भूमि एवं मिट्टी का प्रदूषण (Soil Pollution in Hindi)

मृदा प्रदूषणजलवायु के समान मृदा भी एक प्राकृतिक संसाधन है, जो प्राणियों/प्राणिमात्र को भोजन एवं रहन-सहन, विचरण-क्रिया प्रदान करती है। भूमि का योगदान मानवीय गतिविधियों के अतिरिक्त पारिस्थितिकी तंत्र में जलचक्र, नाइट्रोजन चक्र, ऊर्जा चक्र इत्यादि को व्यवस्थित करने में होता है। जहां मृृृदा तक मानवीय गतिविधियों का प्रश्न है, तो खेती से लेकर कचरा फेंकने तक सभी आर्थिक गतिविधियों का आधार भूमि ही होती है।

हमारी प्रार्थना है कि-
काले वर्षन्तु पर्जन्यः पृथ्वी शस्य शयालिनी।
देशोऽयं क्षोभरहितः सज्जनाः सन्तु निर्मयाः।


जैसा कि सर्वविदित है कि अन्न पृथ्वी से ही उत्पन्न होता है, जो कि मानव की मूलभूत आवश्यकता है। अतः इसकी शुचिता और शुद्धता अत्यंत आवश्यक है। भूमि मुख्यतया दो प्रकार की होती है। उपजाऊ भूमि और बंजर भूमि।

वर्तमान में मनुष्य अपने क्रिया-कलापों से इस प्राकृतिक संसाधन को प्रदूषित कर रहा है, जिससे मृदा की उर्वरक क्षमता पर प्रभाव पड़ रहा है।

मृदा प्रदूषण के मुख्य स्रोत


1-अपशिष्ट पदार्थ (Solid Waste)


घरेलू कचरा, लौह अपशिष्ट औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट आदि भूमि को प्रदूषित करते हैं। इन अपशिष्टों में जहरीले अकार्बनिक एवं कार्बनिक रसायनों के अवशेष पाए जाते हैं, जो हानिकारक होते हैं। इन अवशेषों में रेडियो-विकिरण तत्व जैसे स्ट्रॅान्शियम, कैडमियम, यूरेनियम, लैड आदि पाए जाते हैं, जो भूमि की जीवंतता एवं उर्वरता को प्रभावित करते हैं। फ्लाई एश (चिमनियों से निकलने वाला पदार्थ) औद्योगिक क्षेत्र के आस-पास प्रदूषण का मुख्य स्रोत है। बहुत से अपशिष्ट, जिनका जैविक अपघटन (Biological Degradation) नहीं होता जैसे- पालीथिन बैग, प्लास्टिक आदि बहुत समय तक मृदा में अवरुद्ध रहकर एवं भौतिक संरचना को प्रभावित करते हैं।

कृषि रसायन -


व्यावसायिक कृषि में पेट्रो रसायन जैसे खरपतवारनाशी-कीटनाशी आदि का बेतहाशा प्रयोग किया जा रहा है साथ में अकार्बनिक रासायनिक उर्वरक (Chemical Fertilizers) का भी प्रयोग दिनों-दिन बढ़ रहा है। रासायनिक उर्वरकों में फास्फेट,नाइट्रोजन एवं अन्य कार्बनिक रासायनिक भूमि के पर्यावरण एवं भूमिगत जल संसाधनों को प्रदूषित कर रहे हैं। सर्वाधिक खतरनाक प्रदूषक जैवनाशी रसायन है जिनके कारण जलवायु एवं अन्य मृदा के सूक्ष्म जीव नष्ट हो रहे हैं फलस्वरूप मिट्टी की गुणवत्ता में कमी हो रही है। विषैले रसायन आहार श्रृंखला में प्रविष्ट हो जाते हैं जिससे उनकी पहुंच शीर्ष उपभोक्ता तक हो जाती है जैवनाशी रसायनों को रेंगती मृत्यु (Creeping Deaths) भी कहा जाता है। गत 30 वर्षों में जैव रसायनों के प्रयोग में 11 गुने से अधिक की वृद्धि हुई है। अकेले भारतवर्ष में प्रतिवर्ष 1,00,000 टन जैव रसायनों का प्रयोग हो रहा है।

