बीते दिनों 25 अप्रैल को नेपाल में राजधानी काठमाण्डू से 80 किलोमीटर दूर लामजंग में आए 7.9 तीव्रता वाले विनाशकारी भूकम्प से और उसके दूसरे दिन 6.5 और 6.7 तीव्रता वाले भूकम्प से अब तक 4000 से अधिक मौतें हो चुकी हैं, 6500 से अधिक लोग घायल हैं और 3000 से अधिक लोग विभिन्न अस्पतालों में भर्ती हैं। सम्पत्ति का कितना नुकसान हुआ है, इसका आकलन कर पाना अभी जल्दबाजी होगी। वहाँ आपातकाल लागू कर दिया गया है। राहत कार्य शुरू हो चुके हैं।
भारत ने एनडीआरएफ की टीमें नेपाल रवाना कर दी हैं और इस आपदा की घड़ी में भारत हर सम्भव सहायता देने को कटिबद्ध है। भारत ने वायुसेना के 13 विमान, एयर इण्डिया व जेट एयरवेज के तीन नागरिक विमान, छह एमआई 17 हेलीकॉप्टर, दो हल्के हेलीकॉप्टर, एक हजार से अधिक प्रशिक्षित सैन्यकर्मी टनों खाद्य सामग्री के साथ राहत कार्य हेतु नेपाल भेज दिये हैं।
भारत द्वारा वहाँ युद्धस्तर पर राहत अभियान जारी है। भूकम्प की भयावहता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राहत के काम में कितना समय लगेगा, यह कह पाना मुश्किल है। हाँ इतना तय है कि इस भूकम्प का असर इतना भयावह है जिसकी भरपाई करने में नेपाल को बीसियों साल लग जाएँगे।
नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में तबाही का मंजर दिल दहला देने वाला है। वहाँ 750 से अधिक लोग मौत के मुँह में चले गए हैं। 1832 में बना ऐतिहासिक धरहरा टावर ध्वस्त हो चुका है। राजमहल का बड़ा हिस्सा तबाह हो गया है। माउंट एवरेस्ट पर हिमस्खलन से 22 लोग मौत के मुँह में चले गए हैं। इसके अलावा 217 पर्वतारोही लापता हैं। सैकड़ों विदेशी अभी भी वहाँ फँसे हुए हैं।
असलियत यह है कि नेपाल इतिहास की सबसे भयावह तबाही के दौर से गुजर रहा है। इसका असर भारत में भी कम नहीं हुआ है। हमारे देश में भी अभी तक कम-से-कम 160 लोग मौत के मुँह में चले गए हैं। देश में सबसे अधिक नुकसान उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में हुआ है। बिहार के 8 जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
राजस्थान, झारखण्ड, कश्मीर और त्रिपुरा भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। भले ही हमारे यहाँ सम्पत्ति का अधिक नुकसान न हुआ हो लेकिन इतना तय है कि भारत में भूकम्प के खतरे से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। इसे यदि यूँ कहें कि भारत में भूकम्प के खतरे कम नहीं हैं तो गलत नहीं होगा। इसके झटके देश की राजधानी दिल्ली सहित देश के अधिकांश हिस्से में महसूस किए गए हैं। इसे झुठलाया नहीं जा सकता।
यह भी सच है कि भूकम्प के खतरे से निपटने की तैयारी में हम बहुत पीछे हैं। विडम्बना यह कि आपदा प्रबन्धन कानून बनने के दस साल बाद भी दावे कुछ भी किए जाएँ, देश की बात तो दीगर है, देश की राजधानी दिल्ली में किसी आपदा से निपटने की कोई ठोस योजना तक नहीं है। इसे देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाएगा।
दरअसल भूकम्प! एक ऐसा नाम है जिसके सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसकी विनाशलीला की कल्पना मात्र से दिल दहलने लगता है और मौत सर पर मँडराती नजर आती है। गौरतलब है कि संप्रग सरकार के दौरान आज से पाँच बरस पहले तत्कालीन केन्द्रीय शहरी विकास मन्त्री जयपाल रेड्डी ने कहा था कि इस आपदा का कभी भी सामना करना पड़ सकता है और अभी स्थानीय प्रशासन-सरकार उसका पूरी तरह मुकाबला करने में अक्षम है, ने देशवासियों की नींद हराम कर दी थी। वह हर पल यही सोचते रहे कि यदि ऐसा हुआ तो उन्हें कौन बचाएगा?
