भूकम्पीय समस्या के समाधान की दिशा में महत्वपूर्ण कदम इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि समस्या भूकम्प की नहीं बल्कि असुरक्षित भवनों को लेकर है। अतएव भूकम्प की फिक्र करने के बजाय भवन निर्माण उद्योग की ओर ध्यान देने की जरूरत है। हाल के वर्षों में अनेक भूकम्पों के कारण भारत में हजारों लोग मारे गए और भारी आर्थिक हानि हुई है। तुलनात्मक रूप से उसी तीव्रता के भूकम्पों से अमेरिका में 100 से भी कम मौतें होती हैं। इसका प्रमुख कारण है, सुरक्षित भवनों के निर्माण के लिए किए गए व्यवस्थित प्रयास। भारत में आए प्रत्येक विध्वंसकारी भूकम्प की ओर मीडिया का ध्यान आकर्षित होना सहज ही है। सरकारी एजेंसियाँ भविष्य में इस तरह की आपदाओं को कम करने की योजनाओं की घोषणा करती हैं, समाचारपत्रों और टीवी चैनलों द्वारा विशेषज्ञों की भेंटवार्ता प्रसारित की जाती हैं, देशभर में सम्मेलनों और कार्यशालाओं का आयोजन किया जाता है और लोगों को भरोसा होने लगता है कि भूकम्प की समस्या के समाधान के प्रयास किए जा रहे हैं। परन्तु तभी अगला भूकम्प आता है और लोग महसूस करते हैं कि पिछली घटना के समय जो स्थिति थी वही अब भी है, कोई सुधार नहीं हुआ है। तो क्या इसका यह अर्थ है कि यह एक ऐसी समस्या है जिसका समाधान भारत अकेले नहीं कर सकता है? उत्तर है हम इस समस्या का निराकरण कर सकते हैं, परन्तु उसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। प्रस्तुत आलेख में निहित समस्याओं का पता लगाने और आगे की कार्य योजना पर चर्चा की गई है।
गुजरात के भुज में 2001 में आए भूकम्प में 13 हजार से अधिक लोग मारे गए थे। इनमें से अधिकतर कच्छ और सौराष्ट्र क्षेत्र के थे। भूकम्प के केन्द्र से करीब 220 किलोमीटर दूर अहमदाबाद में भी 800 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी। गौरतलब है कि भूकम्प में अहमदाबाद की कोई भी पुरानी इमारत नहीं गिरी थी। गिरी थी औपचारिक क्षेत्र (भवन निर्माताओं, वास्तु शिल्पियों और अभियन्ताओं से सम्बद्ध क्षेत्र) में निर्मित 130 बहुमंजिली इमारतें, जिनके कारण अहमदाबाद में इतनी मौतें हुईं। भारत में भूकम्प की समस्या का यह एक स्पष्ट उदाहरण है। न केवल अशिक्षित और अकुशल कारीगरों तथा जनसामान्य द्वारा प्रकल्पित बल्कि अनेक पेशेवर वस्तुशिल्पियों और अभियन्ताओं द्वारा किए गए असुरक्षित निर्माण कार्य। अन्य क्षेत्रों में भारत विकास की जो छलांगें लगा रहा है, उससे यह कतई मेल नहीं खाता।
बलूचिस्तान के मार्च 1931 में आए भूकम्प के बाद क्वेटा में अनेक भूकम्परोधी रेलवे स्टेशन बनाए गए थे (कुमार 1933, जैन 2002) क्वेटा में 1935 में आए भूकम्प में करीब 25 हजार लोग मारे गए थे। इस भूकम्प में केवल यही इमारतें नष्ट होने से बची रह गई थीं। कहना यह है कि हालाँकि 70 साल पहले ही देश में भूकम्परोधी मकानों के निर्माण की जानकारी थी, हमने इस ओर ध्यान नहीं दिया और असुरक्षित मकानों का निर्माण लगातार जारी रहा।
वर्ष 2001 में आए भूकम्प के बाद अनेक नगरीय निकायों ने भवनों के प्रमाणन के लिए संरचना से सम्बद्ध अभियन्ताओं की सेवाएँ लेनी शुरू कर दी है कि वे भूकम्पीय नियमों के अनुसार बनाईं गई हैं या नहीं। दुर्भाग्यवश इस प्रकार के प्रमाणपत्र प्राप्त करना कोई कठिन कार्य नहीं है। थोड़े से पैसों के भुगतान पर प्रायः ऐसा प्रमाणपत्र मिल जाता है, परन्तु भवन निर्माण की गुणवत्ता से इसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता। जब तक नगरीय प्रशासन यह सुनिश्चित नहीं करते कि भवनों के निर्माण में सुरक्षा सम्बन्धी नियमों का पालन वास्तव में किया गया है, फर्ज़ी प्रमाणपत्र जारी होते रहेंगे, भले ही कारण कुछ भी हो।
अभियान्त्रिकी में प्रायः समस्या की पहचान करना उसके निराकरण से अधिक सरल होता है (कभी-कभी चुनौतीपूर्ण भी)। क्योंकि एक बार जब समस्या का सही ढंग से पता चल जाता है तो उसका समाधान भी सामने दिखने लगता है। प्रायः हमारा राष्ट्रीय और व्यावसायिक स्वाभिमान समस्याओं को सही-सही बताने के रास्ते आ जाता है। जिससे उसके निराकरण का अवसर हाथ से निकल जाता है। भूकम्प की समस्या के समाधान के लिए, हमें सबसे पहले समस्या को स्पष्ट रूप से सामने रखना होगा। (यथा, जैन 2005)
