदा अपरदन अधिक होता है, मृदाएं उथली होती हैं उनकी जलधारण क्षमता कम होती है तथा निकास भी अच्छा नहीं होता है।
वर्ग-V: इस वर्ग की मृदाएं कृषि के लिए अनुपयुक्त होती हैं, इनमें कंकर-पत्थर की अधिकता होती है तथा जल निकास भी उचित नहीं होता है। इन मृदाओं का उपयोग चारागाह एवं वन विकास में अच्छा रहता है।
वर्ग-VI: इस वर्ग की मृदाएं भी कृषि के लिए अनुपयुक्त होती हैं, ये उथली शुष्क होती हैं तथा जल निकास भी अच्छा नहीं होता है। कभी-कभी इनका उपयोग चारागाह एवं वन विकास के लिए किया जा सकता है, परन्तु इसके लिए भू-संरक्षण के उपाय करने होते हैं।
वर्ग-VII: प्रायः ये खड़े ढाल वाली, अपरदित, पथरीली, उथली, शुष्क या दलदली मृदाएं होती हैं। यदि उचित प्रबंध किया जाए तो इनमें वृक्षारोपण संभव हो सकता है।
वर्ग-VIII: इस वर्ग की मृदाओं में किसी भी प्रकार की फसल एवं पौधे नहीं उगाए जा सकते हैं। इसके अन्तर्गत दलदली मृदाएं, मरुस्थली गहरी नालियां, पहाड़ी क्षेत्र तथा खड़े ढाल वाली मृदाएं आदि आती हैं। इस वर्ग की मृदाएं मुख्यतः अन्य जीव संरक्षण एवं मनोरंजक पार्क आदि के लिए उपयुक्त रहती हैं।
ये क्षमता वर्गों के उप-विभाजन हैं जोकि चार प्रभाव सीमितताओं के आधार पर बने हैं। ये सीमितताएं इस पक्रार हैं- अपरदन, गीलापन, जल निकास, जड़ क्षेत्र सीमितता, जलवायु सीमितता।
क्षमता इकाई में वे मृदाएं हैं जो अपने गुणों, संभाव्यताओं और सीमितता में काफी समान होती हैं तथा जिन्हें काफी हद तक संरक्षण उपचारों तथा प्रबंध कार्य प्रणालियों की आवश्यकता होती है।
अतः यह पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि मिट्टी एक अमूल्य संसाधन है जिसका उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए। कृषि कार्यों के लिए उपयुक्त मृदाओं पर खेती ही की जानी चाहिए, न कि निर्माण कार्य। मकान, पार्क एवं मनोरंजन स्थलों के लिए बंजर एवं अनुपजाऊ भूमि का ही उपयोग करना चाहिए। भूमि का उचित चयन कार्य की सफलता का द्योतक होता है। इससे हमारी उपजाऊ भूमि भी सुरक्षित रहेगी तथा विकास के कार्य भी होते रहेंगे। भू-संसाधन संरक्षण देश के सामार्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः यह समय की मांग है कि इस पहलू पर विशेष ध्यान दिया जाए।
(लेखक गुरु कृपा ब्रह्मपुरी हजारी चबूतरा, जोधपुर में वरिष्ठ विज्ञान संचारक हैं। ई-मेल: ddozha@gmail.com)
यह एक विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर तो उपजाऊ मिट्टी भू-क्षरण द्वारा नष्ट हो रही है, दूसरी ओर हम अपनी आवश्यकता के लिए इसी उपजाऊ कृषि भूमि पर मकान बनाते चले जा रहे हैं। यही नहीं सड़कें, रेल लाइनें तथा नहरों आदि का जाल भी हमने इन्हीं उपजाऊ कृषि क्षेत्र पर पहले से ही रखा है। बाग-बगीचे तथा अन्य मनोरंजक स्थलों के लिए भी कृषि भूमियों का उपयोग किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में कृषि योग्य उपजाऊ भूमि निरंतर कम होती जा रही है।
मिट्टी पौधों की वृद्धि के लिए एक प्राकृतिक माध्यम है। अच्छी उपज के लिए मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों का फसल के अनुसार होना अत्यावश्यक है। इन तीनों में से किसी भी एक गुण में ह्रास होने से उपज प्रभावित होती है। आजकल किसान मिट्टी के भौतिक गुणों को बिना ध्यान में रखे खेती कर रहे हैं, फलस्वरूप उन्हें आशान्वित उत्पादन प्राप्त नहीं हो रहा है। मिट्टी की भौतिक अवस्था दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है और देश की खाद्यान्न स्थिति भी प्रभावित हो रही है।
