यह सही है कि हम आज भी भूकम्प से जुड़ी कई बातें नहीं जानते हैं और तमाम वैज्ञानिक व तकनीकी उपलब्धताओं के बाद भी पूरे आत्मविश्वास के साथ यह कह पाने की स्थिति में नहीं है कि कब, कहाँ और कितना बड़ा भूकम्प आयेगा। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि हम भूकम्प से जुड़े खतरों के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। हम निश्चित ही भूकम्प से जुड़ी कई ऐसी बातें जानते हैं जिनका उपयोग कर के हम भूकम्प से हो सकने वाली क्षति को काफी कम कर सकते हैं।
यहाँ यह समझना जरूरी है कि आपदा से जुड़े किसी भी पूर्वानुमान की सफलता के लिये तीन पक्षों की जानकारी आवश्यक हैः
(क) आपदा कहाँ घटित होगी?
(ख) आपदा कब घटित होगी?
(ग) आपदा कितनी बड़ी होगी?
इन पक्षों पर हमें जितनी ज्यादा और सटीक जानकारियाँ उपलब्ध होंगी, आपदा को लेकर हमारा पूर्वानुमान भी उतना ही प्रभावी होगा। ऐसा होने की स्थिति में हम निश्चित ही जान-माल बचाने के लिये काफी कुछ कर सकते हैं।
‘‘भूकम्प कहाँ आ सकता है?’’
इस प्रश्न के उत्तर में विगत में आये भूकम्प के आंकड़ों के आधार पर हमने भूकम्प संवेदनशील क्षेत्र चिन्हित किये हैं। पर किसी क्षेत्र विशेष में आने वाले अगले भूकम्प का अभिकेन्द्र कहाँ होगा, हम यह बता सकने की स्थिति में नहीं हैं। जो हम बता सकते हैं वह मात्र इतना है कि चिन्हित क्षेत्र भूकम्प के प्रति संवेदनशील है और भविष्य में भूकम्प से प्रभावित हो सकता है।
हो सकता है हमारे द्वारा चिन्हित कई उच्च भूकम्प संवेदनशील क्षेत्रों में हमारे जीवनकाल में कोई विनाशकारी भूकम्प आये ही नहीं।
साथ ही यह भी सत्य है कि हमारा यह आकलन उपलब्ध आंकड़ों पर निर्भर है और कोई भी पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कह सकता कि हमारे द्वारा चिन्हित अपेक्षाकृत कम संवेदनशील क्षेत्रों में कभी भूकम्प आयेगा ही नहीं।
ऐसे स्थानों पर भूकम्प आने के बाद हम अपने द्वारा किये गये आकलन पर पुनर्विचार व सुधार अवश्य करते हैं। ऐसा हमने 2001 में भुज (गुजरात) में आये भूकम्प के बाद किया भी था।
2001 के भुज भूकम्प से पहले भूकम्प संवेदनशीलता के आधार पर देश के भू-भाग को 05 भागों में बाँटा गया था; जोन I, II, III, IV व V। भुज भूकम्प के बाद किये गये आकलन के आधार पर जोन I को समाप्त कर दिया गया और पुनर्विचार के बाद देश को भूकम्प संवेदनशीलता के अनुसार 04 भागों में बाँटा गया; जोन II, III, IV व V।
इसी के साथ भुज भूकम्प के बाद भारतीय मानक ब्यूरो ने भवन निर्माण रीति संहिताओं में भी बदलाव किये। अतः वर्तमान में उपयोग में लायी जाने वाली रीति संहिता के अनुसार 2002 से पहले उस समय प्रयुक्त रीति संहिता के अनुरूप बने भवन भी भूकम्प की स्थिति में असुरक्षित हो सकते हैं।
अतः आवश्यक है कि 2002 से पहले बने सभी भवनों की भूकम्प सुरक्षा पर पुनर्विचार किया जाये और आवश्यकता होने पर इनको वर्तमान प्रावधानों के अनुरूप बनाने के लिये इनका सुदृढ़ीकरण किया जाये। ऐसा महत्त्वपूर्ण भवनों और ऐसी संरचनाओं के लिये तो किया जाना ही चाहिये जहाँ प्रायः बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होते हों। विशेष रूप से भूकम्प संवेदनशील क्षेत्रों में तो इसे अवश्य ही अनिवार्य करना चाहिये।
‘‘भूकम्प कब आयेगा?’’