अनेक लोगों का सुझाव है कि इस मामले में कोई प्रगति हो इसके पहले भूकम्पीय सम्भावना वाले क्षेत्रों का सूक्ष्म वर्गीकरण किया जाना जरूरी है। ये सभी गतिविधियाँ बहुमूल्य हैं, परन्तु इनसे भूकम्प की समस्या को कम करने में तब तक कोई मदद नहीं मिलेगी, जब तक हम सुरक्षित भवनों का निर्माण नहीं शुरू करते।भूकम्प की समस्या क्या है? प्रत्येक दावेदार यही सोचता है कि समस्या के समाधान में उसकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। कुछ लोग कहेंगे कि सुरक्षित निर्माण (संरचनाओं) के लिए जनजागृति अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है तो कुछ अन्य कहेंगे कि और भूकम्पीय उपकरणों की आवश्यकता है। अनेक लोगों का सुझाव है कि इस मामले में कोई प्रगति हो इसके पहले भूकम्पीय सम्भावना वाले क्षेत्रों का सूक्ष्म वर्गीकरण किया जाना जरूरी है। ये सभी गतिविधियाँ बहुमूल्य हैं, परन्तु इनसे भूकम्प की समस्या को कम करने में तब तक कोई मदद नहीं मिलेगी, जब तक हम सुरक्षित भवनों का निर्माण नहीं शुरू करते। यदि किसी प्रकार सभी इमारतों को भूकम्पीय हलचलों को सहने में सक्षम बनाया जा सके तो समस्या अपने आप समाप्त हो जाएगी। स्पष्ट है कि असुरक्षित भवन ही मुख्य समस्या है भूकम्प नहीं। अतः स्पष्ट है कि
1. यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी नये निर्माण भूकम्परोधी हों, और
2. सभी मौजूदा संरचनाओं को युक्तिशील पश्च सुधार कार्यक्रम (रेट्रोफिटिंग) के जरिये निश्चित समयावधि में भूकम्परोधी बनाना ही समस्या का समाधान है।
मान लें कि भवनों की औसत आयु 50 वर्ष है और भवनों की संख्या 2 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। यदि भविष्य में कोई भी असुरक्षित भवन का निर्माण नहीं होता तो 20 वर्षों में करीब 60 प्रतिशत भवन, बिना किसी रेट्रोफिटिंग के भूकम्परोधी हो जाएँगे। अतः यह स्पष्ट है कि हमारी प्राथमिकता सुरक्षित नये भवनों के निर्माण के लिए सुदृढ़ व्यवस्था होनी चाहिए। साथ ही साथ हमें मौजूदा संरचनाओं की भूकम्पीय रेट्रोफिटिंग की प्रणालियों, नीतियों और प्रविधियों को विकसित करने की आवश्यकता है ताकि युक्तिशील रेट्रोफिटिंग कार्यक्रम तैयार किए जा सकें।
यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है कि सभी नयी इमारतें सुरक्षित हों? इस प्रश्न का उत्तर हम ढूँढ़े उसके पूर्व हमें यह पूछना होगा कि असुरक्षित भवन बनाए ही क्यों जाते हैं? इसके अनेक कारण हैं :
अज्ञानता : अनेक मामलों में नियोजन, अभिकल्पन और निर्माण से जुड़े लोगों को सही ढंग से काम करना आता ही नहीं। कुछ मामलों में उन्हें पता होता है कि वे नहीं जानते फिर भी काम जारी रखते हैं। अन्य मामलों में उन्हें पता ही नहीं होता कि वे कुछ कार्यों के सम्पादन के लिए वांछित योग्यता नहीं रखते।
इरादे : लागत बचाने के लिए सामग्री या जनशक्ति को बचाने का लालच अक्सर ही असुरक्षित निर्माणों को हवा देता है। अनेक मामलों में काम पूरा करने की जल्दबाजी के कारण गुणवत्ता से समझौता कर लिया जाता है। परन्तु ये कारण सार्वभौमिक हैं और पूरी दुनिया में प्रचलित हैं, यहाँ तक कि विकसित देशों में भी। फिर ऐसा क्यों होता है कि विकसित देशों में आमतौर पर निर्माण कार्य विकासशील देशों की तुलना में अधिक सुरक्षित होते हैं?
निष्कर्ष यह है कि ऐसी प्रणाली अथवा व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता है जिससे नये निर्माणों में सुरक्षा की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हो सके। सुरक्षित निर्माण सुनिश्चित करने के जरूरी अवयव निम्नलिखित हैं (महत्व के क्रमानुसार नहीं):
जनजागृति : यदि जनता खतरों के प्रति जागरूक होती हैं तो सुरक्षा कार्यक्रमों को लागू करना आसान हो जाता है। हाल के भूकम्पों (2001 में भुज और 2005 में कश्मीर) ने काफी जागरुकता पैदा की है, परन्तु निर्माणों को और सुरक्षित बनाने की दिशा में अभी और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है।
वैधानिक ढाँचा : 2001 के भूकम्प के बाद अनेक राज्य सरकारों और नगरीय निकायों ने नियमों के पालन को अनिवार्य कर दिया है। सुरक्षा के प्रति वास्तुशिल्पियों, संरचनात्मक अभियन्ताओं, ठेकेदारों, निर्माण करने वाले अभियन्ताओं, भवन निर्माताओं और नगरीय प्रशासनों की जवाबदेही के बारे में स्पष्ट समझ विकसित करने की आवश्यकता है। जिन प्रश्नों पर ध्यान देने की आवश्यकता है, वे हैं - कौन किस बात के लिए जवाबदेह है, यह कौन सुनिश्चित करेगा कि जवाबदेह लोग वही कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए और क्या होगा जब कोई अपनी जवाबदेही नहीं निभाता?