मिट्टी के भौतिक गुण उसके कणों की मात्रा, आकार, आकृति, विन्यास आदि पर निर्भर करते हैं। इसके साथ ही मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा, रन्ध्रों का आयतन, रूप और किसी एक निश्चित समय पर रन्ध्रों में हवा और पानी के अनुपात का भी मिट्टी के भौतिक गुणों पर प्रभाव पड़ता है।
मिट्टी की संरचना, गठन, घनत्व, सरंध्रता, रंग, पारगम्यता, तापक्रम, हवा और पानी का अनुपात आदि मिट्टी के महत्वपूर्ण भौतिक गुण हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर मिट्टी की भौतिक दशा अच्छी या खराब कही जाती है।
मिट्टी की जलधारण क्षमता, जल प्रवेश की गति, वायु संचार, मिट्टी का तापक्रम, पौधों को खड़ा रखने की क्षमता, उर्वरकों का उपयोग, मिट्टी में होने वाली रासायनिक और जैविक क्रियाएं और भूमि-सुधारकों का उपयोग आदि कार्य मिट्टी के भौतिक गुणों पर ही निर्भर करते हैं।
मिट्टी की भौतिक अवस्था की रक्षा और सुधार
यदि मिट्टी की भौतिक दशा अच्छी है तो उसकी रक्षा करनी चाहिए। यदि खराब हो तो उसे सुधार कर फसल के अनुरूप बनाना अत्यावश्यक है। मिट्टी की भौतिक दशा सुधारने के लिए किसानों को कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए, जैसे उचित समय पर खेत की जुताई, ठीक प्रकार से तंसःकर्षण क्रियाएं, मिट्टी के कटाव को रोकना, उचित फसल-चक्र अपनाना, हरी खाद और कार्बनिक खादों का उपयोग, पलवार का उपयोग, उचित जल-निकास का प्रबंध और भू-सुधारकों का उपयोग आदि। इसके अतिरिक्त रेतीली और अधिक भारी मिट्टियों की भौतिक दशा सुधारने के लिए वैज्ञानिकों ने नई विधियां निकाली हैं।
खेत की जुताई और अंतःकर्षण क्रियाएं
किसानों को चाहिए कि फसल की प्रकृति के अनुसार खेत में उचित नमी होने पर ही जुताई और अंतःकर्षण क्रियाएं करें। इससे मिट्टी की भौतिक अवस्था पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। खेत में कम या अधिक नमी होने पर जुताई करने से मिट्टी की संरचना बिगड़ जाती है जिसका पौधों की वृद्धि और फसल उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
कार्बनिक और हरी खाद का उपयोग
मिट्टी में कार्बनिक और हरी खाद का उपयोग लाभदायक सिद्ध हुआ है। इससे मिट्टी के महत्वपूर्ण गुणों- जैसे जलधारण क्षमता, जल प्रवेश की गति, वायुसंचार और मिट्टी के तापक्रम पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है जो पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक हैं।
हरी खाद के लिए मुख्य रूप से फलीदार फसलें जैसे- ढेंचा, सनई, सेंजी, बरसीम इत्यादि फसलें उचित रहती हैं। कार्बनिक खादों में मुख्य रूप से गोबर की खाद और कम्पोस्ट उपयोग किया जा सकता है।
फसल-चक्र
मिट्टी की उचित भौतिक दशा बनाए रखने में फसल-चक्र का भी महत्वपूर्ण योगदान है। किसी निश्चित क्षेत्र पर, एक निश्चित अवधि तक, फसल को हेरफेर कर बोना ही फसल-चक्र कहलाता है, जैसे कपास के बाद मटर या गेहूं। इससे मिट्टी की भौतिक दशा के साथ-साथ उर्वराशक्ति भी अच्छी बनी रहती है। फसल-चक्र में फलीदार फसलें अवश्य लेनी चाहिए।
भू-सुधारकों का उपयोग
क्षारीय भूमि में सोडियम की अधिकता से मिट्टी की भौतिक अवस्था बिल्कुल ही खराब हो जाती है। अतः इसे सुधारने के लिए कार्बनिक खाद, जिप्सम, सल्फर पाइराइट, गंधक का अम्ल आदि सुधारकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण करवाकर प्रयोगशाला की सिफारिशों के अनुसार करना चाहिए।
पलवार का उपयोग
