प्राकृतिक आपदाएँ पहले भी आती रही हैं और भविष्य में भी आती रहेंगी। प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं तो अपने पीछे तबाही का मंजर अवश्य छोड़कर जाती हैं। अब ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम इन आपदाओं से क्या सीख लेते हैं और भविष्य में इसके प्रति क्या योजना बनाते हैं। आदिकाल से ही जो प्राकृतिक आपदाएँ मानवता को समय-समय पर झकझोरती आई हैं उनमें से भूकम्प भी एक है। यदि हम भूकम्प की बात करें तो इसे प्राकृतिक आपदाओं में सबसे अधिक संहारक माना जाता है। विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में अपार उपलब्धियों के बाद भी हमारे वैज्ञानिकों के पास कोई ऐसी प्रणाली नहीं है, जिसके माध्यम से इसका पूर्वानुमान लगाया जा सके।
भारतीय क्षेत्र की गतिशील प्लेट जब भी तिब्बत की प्लेट से टकराती है या इसके नीचे घुसती है तो सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र थरथरा उठता है। इस सिद्धान्त के अनुसार धरती सात प्रमुख और कुछ छोटी प्लेट्स में बँटी हुई है। प्लेट्स 50 से 100 किलोमीटर मोटाई की होती है। ये प्लेट्स इतनी कठोर होती है कि न तो मुड़ सकती हैं और न ही टूटती हैं। ये तो बस टकराकर भूकम्प को जन्म देती हैं।भूकम्प ने नेपाल में जो तबाही मचाई है, उसने एक बार फिर से दुनिया के सभी देशों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर इस भीषण आपदा से कैसे निपटा जाए। ज्ञात हो कि 21वीं सदी में ही अब तक हिमालय के इस भूभाग में नौ विनाशकारी भूकम्प आ चुके हैं और आगे भी आने की पूर्ण सम्भावना है, जो भारत की भी चिन्ताओं को बढ़ाता है। भारतीय क्षेत्र की गतिशील प्लेट जब भी तिब्बत की प्लेट से टकराती है या इसके नीचे घुसती है तो सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र थरथरा उठता है। इस सिद्धान्त के अनुसार धरती सात प्रमुख और कुछ छोटी प्लेट्स में बँटी हुई है। प्लेट्स 50 से 100 किलोमीटर मोटाई की होती है। ये प्लेट्स इतनी कठोर होती है कि न तो मुड़ सकती हैं और न ही टूटती हैं। ये तो बस टकराकर भूकम्प को जन्म देती हैं। इन प्लेटो में तरंगें होती हैं। धरती की सतह के नीचे या उसके आसपास ऊर्जा के मुक्त होने से वह स्थान विशेष अथवा उसकी परतें तेजी से घड़ी के पेण्डुलम की तरह दोलन करने लगती हैं। यही दोलन भूकम्प का कारण है। कठोर चट्टानों में ये तरंगें तीव्रता से प्रवाहित होती हैं, परन्तु तरल चट्टानों में यह दर कम होती है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार उत्तर पूर्वी भारत में धरती की परत हर साल पाँच से.मी. खिसक रही है। यह स्थिति भूकम्प की संवेदनशीलता एवं सम्भावना को बढ़ाती है।
तिब्बत जैसी स्थिर प्लेट को फुट और भारतीय चलायमान प्लेट को हैगिंग कहा जाता है। हैगिंग प्लेट पर लगातार दबाव पड़ता रहता है। यहाँ तक कि वह रबड़ की तरह मुड़ भी जाती हैं। कई दशकों के पश्चात यह टूट भी जाती हैं। इसी के साथ सालों की एकत्रित ऊर्जा का बड़ा भाग तापीय क्रिया में बदलकर चट्टानों को गला डालता है। इस प्रकार ये प्लेटें चटकती, दरकती एवं टूटती रहती हैं। जिन स्थानों में ये प्लेटें जल्दी चटकती है, वहाँ हल्के भूकम्प आते हैं। प्लेट्स के टूटन की दर तेजी से होना भयंकर एवं विप्लवी भूकम्प को आमन्त्रित करता है। अब सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत इस तरह के भीषण भूकम्पों का सामना कर पाने में सक्षम है।