तकनीकी क्षमता : पिछले दशक में क्षमता विकास की अनेक गतिविधियों से भूकम्पीय विनियमों के बारे में भारतीय संरचनात्मक अभियन्ताओं के ज्ञान के स्तर को ऊँचा उठाने में मदद मिली है। राष्ट्रीय भूकम्प अभियान्त्रिकी शिक्षा कार्यक्रम (www.nicee.org/npee) के अन्तर्गत अभियान्त्रिकी और वास्तुशिल्प महाविद्यालयों के अनेक शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया गया है। इन अनेक महाविद्यालयों में अब इस विषय को पाठ्यक्रमों में भी शामिल कर लिया गया है परन्तु इस दिशा में अभी और भी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। ये केवल अभियन्ताओं के लिए नहीं बल्कि भवन निर्माताओं, ठेकेदारों और कारीगरों सहित सभी-सम्बन्धित लोगों को और अधिक प्रशिक्षण देने की जरूरत है।
व्यावसायिक परिवेश : वास्तुशिल्प चिकित्सा और लेखाकर्म के व्यवसायों के लिए देश में कानून है। इन व्यवसायों से सम्बद्ध परिषदें (1) लाइसेंस प्राप्त पेशेवरों की क्षमता और (2) उनके सदस्यों का नैतिक व्यवहार, सुनिश्चित करती हैं। देश में अभियान्त्रिकी व्यवसाय के नियमन की प्रणाली स्थापित करने की माँग काफी समय से की जा रही है। पहले इसे संरचना अभियन्ताओं के लिए परीक्षा आधारित लाइसेंसिंग प्रणाली लागू कर शुरू किया जाना चाहिए और बाद में अन्य अभियन्ताओं के लिए इसके अलावा (राजगीरों) कारीगरों और मिस्त्रियों के लिए क्षमता आधारित प्रमाणन प्रणाली की भी आवश्यकता है।
चिन्ता का एक अन्य विषय राज्यों और केन्द्र सरकारों के कुछ अभियान्त्रिकी विभागों में मनोबल की कमी होना भी है। ऐसे अनेक विभागों में व्यावसायिकों का आत्मसम्मान काफी गिर गया है और वे छोटे-छोटे निर्णय के लिए भी मन्त्रालयों के नौकरशाहों का मुँह ताका करते हैं। मनोबल विहीन व्यावसायिकों के समूह से हम अच्छी सेवाओं की अपेक्षा नहीं कर सकते।
प्रवर्तन : किसी कार में सीट बेल्ट बाँधने में कोई खर्च नहीं होता। परन्तु फिर भी पुलिस को इसे लागू करवाना होता है ताकि लोग इस नियम का पालन कर सकें। तब क्या हमें प्रत्येक भवन निर्माता (प्रॉपर्टी डेवलपर) से नियमों के पालन के लिए कुछ अतिरिक्त व्यय की अपेक्षा करनी चाहिए? वर्तमान में अधिकतर शहरों में, नगरपालिकाओं द्वारा नियमों के अनुपालन से सम्बन्धित प्रमाणपत्र की माँग की जाती है, परन्तु स्वतन्त्र रूप से उनका सत्यापन नहीं किया जाता। यह स्थिति तो वैसी ही होगी जैसी कि यदि कहा जाए कि आयकर विभाग को लेखाकर्मियों और नागरिकों से बस यह प्रमाणपत्र लेना है कि उक्त व्यक्ति ने कानून के अनुसार कर अदा कर दिया है और विभाग को आयकर विवरणियों की जाँच करने का न तो अधिकार हो और न ही कर चोरी के खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता हो। स्पष्ट है कि इस तरह का प्रमाणपत्र जारी किया जाए इसके पहले स्थानीय निकायों को संरचनात्मक आरेखों के छोटे से भाग की सरकारी समीक्षा शुरू करनी होगी।
अनुसन्धान एवं विकास : निर्माण के हमारे तौर-तरीके विकसित देशों से भिन्न होते हैं, और अनेक तकनीकी समस्याओं के लिए देसी अनुसन्धान और विकास की आवश्यकता होती है। स्पष्ट है कि भूकम्प के ‘विज्ञान’ से अधिक भूकम्प की अभियान्त्रिकी के बारे में अनुसन्धान पर जोर देने की जरूरत है। एनपीईईई की मान्यताओं के अनुसार भूकम्प की अभियान्त्रिकी के क्षेत्र में अनुसन्धान और विकास के लिए राष्ट्रीय पहल की अति आवश्यकता है। (जैन 2007)
आलेख के उपर्युक्त भाग में मुख्य रूप से शहरी क्षेत्र के निर्माण के बारे में चर्चा की गई है। उन ग्रामीण और अनौपचारिक निर्माणों के बारे में क्या, जिनका नियमन नगरीय निकायों द्वारा नहीं किया जाता? इस सम्बन्ध में अनेक दृष्टिकोणों के प्रयोग की आवश्यकता है :
1. हमें ऐसे तकनीकी समाधानों की आवश्यकता है जिससे आम आदमी स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों से भूकम्परोधी साधारण मकान बना सके। भूकम्परोधी निर्माणों के आदर्श उदाहरण असम के मकान हैं। पूर्वोत्तर राज्यों की इस शैली के अलावा कश्मीर के धज्जी-द्वारी निर्माण भी एक उत्तम उदाहरण हैं। इन जैसी शैलियों के समसामयिक संस्करणों के विकास के लिए अनुसन्धान की आवश्यकता है।