मिट्टी की सतह से मृदा-जल भाप के रूप में सदैव उड़ता रहता है। इससे मिट्टी की नमी में कमी आने के कारण मिट्टी के भौतिक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस क्षति को रोकने के लिए जमीन की सतह को मिट्टी या किसी अन्य पदार्थों जैसे धान की पुआल, गेहूं का भूसा या डंठल, सूखे खरपतवार आदि से ढक देना चाहिए।
जल-निकास का प्रबंध
भारी मिट्टियों में पानी रूक जाने से मिट्टी के भौतिक गुण- जैसे वायु संचार और तापक्रम पर बुरा प्रभाव पड़ता है, जिससे फसल की उपज में भारी कमी आ जाती है। अतः सघन फसल उत्पादन में खेत में जल-निकास की व्यवस्था होनी अत्यावश्यक है।
खेत में जल निकास का उचित प्रबंध न होने से पौधों की जड़ों को आवश्यकतानुसार श्वसन के लिए वायु नहीं मिल पाती है। मिट्टी में मौजूद लाभदायक जीवाणु भी वायु की कमी से अपना कार्य बन्द कर देते हैं। ऐसी स्थिति में पौधे को पोषक तत्व उचित मात्रा में प्राप्त नहीं होते हैं। कभी-कभी तो कुछ ऐसे पदार्थ मिट्टी में बन जाते हैं जो पौधों के लिए हानिकारक होते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि अधिक समय तक खेत में पानी भरा रहने से मिट्टी की संरचना, सरंध्रता, गठापन और मृदा-वायु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः उन खेतों में, जहां जल रूकने की समस्या हो, जल-निकास का उचित प्रबंध करना अनिवार्य है, जिससे मिट्टी में जल और वायु का उचित अनुपात बना रहे जोकि मिट्टी में विद्यमान जीवाणुओं और पौधों की जड़ों के लिए अत्यावश्यक है।
रेतीली मिट्टियों के लिए विशेष विधियां
अधिक हल्की अथार्त् रेतीली मिट्टियों में, जिनकी जलधारण क्षमता बहुत कम होती है और जल-प्रवेश की गति तीव्र होती है और जिसके कारण घुलनशील पोषक तत्वों की बहुत अधिक मात्रा में क्षति होती है, पौधे पानी और पोषक तत्वों की कमी महसूस करने लगते हैं। ऐसी मिट्टियों को सुधारने के लिए कुछ विशेष तरीके काम में लेने चाहिए-जैसे भारी मिट्टी और कार्बनिक पदार्थ मिट्टी में मिलाना आदि।
आधुनिक अन्वेषणों के अनुसार रेतीली मिट्टियों की जलधारण क्षमता बढ़ाने और उनमें घुलनशील पोषक तत्वों की क्षति रोककर उपज में वृद्धि प्राप्त करने हेतु एक नवीन विधि है, जिसमें मिट्टी पर बुआई से पूर्व उचित नमी में 500 किलो करीब वजन का बेलन या रोलर 4 से 6 बार चलाया जाता है, जिससे मिट्टी सख्त की जाती है और उसकी भौतिक अवस्था सुधारी जाती है। प्रतिवेदनों के अनुसार यह विधि अपनाकर काफी किसान लाभान्वित हुए हैं।
भू-सर्वेक्षण से जो सूचना मिलती है वह मृदा प्रबंधन से सम्बन्धित होती है और उसकी व्यवस्था भी कई तरीकों से की जाती है। ऐसा ही व्याख्यात्मक एक भूमि क्षमता वर्गीकरण है जो मुख्यतः कृषि कार्यों के लिए विभिन्न प्रकार की मृदाओं की उपयोगिता बताता है। भूमि क्षमता वर्गीकरण भूमि के किसी भी भाग के उपयोग की सीमा निर्धारण करता है तथा संरक्षण की समस्याओं को स्पष्ट करने एवं संभावित उपचार सुझाने में सहायक होता है। भूमि का क्षमता वर्गीकरण निम्न तीन संवर्गों में किया जाता है-
1. क्षमता वर्ग- भूमि क्षमता के आठ वर्ग होते हैं, जिन्हें रोमन अंकों ( जैसे I, II, III, IV, V, VI, VII एवं VIII) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इनमें प्रथम चार तो फसलोत्पादन के लिए उपयुक्त मृदाएं होती हैं तथा शेष चार अनुपयुक्त होती हैं। लेकिन उनमें तीन चारागाह तथा घास आदि के लिए उपयुक्त होती हैं। अंतिम आठवां वर्ग इसके लिए भी अनुपयुक्त होता है। ये आठ वर्ग निम्नवत् हैं-
वर्ग-I: इस वर्ग की मृदाएं प्रायः सभी दृष्टिकोण से उचित होती हैं। समतल, गहरी, ये उपजाऊ तथा फसलोत्पादन के लिए बहुत उपयुक्त होती हैं। इस वर्ग में मृदाओं की जलधारण क्षमता अधिक होती है। इनमें जल निकास अच्छा होता है तथा दो फसलों की खेती की जा सकती है।