भारत को भूकम्प के लिहाज से चार जोनों में बाँटा गया है। भारतीय भौगोलिक क्षेत्र का 59 फीसदी भूभाग भूकम्प के लिहाज से अति संवेदनशील माना जाता है। दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई सहित 38 शहर उच्च तीव्रता वाले भूकम्प क्षेत्र में आते हैं। 344 नगर भूकम्प के लिहाज से अतिसंवेदशील क्षेत्र में आते हैं। एक आँकड़े के मुताबिक, 1990 से लेकर अब तक लगभग 30 हजार भारतीय लोग अपनी जान भूकम्प में गंवा चुके हैं। आज भी पूरी दुनिया में कहीं भी कोई भी ऐसी प्रणाली नहीं है, जो भूकम्प से जुड़ी भविष्यवाणी कर सके, लिहाजा सावधानी ही इससे बचने का सबसे बड़ा उपाय है। यह तो सत्य है कि मनुष्य भूकम्प को तो रोक नहीं सकता, परन्तु पूर्व तैयारियों के आधार पर उससे बच जरूर सकता है।
भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा को टाला तो नहीं जा सकता, परन्तु भूकम्परोधी भवन निर्माण करके जान-माल की क्षति से पूर्णतया बचा जा सकता है।जापान आदि देशों में जहाँ भूकम्प ज्यादा आते हैं, वहाँ जनहानि कम होती है। इसका कारण है, वहाँ भवन निर्माण में प्रयोग की जाने वाली भूकम्परोधी तकनीक। हमारे देश में भी ऐसी ही भवन निर्माण तकनीक का प्रयोग किया जाना चाहिए, अन्यथा बहुमंजिला इमारतें हमारे लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। भारत में लोग घटिया भवन सामग्री का इस्तेमाल करते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारा आपदा प्रबन्धन केन्द्र भी इस ओर ध्यान नहीं देता और न ही इस विषय पर लोगों को जागरूक करने का काम करता है। यही कारण है कि भूकम्परोधी तकनीक के अभाव में मरने वाले लोगों का आँकड़ा बहुत ऊँचा है। देश में बेहतरीन तकनीकों के प्रयोग के बावजूद भारत भूकम्प जैसे खतरे से निपटने में सक्षम नहीं है।
भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा को रोका तो नहीं जा सकता, लेकिन इस आपदा से बचा जरूर जा सकता है। बहुत-सी ऐसी तकनीकें हैं, जिनके द्वारा हम भूकम्प के आने का समय, स्थान व उसकी तीव्रता को माप सकते हैं, लेकिन इस दिशा में आपदा प्रबन्धन को चाहिए कि वह लोगों को जागरूक करे और अच्छी व उत्तम भूकम्परोधी तकनीक का प्रयोग करने का सन्देश दे। भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा को टाला तो नहीं जा सकता, परन्तु भूकम्परोधी भवन निर्माण करके जान-माल की क्षति से पूर्णतया बचा जा सकता है।
देश में आज भी सरकारी निर्माण के अलावा अन्य द्वारा निर्मित बहुमंजिला इमारतों में भूकम्परोधी तकनीक का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है। इसके पीछे मुख्य कारण लागत में बचत, जागरुकता की कमी व शासन द्वारा मानदण्डों के पालन में ढिलाई है। हमारा आपदा प्रबन्धन तन्त्र भूकम्प जैसी बड़ी त्रासदी में थोड़ा भी कारगर होगा, सन्देहपूर्ण है। प्रबन्धन लोगों को जागरूक भी नहीं कर पाया है कि भूकम्प आने की दशा में क्या कदम उठाएँ व भविष्य में भूकम्परोधी निर्माण कैसे किया जाए। इसके साथ ही आवश्यकता इस बात की भी है कि दृश्य-श्रव्य प्रचार माध्यमों के जरिए सभी लोगों को भूकम्प के प्रति जागरूक किया जाए ताकि वे भविष्य में भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए अपने-आप को तैयार रख सकें।