2. जिन भवनों के निर्माण का अभियान्त्रिकीय क्रियान्वयन सक्षम रूप से नहीं हो सकता उन री-इनफोर्ड्र कंक्रीट ढाँचों वाले भवनों के निर्माण को हमें हतोत्साहित करना होगा। इसके स्थान पर सीमित राजगीरी वाले अथवा री-इनफोर्स्ड कंक्रीट कैंची जैसी दीवारों वाले मकान अधिक उपयुक्त होते हैं। यदि पर्याप्त अभियान्त्रिकीय जानकारी उपलब्ध न हो तो ये शैलियाँ बेहतर होती हैं।
3. जैसे-जैसे शहरी क्षेत्रों में कार्य में सुधार आता जाएगा, ग्रामीण क्षेत्रों में भी उनका अनुसरण होता जाएगा। अनौपचारिक क्षेत्र औपचारिक क्षेत्र की नकल करता ही रहता है।
दुर्भाग्यवश रिट्रोफिटिंग के लिए जो नफासत चाहिए देश में उसकी आवाज पर्याप्त रूप से नहीं उठ रही। या तो इसकी ओर सिर्फ सरकारी तौर पर ही ध्यान दिया जाता है या फिर रिट्रोफिटिंग के बारे में सही जानकारी लोगों को नहीं है। उसके बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बातें की जाती हैं। रिट्रोफिटिंग के बारे में कुछ तथ्यों का विवरण यहाँ प्रस्तुत है :
रिट्रोफिटिंग खर्चीला होता है : रिट्रोफिटिंग की लागत उसी प्रकार के नये निर्माण की लागत का 10 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक हो सकती है। (यथा स्पेंस 2004)
असुरक्षित निर्माणों की संख्या और उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर दशकों तक चलने वाली समय-सारिणी की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ, कैलिफोर्निया के परिवहन विभाग को अपने भवनों को रिट्रोफिट करने में 35 वर्ष लगे और इसमें अरबों डॉलर खर्च हुए। रिट्रोफिटिंग के लिए पर्याप्त दक्षता और तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता है। जटिल संरचनाओं के मामले में अथवा जब उद्देश्य जीवन-सुरक्षा से भी बेहतर निष्पादन का हो, तो रिट्रोफिटिंग के लिए पर्याप्त तकनीकी कौशल और ज्ञान की आवश्यकता होती है। कैलिफोर्निया के परिवहन विभाग (कैलट्रांस) को रिट्रोफिटिंग तकनीक के अनुसन्धान पर प्रतिवर्ष करीब 2 अरब बीस करोड़ रुपए खर्च करने पड़े। भारत में मौजूदा भवनों के भूकम्पीय आकलन और भूकम्पीय रिट्रोफिटिंग की कसौटी के बारे में सर्वसम्मत दस्तावेजों को तैयार करने का काम अभी तक नहीं हो सका है।
सरकार को महत्वपूर्ण भवनों की रिट्रोफिटिंग का कार्य स्वयं हाथ में लेना चाहिए। हम एक ओर तो इस बात पर जोर नहीं दे सकते कि प्रत्येक बच्चे को स्कूल जाना चाहिए, और फिर उन्हें असुरक्षित भवनों वाले स्कूलों में पढ़ने के लिए भेज दें। मुजफ्फराबाद का दुखद दृश्य, जहाँ करीब 400 बच्चे स्कूली भवनों के नष्ट होने से मारे गए थे, भारत के अनेक शहरों में भी घटित हो सकता है। इससे पहले कि हम निजी विद्यालय-भवनों से रिट्रोफिटिंग की अपेक्षा करें, सरकारी स्कूली भवनों की रिट्रोफिटिंग के बारे में गम्भीर नीति अपनाए जाने की आवश्यकता है।
प्राथमिकता तय करने की प्रणाली की आवश्यकता है। चूँकि सभी भवनों की रिट्रोफिटिंग एक साथ नहीं हो सकती, हमें एक ऐसी युक्तिसंगत नीति की आवश्यकता है जिससे वह प्रणाली विकसित की जा सके जिसके आधार पर रिट्रोफिटिंग की आवश्यकता वाले भवनों की प्राथमिकता निश्चित की जा सके। इस सम्बन्ध में हमें स्थान विशेष की भूकम्पीय दुश्वारियाँ, भवनों की खतरनाक स्थिति, हानि के परिणामों आदि को भी ध्यान में रखना होगा। यह अपने आप में शोध का एक विषय है।
संक्षेप में, रिट्रोफिटिंग के बारे में गम्भीर प्रयास शुरू करने के पहले हमें बहुत-सी तैयारियाँ करनी होगी और उसके लिए जमीन तैयार करनी होगी।
भूकम्पीय समस्या के समाधान की दिशा में महत्वपूर्ण कदम इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि दरअसल, समस्या भूकम्प की नहीं बल्कि असुरक्षित भवनों को लेकर है। अतएव भूकम्प की फिक्र करने के बजाय भवन निर्माण उद्योग की ओर ध्यान देने की जरूरत है। हमें इस बात पर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है कि किस प्रकार भवन निर्माण उद्योग में सुधार किया जाए कि भूकम्प की स्थिति में मानवीय क्षय न्यूनतम हो। इस बात को स्वीकार करना भी महत्वपूर्ण है कि भूकम्प सुरक्षा एक चुनौतीपूर्ण अभियान्त्रिकी समस्या है और इसमें दश्कों तक ध्यानपूर्वक काम करने की जरूरत है। अल्पावधि में इस समस्या का समाधान नहीं निकल सकता। दशकों से लोग जिस प्रकार से काम करते आए हैं, उन्हें सहज ही बदला नहीं जा सकता।
इस आलेख के समापन में भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण की 1939 में प्रकाशित उस रिपोर्ट के वाक्यांश को उद्धृत करना बेहतर होगा, जो बिहार-नेपाल में 1934 में आए भूकम्प पर आधारित थी (सन 1939) :