वर्ग-II: प्रायः ये वर्ग-I के प्रकार की मृदाएं होती हैं, परन्तु इनमें ढलान का प्रतिशत अधिक होता है जिससे अपरदन की सम्भावना रहती है। इनमें पारगम्यता तथा जल निकास मन्द गति से होता है तथा जलधारण क्षमता भी वर्ग- से कम होती है। इन विकारों के कारण इनमें फसलों के चुनाव में ध्यान देना पड़ता है।
वर्ग-III: यह देखा गया है कि वर्ग-I एवं II में जो फसलें उगाई जाती हैं वही फसलें इस वर्ग मृदाओं में उगाई जा सकती हैं। इस प्रकार की मृदाओं में खड़ी ढलान होने के कारण अपरदन की संभावना अधिक होती है। इन मृदाओं में फसलोत्पादन के लिए भू-संरक्षण, उचित फसल-चक्र, कार्बनिक खादों का उपयोग, नमी संचयन के उपाय तथा अन्यान्य पोषक तत्व की आवश्यकता रहती है।
वर्ग-IV: प्रायः इस वर्ग की मृदाएं बहुवर्षीय घास लगाने के लिए उपयुक्त होती हैं। परन्तु उचित प्रबन्ध के साथ फसलोत्पादन भी किया जा सकता है। इस वर्ग की मृदाओं में ढलान खड़े होते हैं मृदा अपरदन अधिक होता है, मृदाएं उथली होती हैं उनकी जलधारण क्षमता कम होती है तथा निकास भी अच्छा नहीं होता है।
वर्ग-V: इस वर्ग की मृदाएं कृषि के लिए अनुपयुक्त होती हैं, इनमें कंकर-पत्थर की अधिकता होती है तथा जल निकास भी उचित नहीं होता है। इन मृदाओं का उपयोग चारागाह एवं वन विकास में अच्छा रहता है।
वर्ग-VI: इस वर्ग की मृदाएं भी कृषि के लिए अनुपयुक्त होती हैं, ये उथली शुष्क होती हैं तथा जल निकास भी अच्छा नहीं होता है। कभी-कभी इनका उपयोग चारागाह एवं वन विकास के लिए किया जा सकता है, परन्तु इसके लिए भू-संरक्षण के उपाय करने होते हैं।
वर्ग-VII: प्रायः ये खड़े ढाल वाली, अपरदित, पथरीली, उथली, शुष्क या दलदली मृदाएं होती हैं। यदि उचित प्रबंध किया जाए तो इनमें वृक्षारोपण संभव हो सकता है।
वर्ग-VIII: इस वर्ग की मृदाओं में किसी भी प्रकार की फसल एवं पौधे नहीं उगाए जा सकते हैं। इसके अन्तर्गत दलदली मृदाएं, मरुस्थली गहरी नालियां, पहाड़ी क्षेत्र तथा खड़े ढाल वाली मृदाएं आदि आती हैं। इस वर्ग की मृदाएं मुख्यतः अन्य जीव संरक्षण एवं मनोरंजक पार्क आदि के लिए उपयुक्त रहती हैं।
क्षमता उपवर्ग
ये क्षमता वर्गों के उप-विभाजन हैं जोकि चार प्रभाव सीमितताओं के आधार पर बने हैं। ये सीमितताएं इस पक्रार हैं- अपरदन, गीलापन, जल निकास, जड़ क्षेत्र सीमितता, जलवायु सीमितता।
क्षमता इकाई
क्षमता इकाई में वे मृदाएं हैं जो अपने गुणों, संभाव्यताओं और सीमितता में काफी समान होती हैं तथा जिन्हें काफी हद तक संरक्षण उपचारों तथा प्रबंध कार्य प्रणालियों की आवश्यकता होती है।
अतः यह पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि मिट्टी एक अमूल्य संसाधन है जिसका उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए। कृषि कार्यों के लिए उपयुक्त मृदाओं पर खेती ही की जानी चाहिए, न कि निर्माण कार्य। मकान, पार्क एवं मनोरंजन स्थलों के लिए बंजर एवं अनुपजाऊ भूमि का ही उपयोग करना चाहिए। भूमि का उचित चयन कार्य की सफलता का द्योतक होता है। इससे हमारी उपजाऊ भूमि भी सुरक्षित रहेगी तथा विकास के कार्य भी होते रहेंगे। भू-संसाधन संरक्षण देश के सामार्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः यह समय की मांग है कि इस पहलू पर विशेष ध्यान दिया जाए।
(लेखक गुरु कृपा ब्रह्मपुरी हजारी चबूतरा, जोधपुर में वरिष्ठ विज्ञान संचारक हैं। ई-मेल: ddozha@gmail.com)
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