भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन सामंती दौर की पुनर्वापसी

इस वक्त देश में मोदी सरकार द्वारा किए गए भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन अध्यादेश के खिलाफ व्यापक घेराबन्दी शुरू हो चुकी है। इस मसले पर पहली बार राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठनों के बीच गहरी सहमति दिखाई दे रही है। बहुमत की सरकार होने के बाद जिस जल्दबाजी में मोदी सरकार ने अध्यादेश का सहारा लिया वह सरकार की नीति और नीयत पर बड़ा सवाल खड़ा कर रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून में हुए संशोधन पर मोदी सरकार के खिलाफ मुखर विरोध सरकार और पार्टी दोनों के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है। इस मुद्दे पर संसद का बजट सत्र पूरी तरह से हंगामे की भेंट चढ़ने की सम्भावना है। भूमि अधिग्रहण के जुड़े खतरों और सामाजिक, आर्थिक प्रभावों की पड़ताल करती सामयिकी..

.पूरे एक सदी की लम्बी जद्दोजहद के बाद जब देश में भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदिर्शता का अधिकार विधेयक 2013 कानून बना, तो लगा कि इस कानून के अमल में आते ही देश भर में अब किसानों से जबरिया जमीन हथियाने के खेल पर रोक लगेगी। किसानों की जमीन उनकी इजाजत के बिना अब कोई नहीं छीन पाएगा। उनकी जमीन पर सरकारों के मनमानी फैसलों पर रोक लगेगी।

बहरहाल कानून ठीक ढंग से अमल में आ पाता, उससे पहले ही केन्द्र की भाजपा नेतृत्व वाली राजग सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव करने का फैसला कर लिया। एक अध्यादेश के जरिए सरकार ने हाल ही में भूमि अधिग्रहण कानून में व्यापक संशोधन कर दिए हैं।

अंग्रेजी हुकूमत द्वारा 1894 में बनाए गए जिस कानून को बदलने में भारत सरकार को 120 साल लगे, उसे मोदी सरकार ने एक ही झटके में बदल दिया। अध्यादेश ने कानून के मूल सिद्धान्त को ही बदल के रख दिया है। कानून में जो भी संशोधन किए गए हैं, वे पूरी तरह से किसान विरोधी हैं।

सरकार के इस फैसले से देश के करोड़ों-करोड़ किसान प्रभावित होंगे। कानून में जो भी संशोधन किए गए हैं ये जबरन अधिग्रहण, अत्यधिक अधिग्रहण और किसानों के स्वामित्व वाली जमीन को दूसरे काम में लगाने के रास्ते खोलेंगे। यानी समय का चक्र एक बार फिर वहीं घूम गया है, जहाँ से उसे चलने में वर्षों लगे थे।

सच बात तो यह है कि अध्यादेश के जरिए कानून में जो भी बदलाव किए गए हैं, वे 1894 के कानून से और भी ज्यादा सख्त और जन विरोधी हैं। दिसम्बर, 2013 में सर्वसहमति के बाद हमारी संसद ने जो भूमि अधिग्रहण कानून पारित किया था, उसमें सरकार और पूँजीपतियों से किसानों की जमीन बचाने के लिए कई क्रांतिकारी प्रावधान किए गए थे।

मसलन सरकारी या गैर सरकारी किसी भी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण में सम्बन्धित क्षेत्र के भूस्वामियों की कुल आबादी के 70 फीसदी लोगों की सहमति को अनिवार्य बनाया गया था। लेकिन अध्यादेश ने अब इसे खत्म कर दिया है। भूस्वामियों के 70 फीसदी हिस्से की सहमति अब अनिवार्य नहीं होगी। वहीं कानून में किसानों की सिंचित कृषि भूमि के अधिग्रहण पर भी रोक लगाई गई थी।

अध्यादेश में संशोधन के जरिए यह पाबन्दी भी हटा दी गई है। सरकार अब सिंचित और बहु फसलों वाली हरित भूमि का भी अधिग्रहण कर सकेगी। यही नहीं अब सामाजिक प्रभाव आकलन कराना भी जरूरी नहीं होगा। कानून में प्रावधान था कि सरकार, जमीन अधिग्रहण करने से पहले जनहित और सामाजिक-आर्थिक असर को समझने के लिए एक निष्पक्ष बॉडी द्वारा सामाजिक आकलन कराएगी और उसकी हरी झंडी मिलने के बाद ही जमीन का अधिग्रहण करेगी।

