भूल रहे हैं रास्ता मेहमान परिंदे...

मेहमान परिंदों के लिए भारत हमेशा से ही ‘हॉट-डेस्टीनेशन’ रहा है। यहां लगभग 94 चिन्हित वेटलैंड इलाके हैं, जहां यूरोप, रूस, मध्य एशिया से पक्षी प्रवास पर आते हैं। साल-दर-साल अक्टूबर अंत से लेकर नवंबर अंत तक साढ़े तीन सौ से भी ज्यादा प्रजातियों के पंछी सर्दी व्यतीत करने आते रहे हैं, लेकिन इनकी संख्या घटकर सौ के करीब पहुंच गई है जो कि चिंतनीय है। सूरज की रोशनी, चांद और सितारों की स्थिति पर पूरी नजर जमाए हुए, हर वर्ष की भांति रूस के टुण्ड्रा प्रदेश से सारसों के दो दल निकले हैं, एक युकटियां प्रांत से दक्षिण-पूर्वी एशिया में चीन की ओर तो दूसरा साइबेरिया से दक्षिण-पश्चिम एशिया में भारतीय उपमहाद्वीप की ओर रुख करता है... ईरान और भारत की ओर बढ़ते समूह में एक पंछी के परों में अजीब-सी झुरझुरी-सी हो रही है, पांच हजार किलोमीटर का सफर! कोई मामूली बात नहीं, फिर ये तो इतनी दूरी की उसकी पहली यात्रा है। उमंग का ठिकाना ही नहीं... नया देश जाने कैसा होगा। हवा गर्म और जमीन यहां से ज्यादा नर्म होगी... वेलिसनेरिया (जलीय पौधा) का अंजाना-स्वाद उसके मुंह में घूल रहा है।

इस बीच,पहला दल चीन की पेयोंग झील पर पहुंच चुका है, इधर भारत में भरतपुर के केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में विश्व भर के पक्षी विज्ञानी इनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, क्योंकि पिछले 10-11 वर्षों से ये पंछी लापता-सा-ख्वाब बन गए हैं, जो अपने पते पर कभी दस्तक ही नहीं देता। आखिर ऐसा क्या हुआ कि सदियों से एक निश्चित मार्ग से आने वाले साइबेरियन क्रेन अपने पसंदीदा वेटलैंड पर छुट्टियां बिताने नहीं आ रहे। आंकड़ों पर नजर डालने पर पता चलता है कि इनकी आबादी तेजी से गिर रही है। 1964 में ये 200 के समूह में भरतपुर आए थे जो 1996 में घटकर मात्र 6 ही रह गए, आखिरी बार इन्हें 2001-02 में देखा गया। भारत आने वाली बार हेडेड गूज पहले 4 से 5 हजार के झुंड में आती थीं, अब ये समूह 40-50 का ही होता है, बतखों की 15-16 किस्मों में से अब कुछ ही प्रजातियाँ दिखाई पड़ती हैं।

भारत में साइबेरियन पक्षीहालांकि इस साल भी देख के कई हिस्सों में अधिकतर पक्षी पहुंच चुके हैं। लद्दाख में 3 लाख से ज्यादा संख्या में प्रवासी पक्षी अभी तक पहुंच चुके हैं, जिनमें ग्रे लेग गूस, मलार्ड्स, कॉमन टील, शोवलर्स और फिनटेल शामिल हैं, भरतपुर में भी साइबेरियन क्रेन को छोड़कर फ्लेमिंगो, बार हेडेड गूज, आइबिस, पेलिकन्स, कॉमन पोचार्ड दिखाई दे रहे हैं। गुजरात के कच्छ के रण में भी इन परिंदों का जमावड़ा है। उड़ीसा की चिलका झील पर भी ये तफरीह करते नजर आ रहे हैं। चेन्नई की झीलों, और तिरुवनंतपुरम के वेलायनी वेटलैंड में नॉर्दन शोवलर्स, रोजी स्टारलिंग्स, वुडसेंडपारपर चहलकदमी कर रहे हैं। फिर भी तादाद पहले की तुलना में काफी कम है।

