आज पृथ्वी की सतह यानी सबसे बाहरी परत करीब 100 किलोमीटर मोटी है। इसके नीचे अधिकतर ठोस पदार्थों से बनी 2,900 किलोमीटर मोटी परत है जिसे प्रावार या मेंटल कहते हैं। पृथ्वी की सतह से करीब मेंटल का ऊपरी हिस्सा दो अलग-अलग तरह की परतों से बना है - ठोस लिथोस्फीयर (सबसे ठंडी और कठोर परत) और आधी पिघली हुई एस्थेनोस्फीयर (जो गहरी लेकिन कमजोर है)। लिथोस्फेरिक प्लेटों के एस्थेनोस्फीयर पर तैरने के कारण ही भूगर्भीय प्लेटों की गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं और भूकम्प का कारण बनती हैं।
फरवरी के पहले सप्ताह में कुछ ही घंटों के अन्तराल पर उत्तर भारत, कोलम्बिया और तुर्की में भूकम्प के झटके महसूस किये गए। इन्हें पिछले चार माह के दौरान भूगर्भीय हलचलों में महसूस की गई वृद्धि के क्रम में देखा जा रहा है। अक्टूबर मध्य के बाद से रिक्टर पैमाने पर 6.5 से अधिक तीव्रता वाले लगभग 15 भूचाल आ चुके हैं।दिसम्बर में ही 5 या इससे अधिक तीव्रता वाले कम-से-कम 400 भूकम्प आये हैं, जो सामान्य से करीब तीन गुना अधिक हैं। इनमें से अधिकांश भूकम्प प्रशान्त क्षेत्र में भूगर्भीय प्लेटों की सीमाओं के आस-पास आये हैं। हालांकि, भूकम्प की घटनाओं में यह बढ़ोत्तरी पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास को देखते हुए असामान्य नहीं कही जा सकती है, लेकिन अब वैज्ञानिकों के सामने भूगर्भीय हलचलों के बारे में काफी अधिक जानकारियाँ हैं। इनका विश्लेषण कर यह साबित करने की जिम्मेदारी अब वैज्ञानिकों पर है कि क्या वाकई पृथ्वी की ऊपरी परत आजकल ज्यादा सक्रिय हो गई है?
सतह का विज्ञान
लगभग सौ वर्ष पहले जर्मन वैज्ञानिक अल्फ्रेड वेगेनर ने सर्वप्रथम यह विचार दिया था कि पृथ्वी की सतह स्थिर नहीं है, जैसा कि उस समय माना जाता था। वेगेनर ने धरती के विभिन्न हिस्सों में एक जैसे जीवाश्म मिलने के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि विभिन्न महाद्वीप पहले एक-दूसरे से इतने दूर नहीं रहे होंगे, जितने आज हैं। तब से इस सिद्धान्त में काफी सुधार हुआ है, लेकिन मूल परिकल्पना आज भी यही है कि पृथ्वी की सतह कम-से-कम पन्द्रह महाद्वीपीय प्लेटों से मिलकर बनी है जो आपस में टकराती या दूर होती रहती हैं। ऑस्ट्रेलियाई प्लेट पिछले 20 वर्षों में उत्तर की तरफ 1.5 मीटर से अधिक खिसक चुकी है। इसी वजह से ऑस्ट्रेलिया के जीपीएस निर्देशांक गड़बड़ा गए हैं।
आमतौर पर जब भूगर्भीय प्लेटें खिसकती हैं तो भ्रंश के आस-पास दबाव बढ़ता है। जब यह दबाव एक सीमा से अधिक हो जाता है तो भ्रंश के खिसकने या टूट-फूट की वजह से भूकम्प के झटके लगते हैं। प्लेटों की यह हलचल भ्रंश के आस-पास अन्य क्षेत्रों पर भी दबाव बढ़ा देती है जिससे भूगर्भीय घटनाओं की ऐसी शृंखला शुरू होती है, जो लाखों वर्षों में शान्त हो पाती है।
नए शोध से पता चला है कि कुछ अन्य कारणों से भी भूकम्प आ सकते हैं। नवम्बर, 2016 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, भ्रंश या फाल्ट में वक्रता या टेढ़ापन किसी भी भूकम्प के स्थान, समय और तीव्रता के लिये महत्त्वपूर्ण कारक हैं। भ्रंश के विभिन्न हिस्सों में दबाव सहने की क्षमता अलग-अलग होती है। इस प्रकार संविदार या टूट-फूट से उत्पन्न दबाव निकटवर्ती सतहों तक स्थानान्तरित हो जाता है, जिससे भूकम्प का प्रभाव सीमित हो जाता है।