आज भी हालात में कोई बदलाव नहीं आया है। सरकार भले बदल गई हो लेकिल हालात जस-के-तस हैं। जाहिर सी बात है कि मौजूदा हालात में भूकम्प की स्थिति में सरकार तो देशवासियों को बचा पाने में कतई सक्षम नहीं है। दरअसल यह कटु सत्य है कि मानव आज भी भूकम्प की भविष्यवाणी कर पाने में नाकाम है। अर्थात भूकम्प को हम रोक नहीं सकते लेकिन जापान की तरह उससे बचने के प्रयास तो कर ही सकते हैं। जरूरी है हम उससे जीने का तरीका सीखें।
हमारे देश में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि लोगों को भूकम्प के बारे में बहुत कम जानकारी है। फिर हम भूकम्प को दृष्टिगत रखते हुए विकास भी नहीं कर रहे हैं। बल्कि अन्धाधुन्ध विकास की दौड़ में बेतहाशा भागे ही चले जा रहे हैं। दरअसल हमारे यहाँ सबसे अधिक संवेदनशील जोन में देश का हिमालयी क्षेत्र आता है। हिमालय की ऊँचाई वाला और जोशीमठ से ऊपर वाला हिस्सा, उत्तरपूर्व में शिलांग तक धारचूला से जाने वाला, कश्मीर का और कच्छ व रण का इलाका भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील जोन-5 में आते हैं। इसके अलावा देश की राजधानी दिल्ली, जम्मू और महाराष्ट्र तक देश का काफी बड़ा हिस्सा भूकम्पीय जोन-4 में आता है जहाँ हमेशा भूकम्प का काफी खतरा बना रहता है।
देखा जाए तो भुज, लातूर और उत्तरकाशी में आए भूकम्प के बाद यह आशा बँधी थी कि सरकार इस बारे में अतिशीघ्र कार्यवाही करेगी। लेकिन हुआ क्या? देश की राजधानी दिल्ली सहित सभी महानगरों में गगनचुम्बी बहुमंजिली इमारतों, अट्टालिकाओं की शृंखला शुरू हुई जिसके चलते आज शहर-महानगरों-राजधानियों और देश की राजधानी में कंक्रीट की आसमान छूती मीनारें-ही-मीनारें दिखाई देती हैं और यह सब बीते दस-पन्द्रह सालों के ही विकास का नतीजा है।
जाहिर सी बात है कि इनमें से दो प्रतिशत ही भूकम्प रोधी तकनीक से बनाई गई हैं। क्या इनके निर्माण में किसी नियम-कायदे-कानूनों का पालन किया गया है। इस बारे में सरकार क्या स्पष्टीकरण देगी। यही बहुमंजिली आवासीय इमारतें आज भूकम्प आने की स्थिति में हजारों मानवीय मौतों का कारण बनेंगी। इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।
ऐसी स्थिति में पुराने मकान तोड़े तो नहीं जा सकते लेकिन भूकम्प सम्भावित क्षेत्रों में नये मकानों को हल्की सामग्री से बना तो सकते हैं। जहाँ बेहद जरूरी है, वहाँ न्यूनतम मात्रा में सीमेंट व स्टील का प्रयोग किया जाए, अन्यत्र स्थानीय उपलब्ध सामग्री का ही उपयोग किया जाए, पारम्परिक निर्माण पद्धतियों में केवल वही मामूली सुधारों का समावेश किया जाए जिनको स्थानीय कारीगर आसानी से समझकर प्रयोग में ला सकें।
भवन निर्माण से पहले भूकम्परोधी इंजीनियरी निर्माण दिशा-निर्देशिका का बारीकी से अध्ययन करें व भवन निर्माण उसके आधार पर करें। इसमें मात्र 5 फीसदी ही अधिक धन खर्च होगा, अधिक नहीं। यह जान लें कि भूकम्प नहीं मारता, मकान मारते हैं। इसलिये यह करना जरूरी हो जाता है।