अभी जनवरी 2011 में उत्तराखंड में हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि वहां गेहूं और चावल की फसलें मिट्टी की सेहत से खिलवाड़ करने वाली साबित हो रहीं है। यूरिया खाद की खपत एक साल में ढाई गुना तक बढ़ गई है। प्रदेश में पहले जिन खेतों में औसतन चार बैग यूरिया प्रयोग होता था वहां करीब अब 10 बैग इस्तेमाल किया जा रहा है। संतुलित उपयोग में नाइट्रोजन फास्फोरस और पोटास का अनुपात 4:2:1 का होना चाहिए। उत्पादकता बनाए रखने की मजबूरी में यहां ऐसा नहींं हो रहा है। पोटाश और फास्फोरस का उपयोग कम हो रहा है और यूरिया का उपयोग बढ़ रहा है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसा मिट्टी की ऊपरी सतह (Top Soil) को हुए नुकसान की वजह से हो रहा है। पर्वतीय जिलों में मिट्टी की ऊपरी सतह का क्षरण तेजी से बढ़ रहा है। अत्यधिक बरसात का सबसे बड़ा नुकसान भी यह है। मैदानी जिलों में उत्पादकता को बचाए रखने की जुगत में किसान यूरिया का उपयोग बढ़ाने को विवश है। यूरिया के बढ़ते इस्तेमाल से मिट्टी की सेहत गड़बड़ा रही है। असंतुलित खाद का प्रयोग फसल को रोगग्रस्त करता है इससे कीटनाशकों का उपयोग बढ़ता है। कीटनाशक मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाते हैं।

विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन (F.A.O.) की एक रिपोर्ट के अनुसार विगत 30 वर्षों में कीटनाशकों का प्रयोग 11 गुना बढ़ा है। कीटनाशकों की विषाक्ता से प्रतिवर्ष लगभग 10 हजार लोगोंं की मृत्यु हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग 5 लाख लोग जैव रसायनों की विषाक्तता के शिकार होते हैं। भारतीय बच्चे स्तनपान के समय जर्मन अमेरिका और ब्रिटिश के बच्चों की तुलना में 8 गुना अधिक डी.डी.टी. निगल रहे हैं जिससे यकृत या गुर्दे आदि की बीमारियाँ हो रहीं हैं। वर्ष 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने एंडोसल्फान के उत्पादन एवं बिक्री तथा इसके प्रयोग पर रोक लगा दी है। केरल में इसके व्यापक दुष्प्रभाव सामने आए हैं। सर्वाेच्च न्यायालय ने कहा है कि संविधान की धारा 21 के अंतर्गत संविधान प्रदत्त जीने का अधिकार (Right to Life) समस्त मानवीय अधिकारों में सबसे प्रमुख है। केरल में एंडोसल्फान से प्रभावित बच्चे का चित्र यहां दिया जा रहा है।

मृदा प्रदूषण के भौतिक स्रोत -


मृदा अपरदन (Soil Corrosion) के कारण में मृदा की गुणवत्ता में भारी कमी होती है जिसके प्रमुख कारण निम्नवत हैं।

1- वर्षा की मात्रा एवं तीव्रता 2- तापमान तथा हवा 3- जैविक कारक 4- मृदा खनन

प्रभाव -


मृदा प्रदूषण के मुख्य प्रभाव निम्नवत हैं।

1- मृदा की गुणवत्ता में हृास एवं उर्वरकता में कमी होती है जिसके कारण कृषि उत्पादन में कमी तथा खाद्यान्न संकट में बढ़ोतरी होती है ।
2- मृदा अपरदन से मृदा बंजर भूमि में बदल जाती है।
3- रासायनिक उर्वरकों एवं जैवनाशी रसायनों के कारण संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन पैदा होता है एवं विषाक्तता से मृत्यु तक हो जाती है।

