भूकंप से क्षति न हो, इसके लिए पहला सबक भूकंपरोधी मकानों का निर्माण है, हालांकि सिर्फ विशेष प्रशिक्षण प्राप्त इंजीनियरों को ही घरों की डिजाइनिंग में लगाया जाना चाहिए। अगर समय मिले तो भूकंप के समय लोगों को अपने घरों से निकलकर खुली जगह पर पहुंचना चाहिए। अगर समय न मिले तो मेजों या ऐसे ही मजबूत फर्नीचर के नीचे शरण लेनी चाहिए।
19 सितंबर को सिक्किम, बिहार, पश्चिम बंगाल, नेपाल और तिब्बत में आए भूकंप ने अब तक 100 से अधिक जानें लील ली हैं। सबसे अधिक मौतें उत्तरी सिक्किम में हुई हैं, जो इस 6.8 तीव्रता के भूकंप का केंद्र था। इसकी तीव्रता इतनी अधिक थी कि कम जनसंख्या घनत्व वाले पहाड़ के बजाय मैदानों में होने पर मरने वालों की संख्या और अधिक होती, लेकिन पहाड़ों में आपात स्थिति में राहत पहुंचाने के कार्य में मुश्किलें आती हैं। जान-माल के इतने नुकसान और तबाही को रोकने के लिए तुच्छ मनुष्य क्या कर सकता है? इस प्रश्न का उत्तर है - कुछ नहीं, क्योंकि करीब 25 वर्ष पहले चीन में आए एक भूकंप के बारे में किए गए कुछ दावों के बावजूद, सच्चाई यही है कि हम भूकंप के बारे में उस तरह पहले से अनुमान नहीं लगा सकते, जिस तरह हम बाढ़, चक्रवात या सुनामी की भविष्यवाणी नहीं कर सकते। वैसे सूनामी की भी आधिकारिक पूर्व सूचना देना आसान नहीं है। भूकंप बिना किसी चेतावनी के आता है, वह अपने पहुंचने का संकेत तक नहीं देता।दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि लोग भूकंप के कारण मौत के शिकार नहीं बनते बल्कि भूकंप के चलते भवनों और अन्य ढांचों के ढहने से उनकी मौत होती है। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सामान्यतः भूकंप-सक्रिय क्षेत्रों में ही भयंकर भूकंप आते हैं। भूकंप की तीव्रता के बढ़ते स्तर के मुताबिक भारत को पांच क्षेत्रों में बांटा गया है। इन पांचों में से पहले को समाप्त कर दिया गया है और अब हमारे पास सिर्फ चार क्षेत्र हैं, हालांकि संख्याएं एक से पांच तक ही हैं, पहले क्षेत्र को खाली छोड़ दिया गया है। तीव्रतम भूकंप क्षेत्र 5 में आ सकते हैं, जिसमें असम, सिक्किम, उत्तरी बंगाल, उत्तरी बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड तथा जम्मू-कश्मीर शामिल हैं। हालिया इतिहास में शायद सबसे भयावह भूकंप 1950 के स्वतंत्रता दिवस को असम में आया था, जिसकी तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.5 मापी गई थी। उस भूकंप ने सदिया, जो भूकंप में लगभग नष्ट हो गया, के निकट ब्रह्मपुत्र की दिशा बदल दी और दूरस्थ दार्जिलिंग में भी झटके महसूस हुए थे। यह बात एक पत्रकार ने कई साल बाद काठमांडू में बताई, जो भूकंप के समय दार्जिलिंग के एक स्कूल में थे।
एक और भयंकर भूकंप 15 जनवरी, 1934 को उत्तरी बिहार और नेपाल में आया था। उस भूकंप ने समस्तीपुर के निकट पूसा गांव में उस भव्य इमारत को ढहा दिया जो वायसराय लॉर्ड कर्जन के समय बनवाई गई थी और जिसमें इंपीरियल एग्रिकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट (बाद में इंडियन एग्रिकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट) चलता था। नेपाल में अधिक तबाही हुई, राजमहलों को छोड़कर पूरा काठमांडू शहर तबाह हो गया और 8000 लोग मारे गए। वहां के तत्कालीन राणा जुद्ध शमशेर ने शहर का पुनर्निर्माण करवाया, जिसके बाद काठमांडू में मुख्य सड़क को अब भी नई सड़क के नाम से जाना जाता है। इस बार 6.8 क्षमता के भूकंप के हिसाब से सिक्किम, उत्तरी बंगाल, बिहार, नेपाल और तिब्बत में मरने वालों की संख्या उतनी अधिक नहीं है, हालांकि अब भी दुर्गम उत्तरी सिक्किम में मग्गान के आस-पास और वहां निर्माणाधीन जल-विद्युत परियोजना स्थलों पर मरने वालों की संख्या ठीक-ठीक पता नहीं है। अब तक उन क्षेत्रों में अपनी जान गंवा चुके लोगों की अंतिम संख्या नहीं पता चल पाई है।