संकट के समय खतरों के बारे में जानना व उसके लिये तैयार रहना चाहिए। उसके लिये सबसे पहले सरवायवल किट तैयार रखें, घर की नीवों व ढाँचों की जाँच करें, पानी के टिनों, सिलेण्डरों व ऊँचे फर्नीचरों को पीछे से बाँधकर रखें, चिमनियों, फायर प्लेसिज को घर के अन्य सामान के साथ सुरक्षित करें व यह जाँच लें कि ढलान स्थल तथा रुकाव करने वाली दीवारें टिकाऊ हैं। इनके साथ कुछ जरूरी वस्तुएँ जैसे टार्च, मोमबत्तियाँ, माचिस, ट्रांजिस्टर, रेडियो, प्राथमिक उपचार की किट हमेशा तैयार रखें, खाद्य सामग्री व पीने के पानी का भण्डार रखें तथा काँच की खिड़की और गिरने वाली सभी वस्तुओं से दूर रहें।
भूकम्प आने पर तुरन्त खुले स्थान की ओर भागें, यदि न भाग सकें तो दरवाजे की चौखट के सहारे बीच में, पलंग, मेज के नीचे छिप जायें ताकि ऊपर से गिरने वाली वस्तु की चोट से बच सकें। यदि वाहन पर सवार हैं तो उसे सड़क किनारे खड़ाकर उससे तब तक दूर खड़े रहें जब तक कि आप आश्वस्त न हो जाएँ कि अब खतरा टल गया है।
भूकम्प वाले क्षेत्र को देखने न जाए, कारण वहाँ ध्वस्त ढाँचा कभी भी गिर सकता है और आप उसकी चपेट में आ सकते हैं, घायल हो सकते हैं और दबकर मौत के मुँह में भी जा सकते हैं। इसमें दो राय नहीं कि भूकम्प से हुए विध्वंस की भरपाई असम्भव है। भूकम्प के बाद के हल्के-सामान्य झटके धीरे-धीरे खत्म हो जाते हैं लेकिन उसके बाद गैस के रिसाव होने, धमाके होने और भूजल के स्तर में बदलाव, सामान्य प्रक्रिया के तहत मलेरिया, अतिसार आदि अनेकों बीमारियों को जन्म देता है। उनका उपचार जरूरी होता है लेकिन अस्पताल इसके लिये तैयार नहीं होते।
यह एक आम बात है। इसलिये स्वास्थ्य सम्बन्धी एहतियात बरतना जरूरी होता है। पानी जब भी पिएँ, उबाल कर पिएँ, उसमें क्लोरीन की गोलियों का इस्तेमाल करें। समीप के हैण्डपम्प आदि जल स्रोतों को साफ रखें ताकि भूजल प्रदूषित न हो सके। बच्चों को रोग निरोधी टीके लगवाएँ व साफ शौचालयों का इस्तेमाल करें।
इस बात का ध्यान रखें कि देश ही नहीं दुनिया में संयुक्त राष्ट्र के नियमों के मुताबिक बचाव नियमों का पालन नहीं हो पा रहा है और देशवासी मौत के मुहाने पर खड़े हैं। इसलिये उन्हें खुद कुछ करना होगा, सरकार के बूते कुछ नहीं होने वाला, तभी भूकम्प के साए से कुछ हद तक खुद को बचा सकेंगे। स्थिति की भयावहता को सरकार खुद स्वीकार भी कर चुकी है। निष्कर्ष यह कि भूकम्प से बचा जा सकता है लेकिन इसके लिये समाज, सरकार, वैज्ञानिक और आम जनता सबको प्रयास करने होंगे।
भारत ने एनडीआरएफ की टीमें नेपाल रवाना कर दी हैं और इस आपदा की घड़ी में भारत हर सम्भव सहायता देने को कटिबद्ध है। भारत ने वायुसेना के 13 विमान, एयर इण्डिया व जेट एयरवेज के तीन नागरिक विमान, छह एमआई 17 हेलीकॉप्टर, दो हल्के हेलीकॉप्टर, एक हजार से अधिक प्रशिक्षित सैन्यकर्मी टनों खाद्य सामग्री के साथ राहत कार्य हेतु नेपाल भेज दिये हैं।