इस प्रश्न का वर्तमान में हमारे पास कोई सीधा जवाब नहीं है। हम जानते हैं कि चिन्हित क्षेत्र भूकम्प के प्रति संवेदनशील हैं और वहाँ कभी भी भूकम्प आ सकता है। परन्तु वास्तव में कब, किस साल, किस दिन या किस समय भूकम्प आयेगा, हम यह बता पाने की स्थिति में नहीं हैं।
बहुत सम्भव है कि कई भूकम्प संवेदनशील क्षेत्रों में हमारे जीवनकाल में भूकम्प आये ही नहीं।
‘‘कितना बड़ा होगा आने वाला भूकम्प?’’
सभी प्रश्नों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है यह और इसी का उत्तर चेतावनी मिलने के बाद हमारी व प्रतिवादन के लिये उत्तरदायी संस्थाओं की प्रतिक्रिया का स्तर निर्धारित करेगा। अब जब तक परिमाण का पता न हो, कल फलाँ जगह भूकम्प आयेगा का तो कोई मतलब नहीं है। ऐसे तो लोग चेतावनी पर ध्यान देना ही बन्द कर देंगे। अब विडम्बना ही तो है कि हम इस बारे में भी बस कयास ही लगा सकते हैं। सच में इस प्रश्न का भी हमारे पास कोई ठीक-ठाक जवाब नहीं है।
जरा सोचिये! क्यों न कितना ही बड़ा भूकम्प आ जाये। क्या होगा यदि कोई अवसंरचना ध्वस्त ही न हो? ऐसी स्थिति में तो हम इसे महज एक सामान्य घटना की तरह लेंगे, न कि आपदा के रूप में। शायद तब हम उस घटना को याद भी न रखें। ठीक उसी तरह जैसे कि अन्टार्कटिका जैसे निर्जन स्थान पर आये बड़े से बड़े भूकम्प की कोई बात नहीं करता। |
अब यहाँ दो महान भूकम्पों के अभिकेन्द्र के बीच बसे उत्तराखण्ड में पिछले 200 वर्षों से अधिक समय से कोई बड़ा भूकम्प नहीं आया है। इस आधार पर हम केवल यहाँ किसी बड़े भूकम्प के आने की सम्भावना व्यक्त कर सकते हैं परन्तु कोई नहीं कह सकता कि आने वाले उस भूकम्प का परिमाण रिक्टर पैमाने पर 8.0 से अधिक ही होगा।
भूकम्प के सटीक पूर्वानुमान के लिये हमें तीन प्रश्नों के उत्तर चाहिये थे। जब तीनों का ही हमारे पास गोलमोल जवाब हो तो ऐसे में सटीक पूर्वानुमान कर पाना सच में सम्भव नहीं है।
वसै यह सब इतना भी निराश करने वाला नहीं है। स्वर्णिम पक्ष यह है कि अन्य आपदाओं की तरह भूकम्प स्वयं किसी को नहीं मारता। वह तो बस हमारे द्वारा बनायी गयी अवसंरचनाओं, मकानों व अन्य को ध्वस्त करता है और भरभरा कर गिरने वाली अवसंरचनाओं से ही लोग मरते या घायल होते हैं।
अतः भूकम्प आने पर होने वाली अधिकांश क्षति के लिये भूकम्प से भवनों को होने वाली क्षति के साथ ही भूकम्प के कारण आने वाली सूनामी, भूस्खलन व हिम-स्खलन से होने वाली क्षति उत्तरदायी है।
अब हम जानते हैं कि कहाँ भूकम्प का खतरा है। हम यह भी जानते हैं कि चिन्हित क्षेत्र में यह खतरा कितना बड़ा हो सकता है। सबसे अच्छी बात यह है कि हम यह भी जानते हैं कि आने वाले खतरे का सामना करने के लिये या फिर मानव क्षति को न्यूनतम करने के लिये अवसंरचनाओं या भवनों का निर्माण किस तरह किया जाये और पहले से बने भवनों को सुरक्षित बनाने के लिये क्या किया जाये।
इसी के साथ हम यह भी पता लगा सकने में सक्षम हैं कि कौन से स्थानाें पर भूकम्प से उत्पन्न हो सकने वाले भू-स्खलन, हिम-स्खलन या सूनामी का खतरा कम या ज्यादा हो सकता है।