सामाजिक प्रभाव आकलन इसलिए भी जरूरी था कि उससे यह बात मालूम चल जाती थी कि जिस प्रोजेक्ट से हजारों लोग अपनी जमीन से उजड़ेंगे, इसके बाद उनकी जिन्दगी और क्षेत्र के पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा। भूमि अधिग्रहण कानून में पहले बाकायदा नियम था कि अगर कोई उद्योगपति अधिग्रहीत भूमि पर पाँच साल तक निर्माण कार्य नहीं करता, तो उसे किसानों को जमीन वापस करनी होगी। लेकिन सरकार ने इस सीमा को भी बढ़ाकर अब पन्द्रह साल कर दिया है।

अध्यादेश के तहत अब कलेक्टर के हाथ में सारी शक्तियाँ दे दी गई हैं। वह किसानों से जबरन जमीन छीन सकता है। कानून में पहले यह साफ-साफ नियम था कि यदि अधिग्रहण जनता की सुविधाओं के लिए किया गया है, तो बाद में जमीन किसी दूसरे उद्योगपति या किसी अन्य योजना में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। लेकिन सरकार ने अब इस नियम को भी बदल दिया है। अध्यादेश के मुताबिक सरकार अब जमीन का अधिग्रहण करके पीपीपी के लिए निजी क्षेत्र को भी दे सकती है।

हालाँकि स्वामित्व सरकार का ही रहेगा, लेकिन नियन्त्रण और उपयोग परियोजना चलाने वाली कम्पनी के पास होगा। यानी सरकार ने कानून में संशोधन कर, जबर्दस्ती अधिग्रहण के दरवाजे पूरी तरह से पूँजीपतियों के लिए खोल दिए हैं। पुराने कानून में ग्राम सभा को काफी ताकत दी गई थी। लेकिन नए संशोधनों ने ग्राम सभा को भी शक्तिहीन कर दिया है। इसके अलावा एक बात और यदि जमीन अधिग्रहण का कोई मामला अदालत में लम्बित हो जाता है, तब भी सरकार अधिग्रहण की दिशा में आगे बढ़ सकती है।

विडम्बना की बात यह है कि आजादी के 66 साल बाद तक, वही कानून मामूली संशोधनों के साथ पूरे देश में लागू रहा। भूमि अधिग्रहण कानून का हर जगह बहुत दुरुपयोग हुआ। विधेयक के ज्यादातर प्रावधान किसान विरोधी थे। खास तौर पर जमीन के अधिग्रहण के बाद प्रभावितों के पुनर्वास और पुनर्स्थापन को लेकर इसमें कोई माकूल व्यवस्था नहीं थी। यानी अब अदालत भी सरकार को जबरन अधिग्रहण करने से नहीं रोक सकती। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधनों को मोदी सरकार यह कहकर जायज ठहरा रही है कि इस कानून ने भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को काफी जटिल बना दिया था। अधिग्रहण सम्बन्धी नियमों में जटिलता की वजह से एक लाख करोड़ से अधिक के प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं। देश का विकास प्रभावित हो रहा है। लिहाजा कायदों में ढील देना जरूरी हो गया था। कानून में संशोधन से ना सिर्फ आर्थिक सुधारों को रफ्तार मिलेगी, बल्कि समाज के विकास और सुरक्षा से जुड़े काम भी तेजी से हो सकेंगे। ढाँचागत विकास और औद्योगिक परियोजना लगाने की राह में अड़चनें पैदा नहीं होंगी।

कानून में संशोधन किसानों के हक में है, आदि-आदि। जबकि सरकार की इन बातों में जरा सी भी सच्चाई नहीं। यहाँ भी वह झूठ को सच के आवरण में लपेटकर पेश कर रही है। हकीकत यह है कानून में संशोधन, किसानों की जमीन देशी-विदेशी सरमाएदारों को तश्तरी में सौंपने की तैयारी है। विकास का हवाला देकर सरकार जनता को सिर्फ और सिर्फ गुमराह करने की कोशिश कर रही है।