व्यावसायिक कृषि में पेट्रो रसायन जैसे खरपतवारनाशी-कीटनाशी आदि का बेतहाशा प्रयोग किया जा रहा है साथ में अकार्बनिक रासायनिक उर्वरक का भी प्रयोग दिनों-दिन बढ़ रहा है। रासायनिक उर्वरकों में फास्फेट,नाइट्रोजन एवं अन्य कार्बनिक रासायनिक भूमि के पर्यावरण एवं भूमिगत जल संसाधनों को प्रदूषित कर रहे हैं। सर्वाधिक खतरनाक प्रदूषक जैवनाशी रसायन है जिनके कारण जलवायु एवं अन्य मृदा के सूक्ष्म जीव नष्ट हो रहे हैं फलस्वरूप मिट्टी की गुणवत्ता में कमी हो रही है।मनवीय गतिविधियों के कारण भूमिक्षरण (Soil Erosion) और मृदा प्रदूषण की एक गंभीर समस्या सामने आई है। भारत सरकार के वन मंत्रालय का अनुमान है कि भारतवर्ष की कुल भूमि का लगभग 57 प्रतिशत भाग किसी न किसी प्रकार से क्षरित हो चुका है। एक अनुमान के अनुसार भारतवर्ष के कुल क्षेत्र के लगभग 47 प्रतिशत भूमि पर कृषि होती है जिसके लगभग 56-57 प्रतिशत भाग की उर्वरा शक्ति बहुत कम हो चुकी है। इसी प्रकार कुल वन क्षेत्रों के 55 प्रतिशत भाग वृक्षों का छाया क्षेत्रफल 40 प्रतिशत से भी कम है। वर्ष 2000 तक भारत का 20 प्रतिशत भाग जिसमें 6.5 करोड़ लोग निवास करते हैं ऊसर प्रभावित है। इस प्रकार आंकड़े स्थिति की भयावहता को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करते हैं।

4- मृदा प्रदूषण पर नियंत्रण - (Control of Soil Pollution)


मृदा प्रदूषण के प्रभावों को देखते हुए इस पर नियंत्रण नितांत आवश्यक है। मिट्टी कृषकों का धन है इसके गुणों के ह्रास से न केवल कृषक ही बल्कि देश की अर्थ व्यवस्था, मानव स्वास्थ्य, जीव-जन्तु, वनस्पतियां आदि भी प्रभावित होती हैं। जंतु जगत एवं पादप जगत का अस्तित्व मिट्टी पर आधारित होता है।

मृदा प्रदूषण पर नियंत्रण के उपाय


1- जीवनाशी रसायनों के प्रयोग को परिसीमित कर समन्वित कीट प्रबंध प्रणाली (Integrated Pest Management) को अपनाया जाए।
2- रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर समन्वित पादप पोषण प्रबंधन (Integrated Plant Nutrient Management) से मिट्टी के मौलिक गुण कालांतर तक विद्यमान रहेंगे।
3- लवणता की अधिकता वाली मृदा के सुधार के लिए वैज्ञानिकों के सुझाव के अनुसार जिप्सम तथा पाइराइट्स जैसे रासायनिक मृदा सुधारकों का प्रयोग किया जाएं।

4-कृषि खेतों में जल जमाव को दूर करने के लिए जल निकास की व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है।
5- वन कटाव पर प्रतिबंध लगाकर मृदा अपरदन तथा इसके पोषक तत्वों को सुरक्षित रखने के लिए मृदा संरक्षण प्रणालियों को अपनाया जाए।
6- झूमिंग कृषि पर प्रतिबंध के द्वारा भू-क्षरण की समस्या को कम किया जा सकता है।
7- बाढ़ द्वारा नष्ट होने वाली भूमि को बचाने के लिए योजनाओं का निर्माण एवं उनका क्रियान्वयन आवश्यक है।
8- भूमि उपयोग तथा फसल प्रबंधन पर ध्यान देना नितांत आवश्यक है।

मृदा प्रबंधन - (Soil Management)मृदा जैव एवं खनिज तत्वों का एक जटिल तंत्र है जिसका निर्माण जलवायु जीव एवं भौतिक कारकों की पारस्परिक क्रियााओं के फलस्वरूप दीर्घकाल में होता है। कृषि भूमि के अनवरत उपयोग, कीटनाशी रसायनों के प्रयोग, वन कटाव, अपरदन आदि द्वारा मृदा के मौलिक गुण नष्ट हो जाते हैं। फलस्वरूप खनिज परिसंचरण नहींं हो पाता है। मृदा व निर्माण चट्टानों एवं जैव पदार्थों के अपघटन एवं विघटन के उपरांत होता है इसके निर्माण में जलवायु वनस्पति चट्टानों की प्रकृति एवं संरचना आदि का योगदान होता है। जलवायु एवं मानव क्रियाओं के फलस्वरूप मृदा का अपरदन होता है इसके फलस्वरूप तत्व जल के साथ प्रवाहित हो जाते हैं। भूमि अनुर्वर हो जाती है। संपूर्ण क्षेत्र बंजर एवं कृषि के लिए अयोग्य हो जाता है।