गहरे कारण
भूकम्प लाने वाली प्रक्रियाएँ केवल धरती की सतह तक ही सीमित नहीं हैं। हालिया शोध दिखाते हैं कि महाद्वीपीय प्लेटों के बनने की प्रक्रियाओं का भी भूकम्प से गहरा सम्बन्ध हो सकता है। लगभग 4.5 अरब साल पहले जब पृथ्वी के बनने की प्रक्रिया शुरू हुई तब अत्यधिक गर्म व पिघली हुई परतें केन्द्र से अलग होकर ऊपर उठने लगी और सतह पर ठंडी होकर बैठती गईं। दूसरी गर्म परतें इनके ऊपर आ जाती थीं। यह सिलसिला चलता रहता था।
आज पृथ्वी की सतह यानी सबसे बाहरी परत करीब 100 किलोमीटर मोटी है। इसके नीचे अधिकतर ठोस पदार्थों से बनी 2,900 किलोमीटर मोटी परत है जिसे प्रावार या मेंटल कहते हैं। पृथ्वी की सतह से करीब मेंटल का ऊपरी हिस्सा दो अलग-अलग तरह की परतों से बना है - ठोस लिथोस्फीयर (सबसे ठंडी और कठोर परत) और आधी पिघली हुई एस्थेनोस्फीयर (जो गहरी लेकिन कमजोर है)। लिथोस्फेरिक प्लेटों के एस्थेनोस्फीयर पर तैरने के कारण ही भूगर्भीय प्लेटों की गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं और भूकम्प का कारण बनती हैं।
वर्ष 2010 में मोनाश यूनिवर्सिटी, कनाडा के शोधकर्ताओं ने पुराने सिद्धान्त को चुनौती देते हुए कहा कि भूगर्भीय प्लेटों की हलचल नीचे से ऊपर की बजाय ऊपर से नीचे की ओर हो रही है। प्लेटों में हलचल का कारण पृथ्वी की ऊपरी परत में ही उठान और सिकुड़न है, न कि इससे निचले भाग की गतिविधियाँ। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ कोलम्बिया के एक अन्य शोध दल ने जुलाई 2016 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में कहा कि ये प्रक्रियाएँ इतनी सरल नहीं हैं। भूगर्भीय प्लेटों का संचलन केवल लिथोस्फीयर तक सीमित नहीं है। इस पर एस्थेनोस्फीयर में होने वाली छोटी-छोटी हरकतों का भी प्रभाव पड़ता है।
वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसे कारणों की भी खोज की है, जिन्हें अभी तक पूरी तरह समझा नहीं जा सका है। पृथ्वी की सतह से अधिक गहराई में होने वाले भूकम्प अधिक ‘सुरक्षित’ माने जाते हैं, क्योंकि उनसे मानव जीवन और सम्पत्ति को अधिक नुकसान नहीं होता। लेकिन दिसम्बर 2016 में सॉलिड अर्थ जर्नल में प्रकाशित एक पेपर में दर्शाया गया है कि गहराई में होने वाले भूकम्पों में ऊर्जा का उत्सर्जन अधिक होने के कारण इनमें सतही भूकम्पों के मुकाबले विनाश करने की ताकत अधिक होती है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
पिछले दशक में शोधकर्ताओं ने पर्यावरण में हो रहे बदलावों से भूगर्भीय हलचलों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन शुरू किया। नेचर पत्रिका में वर्ष 2009 में शोधकर्ताओं ने ताइवान में आये तूफानों का उस क्षेत्र में हुए छोटे भूकम्पों के साथ सम्बन्ध स्थापित किया था। उनका तर्क था कि तूफान से पहले वायुमण्डलीय दबाव (एटमोस्फियरिक प्रेशर) में आने वाली गिरावट के कारण भी फाल्ट में हलचल बढ़ सकती है, जिससे एकत्रित दबाव भूकम्प के रूप में बाहर निकलता है।