1. कुष्ठ रोग साधारण रोग नहीं है, परन्तु चिकित्सा जगत ने मानवता की खातिर इसके उन्मूलन के लिए भरसक प्रयास किया है। भयावह भूकम्प भी धरती की सतह के किसी भाग की रोजमर्रा की बीमारी नहीं है, परन्तु यह हमारा कर्तव्य है कि इसके प्रभाव को सीमित करने के लिए हमसे जो बन पड़ता है वह करें। जब तक इस समस्या पर व्यापक रूप से ध्यान नहीं दिया जाएगा, भावी पीढ़ी हमारे संकीर्ण दृष्टिकोण पर खेद जताती रहेगी।
2. क्वेटा क्षेत्र में हाल ही में एक उत्कृष्ट भवन-निर्माण संहिता (नियमावली) तैयार की गई है, और इसी संहिता के अनुसार सख्ती से पुनर्निर्माण कराया जा रहा है। सम्भवतः इस तरह की सख्ती सैनिक क्षेत्र में सहज होती है, परन्तु क्वेटा ने कम से कम भवन-निर्माण संहिता की व्यवहारिकता और उसकी उपयोगिता का उदाहरण तो पेश कर ही दिया है। यह आशा कि शीघ्र ही समूचा उत्तरी भारत क्वेटा के नक्शे-कदम पर चलने लगेगा, कोई ज्यादा बड़ी बात नहीं होगी। यह कथन आज भी उतना ही मौजूं है जितना 65 वर्ष पहले था।
(लेखक सिविल अभियान्त्रिकी विभाग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर से सम्बद्ध हैं)
ई-मेल : skjain@iitk.ac.in
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और वर्तमान परिदृश्य
गुजरात के भुज में 2001 में आए भूकम्प में 13 हजार से अधिक लोग मारे गए थे। इनमें से अधिकतर कच्छ और सौराष्ट्र क्षेत्र के थे। भूकम्प के केन्द्र से करीब 220 किलोमीटर दूर अहमदाबाद में भी 800 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी। गौरतलब है कि भूकम्प में अहमदाबाद की कोई भी पुरानी इमारत नहीं गिरी थी। गिरी थी औपचारिक क्षेत्र (भवन निर्माताओं, वास्तु शिल्पियों और अभियन्ताओं से सम्बद्ध क्षेत्र) में निर्मित 130 बहुमंजिली इमारतें, जिनके कारण अहमदाबाद में इतनी मौतें हुईं। भारत में भूकम्प की समस्या का यह एक स्पष्ट उदाहरण है। न केवल अशिक्षित और अकुशल कारीगरों तथा जनसामान्य द्वारा प्रकल्पित बल्कि अनेक पेशेवर वस्तुशिल्पियों और अभियन्ताओं द्वारा किए गए असुरक्षित निर्माण कार्य। अन्य क्षेत्रों में भारत विकास की जो छलांगें लगा रहा है, उससे यह कतई मेल नहीं खाता।
बलूचिस्तान के मार्च 1931 में आए भूकम्प के बाद क्वेटा में अनेक भूकम्परोधी रेलवे स्टेशन बनाए गए थे (कुमार 1933, जैन 2002) क्वेटा में 1935 में आए भूकम्प में करीब 25 हजार लोग मारे गए थे। इस भूकम्प में केवल यही इमारतें नष्ट होने से बची रह गई थीं। कहना यह है कि हालाँकि 70 साल पहले ही देश में भूकम्परोधी मकानों के निर्माण की जानकारी थी, हमने इस ओर ध्यान नहीं दिया और असुरक्षित मकानों का निर्माण लगातार जारी रहा।
वर्ष 2001 में आए भूकम्प के बाद अनेक नगरीय निकायों ने भवनों के प्रमाणन के लिए संरचना से सम्बद्ध अभियन्ताओं की सेवाएँ लेनी शुरू कर दी है कि वे भूकम्पीय नियमों के अनुसार बनाईं गई हैं या नहीं। दुर्भाग्यवश इस प्रकार के प्रमाणपत्र प्राप्त करना कोई कठिन कार्य नहीं है। थोड़े से पैसों के भुगतान पर प्रायः ऐसा प्रमाणपत्र मिल जाता है, परन्तु भवन निर्माण की गुणवत्ता से इसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता। जब तक नगरीय प्रशासन यह सुनिश्चित नहीं करते कि भवनों के निर्माण में सुरक्षा सम्बन्धी नियमों का पालन वास्तव में किया गया है, फर्ज़ी प्रमाणपत्र जारी होते रहेंगे, भले ही कारण कुछ भी हो।
समस्या
अभियान्त्रिकी में प्रायः समस्या की पहचान करना उसके निराकरण से अधिक सरल होता है (कभी-कभी चुनौतीपूर्ण भी)। क्योंकि एक बार जब समस्या का सही ढंग से पता चल जाता है तो उसका समाधान भी सामने दिखने लगता है। प्रायः हमारा राष्ट्रीय और व्यावसायिक स्वाभिमान समस्याओं को सही-सही बताने के रास्ते आ जाता है। जिससे उसके निराकरण का अवसर हाथ से निकल जाता है। भूकम्प की समस्या के समाधान के लिए, हमें सबसे पहले समस्या को स्पष्ट रूप से सामने रखना होगा। (यथा, जैन 2005)