भारत द्वारा वहाँ युद्धस्तर पर राहत अभियान जारी है। भूकम्प की भयावहता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राहत के काम में कितना समय लगेगा, यह कह पाना मुश्किल है। हाँ इतना तय है कि इस भूकम्प का असर इतना भयावह है जिसकी भरपाई करने में नेपाल को बीसियों साल लग जाएँगे।
नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में तबाही का मंजर दिल दहला देने वाला है। वहाँ 750 से अधिक लोग मौत के मुँह में चले गए हैं। 1832 में बना ऐतिहासिक धरहरा टावर ध्वस्त हो चुका है। राजमहल का बड़ा हिस्सा तबाह हो गया है। माउंट एवरेस्ट पर हिमस्खलन से 22 लोग मौत के मुँह में चले गए हैं। इसके अलावा 217 पर्वतारोही लापता हैं। सैकड़ों विदेशी अभी भी वहाँ फँसे हुए हैं।
असलियत यह है कि नेपाल इतिहास की सबसे भयावह तबाही के दौर से गुजर रहा है। इसका असर भारत में भी कम नहीं हुआ है। हमारे देश में भी अभी तक कम-से-कम 160 लोग मौत के मुँह में चले गए हैं। देश में सबसे अधिक नुकसान उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में हुआ है। बिहार के 8 जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
राजस्थान, झारखण्ड, कश्मीर और त्रिपुरा भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। भले ही हमारे यहाँ सम्पत्ति का अधिक नुकसान न हुआ हो लेकिन इतना तय है कि भारत में भूकम्प के खतरे से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। इसे यदि यूँ कहें कि भारत में भूकम्प के खतरे कम नहीं हैं तो गलत नहीं होगा। इसके झटके देश की राजधानी दिल्ली सहित देश के अधिकांश हिस्से में महसूस किए गए हैं। इसे झुठलाया नहीं जा सकता।
यह भी सच है कि भूकम्प के खतरे से निपटने की तैयारी में हम बहुत पीछे हैं। विडम्बना यह कि आपदा प्रबन्धन कानून बनने के दस साल बाद भी दावे कुछ भी किए जाएँ, देश की बात तो दीगर है, देश की राजधानी दिल्ली में किसी आपदा से निपटने की कोई ठोस योजना तक नहीं है। इसे देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाएगा।
दरअसल भूकम्प! एक ऐसा नाम है जिसके सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसकी विनाशलीला की कल्पना मात्र से दिल दहलने लगता है और मौत सर पर मँडराती नजर आती है। गौरतलब है कि संप्रग सरकार के दौरान आज से पाँच बरस पहले तत्कालीन केन्द्रीय शहरी विकास मन्त्री जयपाल रेड्डी ने कहा था कि इस आपदा का कभी भी सामना करना पड़ सकता है और अभी स्थानीय प्रशासन-सरकार उसका पूरी तरह मुकाबला करने में अक्षम है, ने देशवासियों की नींद हराम कर दी थी। वह हर पल यही सोचते रहे कि यदि ऐसा हुआ तो उन्हें कौन बचाएगा?