हिमालय क्षेत्र में जलवायु सन्तुलन में बदलाव और भूकम्प के बीच सम्बन्ध पर भी शोध किया गया है। इन अध्ययनों के आधार पर यह माना गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते हिमखण्डों के पिघलने और अत्यधिक वर्षा के कारण सतह पर पानी का सन्तुलन बिगड़ने से भी भूगर्भीय हलचल प्रभावित हो सकती है।
आर्कटिक क्षेत्र में यह तथ्य स्पष्ट रूप से झलकता है, जहाँ हिमखण्ड इतनी तेज गति से पिघल रहे हैं कि वर्ष 2030 तक वहाँ की पूरी बर्फ समाप्त हो सकती है। सितम्बर 2016 में साइंस एडवांसेज जर्नल में प्रकाशित शोध में बताया गया है कि पिछले एक दशक से अकेले ग्रीनलैंड में प्रतिवर्ष 272 अरब टन बर्फ पिघलकर गायब हो रही है। जीपीएस के आँकड़ों से यह पता चला है कि ग्रीनलैंड और उसके आस-पास का क्षेत्र बर्फ पिघलने के कारण चार से पाँच मीटर ऊपर उठ गया है। इस हलचल को क्षेत्र में आने वाले छोटे-छोटे भूकम्पों के साथ जोड़कर देखा जा रहा है, क्योंकि इससे पहले यह क्षेत्र भूगर्भीय हलचलों के लिहाज से शान्त क्षेत्र था।
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में जियोफिजिकल एंड क्लाइमेट हजर्ड्स के प्रोफेसर बिल मैकग्वायर कहते हैं, “आँकड़े दर्शाते हैं कि तेज गति से हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण स्कैंडेनेविया में आठ या इससे अधिक तीव्रता वाले भूकम्प आये हैं। हिमखण्डों के पिघलने से फाल्ट पर वजन घटता है, जिसके चलते लम्बे समय से एकत्रित दबाव बाहर निकलने के कारण ये भूकम्प आये। हिमालय सहित दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी इसी तरह की घटनाएँ इसका प्रमाण हैं।” दूसरी तरफ, कुछ अन्य शोधकर्ता इससे पूरी तरह से सहमत नहीं हैं।
पूर्वानुमान की मुश्किल
उपग्रह प्रणाली के विकास और महाद्वीपीय प्लेटों की गतिविधियों की उच्चस्तरीय निगरानी के बावजूद भूकम्पों का पूर्वानुमान सम्भव नहीं हो सका है। रिक्टर स्केल के निर्माता चार्ल्स रिक्टर ने एक बार कहा था कि भूकम्प का पूर्वानुमान मूर्खों के अधिकार क्षेत्र में है। यूनिर्वसिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले में अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंसेज के प्रोफेसर रोलैंड बुर्गमन कहते हैं, “अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं, जिनसे लघु अवधि में भूकम्प का सटीक पूर्वानुमान सम्भव हो सके। हालांकि भूगर्भीय हलचलों, सतह के विघटन और भ्रंश के विज्ञान के बारे में जानकारी बढ़ने से दीर्घावधि में भूकम्प और उससे नुकसान का आकलन बेहतर हो सका है।”
हालांकि, वैज्ञानिक अनुसन्धानों ने ऐसी भ्रंश रेखाओं की पहचान करने में मदद की है, जहाँ भूगर्भीय हलचल अधिक होने की आशंका है। साइनो-इण्डियन प्लेट के नीचे भ्रंश भी इन्हीं में से एक है। लेकिन आज भी हम नहीं जानते कि भूकम्प कब आएगा। लिहाजा भूकम्प के प्रभाव को कम-से-कम करना और भवनों को सुरक्षित बनाना ही एकमात्र भरोसेमन्द उपाय है।
Path Alias
/articles/bhauukamapa-kai-abauujha-pahaelai
Post By: Editorial Team