अनेक लोगों का सुझाव है कि इस मामले में कोई प्रगति हो इसके पहले भूकम्पीय सम्भावना वाले क्षेत्रों का सूक्ष्म वर्गीकरण किया जाना जरूरी है। ये सभी गतिविधियाँ बहुमूल्य हैं, परन्तु इनसे भूकम्प की समस्या को कम करने में तब तक कोई मदद नहीं मिलेगी, जब तक हम सुरक्षित भवनों का निर्माण नहीं शुरू करते।भूकम्प की समस्या क्या है? प्रत्येक दावेदार यही सोचता है कि समस्या के समाधान में उसकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। कुछ लोग कहेंगे कि सुरक्षित निर्माण (संरचनाओं) के लिए जनजागृति अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है तो कुछ अन्य कहेंगे कि और भूकम्पीय उपकरणों की आवश्यकता है। अनेक लोगों का सुझाव है कि इस मामले में कोई प्रगति हो इसके पहले भूकम्पीय सम्भावना वाले क्षेत्रों का सूक्ष्म वर्गीकरण किया जाना जरूरी है। ये सभी गतिविधियाँ बहुमूल्य हैं, परन्तु इनसे भूकम्प की समस्या को कम करने में तब तक कोई मदद नहीं मिलेगी, जब तक हम सुरक्षित भवनों का निर्माण नहीं शुरू करते। यदि किसी प्रकार सभी इमारतों को भूकम्पीय हलचलों को सहने में सक्षम बनाया जा सके तो समस्या अपने आप समाप्त हो जाएगी। स्पष्ट है कि असुरक्षित भवन ही मुख्य समस्या है भूकम्प नहीं। अतः स्पष्ट है कि
1. यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी नये निर्माण भूकम्परोधी हों, और
2. सभी मौजूदा संरचनाओं को युक्तिशील पश्च सुधार कार्यक्रम (रेट्रोफिटिंग) के जरिये निश्चित समयावधि में भूकम्परोधी बनाना ही समस्या का समाधान है।
मान लें कि भवनों की औसत आयु 50 वर्ष है और भवनों की संख्या 2 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। यदि भविष्य में कोई भी असुरक्षित भवन का निर्माण नहीं होता तो 20 वर्षों में करीब 60 प्रतिशत भवन, बिना किसी रेट्रोफिटिंग के भूकम्परोधी हो जाएँगे। अतः यह स्पष्ट है कि हमारी प्राथमिकता सुरक्षित नये भवनों के निर्माण के लिए सुदृढ़ व्यवस्था होनी चाहिए। साथ ही साथ हमें मौजूदा संरचनाओं की भूकम्पीय रेट्रोफिटिंग की प्रणालियों, नीतियों और प्रविधियों को विकसित करने की आवश्यकता है ताकि युक्तिशील रेट्रोफिटिंग कार्यक्रम तैयार किए जा सकें।
नये निर्माणों में सुरक्षा सुनिश्चित करना
यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है कि सभी नयी इमारतें सुरक्षित हों? इस प्रश्न का उत्तर हम ढूँढ़े उसके पूर्व हमें यह पूछना होगा कि असुरक्षित भवन बनाए ही क्यों जाते हैं? इसके अनेक कारण हैं :
अज्ञानता : अनेक मामलों में नियोजन, अभिकल्पन और निर्माण से जुड़े लोगों को सही ढंग से काम करना आता ही नहीं। कुछ मामलों में उन्हें पता होता है कि वे नहीं जानते फिर भी काम जारी रखते हैं। अन्य मामलों में उन्हें पता ही नहीं होता कि वे कुछ कार्यों के सम्पादन के लिए वांछित योग्यता नहीं रखते।
इरादे : लागत बचाने के लिए सामग्री या जनशक्ति को बचाने का लालच अक्सर ही असुरक्षित निर्माणों को हवा देता है। अनेक मामलों में काम पूरा करने की जल्दबाजी के कारण गुणवत्ता से समझौता कर लिया जाता है। परन्तु ये कारण सार्वभौमिक हैं और पूरी दुनिया में प्रचलित हैं, यहाँ तक कि विकसित देशों में भी। फिर ऐसा क्यों होता है कि विकसित देशों में आमतौर पर निर्माण कार्य विकासशील देशों की तुलना में अधिक सुरक्षित होते हैं?
निष्कर्ष यह है कि ऐसी प्रणाली अथवा व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता है जिससे नये निर्माणों में सुरक्षा की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हो सके। सुरक्षित निर्माण सुनिश्चित करने के जरूरी अवयव निम्नलिखित हैं (महत्व के क्रमानुसार नहीं):
जनजागृति : यदि जनता खतरों के प्रति जागरूक होती हैं तो सुरक्षा कार्यक्रमों को लागू करना आसान हो जाता है। हाल के भूकम्पों (2001 में भुज और 2005 में कश्मीर) ने काफी जागरुकता पैदा की है, परन्तु निर्माणों को और सुरक्षित बनाने की दिशा में अभी और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है।
वैधानिक ढाँचा : 2001 के भूकम्प के बाद अनेक राज्य सरकारों और नगरीय निकायों ने नियमों के पालन को अनिवार्य कर दिया है। सुरक्षा के प्रति वास्तुशिल्पियों, संरचनात्मक अभियन्ताओं, ठेकेदारों, निर्माण करने वाले अभियन्ताओं, भवन निर्माताओं और नगरीय प्रशासनों की जवाबदेही के बारे में स्पष्ट समझ विकसित करने की आवश्यकता है। जिन प्रश्नों पर ध्यान देने की आवश्यकता है, वे हैं - कौन किस बात के लिए जवाबदेह है, यह कौन सुनिश्चित करेगा कि जवाबदेह लोग वही कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए और क्या होगा जब कोई अपनी जवाबदेही नहीं निभाता?