आज भी हालात में कोई बदलाव नहीं आया है। सरकार भले बदल गई हो लेकिल हालात जस-के-तस हैं। जाहिर सी बात है कि मौजूदा हालात में भूकम्प की स्थिति में सरकार तो देशवासियों को बचा पाने में कतई सक्षम नहीं है। दरअसल यह कटु सत्य है कि मानव आज भी भूकम्प की भविष्यवाणी कर पाने में नाकाम है। अर्थात भूकम्प को हम रोक नहीं सकते लेकिन जापान की तरह उससे बचने के प्रयास तो कर ही सकते हैं। जरूरी है हम उससे जीने का तरीका सीखें।
हमारे देश में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि लोगों को भूकम्प के बारे में बहुत कम जानकारी है। फिर हम भूकम्प को दृष्टिगत रखते हुए विकास भी नहीं कर रहे हैं। बल्कि अन्धाधुन्ध विकास की दौड़ में बेतहाशा भागे ही चले जा रहे हैं। दरअसल हमारे यहाँ सबसे अधिक संवेदनशील जोन में देश का हिमालयी क्षेत्र आता है। हिमालय की ऊँचाई वाला और जोशीमठ से ऊपर वाला हिस्सा, उत्तरपूर्व में शिलांग तक धारचूला से जाने वाला, कश्मीर का और कच्छ व रण का इलाका भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील जोन-5 में आते हैं। इसके अलावा देश की राजधानी दिल्ली, जम्मू और महाराष्ट्र तक देश का काफी बड़ा हिस्सा भूकम्पीय जोन-4 में आता है जहाँ हमेशा भूकम्प का काफी खतरा बना रहता है।
देखा जाए तो भुज, लातूर और उत्तरकाशी में आए भूकम्प के बाद यह आशा बँधी थी कि सरकार इस बारे में अतिशीघ्र कार्यवाही करेगी। लेकिन हुआ क्या? देश की राजधानी दिल्ली सहित सभी महानगरों में गगनचुम्बी बहुमंजिली इमारतों, अट्टालिकाओं की शृंखला शुरू हुई जिसके चलते आज शहर-महानगरों-राजधानियों और देश की राजधानी में कंक्रीट की आसमान छूती मीनारें-ही-मीनारें दिखाई देती हैं और यह सब बीते दस-पन्द्रह सालों के ही विकास का नतीजा है।
जाहिर सी बात है कि इनमें से दो प्रतिशत ही भूकम्प रोधी तकनीक से बनाई गई हैं। क्या इनके निर्माण में किसी नियम-कायदे-कानूनों का पालन किया गया है। इस बारे में सरकार क्या स्पष्टीकरण देगी। यही बहुमंजिली आवासीय इमारतें आज भूकम्प आने की स्थिति में हजारों मानवीय मौतों का कारण बनेंगी। इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।
हमारे देश के लोगों को भूकम्प के बारे में बहुत कम जानकारी है। फिर हम भूकम्प को दृष्टिगत रखते हुए विकास भी नहीं कर रहे हैं। बल्कि अन्धाधुन्ध विकास की दौड़ में बेतहाशा भागे ही चले जा रहे हैं। दरअसल हमारे यहाँ सबसे अधिक संवेदनशील जोन में देश का हिमालयी क्षेत्र आता है। हिमालय की ऊँचाई वाला और जोशीमठ से ऊपर वाला हिस्सा, उत्तरपूर्व में शिलांग तक धारचूला से जाने वाला, कश्मीर का और कच्छ व रण का इलाका भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील जोन-5 में आते हैं। इसके अलावा देश की राजधानी दिल्ली, जम्मू और महाराष्ट्र तक देश का काफी बड़ा हिस्सा भूकम्पीय जोन-4 में आता है जहाँ हमेशा भूकम्प का काफी खतरा बना रहता है।
गौरतलब है कि समूची दुनिया की तकरीबन 90 फीसदी जनता आज भी भूकम्प सम्भावित क्षेत्र में गैर इंजीनियरी ढंग यानी पुराने तरीके से बने मकानों में रहती है जिसकी वजह से भूकम्प आने की दशा में सर्वाधिक जनधन की हानि होती है। इसलिये भूकम्प से बचने की खातिर ऐसे मकानों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारे यहाँ जहाँ अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बढ़ती आबादी, आधुनिक निर्माण सम्बन्धी जानकारी, जागरुकता व जरूरी कार्यकुशलता का अभाव है, इससे जनजीवन को हानि का जोखिम और बढ़ गया है।