भूकम्प के बार-बार झटकों ने लोगों को आशंकित कर दिया है। जरा-सी धरती हिलते ही लोगों का दिल दहल जाता है। झटकों ने अब दिल्ली-एनसीआर के लोगों का ध्यान इसके बचाव के कारगर उपायों की ओर खींचा है। अब इमारतों की संरचना के साथ मौके पर बचाव के जरूरी उपायों को लेकर न केवल आपदा प्रबन्धन विभाग सक्रिय हो गया है, लोग भी सचेत हो गए हैं। लेकिन इसी के साथ यह सच भी है कि भूकम्प से होने वाली भयावह तबाही के बावजूद नियमों और हिदायतों की अनदेखी कर जगह-जगह इमारतों का धड़ल्ले से निर्माण जारी है। भूकम्प को लेकर समाज और सरकार के लोग किस तरह सोचते हैं और उनकी क्या तैयारी है। इसकी पड़ताल कर जरूरी तथ्यों को सामने लाने की कोशिश जनसत्ता टीम ने की है।
सेस्मिक हजार्ड माइक्रोजोनेशन रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली को नौ माइक्रोसेस्मिक जोंस में बाँटा गया है। इसमें सबसे खतरे वाले जोन में यमुना तराई के इलाके हैं, जो हैं उत्तरी, उत्तरी पूर्वी और पूर्वी दिल्ली। इसके बाद उच्च खतरा क्षेत्र में आता है दिल्ली के जंगल क्षेत्र (रिज एरिया) के पश्चिम का इलाका। खतरे के लिहाज से तीसरा माइक्रोजोन छतरपुर बेसिन है। उसके बाद क्रमशः दक्षिण नजफगढ़, उत्तर-पश्चिम दिल्ली और केन्द्रीय दिल्ली आते हैं। रिपोर्ट में आबादी के घनत्व के तीन जोन में बाँटा गया है। इसमें भूकम्प के लिहाज से सबसे संवेदनशील पूर्वी और उत्तरी-पूर्वी दिल्ली के कई इलाके हैं जो सबसे घनी आबादी क्षेत्र में आते हैं, ये हैं सीमापुरी, सीलमपुर, शाहदरा, विवेक विहार और गाँधी नगर। जरूरी है कि दिल्ली में जितने भी नए भवन निर्माण हो रहे हैं उनमें बीआईएस मानक को उपयोग में लाया जाये।
नई दिल्ली, 11 अप्रैल। भूकम्प से जान-माल के नुकसान का ताजा उदाहरण पिछले साल नेपाल में आई तबाही का है। जब कभी धरती हिलती है तो उसके कारण आई तबाही का मंजर स्मरण हो आता है। रविवार को दिल्ली और उत्तर भारत में आये भूकम्प से ऐसा ही हुआ। हालांकि पिछले सौ सालों के इतिहास में राजधानी दिल्ली और आस-पास के इलाकों को कोई बड़ा नुकसान वाला झटका नहीं झेलना पड़ा है, लेकिन भूकम्प विशेषज्ञों के अनुसार हिमालय क्षेत्र के नजदीक होने के कारण दिल्ली-एनसीआर को हमेशा भूकम्प का खतरा बना रहता है। साथ ही उपद्वीपीय क्षेत्र के भूकम्प से भी दिल्ली को खतरा है। विशेषज्ञों के अनुसार खतरा इस बात से ज्यादा बढ़ जाता है कि आबादी कितनी घनी है और घरों-इमारतों के निर्माण में भूकम्प रोधी तरीके अपनाए जा रहे हैं या नहीं।राजधानी दिल्ली और इसके आसपास के इलाके भारत के सेस्मिक जोनिंग मैप के सेस्मिक जोन चार में आते हैं। पूरे देश को चार सेस्मिक जोन में बाँटा गया, जिसमें जोन पाँच भूकम्प के लिहाज से सबसे ज्यादा संवेदनशील होता है। देश का 30 फीसद हिस्सा जोन चार और पाँच में आता है, जहाँ उच्च तीव्रता के भूकम्प की आशंका हमेशा बनी रहती है और आठ और उससे ज्यादा की तीव्रता वाली भूकम्प से जितनी तबाही मच सकती है उतनी पिछले सौ सालों के इतिहास में तबाही वाले भूकम्प से दिल्ली-एनसीआर का सामना नहीं हुआ है।