पक्षी विज्ञानियों, संस्थाओं के लगातार अध्ययन से भी ये जानना मुश्किल है कि परिंदों का बेहतरीन जैविक तंत्र नाकाम क्यों हो रहा है? दरअसल नभचरों के पास एक बेहतरीन स्वचालित तंत्र होता है, जिससे वो समय का निर्धारण करते हैं। इसमें इनकी मदद करती हैं, जैविक घड़ियां, जो कि आंख के रेटिना (दृष्टि पटल), मस्तिष्क में स्थित पीनियल ग्रंथि और हाइपोथैलेमस में मौजूद रहती हैं। ये जैविक घड़ियां हरदम सूर्य के प्रकाश से घंटे, दिन, रात,महीनों की गणना करती रहती हैं। इनमें से कोई दो घड़ियां एक-दूसरे के साथ समय मिलाकर केंद्रीय तंत्र की तरह व्यवहार करती हैं, एक कुशल व्यवस्थापक की भांति उनका ‘दूर कैलेंडर’ बनाती हैं। बेहद उम्दा किस्म का ये ‘हारमोनल सिस्टम’ पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होता है। शायद ही वजह है कि नवजात परिंदे भी अपने वक्त की गणित से वाक़िफ़ होते हैं, अपने परिवार के साथ नियत तिथि पर देश छोड़ते हैं, तथा वापस लौटते हैं। लौटकर घोंसला बनाते हैं, प्रजनन करते हैं, बच्चों के अंडों से निकलकर उड़ना सीखने तक वहां रहते हैं फिर एक दिन अपना नीड़ छोड़कर नए बसेरे तलाशते हैं। जाने कैसा आकर्षण उन्हें सुदूर देशों तक ले आता है। शायद एक सुरक्षित आबोहवा की महक... फिर भी अपनी राहों से भटकाव क्यों है? इसका एक सबसे बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन है। दम-ब-दम बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से वेटलैंड उतनी सुरक्षित नहीं रहे, फिर मनुष्य का गैर-जिम्मेदाराना रवैया किसी न किसी हद तक जिम्मेदार है। वेटलैंड्स को संरक्षित क्षेत्र तो घोषित किया गया है मगर संरक्षण के मापदंडों का सही से पालन नहीं किया जा रहा है। इन इलाकों के पानी के स्रोतों में रसायन घूल रहा है, ज़मीन को शहर निगल रहा है और गैरकानूनी तौर से घुसते बहेलियों का खौफ परिंदों की आंखों में है। यहां तक कि वो एक राह, जिसे तय कर पंछी प्रवास पर आते हैं (सेंट्रल एशियन फ्लाइवे) देशों की आपसी उलझन में बूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गई है।

भारत में साइबेरियन पक्षीआपको याद है वो पक्षी जिसका जिक्र शुरू में किया था, वो न जाने कहां गुम हो गया है, लेकिन ऑस्कर वाइल्ड की कहानी के नायक स्वैलो की रूह उसे देख रही है। वो स्वयं एक प्रवासी पक्षी था। एक सरकंडे से मुहब्बत के चलते वो अपने परिवार के साथ उड़ान पर नहीं गया। जब तक उसे एहसास हुआ कि ये जंगली घास उसके काबिल नहीं, प्रवास ही उसका नसीब है, तब तक काफी देर हो चुकी थी। वो अपने साथियों से बिछुड़ चुका था।... फिर एक रोज तेज ठंड से ठिठुरते परिंदे ने वहीं दम तोड़ दिया।

आओ कि इंतजार है...


1. 2014 में 10-11 को मनाए जाने वाले ‘वर्ल्ड माइग्रेटी बर्ड डे’ की थीम पर्यटन और प्रवासी पक्षियों के आवासों के संरक्षण पर केंद्रित रहेगी।
2. UNEP (यूनाइटेड नेशन एनवायरमेंट प्रोग्राम) पंछियों के संरक्षण के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर पूरा ध्यान रख रहा है।
3. भारत में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में सैटेलाइट के जरिए पक्षियों पर नजर रखने का निर्णय लिया गया है।

भारत में साइबेरियन पक्षी

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