भूकम्प की भाषा विनाश की होती है लेकिन अगर हम उसे समझ सकते हैं तो उसमें से जीवन को निकाल सकते हैं। हमारी दिक्कत यह है कि विज्ञान अभी तक भूकम्प का पूर्वानुमान लगा नहीं सका है और उसके बाद की भाषा को समझ कर कोई एहतियात बरत नहीं पा रहे हैं।
हम व्यवस्था और आधुनिकता के स्तर पर महज राहत करना जानते हैं और उसके बाद यह भूल जाते हैं कि यहाँ कभी भूकम्प आया था जो आगे भी आ सकता है। वास्तव में हम प्राकृतिक आपदा के बारे में महज प्रबन्धन सम्बन्धी संस्थाएँ बना सके हैं लेकिन उसके बारे में रोकथाम और उससे जुड़ा जनमत बनाने की कोई तरकीब नहीं निकाल सके हैं।
अप्रैल 2015 में नेपाल और उत्तर भारत में आए भूकम्प के झटकों के पीछे हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा का लम्बा इतिहास है और हम न तो इन आपदाओं के सिलसिले को जोड़कर देखना चाहते हैं और न ही उनके बीच अपने ज्ञान में पड़ी हुई दरार के भीतर से झाँकना चाहते हैं।
2008 की बिहार की बाढ़, 2013 की उत्तराखण्ड की महात्रासदी, 2014 में कश्मीर घाटी का सैलाब यह सब एक सिलसिला है हिमालय में होने वाली प्राकृतिक आपदाओं का। उनके तार भले ही तात्कालिक तौर पर नहीं जुड़ रहे हों लेकिन जिस दिन वे जुड़ गए उस दिन हिमालयी देश नेपाल और उसके आसपास आने वाला भूकम्प इस उपमहाद्वीप के महाविनाश का कारण बनेगा।
ऐसे में यह सवाल लाज़िमी है कि हम हिमालयी क्षेत्र के ऊपरी सतह पर जल के रूप में प्रवाहित हो रही ऊर्जा और उसके नीचे धधक रहे चट्टानों के लावा को किस तरह सम्भालें। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ही नहीं किसी भी सामान्य बुद्धि के व्यापारी को यह लालच सता सकती है कि हिमालय में बहने वाली सैकड़ों नदियों के जल को बाँधकर लाखों मेगावाट बिजली पैदा की जाए और उससे न सिर्फ अपना विकास किया जाए बल्कि उसे बेचकर बहुत कुछ कमाया जाए।
इसी लालच के कारण पिछले साल अपनी नेपाल यात्रा के दौरान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने नेपाल को उसकी इस ऊर्जा के बूते बड़ा व्यापारी बनने का प्रलोभन दे डाला। उसी पहल के चलते भारत और नेपाल के प्रधानमन्त्री के बीच बहुउद्देश्यीय पंचेश्वर बाँध बनाने का समझौता हुआ।
पंचेश्वर उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले और नेपाल की सीमा पर महाकाली और सरयू नदी के संगम पर स्थित है। यह पश्चिमी नेपाल के महाकाली क्षेत्र में स्थित है। इस बाँध से 5600 मेगावाट बिजली बनेगी। लेकिन पर्यावरणविदों को इस बाँध के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों पर कड़ी आपत्ति है।
पर्यावरणविदों का कहना है कि 1992 से 2006 के बीच इस इलाके में भूकम्प के 10 झटके लगे। उनकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर 5 की थी। इतना ही नहीं उनका एपीसेंटर भी बाँध स्थल से दस किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित था। इस बाँध से उत्तराखण्ड के 60 गाँव डूबेंगे और 19,700 लोगों के विस्थापित होने की आशंका है। जबकि नेपाल में इससे 14 गाँवों के डूबने और 11,466 लोगों के प्रभावित होने की आशंका है। इतना सब सामान्य स्थितियों में होगा।
कल्पना कीजिए अगर कहीं उस इलाके में भूकम्प का झटका मौजूदा तीव्रता के साथ आया तो कितना विनाश होगा। हमें याद रखना चाहिए कि जब भारत के प्रधानमन्त्री नेपाल गए थे तो कोसी नदी में पत्थर की एक चट्टान गिर जाने के कारण कृत्रिम झील बन गई थी। उसे किसी प्रकार हटाया गया वरना बाढ़ आने का खतरा पैदा ही हो गया था।
हमें 2008 की बिहार की बाढ़ को भी नहीं भूलना चाहिए। उस दौरान नेपाल के सुनसरी जिले में कोसी नदी के वीडीसी में दरार पड़ जाने से पूरा उत्तर बिहार डूबने-उतराने लगा था। मरने वालों की संख्या तो कुछ सौ में बताई गई लेकिन गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार वह हजारों से कम नहीं थी। प्रभावित होने वालों की संख्या 23 लाख के करीब बताई जाती है। यानी जो कोसी नदी नेपाल और बिहार की जलराशि और बिजली ऊर्जा का स्रोत मानी जाती है वह दोनों देशों के बीच विवाद की जड़ बन रही थी।