केन्द्रीय भूविज्ञान मंत्रालय द्वारा दिल्ली पर भूकम्प के सम्बन्ध में जारी रिपोर्ट के अनुसार सन 1970 में सोहना के नजदीक एक ऐसे भूकम्प का उल्लेख है, जिसकी तीव्रता 6.5 बताई जाती है और जिससे दिल्ली के किले की दीवार और कई घर बर्बाद हो गए थे। यह भी बताया जाता है कि 1803 में मथुरा क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 7 की तीव्रता से आये भूकम्प से कुतुब मीनार को क्षति हुई थी। हाल के इतिहास में दर्ज भूकम्प जिससे दिल्ली को थोड़ा नुकसान हुआ वह 27 अगस्त 1960 को सोहना के निकट आया भूकम्प था, जिससे दिल्ली में थोड़ी क्षति हुई थी, उसकी तीव्रता 6 थी। लेकिन बार-बार हिलने वाली धरती दिल्लीवासियों को दहला जाती है। भूकम्प विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली के आस-पास आने वाले जिन भूकम्पों से दिल्ली की तबाही हो सकती है उसकी तीव्रता 6 से ज्यादा होना चाहिए, जो पिछले सौ सालों में दर्ज नहीं किया गया है।
केन्द्रीय भूविज्ञान मंत्रालय के भूकम्प केन्द्र के निदेशक जेएल गौतम के कहना है कि भारतीय भूखण्ड, यूरेशियाई भूखण्ड से टकरा रहा है क्योंकि भारतीय भूखण्ड उत्तर और हल्का पूर्व की ओर बढ़ रहा है जिसके कारण हिंदुकुश से लेकर उत्तर पूर्व भारत का हिस्सा भूकम्प के दायरे में आता है। भूविज्ञान मंत्रालय में ही वैज्ञानिक डॉ. ओपी मिश्रा का कहना है कि राजधानी में भूकम्प का सबसे बड़ा स्रोत हिमालय क्षेत्र है, जिससे दिल्ली तो हिलती रहेगी, लेकिन खतरा तो इमारत की संरचना और नगर की योजना के कारण है। 20 अक्टूबर 1991 का उत्तरकाशी भूकम्प और 29 मार्च 1999 को चमोली के भूकम्प इसके उदाहरण हैं। इतना ही नहीं दिल्ली को उपद्वीपीय भूकम्प से भी खतरा है। 1956 का बुलन्दशहर और 1960 का फरीदाबाद भूकम्प इसके उदाहरण हैं।
डॉ ओपी मिश्रा के मुताबिक इसी को देखते हुए दिल्ली राजधानी क्षेत्र के लिये सेस्मिक हजार्ड माइक्रोजोनेशन रिपोर्ट तैयार किया गया है। फरवरी 2016 को जारी रिपोर्ट के आधार पर दिल्ली शहर के आर्कीटेक्ट से सम्बन्ध रखने वाले निकायों, जैसे सीपीडब्लूडी, नगर निगम, डीडीए को इससे अवगत करा कर जागरूक किया जा रहा है ताकि दिल्ली की संरचनाओं को भूकम्परोधी बनाया जा सके। सेस्मिक हजार्ड माइक्रोजोनेशन रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली को नौ माइक्रोसेस्मिक जोंस में बाँटा गया है। इसमें सबसे खतरे वाले जोन में यमुना तराई के इलाके हैं, जो हैं उत्तरी, उत्तरी पूर्वी और पूर्वी दिल्ली। इसके बाद उच्च खतरा क्षेत्र में आता है दिल्ली के जंगल क्षेत्र (रिज एरिया) के पश्चिम का इलाका है। खतरे के लिहाज से तीसरा माइक्रोजोन छतरपुर बेसिन है। उसके बाद क्रमशः दक्षिण नजफगढ़, उत्तर-पश्चिम दिल्ली और केन्द्रीय दिल्ली आते हैं। रिपोर्ट में आबादी के घनत्व के हिसाब से तीन जोन में बाँटा गया है। इसमें भूकम्प के लिहाज से सबसे संवेदनशील पूर्वी और उत्तरी-पूर्वी दिल्ली के कई इलाके हैं जो सबसे घनी आबादी क्षेत्र में आते हैं, ये हैं सीमापुरी, सीलमपुर, शाहदरा, विवेक विहार और गाँधी नगर। जेएल गौतम का कहना है कि जरूरी है कि दिल्ली में जितने भी नए भवन निर्माण हो रहे हैं उनमें बीआईएस मानक को उपयोग में लाया जाये।