ऐसे में हम विभिन्न तकनीकी, विधीय व सामाजिक उपायों के द्वारा किसी क्षेत्र में अवस्थित अवसंरचनाओं को भूकम्प सुरक्षित बना सकते हैं और भूकम्प के जोखिम को काफी कम कर सकते हैं।
हम बात भूकम्प के पूर्वानुमान की कर रहे थे। आज हम बहुत समय पहले आने वाले भूकम्प की चेतावनी दे पाने की स्थिति में तो निश्चित ही नहीं हैं पर उपलब्ध तकनीक के आधार पर भूकम्प के विनाशकारी झटकों के महसूस होने के कुछ समय पहले चेतावनी दे पाना अवश्य सम्भव हो गया है।
जैसा कि हम जानते हैं भूकम्प से उत्पन्न होने वाली प्राथमिक तरंगों की गति अधिक होती है और यह अवसंरचनाओं को क्षति पहुँचाने वाली सतही व द्वितीयक तरंगों से पहले भूकम्पमापी तक पहुँच जाती है। भूकम्पीय तरंगों की गती का यह अन्तर; वास्तव में यही इन चेतावनियों का आधार है। भूकम्प आ जाने के बाद प्राथमिक तरंगों के प्रारूप के आधार पर भूकम्प के परिमाण व अभिकेन्द्र का आकलन करके दी जाने वाली इन चेतावनियों पर प्रतिक्रिया करने और जान-माल बचाने के लिये एक मिनट से भी कहीं कम समय मिल सकता है, परन्तु इस समय में हम अपने महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठानों व सुविधाओं को भूकम्प से हो सकने वाली क्षति से बचाने के लिये कुछ पूर्वनियोजित उपाय तो कर ही सकते हैं।
एक मिनट; यह समय कम जरूर है पर सच पूछें तो इतना भी कम नहीं कि इतने समय में कुछ किया ही न जा सके। पानी के अन्दर तैरते समय या रात को नींद न आने पर घड़ी को घूरते समय इस अवधि में किये जा सकने वाले कामों के विस्तार को सहज ही समझा जा सकता है।
इतने समय में काफी कुछ किया जा सकता है, काफी कुछ बचाया जा सकता है; ट्रेन व मेट्रो रूक सकती है, नाभिकीय व ताप विद्युत गृहों के साथ ही सामरिक महत्त्व के अन्य प्रतिष्ठानों को बन्द किया जा सकता है। साथ ही इस समय में आपातकालीन सेवायें प्रतिवादन के लिये तैयार हो सकती हैं, व्यक्तिगत सुरक्षा उपाय किये जा सकते हैं और ठीक-ठाक तैयारी होने पर इमारतों को खाली भी किया जा सकता है।
ऐसी ही प्रणाली वर्तमान में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की द्वारा गढ़वाल क्षेत्र में स्थापित की गयी है। क्योंकि आने वाले भूकम्प के अभिकेन्द्र के उत्तराखण्ड में हमारे बहुत नजदीक स्थित होने की सम्भावना अधिक है इसलिये प्राथमिक तथा द्वितीयक व सतही तरंगों के हम तक पहुँचने के बीच समय का अन्तर बहुत कम होगा। इस वजह से यह चेतावनी, कम से कम वर्तमान में तो हमारे लिये ज्यादा उपयोगी नहीं हो पायेगी या फिर चेतावनी मिलने के बाद हमारे पास प्रतिक्रिया करने या बचने-बचाने के लिये बहुत ज्यादा समय नहीं होगा। पर यहाँ हिमालय में आये भूकम्प से प्रभावित हो सकने वाले और काफी अधिक व घनी आबादी वाले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिये यह प्रणाली निश्चित ही बेहद उपयोगी सिद्ध होगी।
कहीं धरती न हिल जाये (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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12 | भूकम्प पूर्वानुमान और हम (Earthquake Forecasting and Public) |
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