कोसी नदी 60,000 वर्ग किलोमीटर पर्वतीय क्षेत्र का जल लेकर आती है। इस दौरान धरती के नीचे की चट्टानों ने अपनी गतिशीलता से इस इलाके को एक सेंटीमीटर ऊँचा कर दिया है। जिसके कारण कोसी से 60 करोड़ घनमीटर गाद उतरने के बजाय महज 10 करोड़ घनमीटर गाद उतर रही है।
इसी तरह नेपाल के सुरखेल, दौलेख और अच्छा जिलों में करनाली बाँध परियोजना तैयार करने के लिये भारत के गृहमन्त्री और नेपाल के प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला के बीच समझौता हुआ है। अपर करनाली प्रोजेक्ट के लिये हुए इस समझौते से 900 मेगावाट बिजली बनेगी। इसे थाइलैण्ड की एक कम्पनी पाँच साल में बना रही है। इसी तरह धाप और बागमती नदियों पर भी बाँध पर एशियाई डेवपलमेंट बैंक के सहयोग से बाँध बनाने की योजना है।
नेपाल ही क्यों भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में बाँध की योजनाओं का तमाम पर्यावरणविदों ने भूकम्प और दूसरे पारिस्थितिकीय कारणों से विरोध किया था। विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एजेंडे पर चल रहे इन बाँधों का विरोध आज भी स्थानीय किसान और आदिवासी संगठन कर रहे हैं।
उदाहरण के लिये 3000 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखने वाले अरुणाचल के दिबांग बाँध का मामला भी इसी तरह है। पहले पर्यावरणविदों ने ही नहीं भारत सरकार की कमेटियों ने भी राय दी थी कि ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी दिबांग पर बाँध बनाया जाना खतरनाक है। प्रधानमन्त्री ने मई 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान स्वयं कहा था कि वे इस पर बाँध बनाए जाने के पक्ष में नहीं हैं।
लेकिन प्रधानमन्त्री बनते ही नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पहले सितम्बर 2014 में फ्रंट एडवाइजरी कमेटी से उसे मंजूरी दिलाई और इस प्रकार दुनिया के सबसे ऊँचे बाँध का रास्ता साफ कर दिया गया। हालांकि इस बाँध की ऊँचाई को 288 मीटर में से 20 मीटर कम किया गया है। इसके बावजूद इससे 45 किलोमीटर इलाके के डूबने और सेखोवा नेशनल पार्क के जंगल के विनाश का खतरा है।
खतरा इस इलाके में रहने वाली आदिवासी जातियों पर भी है और उसी सिलसिले में सबसे बड़ा खतरा इस इलाके में आने वाले भूकम्प और उससे होने वाली जनधन की हानि का है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2013 में भूकम्प के हलके झटके के कारण सिक्किम में तीस्ता नदी की सुरंग में काम करने वाले चार मज़दूर मारे गए थे।
हालांकि भूकम्प की कोई भविष्यवाणी सम्भव नहीं है इसलिये इस बारे में आश्वस्त भी हुआ जा सकता है और आशंकित भी। पर भूकम्प के अनुभव तो हैं और वे निश्चिंत करने के बजाय लगातार डराते हैं। 1934 में जब भूकम्प आया तो आबादी इतनी नहीं थी लेकिन तब भी 10,000 लोग मारे गए थे। उस भूकम्प का केन्द्र माउंट एवरेस्ट ही था। 1950 में भी असम में भूकम्प आया था और उसकी भयानक यादें लोगों की स्मृतियों में हैं, सरकारों की स्मृति में भले नहीं। 1897 में रिक्टर स्केल पर 8.7 का भूकम्प आया था जिससे पूरी पहाड़ी धूल में मिल गई थी।
इसलिये जरूरत है भूकम्प की भाषा को समझने और अपनी ऊर्जा परियोजनाओं को प्रकृति के अनुरूप ढालने की। यह सही है कि आधुनिक सभ्यता को प्रगति के लिये बिजली चाहिए, पानी चाहिए। पर प्रकृति को अपनी प्रगति के लिये क्या चाहिए यह अभी स्पष्ट नहीं है। प्रकृति के अपने नियम और उसकी अपनी गति है।
वह जितने धीरे-धीरे किसी चीज का निर्माण करती है उतनी ही तेजी से उसका विनाश भी कर देती है। अभी तक प्रकृति की भाषा का एक ही संकेत समझ में आ रहा है और वो यह कि उससे छेड़छाड़ कम-से-कम की जाए। वरना बड़े-बड़े शहर और बड़े-बड़े बाँध हमें एक समय में जितना आगे ले जाएँगे वे एक झटके में उतना पीछे भी धकेल सकते हैं।