देश के सौ सालों के इतिहास में भूकम्प से 1 लाख से ज्यादा लोगों की जानें गई हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय क्षेत्र में हमेशा 8 की तीव्रता से अधिक के भूकम्प के आने की आशंका है, जिससे लाखों की जानमाल का नुकसान हो सकता है। भूकम्प के पूर्वानुमान में वैज्ञानिकों को अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है, इसलिये जरूरी है कि भूकम्परोधी उपायों को समय रहते अपनाया जाये। तेजी से विस्तार लेती और सघन होती दिल्ली के लिये यह जरूरी है।
तेज झटके में ढह जाएँगी जमनापार की इमारतें
बची रह जाएँगी राजधानी के विकास मीनार के साथ सभी ऐतिहासिक इमारतें
मौसम विभाग और दिल्ली फायर विभाग की मानें तो रिक्टर स्केल पर 9 के ऊपर भूकम्प आये तो जमनापार का इलाका तबाह हो सकता है। बीआईएस और एनडीआरएफ की अवहेलना कर सघन इलाके में बने यहाँ की ज्यादातर इमारत भूकम्प अवरोधी नहीं हैं और दिल्ली का इलाका सिविक जोन चार में है। इन नई बनी इमारतों की तुलना में मुगलकाल और अंग्रेजों के जमाने के बने दिल्ली के ऊँचे भवन और मीनार बिना भूकम्प अवरोधी भी ज्यादा मजबूत और सुरक्षित हैं। जबकि डीडीए का 24 मंजिला आइटीओ का विकास मीनार और दिल्ली नगर निगम का 28 मंजिला सिविक सेंटर भूकम्प अवरोधी तरीके से बने हैं लिहाजा ये भवन भूकम्प के खतरों से बाहर हैं।
मौसम विभाग के वैज्ञानिक एचपी शुक्ला ने बताया कि रविवार को अफगानिस्तान के हिमालियन क्षेत्र में 6.8 रिक्टर स्केल और 190 गहराई क्षमता वाली भूकम्प मापी गई। इससे उत्तरी भारत के जयपुर, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और अन्य प्रदेशों के अलावा जम्मू कश्मीर के श्रीनगर में छींटे भर पड़े हैं। दिल्ली में इस प्रकार के भूकम्प से कोई नुकसान नहीं होगा। 1960 और 1966 के बाद दिल्ली में हल्के नुकसान के अलावा कोई भूकम्प की बड़ी आफत नहीं आई है। हाँ जब रिक्टर स्केल पर 8 के ऊपर मापी जाने वाली भूकम्प के झटके महसूस किये जाएँगे तो यहाँ कुछ मकान में दरारें आ सकती हैं पर जब रिक्टर स्केल पर 9.05 का चीली जैसा भूकम्प यहाँ आया तो जमनापार नेस्तनाबूत ही हो जाएगा। उन्होंने कहा कि सघन जनसंख्या वाले दिल्ली में खुले जगहों का अभाव हो रहा है नतीजा लोगों को मल्टीस्टोरीज बिल्डिंग में घर खरीदने से पहले उसके सुरक्षा मापदण्ड जरूर देख लेना चाहिए। बिल्डर बीआईएस और एनडीआरएफ के दिशा निर्देश कहाँ मानते हैं।
दिल्ली फायर विभाग के प्रमुख जीसी मिश्र ने बताया कि दिल्ली में 69 फायर स्टेशन, डेढ़ हजार जाबांज अधिकारी और कर्मचारी के साथ ढाई सौ गाड़ियाँ हमेशा दिल्ली वालों की 24 घंटे सुरक्षा में तैनात हैं। किसी भी आपातकाल के समय हमारे जाबांजों को बस सूचना भर मिलनी होती है। वे जान पर खेलकर अपनी ड्यूटी निभाते हैं। दिल्ली में सरकारी आँकड़े के मुताबिक करीब 60 लाख निर्माण के हैं। इनमें मिले-जुले निर्माण तो हैं ही मुगलकाल और अंग्रेजों के जमाने से गगनचुम्बी इमारतें भी हैं। पूर्वी दिल्ली जमीन के तुलनात्मक दृष्टिकोण से ज्यादा संवेदनशील है और आपात के समय ज्यादा प्रभावित हो सकता है। मिश्र ने बताया कि भीड़-भाड़, अनधिकृत और सरकारी मापदण्डों को दरकिनार कर जो इमारतें बनीं और बन रही हैं, वहाँ फायर की गाड़ियाँ अन्दर नहीं जा सकती हैं लिहाजा वहाँ सुरक्षा और बचाव में कठिनाई तो होगी ही। ऐतिहासिक इमारतों को छोड़ दें तो साल 1900 से लेकर 1910, 20, 30, 40 और फिर बाद में बने कुछ बड़े और छोटे मकान भूकम्परोधी नहीं हैं।