अपने फैसले को जायज ठहराने के लिए सरकार यह गलतबयानी भी कर रही है कि कानून में संशोधन का फैसला सिर्फ उसी का नहीं था, बल्कि कांग्रेस और दीगर पार्टियों के कई मुख्यमन्त्री भी राज्यों में उद्योग लगाने के लिए विधेयक में बदलाव की माँग कर रहे थे। जबकि इस बात में जरा सी भी सच्चाई नहीं। सच बात तो यह है कि असम के मुख्यमन्त्री तरुण गोगोई समेत कई दीगर मुख्यमन्त्रियों ने बाकायदा बयान जारी कर कानून में इन संशोधनों का विरोध किया है।

विपक्षी पार्टियों में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं है, जो आज की तारीख में सरकार के इस फैसले के साथ खड़ी हो। सरकार द्वारा अलोकतान्त्रिक तरीके से लाए गए इस अध्यादेश का सभी ने संसद और संसद के बाहर विरोध करने का फैसला किया है। साल 1894 में जब अंग्रेजी हुकूमत ने भूमि अधिग्रहण कानून बनाया, तो उसका मकसद भारतीय किसानों की जमीन का मनमाना इस्तेमाल करना था।

इस कानून के जरिए ब्रितानी अफसरों ने भारत में बड़े पैमाने पर जमीनों का अधिग्रहण किया। एक तरह से देखें, तो यह कानून ईस्ट इण्डिया के 1824 वाले बंगाल रेवेन्यू एक्ट का ही विस्तार था। बहरहाल अंग्रेजों के इस मनमाने कानून के खिलाफ कई मर्तबा बदलाव की आवाज उठी, लेकिन कानून के मूल स्वरूप में कोई फेरबदल नहीं हो पाया।

विडम्बना की बात यह है कि आजादी के 66 साल बाद तक, वही कानून मामूली संशोधनों के साथ पूरे देश में लागू रहा। भूमि अधिग्रहण कानून का हर जगह बहुत दुरुपयोग हुआ। विधेयक के ज्यादातर प्रावधान किसान विरोधी थे। खास तौर पर जमीन के अधिग्रहण के बाद प्रभावितों के पुनर्वास और पुनर्स्थापन को लेकर इसमें कोई माकूल व्यवस्था नहीं थी।

जिसका खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ता था। जब देश भर में इसके खिलाफ किसानों ने संघर्ष किए, तब जाकर तत्कालीन संप्रग सरकार भूमि अधिग्रहण कानून लेकर आई। कानून लाने से पहले सरकार ने बकायदा देश के विभिन्न राजनीतिक दलों, किसानों एवं अन्य जन संगठनों, संसदीय स्थायी समिति आदि के बीच विचार-विमर्श कर यथासम्भव सहमति का मसविदा तैयार किया और साल 2011 में लोकसभा के अंदर इस बिल का पहला प्रारूप रखा।

जिसे पास होने में पूरे दो साल लग गए। फिर भी विधेयक पर आम सहमति नहीं बन पाई। आम सहमति की ही खातिर, विधेयक के मूल स्वरूप में छब्बीस अहम संशोधन किए गए। जिनमें से तेरह तो सुमित्र महाजन की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति द्वारा ही सुझाए गए थे।

यही नहीं संसद में बहस के दौरान विपक्षी पार्टी खास तौर पर भाजपा ने सरकार को जो भी संशोधन सुझाए, वे भी कानून में शामिल कर लिए गए। कानून में ना सिर्फ किसानों-आदिवासियों के जमीन के सरकारी या गैर सरकारी तरीके से अधिग्रहण को कठिन बनाया गया, बल्कि मुआवजा राशि भी इतनी रखी गई जिसके चलते वे आर्थिक बदहाली का शिकार न हों।

देश में खेती का रकबा लगातार कम होता जा रहा है। जमीनों का उचित मुआवजा न मिलने से किसान और उसके परिवार के ऊपर आजीविका का संकट भी गहराता जा रहा था। बीते कुछ सालों में नंदीग्राम, सिंगुर, नियमगिरी, भट्टा-परसौल आदि कई जगहों पर सरकार और किसानों के बीच हुए संघर्ष के ने नए कानून की जरूरत को जन्म दिया, पर मोदी सरकार इस ऐतिहासिक कानून में संशोधन के लिए अध्यादेश लेकर आ गई। सरकार के इस तुगलकी फैसले से 1894 का सामंती दौर फिर वापिस आ गया है।

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