हम व्यवस्था और आधुनिकता के स्तर पर महज राहत करना जानते हैं और उसके बाद यह भूल जाते हैं कि यहाँ कभी भूकम्प आया था जो आगे भी आ सकता है। वास्तव में हम प्राकृतिक आपदा के बारे में महज प्रबन्धन सम्बन्धी संस्थाएँ बना सके हैं लेकिन उसके बारे में रोकथाम और उससे जुड़ा जनमत बनाने की कोई तरकीब नहीं निकाल सके हैं।
अप्रैल 2015 में नेपाल और उत्तर भारत में आए भूकम्प के झटकों के पीछे हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा का लम्बा इतिहास है और हम न तो इन आपदाओं के सिलसिले को जोड़कर देखना चाहते हैं और न ही उनके बीच अपने ज्ञान में पड़ी हुई दरार के भीतर से झाँकना चाहते हैं।
2008 की बिहार की बाढ़, 2013 की उत्तराखण्ड की महात्रासदी, 2014 में कश्मीर घाटी का सैलाब यह सब एक सिलसिला है हिमालय में होने वाली प्राकृतिक आपदाओं का। उनके तार भले ही तात्कालिक तौर पर नहीं जुड़ रहे हों लेकिन जिस दिन वे जुड़ गए उस दिन हिमालयी देश नेपाल और उसके आसपास आने वाला भूकम्प इस उपमहाद्वीप के महाविनाश का कारण बनेगा।
ऐसे में यह सवाल लाज़िमी है कि हम हिमालयी क्षेत्र के ऊपरी सतह पर जल के रूप में प्रवाहित हो रही ऊर्जा और उसके नीचे धधक रहे चट्टानों के लावा को किस तरह सम्भालें। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ही नहीं किसी भी सामान्य बुद्धि के व्यापारी को यह लालच सता सकती है कि हिमालय में बहने वाली सैकड़ों नदियों के जल को बाँधकर लाखों मेगावाट बिजली पैदा की जाए और उससे न सिर्फ अपना विकास किया जाए बल्कि उसे बेचकर बहुत कुछ कमाया जाए।
इसी लालच के कारण पिछले साल अपनी नेपाल यात्रा के दौरान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने नेपाल को उसकी इस ऊर्जा के बूते बड़ा व्यापारी बनने का प्रलोभन दे डाला। उसी पहल के चलते भारत और नेपाल के प्रधानमन्त्री के बीच बहुउद्देश्यीय पंचेश्वर बाँध बनाने का समझौता हुआ।
पंचेश्वर उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले और नेपाल की सीमा पर महाकाली और सरयू नदी के संगम पर स्थित है। यह पश्चिमी नेपाल के महाकाली क्षेत्र में स्थित है। इस बाँध से 5600 मेगावाट बिजली बनेगी। लेकिन पर्यावरणविदों को इस बाँध के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों पर कड़ी आपत्ति है।
पर्यावरणविदों का कहना है कि 1992 से 2006 के बीच इस इलाके में भूकम्प के 10 झटके लगे। उनकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर 5 की थी। इतना ही नहीं उनका एपीसेंटर भी बाँध स्थल से दस किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित था। इस बाँध से उत्तराखण्ड के 60 गाँव डूबेंगे और 19,700 लोगों के विस्थापित होने की आशंका है। जबकि नेपाल में इससे 14 गाँवों के डूबने और 11,466 लोगों के प्रभावित होने की आशंका है। इतना सब सामान्य स्थितियों में होगा।
कल्पना कीजिए अगर कहीं उस इलाके में भूकम्प का झटका मौजूदा तीव्रता के साथ आया तो कितना विनाश होगा। हमें याद रखना चाहिए कि जब भारत के प्रधानमन्त्री नेपाल गए थे तो कोसी नदी में पत्थर की एक चट्टान गिर जाने के कारण कृत्रिम झील बन गई थी। उसे किसी प्रकार हटाया गया वरना बाढ़ आने का खतरा पैदा ही हो गया था।
हमें 2008 की बिहार की बाढ़ को भी नहीं भूलना चाहिए। उस दौरान नेपाल के सुनसरी जिले में कोसी नदी के वीडीसी में दरार पड़ जाने से पूरा उत्तर बिहार डूबने-उतराने लगा था। मरने वालों की संख्या तो कुछ सौ में बताई गई लेकिन गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार वह हजारों से कम नहीं थी। प्रभावित होने वालों की संख्या 23 लाख के करीब बताई जाती है। यानी जो कोसी नदी नेपाल और बिहार की जलराशि और बिजली ऊर्जा का स्रोत मानी जाती है वह दोनों देशों के बीच विवाद की जड़ बन रही थी।