तकनीकी क्षमता : पिछले दशक में क्षमता विकास की अनेक गतिविधियों से भूकम्पीय विनियमों के बारे में भारतीय संरचनात्मक अभियन्ताओं के ज्ञान के स्तर को ऊँचा उठाने में मदद मिली है। राष्ट्रीय भूकम्प अभियान्त्रिकी शिक्षा कार्यक्रम (www.nicee.org/npee) के अन्तर्गत अभियान्त्रिकी और वास्तुशिल्प महाविद्यालयों के अनेक शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया गया है। इन अनेक महाविद्यालयों में अब इस विषय को पाठ्यक्रमों में भी शामिल कर लिया गया है परन्तु इस दिशा में अभी और भी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। ये केवल अभियन्ताओं के लिए नहीं बल्कि भवन निर्माताओं, ठेकेदारों और कारीगरों सहित सभी-सम्बन्धित लोगों को और अधिक प्रशिक्षण देने की जरूरत है।
व्यावसायिक परिवेश : वास्तुशिल्प चिकित्सा और लेखाकर्म के व्यवसायों के लिए देश में कानून है। इन व्यवसायों से सम्बद्ध परिषदें (1) लाइसेंस प्राप्त पेशेवरों की क्षमता और (2) उनके सदस्यों का नैतिक व्यवहार, सुनिश्चित करती हैं। देश में अभियान्त्रिकी व्यवसाय के नियमन की प्रणाली स्थापित करने की माँग काफी समय से की जा रही है। पहले इसे संरचना अभियन्ताओं के लिए परीक्षा आधारित लाइसेंसिंग प्रणाली लागू कर शुरू किया जाना चाहिए और बाद में अन्य अभियन्ताओं के लिए इसके अलावा (राजगीरों) कारीगरों और मिस्त्रियों के लिए क्षमता आधारित प्रमाणन प्रणाली की भी आवश्यकता है।
चिन्ता का एक अन्य विषय राज्यों और केन्द्र सरकारों के कुछ अभियान्त्रिकी विभागों में मनोबल की कमी होना भी है। ऐसे अनेक विभागों में व्यावसायिकों का आत्मसम्मान काफी गिर गया है और वे छोटे-छोटे निर्णय के लिए भी मन्त्रालयों के नौकरशाहों का मुँह ताका करते हैं। मनोबल विहीन व्यावसायिकों के समूह से हम अच्छी सेवाओं की अपेक्षा नहीं कर सकते।
प्रवर्तन : किसी कार में सीट बेल्ट बाँधने में कोई खर्च नहीं होता। परन्तु फिर भी पुलिस को इसे लागू करवाना होता है ताकि लोग इस नियम का पालन कर सकें। तब क्या हमें प्रत्येक भवन निर्माता (प्रॉपर्टी डेवलपर) से नियमों के पालन के लिए कुछ अतिरिक्त व्यय की अपेक्षा करनी चाहिए? वर्तमान में अधिकतर शहरों में, नगरपालिकाओं द्वारा नियमों के अनुपालन से सम्बन्धित प्रमाणपत्र की माँग की जाती है, परन्तु स्वतन्त्र रूप से उनका सत्यापन नहीं किया जाता। यह स्थिति तो वैसी ही होगी जैसी कि यदि कहा जाए कि आयकर विभाग को लेखाकर्मियों और नागरिकों से बस यह प्रमाणपत्र लेना है कि उक्त व्यक्ति ने कानून के अनुसार कर अदा कर दिया है और विभाग को आयकर विवरणियों की जाँच करने का न तो अधिकार हो और न ही कर चोरी के खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता हो। स्पष्ट है कि इस तरह का प्रमाणपत्र जारी किया जाए इसके पहले स्थानीय निकायों को संरचनात्मक आरेखों के छोटे से भाग की सरकारी समीक्षा शुरू करनी होगी।
अनुसन्धान एवं विकास : निर्माण के हमारे तौर-तरीके विकसित देशों से भिन्न होते हैं, और अनेक तकनीकी समस्याओं के लिए देसी अनुसन्धान और विकास की आवश्यकता होती है। स्पष्ट है कि भूकम्प के ‘विज्ञान’ से अधिक भूकम्प की अभियान्त्रिकी के बारे में अनुसन्धान पर जोर देने की जरूरत है। एनपीईईई की मान्यताओं के अनुसार भूकम्प की अभियान्त्रिकी के क्षेत्र में अनुसन्धान और विकास के लिए राष्ट्रीय पहल की अति आवश्यकता है। (जैन 2007)
आलेख के उपर्युक्त भाग में मुख्य रूप से शहरी क्षेत्र के निर्माण के बारे में चर्चा की गई है। उन ग्रामीण और अनौपचारिक निर्माणों के बारे में क्या, जिनका नियमन नगरीय निकायों द्वारा नहीं किया जाता? इस सम्बन्ध में अनेक दृष्टिकोणों के प्रयोग की आवश्यकता है :
1. हमें ऐसे तकनीकी समाधानों की आवश्यकता है जिससे आम आदमी स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों से भूकम्परोधी साधारण मकान बना सके। भूकम्परोधी निर्माणों के आदर्श उदाहरण असम के मकान हैं। पूर्वोत्तर राज्यों की इस शैली के अलावा कश्मीर के धज्जी-द्वारी निर्माण भी एक उत्तम उदाहरण हैं। इन जैसी शैलियों के समसामयिक संस्करणों के विकास के लिए अनुसन्धान की आवश्यकता है।
2. जिन भवनों के निर्माण का अभियान्त्रिकीय क्रियान्वयन सक्षम रूप से नहीं हो सकता उन री-इनफोर्ड्र कंक्रीट ढाँचों वाले भवनों के निर्माण को हमें हतोत्साहित करना होगा। इसके स्थान पर सीमित राजगीरी वाले अथवा री-इनफोर्स्ड कंक्रीट कैंची जैसी दीवारों वाले मकान अधिक उपयुक्त होते हैं। यदि पर्याप्त अभियान्त्रिकीय जानकारी उपलब्ध न हो तो ये शैलियाँ बेहतर होती हैं।
3. जैसे-जैसे शहरी क्षेत्रों में कार्य में सुधार आता जाएगा, ग्रामीण क्षेत्रों में भी उनका अनुसरण होता जाएगा। अनौपचारिक क्षेत्र औपचारिक क्षेत्र की नकल करता ही रहता है।
मौजूदा निर्माणों की भूकम्पीय रिट्रोफिटिंग
दुर्भाग्यवश रिट्रोफिटिंग के लिए जो नफासत चाहिए देश में उसकी आवाज पर्याप्त रूप से नहीं उठ रही। या तो इसकी ओर सिर्फ सरकारी तौर पर ही ध्यान दिया जाता है या फिर रिट्रोफिटिंग के बारे में सही जानकारी लोगों को नहीं है। उसके बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बातें की जाती हैं। रिट्रोफिटिंग के बारे में कुछ तथ्यों का विवरण यहाँ प्रस्तुत है :