मिट्टी बहुमूल्य है इसका क्षरण जीव जन्तु वनस्पतियों एवं देश की अर्थ व्यवस्था को प्रभावित करता है। शस्य वैज्ञानिक विधियों (Agronomic Methods) तथा यांत्रिक विधियों (Mechanical Methods) द्वारा मृदा अपरदन पर नियंत्रण किया जाता है। अधोलिखित प्रमुख विधियों द्वारा मृदा प्रबंधन किया जा सकता है।

1- वनस्पति आवरण तथा संरक्षी वनरोपण (Vegetative Cover and Protective Afforestation)


सघन वनस्पति आवरण के कारण जल बूंदें सीधे धरातल पर नहींं पहुंचती हैं। फलस्वरूप मृदा संगठन मजबूत और सुरक्षित रहता है। जल प्रवाह धीमा एवं मृदा अपरदन कम होता है। वनस्पति आवरण की वृद्धि योजनाबद्ध तरीके से करना आवश्यक है।

2- समोच्च रेखीय जुताई (Contouring Ploughing)


ढलुआ धरातल पर जल प्रवाह तीव्र होता है फलतः अपरदन अधिक होता है। समोच्च रेखाओं के अनुसार जुताई करने पर जल प्रवाह पर नियंत्रण रहता है। फलस्वरूप मृदा अपरदन कम होता है।

मृदा प्रदूषण

3- वेदिकाकरण (Terracing)


नदी घाटियों अथवा पर्वतीय ढालों पर सीढ़ीदार खेत का निर्माण कर कृषि कार्य किया जाता है। फलस्वरूप जल का प्रवाह रुक-रुक कर होता है और मृदा अपरदन कम होता है। इसके लिए सीढ़ीदार खेतों की दीवारों को मजबूत बनाना आवश्यक है क्योंकि दीवारों के कमजोर होने से वर्षा के समय दीवारें टूट जाती हैं। फलतः अधिक मात्रा में अपरदन होता है।

4- फसल चक्र - (Crop Rotation)


जलवायुविक दशाओं के अनुसार एक ही खेत में वर्ष में दो अथवा तीन फसलों को एक के बाद एक उगाते हैं तो इसे फसल चक्र कहा जाता है एक ही फसल के लगातार उगाने से भूमि की उर्वर क्षमता कम हो जाती है। अतः भूमि की उर्वर क्षमता बनाए रखने के लिए फसल चक्र का प्रयोग नितांत आवश्यक है।

5- स्थानान्तिरत कृषि पर प्रतिबंध - (Prohibition of Shifting Cultivation)


स्थानान्तिरत कृषि से विश्व स्तर पर प्रति वर्ष काफी मात्रा में वनस्पतियां तथा भूमि बेकार हो जाती हैं फलस्वरूप संसार के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली इस कृषि पर नियंत्रण आवश्यक है। स्थानान्तिरत कृषि की वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए।

6- पशुचारण पर नियंत्रण - (Controlled Grazing)


अनियंत्रित पशुचारण से छोटी-छोटी वनस्पतियों का क्षरण होता है तथा मृदा अपरदन की अनुकूल परिस्थितियां सृजित होती हैं। फलस्वरूप अनियंत्रित पशु चारण करने वाले क्षेत्रों में स्थाई चारागाहों का निर्माण करना नितान्त आवश्यक है।

7- अवनलिका नियंत्रण - (Gully Control)


अवनलिका अपरदन से भूमि ऊबड़-खाबड़ हो जाती है। मिट्टी की अपरदन रोधी क्षमता बहुत कम हो जाती है। वनस्पतियां नष्ट हो जातीं है। अतः वनस्पति आवरण में वृद्धि एवं बांध निर्माण द्वारा अवनलिका अपरदन पर नियंत्रण किया जाता है।

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