कोसी नदी 60,000 वर्ग किलोमीटर पर्वतीय क्षेत्र का जल लेकर आती है। इस दौरान धरती के नीचे की चट्टानों ने अपनी गतिशीलता से इस इलाके को एक सेंटीमीटर ऊँचा कर दिया है। जिसके कारण कोसी से 60 करोड़ घनमीटर गाद उतरने के बजाय महज 10 करोड़ घनमीटर गाद उतर रही है।
इसी तरह नेपाल के सुरखेल, दौलेख और अच्छा जिलों में करनाली बाँध परियोजना तैयार करने के लिये भारत के गृहमन्त्री और नेपाल के प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला के बीच समझौता हुआ है। अपर करनाली प्रोजेक्ट के लिये हुए इस समझौते से 900 मेगावाट बिजली बनेगी। इसे थाइलैण्ड की एक कम्पनी पाँच साल में बना रही है। इसी तरह धाप और बागमती नदियों पर भी बाँध पर एशियाई डेवपलमेंट बैंक के सहयोग से बाँध बनाने की योजना है।
नेपाल ही क्यों भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में बाँध की योजनाओं का तमाम पर्यावरणविदों ने भूकम्प और दूसरे पारिस्थितिकीय कारणों से विरोध किया था। विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एजेंडे पर चल रहे इन बाँधों का विरोध आज भी स्थानीय किसान और आदिवासी संगठन कर रहे हैं।
उदाहरण के लिये 3000 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखने वाले अरुणाचल के दिबांग बाँध का मामला भी इसी तरह है। पहले पर्यावरणविदों ने ही नहीं भारत सरकार की कमेटियों ने भी राय दी थी कि ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी दिबांग पर बाँध बनाया जाना खतरनाक है। प्रधानमन्त्री ने मई 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान स्वयं कहा था कि वे इस पर बाँध बनाए जाने के पक्ष में नहीं हैं।
लेकिन प्रधानमन्त्री बनते ही नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पहले सितम्बर 2014 में फ्रंट एडवाइजरी कमेटी से उसे मंजूरी दिलाई और इस प्रकार दुनिया के सबसे ऊँचे बाँध का रास्ता साफ कर दिया गया। हालांकि इस बाँध की ऊँचाई को 288 मीटर में से 20 मीटर कम किया गया है। इसके बावजूद इससे 45 किलोमीटर इलाके के डूबने और सेखोवा नेशनल पार्क के जंगल के विनाश का खतरा है।
खतरा इस इलाके में रहने वाली आदिवासी जातियों पर भी है और उसी सिलसिले में सबसे बड़ा खतरा इस इलाके में आने वाले भूकम्प और उससे होने वाली जनधन की हानि का है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2013 में भूकम्प के हलके झटके के कारण सिक्किम में तीस्ता नदी की सुरंग में काम करने वाले चार मज़दूर मारे गए थे।
हालांकि भूकम्प की कोई भविष्यवाणी सम्भव नहीं है इसलिये इस बारे में आश्वस्त भी हुआ जा सकता है और आशंकित भी। पर भूकम्प के अनुभव तो हैं और वे निश्चिंत करने के बजाय लगातार डराते हैं। 1934 में जब भूकम्प आया तो आबादी इतनी नहीं थी लेकिन तब भी 10,000 लोग मारे गए थे। उस भूकम्प का केन्द्र माउंट एवरेस्ट ही था। 1950 में भी असम में भूकम्प आया था और उसकी भयानक यादें लोगों की स्मृतियों में हैं, सरकारों की स्मृति में भले नहीं। 1897 में रिक्टर स्केल पर 8.7 का भूकम्प आया था जिससे पूरी पहाड़ी धूल में मिल गई थी।
इसलिये जरूरत है भूकम्प की भाषा को समझने और अपनी ऊर्जा परियोजनाओं को प्रकृति के अनुरूप ढालने की। यह सही है कि आधुनिक सभ्यता को प्रगति के लिये बिजली चाहिए, पानी चाहिए। पर प्रकृति को अपनी प्रगति के लिये क्या चाहिए यह अभी स्पष्ट नहीं है। प्रकृति के अपने नियम और उसकी अपनी गति है।
वह जितने धीरे-धीरे किसी चीज का निर्माण करती है उतनी ही तेजी से उसका विनाश भी कर देती है। अभी तक प्रकृति की भाषा का एक ही संकेत समझ में आ रहा है और वो यह कि उससे छेड़छाड़ कम-से-कम की जाए। वरना बड़े-बड़े शहर और बड़े-बड़े बाँध हमें एक समय में जितना आगे ले जाएँगे वे एक झटके में उतना पीछे भी धकेल सकते हैं।
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Post By: RuralWater