रिट्रोफिटिंग खर्चीला होता है : रिट्रोफिटिंग की लागत उसी प्रकार के नये निर्माण की लागत का 10 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक हो सकती है। (यथा स्पेंस 2004)
रिट्रोफिटिंग एक लम्बी चलने वाली प्रक्रिया है
असुरक्षित निर्माणों की संख्या और उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर दशकों तक चलने वाली समय-सारिणी की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ, कैलिफोर्निया के परिवहन विभाग को अपने भवनों को रिट्रोफिट करने में 35 वर्ष लगे और इसमें अरबों डॉलर खर्च हुए। रिट्रोफिटिंग के लिए पर्याप्त दक्षता और तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता है। जटिल संरचनाओं के मामले में अथवा जब उद्देश्य जीवन-सुरक्षा से भी बेहतर निष्पादन का हो, तो रिट्रोफिटिंग के लिए पर्याप्त तकनीकी कौशल और ज्ञान की आवश्यकता होती है। कैलिफोर्निया के परिवहन विभाग (कैलट्रांस) को रिट्रोफिटिंग तकनीक के अनुसन्धान पर प्रतिवर्ष करीब 2 अरब बीस करोड़ रुपए खर्च करने पड़े। भारत में मौजूदा भवनों के भूकम्पीय आकलन और भूकम्पीय रिट्रोफिटिंग की कसौटी के बारे में सर्वसम्मत दस्तावेजों को तैयार करने का काम अभी तक नहीं हो सका है।
सरकार को महत्वपूर्ण भवनों की रिट्रोफिटिंग का कार्य स्वयं हाथ में लेना चाहिए। हम एक ओर तो इस बात पर जोर नहीं दे सकते कि प्रत्येक बच्चे को स्कूल जाना चाहिए, और फिर उन्हें असुरक्षित भवनों वाले स्कूलों में पढ़ने के लिए भेज दें। मुजफ्फराबाद का दुखद दृश्य, जहाँ करीब 400 बच्चे स्कूली भवनों के नष्ट होने से मारे गए थे, भारत के अनेक शहरों में भी घटित हो सकता है। इससे पहले कि हम निजी विद्यालय-भवनों से रिट्रोफिटिंग की अपेक्षा करें, सरकारी स्कूली भवनों की रिट्रोफिटिंग के बारे में गम्भीर नीति अपनाए जाने की आवश्यकता है।
प्राथमिकता तय करने की प्रणाली की आवश्यकता है। चूँकि सभी भवनों की रिट्रोफिटिंग एक साथ नहीं हो सकती, हमें एक ऐसी युक्तिसंगत नीति की आवश्यकता है जिससे वह प्रणाली विकसित की जा सके जिसके आधार पर रिट्रोफिटिंग की आवश्यकता वाले भवनों की प्राथमिकता निश्चित की जा सके। इस सम्बन्ध में हमें स्थान विशेष की भूकम्पीय दुश्वारियाँ, भवनों की खतरनाक स्थिति, हानि के परिणामों आदि को भी ध्यान में रखना होगा। यह अपने आप में शोध का एक विषय है।
संक्षेप में, रिट्रोफिटिंग के बारे में गम्भीर प्रयास शुरू करने के पहले हमें बहुत-सी तैयारियाँ करनी होगी और उसके लिए जमीन तैयार करनी होगी।
समापन टिप्पणियाँ
भूकम्पीय समस्या के समाधान की दिशा में महत्वपूर्ण कदम इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि दरअसल, समस्या भूकम्प की नहीं बल्कि असुरक्षित भवनों को लेकर है। अतएव भूकम्प की फिक्र करने के बजाय भवन निर्माण उद्योग की ओर ध्यान देने की जरूरत है। हमें इस बात पर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है कि किस प्रकार भवन निर्माण उद्योग में सुधार किया जाए कि भूकम्प की स्थिति में मानवीय क्षय न्यूनतम हो। इस बात को स्वीकार करना भी महत्वपूर्ण है कि भूकम्प सुरक्षा एक चुनौतीपूर्ण अभियान्त्रिकी समस्या है और इसमें दश्कों तक ध्यानपूर्वक काम करने की जरूरत है। अल्पावधि में इस समस्या का समाधान नहीं निकल सकता। दशकों से लोग जिस प्रकार से काम करते आए हैं, उन्हें सहज ही बदला नहीं जा सकता।
इस आलेख के समापन में भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण की 1939 में प्रकाशित उस रिपोर्ट के वाक्यांश को उद्धृत करना बेहतर होगा, जो बिहार-नेपाल में 1934 में आए भूकम्प पर आधारित थी (सन 1939) :
1. कुष्ठ रोग साधारण रोग नहीं है, परन्तु चिकित्सा जगत ने मानवता की खातिर इसके उन्मूलन के लिए भरसक प्रयास किया है। भयावह भूकम्प भी धरती की सतह के किसी भाग की रोजमर्रा की बीमारी नहीं है, परन्तु यह हमारा कर्तव्य है कि इसके प्रभाव को सीमित करने के लिए हमसे जो बन पड़ता है वह करें। जब तक इस समस्या पर व्यापक रूप से ध्यान नहीं दिया जाएगा, भावी पीढ़ी हमारे संकीर्ण दृष्टिकोण पर खेद जताती रहेगी।
2. क्वेटा क्षेत्र में हाल ही में एक उत्कृष्ट भवन-निर्माण संहिता (नियमावली) तैयार की गई है, और इसी संहिता के अनुसार सख्ती से पुनर्निर्माण कराया जा रहा है। सम्भवतः इस तरह की सख्ती सैनिक क्षेत्र में सहज होती है, परन्तु क्वेटा ने कम से कम भवन-निर्माण संहिता की व्यवहारिकता और उसकी उपयोगिता का उदाहरण तो पेश कर ही दिया है। यह आशा कि शीघ्र ही समूचा उत्तरी भारत क्वेटा के नक्शे-कदम पर चलने लगेगा, कोई ज्यादा बड़ी बात नहीं होगी। यह कथन आज भी उतना ही मौजूं है जितना 65 वर्ष पहले था।
(लेखक सिविल अभियान्त्रिकी विभाग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर से सम्बद्ध हैं)
ई-मेल : skjain@iitk.ac.in
Path Alias
/articles/bhauukamaparaodhai-bhavana-samasayaaen-aura-saujhaava
Post By: birendrakrgupta