घरों, भवनों, सड़कों या छोटी झोपड़ियों को भूकंप के असर से बचाने का कोई उपाय नहीं है। फिर भी कुल मिलाकर मजबूत और योजनाबद्ध तरीके से बने ढांचे आमतौर पर भूकंप के दौरान बच जाते हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी में 1999 में भूकंप के एक दिन बाद जाने पर यह देखकर हैरत हुई कि शहर में सिर्फ कुछ कमजोर मकानों और झोंपड़ियों को छोड़कर बाकी सभी घर, बल्कि एक रेस्तरां भी ठीक-ठाक था। भूकंप से क्षति न हो, इसके लिए पहला सबक भूकंपरोधी मकानों का निर्माण है, हालांकि सिर्फ विशेष प्रशिक्षण प्राप्त इंजीनियरों को ही घरों की डिजाइनिंग में लगाया जाना चाहिए। अगर समय मिले तो भूकंप के समय लोगों को अपने घरों से निकलकर खुली जगह पर पहुंचना चाहिए। अगर समय न मिले तो मेजों या ऐसे ही मजबूत फर्नीचर के नीचे शरण लेनी चाहिए। घरों के कोनों, जहां दो दीवारें मिलती हैं, में शरण लेना भी एक और 'सुरक्षित क्षेत्र' है।
भूकंप के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों खासकर स्कूल में ही बच्चों को भूकंप के समय बचने के तरीकों की जानकारी दी जानी चाहिए और उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। कुछ वर्ष पहले दूरदर्शन एक ऐसा कार्यक्रम प्रसारित करता था। ऐसे कार्यक्रमों को अक्सर प्रसारित किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि इससे लोगों में भूकंप के खतरों के प्रति जागरूकता बढ़ेगी। पिछले कुछ वर्षों में आए कुछ तगड़े भूकंप हैं: 8 अक्टूबर, 2005 को पाक अधिकृत कश्मीर के मुजफ्फराबाद में 7.6 क्षमता का भूकंप। उस भूकंप में सत्तर हजार लोगों की मौत हुई, जिनमें अधिकांशतः पाक अधिकृत कश्मीर के लोग थे। कश्मीर में लगभग 1300 जानें गईं। संयोगवश, इतने भयंकर भूकंप के बाद भी उस क्षेत्र के कई बड़े बांधों में से एक भी प्रभावित नहीं हुआ। इसमें झेलम नदी पर बना उरी बांध भी शामिल था, जबकि उरी शहर तबाह हो गया। यही बात पाकिस्तान में मंगला और सिंधु बांधों, भारत में भाखड़ा नंगल,व्यास या रंजीत सागर बांधों पर भी सच हुई जिससे यह साबित हुआ कि मजबूत ढांचे तगड़े भूकंप को भी सह सकते हैं।
उसके बाद 26 दिसंबर, 2004 को इंडोनेशिया में उत्पन्न सुनामी ने तमिलनाडु तट पर लगभग 11,000 भारतीयों की जान ले ली। 26 जनवरी, 2001 में 6.7 तीव्रता के गुजरात भूकंप ने 20,000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। 22 मई, 1997 में मध्य प्रदेश के जबलपुर में 6 तीव्रता के भूकंप में 40 मारे गए। 30 सितंबर, 1993 में महाराष्ट्र के लातूर-उस्मानाबाद में 6.3 तीव्रता के भूकंप ने 7601 जानें ले लीं। दिलचस्प बात यह है कि उस क्षेत्र में कमजोर बनी अधिकांश इमारतें ढह गईं, लेकिन लातूर के एक गांव में एक हनुमान मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। दिक्कत यही है कि इतना होने के बावजूद हमारे देश में भवनों के निर्माण में भूकंपरोधी मानकों का पालन नहीं किया जा रहा है और इसके लिए बहुत हद तक सरकार ही जिम्मेदार है, क्योंकि वह भवन निर्माताओं के साथ सख्ती नहीं बरतती।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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