24 अगस्त को आये भीषण भूकम्प ने यूरोप से लेकर एशिया तक की धरती को हिला दिया। इटली में आये 6.2 तीव्रता के भूकम्प ने जहाँ वहाँ के सबसे खूबसूरत शहर एमट्रिस को तबाह करते हुए 120 लोगों की जान ले ली, वहीं भारत के कोलकाता समेत पूर्वी भारत में 6.8 तीव्रता के आये भूकम्प से केवल धरती हिली, लेकिन जान-माल को कोई नुकसान नहीं हुआ।
ऐसा इसलिये सम्भव हुआ, क्योंकि इटली में भूकम्प का केन्द्र राजधानी रोम से 140 किमी पूर्व नौरीसिया में जमीन से महज 10 किमी नीचे स्थित था। जबकि भारत में धरती हिलाने वाले भूकम्प का केन्द्र म्यांमार में भूमि की सतह से 58 किमी नीचे था।
यह जानकारी अमेरिकी भूगर्भीय सर्वेक्षण ने दी है। भारत में इस भूकम्प के झटके पश्चिम बंगाल के हरेक जिले में तो महसूस किये ही गए, बिहार, झारखण्ड और असम भी इन झटकों से थर्रा उठा। यहाँ तक की कोलकाता की मेट्रो रेल में इन झटकों को यात्रियों ने अनुभव किया और भूकम्प का संकेत मिलते ही जब मेट्रो नेटवर्क को जाम कर दिया गया तो यात्री एकाएक कूद पड़े। इटली का एमट्रिस नगर जहाँ आधे से ज्यादा जमींदोज हो गया है, वहीं एकुमोली शहर में भी भारी नुकसान हुआ है।
गौरतलब है, इससे पहले इटली में 2009 में 6.3 की तीव्रता का भूकम्प आया था, जिसमें 300 लोग काल के गाल में समा गए थे। यहीं 2008 में भी भीषण भूकम्प और सुनामी आये थे, जिसमें 80 लोग मारे गए थे। साफ है, दुनिया में पर्यावरण का विनाश होने और पृथ्वी का पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ने से दुनिया में भूकम्प से तबाही का सिलसिला जारी है।
दरअसल दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की मानें तो सभी भूकम्प प्राकृतिक नहीं होते, बल्कि उन्हें विकराल बनाने में हमारा भी हाथ होता है। प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से छोटे स्तर के भूकम्पों की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। भविष्य में इन्हीं भूकम्पों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकम्पों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 सालों में एक बार भूकम्प आने की आशंका बनी रहती थी, लेकिन अब यह घटकर 4 साल हो गई है।
अमेरिका में 1973 से 2008 के बीच प्रतिवर्ष औसतन 21 भूकम्प आये, वहीं 2009 से 2014 के बीच यह संख्या बढ़कर 99 प्रतिवर्ष हो गई। यही नहीं आये भूकम्पों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकम्पीय विस्फोट में जो ऊर्जा निकलती है, उसकी मात्रा भी पहले की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली हुई है। 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में जो भूकम्प आया था, उनसे 20 थर्मान्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहाँ हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा-नागासाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना ज्यादा ताकतवर था।
14 अप्रैल 2016 में जापान के कुमामोतो और फिर क्वोटो में 7.3 तीव्रता के सिलसिलेवार आए भूकम्पों से पता चला है कि धरती के गर्भ में अंगड़ाई ले रही भूकम्पीय हलचलें, महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिये अधिक खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, पाकिस्तान, चीन, म्यांमार और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी अंगड़ाई ले रही हैं। इसलिये इन देशों के महानगर भी भूकम्प के मुहाने पर हैं।
भूकम्प आना कोई नई बात नहीं है। जापान, इक्वाडोर और नेपाल समेत पूरी दुनिया इस अभिशाप को झेलने के लिये जब-तब विवश होती रही है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि विज्ञान की आश्चर्यजनक तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकम्प की जानकारी आने से पहले मिल जाये।
भूकम्प के लिये जरूरी ऊर्जा के एकत्रित होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिद्धान्त से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पाँच करोड़ साल पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेशिया परत से जा टकराईं। इस टक्कर के फलस्वरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आया और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनीं।
हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है, जहाँ पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें परस्पर टकराकर एक-दूसरे के भीतर घुस गई थीं। परतों के टकराव की इस प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकम्प आते रहते हैं। इसी प्रायद्वीप में ज्यादातर एशियाई देश बसे हुए हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकम्प आते हैं। भूकम्पों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। इटली में आया भूकम्प जमीन से 10 किमी और भारत में आया भूकम्प जमीनी सतह से 58 किमी नीचे था। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकम्प की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम-से-कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगें जितनी कम गहराई से उठेगी, उतनी तबाही ही ज्यादा होगी और भूकम्प का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है अब कम गहराई के भूकम्पों का दौर चल पड़ा है।
दरअसल सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने व कम दबाव के कारण कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब चट्टानें दरकती हैं तो भूकम्प आता है। कुछ भूकम्प धरती की सतह से 100 से 650 किमी के नीचे भी आते हैं, लेकिन तीव्रता धरती की सतह पर आते-आते कम हो जाती है, इसलिये बड़े रूप में त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती है।
भूकम्पों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। इटली में आया भूकम्प जमीन से 10 किमी और भारत में आया भूकम्प जमीनी सतह से 58 किमी नीचे था। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकम्प की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम-से-कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगें जितनी कम गहराई से उठेगी, उतनी तबाही ही ज्यादा होगी और भूकम्प का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है अब कम गहराई के भूकम्पों का दौर चल पड़ा है।
दरअसल इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्रव्य रूप में बदल जाती है। इसलिये इसके झटकों का असर धरती पर कम ही दिखाई देता है। बावजूद इन भूकम्पों से ऊर्जा बड़ी मात्रा में निकलती है। धरती की इतनी गहराई से प्रगट हुआ सबसे बड़ा भूकम्प 1994 में बोलिविया में रिकॉर्ड किया गया है।पृथ्वी की सतह से 600 किमी भीतर दर्ज इस भूकम्प की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। इसीलिये यह मान्यता बनी है कि इतनी गहराई से चले भूकम्प धरती पर तबाही मचाने में कामयाब नहीं हो सकते हैं, क्योंकि चट्टानें तरल द्रव्य के रूप में बदल जाती हैं।
प्राकृतिक आपदाएँ अब व्यापक व विनाशकारी साबित हो रही हैं, क्योंकि धरती के बढ़ते तापमान के कारण वायुमण्डल भी परिवर्तित हो रहा है। अमेरिका व ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो शताब्दियों के भीतर बेतहाशा अमीरी बढ़ी है। अब तो भारत भी 10 अमीर देशों की कतार में शामिल हो गया है। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण इसी अमीरी की उपज है।
यह कथित विकासवादी अवधारणा कुछ और नहीं, प्राकृतिक सम्पदा का अन्धाधुन्ध दोहन कर, पृथ्वी को खोखला करने के ऐसे उपाय हैं, जो ब्रह्माण्ड में फैले अवयवों में असन्तुलन बढ़ा रहे हैं। इस विकास के लिये पानी, गैस, खनिज, इस्पात, ईंधन और लकड़ी जरूरी हैं। नतीजतन जो कार्बन गैसें बेहद न्यूनतम मात्रा में बनती थीं, वे अब अधिकतम मात्रा में बनने लगी हैं।
न्यूनतम मात्रा में बनी गैसों का शोषण और समायोजन भी प्राकृतिक रूप से हो जाता था, किन्तु अब वनों का विनाश कर दिये जाने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है, जिसकी वजह से वायुमण्डल में एकतरफा दबाव बढ़ रहा है। इस कारण धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय, धरती में ही समाने लगी है। गोया, धरती का तापमान बढ़ने लगा, जो जलवायु परिवर्तन का कारण तो बना ही, प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन रहा है।
अब इटली, जापान, भारत और क्वोटो में आये भूकम्पों के बाद वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि भूकम्प प्रभावित इलाकों में 300 किमी लम्बे समुद्री तटों पर सुनामी जैसी आपदा आकर तबाही मचा सकती है।
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Post By: RuralWater