लेखक का ई-मेल : sunil.tiwari.ddun@gmail.com
भारतीय क्षेत्र की गतिशील प्लेट जब भी तिब्बत की प्लेट से टकराती है या इसके नीचे घुसती है तो सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र थरथरा उठता है। इस सिद्धान्त के अनुसार धरती सात प्रमुख और कुछ छोटी प्लेट्स में बँटी हुई है। प्लेट्स 50 से 100 किलोमीटर मोटाई की होती है। ये प्लेट्स इतनी कठोर होती है कि न तो मुड़ सकती हैं और न ही टूटती हैं। ये तो बस टकराकर भूकम्प को जन्म देती हैं।भूकम्प ने नेपाल में जो तबाही मचाई है, उसने एक बार फिर से दुनिया के सभी देशों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर इस भीषण आपदा से कैसे निपटा जाए। ज्ञात हो कि 21वीं सदी में ही अब तक हिमालय के इस भूभाग में नौ विनाशकारी भूकम्प आ चुके हैं और आगे भी आने की पूर्ण सम्भावना है, जो भारत की भी चिन्ताओं को बढ़ाता है। भारतीय क्षेत्र की गतिशील प्लेट जब भी तिब्बत की प्लेट से टकराती है या इसके नीचे घुसती है तो सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र थरथरा उठता है। इस सिद्धान्त के अनुसार धरती सात प्रमुख और कुछ छोटी प्लेट्स में बँटी हुई है। प्लेट्स 50 से 100 किलोमीटर मोटाई की होती है। ये प्लेट्स इतनी कठोर होती है कि न तो मुड़ सकती हैं और न ही टूटती हैं। ये तो बस टकराकर भूकम्प को जन्म देती हैं। इन प्लेटो में तरंगें होती हैं। धरती की सतह के नीचे या उसके आसपास ऊर्जा के मुक्त होने से वह स्थान विशेष अथवा उसकी परतें तेजी से घड़ी के पेण्डुलम की तरह दोलन करने लगती हैं। यही दोलन भूकम्प का कारण है। कठोर चट्टानों में ये तरंगें तीव्रता से प्रवाहित होती हैं, परन्तु तरल चट्टानों में यह दर कम होती है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार उत्तर पूर्वी भारत में धरती की परत हर साल पाँच से.मी. खिसक रही है। यह स्थिति भूकम्प की संवेदनशीलता एवं सम्भावना को बढ़ाती है।
तिब्बत जैसी स्थिर प्लेट को फुट और भारतीय चलायमान प्लेट को हैगिंग कहा जाता है। हैगिंग प्लेट पर लगातार दबाव पड़ता रहता है। यहाँ तक कि वह रबड़ की तरह मुड़ भी जाती हैं। कई दशकों के पश्चात यह टूट भी जाती हैं। इसी के साथ सालों की एकत्रित ऊर्जा का बड़ा भाग तापीय क्रिया में बदलकर चट्टानों को गला डालता है। इस प्रकार ये प्लेटें चटकती, दरकती एवं टूटती रहती हैं। जिन स्थानों में ये प्लेटें जल्दी चटकती है, वहाँ हल्के भूकम्प आते हैं। प्लेट्स के टूटन की दर तेजी से होना भयंकर एवं विप्लवी भूकम्प को आमन्त्रित करता है। अब सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत इस तरह के भीषण भूकम्पों का सामना कर पाने में सक्षम है।
