भूक्षरण या मृदा-अपरदन ( Erosion or Soil-erosion in Hindi)


भूक्षरण या मृदा-अपरदन का अर्थ है मृदा कणों का बाह्‌य कारकों जैसे वायु, जल या गुरूत्वीय-खिंचाव द्वारा पृथक होकर बह जाना। वायु द्वारा भूक्षरण मुख्यतः रेगिस्तानी क्षेत्रों में होता है, जहाँ वर्षा की कमी तथा हवा की गति अधिक होती है, परन्तु जल तथा गुरूत्वीय बल द्वारा भूक्षरण पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक होता है। जल द्वारा भूक्षरण के दो मुख्य चरण होते हैं- पहले सतही भूमि से मृदा कणों का पृथक होना, तथा दूसरे इन मृदा कणों का सतही अपवाह के साथ बहकर दूर चले जाना। जल द्वारा भूक्षरण के विभिन्न प्रकार निम्नानुसार है।


प्राकृतिक-क्षरण -



यदि भूक्षरण स्वतः ही प्राकृतिक ढंग से बिना किसी बाह्‌य हस्तक्षेप के होता रहता है, उसे प्राकृतिक-क्षरण कहते हैं। इस भूक्षरण में मृदा-निर्माण तथा मृदा-ह्रास की प्रक्रियायें साथ-साथ होती रहती हैं जिसके कारण एक प्राकृतिक संतुलन बना रहता है तथा वानस्पतिक विकास निरन्तर चलता रहता है। यह एक धीमा परन्तु लगातार चलने वाला रचनात्मक कार्य है। वास्तव में, यह कोई समस्या नहीं है, बल्कि एक प्राकृतिक क्रिया है जिसके लिए किसी विशेष उपाय की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

त्वरित-क्षरण -

यदि भूक्षरण की प्रक्रिया मानव तथा जानवरों द्वारा सतही भूमि पर आवश्यकता से अधिक दखल देने के कारण तेजी से होती है, उसे त्वरित-भूक्षरण कहते हैं। यह क्रिया अधिक विनाशकारी होती हैं जिसके उपचार हेतु भूमि संरक्षण के उपाय अत्यावश्यक हैं ताकि मृदा-वनस्पति-पर्यावरण का सम्बन्ध प्रकृति में बना रहे। इसकी शुरूआत भूमि पर तीव्र गति से अवैज्ञानिक ढंग से कृषि-कार्य तथा अन्य एक-तरफा विकास-कार्यो के अनियंत्रित प्रभाव से होती है जिसके दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं।

हमारे देश में सामान्यतः कृषि भूमि से अनुमन्य भूक्षरण की दर लगभग 7.5 टन प्रति हैक्टेयर प्रति वर्ष है, परन्तु वर्तमान दर लगभग 20-30 टन प्रति हैक्टेयर प्रति वर्ष तक पहुँच गयी है, जिसमें अधिकतम योगदान पर्वतीय क्षेत्रों का है। यह एक चिन्ता का विषय है जिसके लिए तुरन्त संरक्षण के उपयुक्त उपाय प्रयोग करना अत्यावश्यक है। चूंकि उत्तराखंड में त्वरित भूक्षरण एक गम्भीर समस्या है, अतः इसके विभिन्न कारकों तथा रोकथाम के उपायों की जानकारी आवश्यक है, जो कि निम्नवत्‌ है-

(1) जलवायु - इसमें शामिल हैं-वर्षा की मात्रा व तीव्रता, तापमान, वायु, सूर्य की ऊष्मा आदि। यदि वर्षा की तीव्रता अधिक है, तो भूक्षरण भी अधिक होगा।

(2) मृदा - इसमें शामिल हैं- मृदा की रचना तथा गठन, घनत्व, जल-धारण क्षमता, कार्बनिक पदार्थ, दृढ़ता आदि। मृत्तिका या चिकनी मिट्टी की अपेक्षा रेतीली मिट्टी का क्षरण अधिक होता है।

(3) वनस्पति - इसमें शामिल हैं- वनस्पति का प्रकार, जाति, घनत्व, परिपक्वता-अवस्था आदि। सघन वनस्पति जिसका मूल-तंत्र अच्छा है, उससे भूक्षरण कम होता है।

(4) स्थलाकृति - इसमें शामिल हैं- ढाल की मात्रा एवं लम्बाई, जलागम की आकृति एवं आकार आदि। लम्बे व ढालू भूमि की सतह से भूक्षरण अधिक होता है क्योंकि इस पर अपवाह की गति तेज होती है। उत्तल-सतह की अपेक्षा अवतल-सतह से भूक्षरण कम होता है।

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