ऐसी स्थिति में पुराने मकान तोड़े तो नहीं जा सकते लेकिन भूकम्प सम्भावित क्षेत्रों में नये मकानों को हल्की सामग्री से बना तो सकते हैं। जहाँ बेहद जरूरी है, वहाँ न्यूनतम मात्रा में सीमेंट व स्टील का प्रयोग किया जाए, अन्यत्र स्थानीय उपलब्ध सामग्री का ही उपयोग किया जाए, पारम्परिक निर्माण पद्धतियों में केवल वही मामूली सुधारों का समावेश किया जाए जिनको स्थानीय कारीगर आसानी से समझकर प्रयोग में ला सकें।
भवन निर्माण से पहले भूकम्परोधी इंजीनियरी निर्माण दिशा-निर्देशिका का बारीकी से अध्ययन करें व भवन निर्माण उसके आधार पर करें। इसमें मात्र 5 फीसदी ही अधिक धन खर्च होगा, अधिक नहीं। यह जान लें कि भूकम्प नहीं मारता, मकान मारते हैं। इसलिये यह करना जरूरी हो जाता है।
संकट के समय खतरों के बारे में जानना व उसके लिये तैयार रहना चाहिए। उसके लिये सबसे पहले सरवायवल किट तैयार रखें, घर की नीवों व ढाँचों की जाँच करें, पानी के टिनों, सिलेण्डरों व ऊँचे फर्नीचरों को पीछे से बाँधकर रखें, चिमनियों, फायर प्लेसिज को घर के अन्य सामान के साथ सुरक्षित करें व यह जाँच लें कि ढलान स्थल तथा रुकाव करने वाली दीवारें टिकाऊ हैं। इनके साथ कुछ जरूरी वस्तुएँ जैसे टार्च, मोमबत्तियाँ, माचिस, ट्रांजिस्टर, रेडियो, प्राथमिक उपचार की किट हमेशा तैयार रखें, खाद्य सामग्री व पीने के पानी का भण्डार रखें तथा काँच की खिड़की और गिरने वाली सभी वस्तुओं से दूर रहें।
भूकम्प आने पर तुरन्त खुले स्थान की ओर भागें, यदि न भाग सकें तो दरवाजे की चौखट के सहारे बीच में, पलंग, मेज के नीचे छिप जायें ताकि ऊपर से गिरने वाली वस्तु की चोट से बच सकें। यदि वाहन पर सवार हैं तो उसे सड़क किनारे खड़ाकर उससे तब तक दूर खड़े रहें जब तक कि आप आश्वस्त न हो जाएँ कि अब खतरा टल गया है।
भूकम्प वाले क्षेत्र को देखने न जाए, कारण वहाँ ध्वस्त ढाँचा कभी भी गिर सकता है और आप उसकी चपेट में आ सकते हैं, घायल हो सकते हैं और दबकर मौत के मुँह में भी जा सकते हैं। इसमें दो राय नहीं कि भूकम्प से हुए विध्वंस की भरपाई असम्भव है। भूकम्प के बाद के हल्के-सामान्य झटके धीरे-धीरे खत्म हो जाते हैं लेकिन उसके बाद गैस के रिसाव होने, धमाके होने और भूजल के स्तर में बदलाव, सामान्य प्रक्रिया के तहत मलेरिया, अतिसार आदि अनेकों बीमारियों को जन्म देता है। उनका उपचार जरूरी होता है लेकिन अस्पताल इसके लिये तैयार नहीं होते।
यह एक आम बात है। इसलिये स्वास्थ्य सम्बन्धी एहतियात बरतना जरूरी होता है। पानी जब भी पिएँ, उबाल कर पिएँ, उसमें क्लोरीन की गोलियों का इस्तेमाल करें। समीप के हैण्डपम्प आदि जल स्रोतों को साफ रखें ताकि भूजल प्रदूषित न हो सके। बच्चों को रोग निरोधी टीके लगवाएँ व साफ शौचालयों का इस्तेमाल करें।
इस बात का ध्यान रखें कि देश ही नहीं दुनिया में संयुक्त राष्ट्र के नियमों के मुताबिक बचाव नियमों का पालन नहीं हो पा रहा है और देशवासी मौत के मुहाने पर खड़े हैं। इसलिये उन्हें खुद कुछ करना होगा, सरकार के बूते कुछ नहीं होने वाला, तभी भूकम्प के साए से कुछ हद तक खुद को बचा सकेंगे। स्थिति की भयावहता को सरकार खुद स्वीकार भी कर चुकी है। निष्कर्ष यह कि भूकम्प से बचा जा सकता है लेकिन इसके लिये समाज, सरकार, वैज्ञानिक और आम जनता सबको प्रयास करने होंगे।
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