भारत को भूकम्प के लिहाज से चार जोनों में बाँटा गया है। भारतीय भौगोलिक क्षेत्र का 59 फीसदी भूभाग भूकम्प के लिहाज से अति संवेदनशील माना जाता है। दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई सहित 38 शहर उच्च तीव्रता वाले भूकम्प क्षेत्र में आते हैं। 344 नगर भूकम्प के लिहाज से अतिसंवेदशील क्षेत्र में आते हैं। एक आँकड़े के मुताबिक, 1990 से लेकर अब तक लगभग 30 हजार भारतीय लोग अपनी जान भूकम्प में गंवा चुके हैं। आज भी पूरी दुनिया में कहीं भी कोई भी ऐसी प्रणाली नहीं है, जो भूकम्प से जुड़ी भविष्यवाणी कर सके, लिहाजा सावधानी ही इससे बचने का सबसे बड़ा उपाय है। यह तो सत्य है कि मनुष्य भूकम्प को तो रोक नहीं सकता, परन्तु पूर्व तैयारियों के आधार पर उससे बच जरूर सकता है।
भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा को टाला तो नहीं जा सकता, परन्तु भूकम्परोधी भवन निर्माण करके जान-माल की क्षति से पूर्णतया बचा जा सकता है।जापान आदि देशों में जहाँ भूकम्प ज्यादा आते हैं, वहाँ जनहानि कम होती है। इसका कारण है, वहाँ भवन निर्माण में प्रयोग की जाने वाली भूकम्परोधी तकनीक। हमारे देश में भी ऐसी ही भवन निर्माण तकनीक का प्रयोग किया जाना चाहिए, अन्यथा बहुमंजिला इमारतें हमारे लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। भारत में लोग घटिया भवन सामग्री का इस्तेमाल करते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारा आपदा प्रबन्धन केन्द्र भी इस ओर ध्यान नहीं देता और न ही इस विषय पर लोगों को जागरूक करने का काम करता है। यही कारण है कि भूकम्परोधी तकनीक के अभाव में मरने वाले लोगों का आँकड़ा बहुत ऊँचा है। देश में बेहतरीन तकनीकों के प्रयोग के बावजूद भारत भूकम्प जैसे खतरे से निपटने में सक्षम नहीं है।
भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा को रोका तो नहीं जा सकता, लेकिन इस आपदा से बचा जरूर जा सकता है। बहुत-सी ऐसी तकनीकें हैं, जिनके द्वारा हम भूकम्प के आने का समय, स्थान व उसकी तीव्रता को माप सकते हैं, लेकिन इस दिशा में आपदा प्रबन्धन को चाहिए कि वह लोगों को जागरूक करे और अच्छी व उत्तम भूकम्परोधी तकनीक का प्रयोग करने का सन्देश दे। भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा को टाला तो नहीं जा सकता, परन्तु भूकम्परोधी भवन निर्माण करके जान-माल की क्षति से पूर्णतया बचा जा सकता है।
देश में आज भी सरकारी निर्माण के अलावा अन्य द्वारा निर्मित बहुमंजिला इमारतों में भूकम्परोधी तकनीक का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है। इसके पीछे मुख्य कारण लागत में बचत, जागरुकता की कमी व शासन द्वारा मानदण्डों के पालन में ढिलाई है। हमारा आपदा प्रबन्धन तन्त्र भूकम्प जैसी बड़ी त्रासदी में थोड़ा भी कारगर होगा, सन्देहपूर्ण है। प्रबन्धन लोगों को जागरूक भी नहीं कर पाया है कि भूकम्प आने की दशा में क्या कदम उठाएँ व भविष्य में भूकम्परोधी निर्माण कैसे किया जाए। इसके साथ ही आवश्यकता इस बात की भी है कि दृश्य-श्रव्य प्रचार माध्यमों के जरिए सभी लोगों को भूकम्प के प्रति जागरूक किया जाए ताकि वे भविष्य में भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए अपने-आप को तैयार रख सकें।
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