दिल्ली विकास प्राधिकरण के सूचना प्रचार उपनिदेशक महीपाल का कहना है कि आईटीओ स्थित विकास मीनार 24 मंजिली है और भूकम्प अवरोधी मापदण्डों पर बनी है। इसी प्रकार जनकपुरी डिस्टिक सेंटर, पीतमपुरा डिस्टिक सेंटर जैसी ऊँची इमारत और व्यावसायिक परिसरों को भी भूकम्प अवरोधी ही बनाया गया है लिहाजा डीडीए के भवनों को भूकम्प का खतरा नहीं है।
डीडीए निर्माण की मंजूरी देने से पहले बीआईएस के मापदण्डों को आवश्यक रूप से देखता है। जबकि दिल्ली नगर निगम के सूचना प्रचार निदेशक योगेन्द्र सिंह मान ने बताया कि निगम मुख्यालय श्यामा प्रसाद मुखर्जी सिविक सेंटर दिल्ली की सबसे ऊँची 28 मंजिली इमारत है। यह कुतुब मीनार से भी ऊँची है। उन्होंने बताया कि सिविक सेंटर के अलावा अन्य कम्युनिटी सेंटर, स्कूलों, अस्पतालों और अन्य छोटे-बड़े दो तीन मंजिली निर्माण भी एनडीआरएफ के दिशा-निर्देश के बाद ही पास होता है और बनता है। लिहाजा निगम की इमारत भी भूकम्प अवरोधी है।
भूकम्प से बाल बाँका नहीं होगा मेट्रो के ढाँचे का
दिल्ली मेट्रो के प्रत्येक जोन में मिट्टी को देखते हुए ढाँचों की नींव गहरी और फाउंडेशन अलग-अलग तरह की है। जबकि धरातल के ऊपर और नीचे की इमारतें ब्रिटिश स्टैंडर्ड कोड के हिसाब से निर्मित हैं। वहीं यमुना के किनारे बने सभी मेट्रो स्टेशनों का निर्माण यमुना स्टैंडर्ड कमेटी के आधार पर निर्मित हैं। मेट्रो भूकम्प के दौरान और भूकम्प के बाद लोगों की सुरक्षा के लिये जरूरी उद्घोषणा भी करती है ताकि लोग की सुरक्षा मेट्रो ट्रेन के अन्दर और बाहर सभी जगह सुनिश्चित रहे।दिल्ली-एनसीआर में भूकम्प से दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन (डीएमआरसी) अपने ढाँचे निर्माण को मजबूत और सुरक्षा का पुख्ता इन्तजाम होने का दावा कर रही है। अधिकारियों का कहना है मेट्रो स्टेशन, सुरंग, पुल और जमीन के अन्दर बने ढाँचे बिल्कुल सुरक्षित हैं, क्योंकि डीएमआरसी ने निर्माण के दौरान इण्डियन रेलवे स्टैंडर्ड (आईआरएस), इंडियन रोड कांग्रेस (आईआरसी) और इण्डियन स्टैंडर्ड (आईएस) समेत राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्टैंडर्ड का पालन किया है, जिसके चलते राजधानी क्षेत्र में मेट्रो की इमारतें 7.5 रिक्टर स्केल का भूकम्प आराम से सहन कर सकती है।
मेट्रो अधिकारियों का कहना है कि डीएमआरसी ने सतह से ऊपर और अन्दर बने मेट्रो ढाँचा निर्माण में यूरोपीय और ब्रिटिश स्टैंडर्ड कोड का माना है, जिसमें मेट्रो की तरफ से किसी भी आपदा से निपटने के लिये अतिरिक्त व्यवस्था मौजूद है। डीएमआरसी ने भूमिगत मेट्रो स्टेशन पटेल चौक पर भूकम्प के झटकों का पता लगाने के लिये एक सेंसर सिस्टम लगाया है। भूकम्प आने से पहले सेंसर को निश्चित तीव्रता का प्राथमिक तरंग मिलने पर उसका अलार्म बजने लगता है।
हालांकि भूकम्प आने से पहले पृथ्वी में दो तरह की तरंगें उठती हैं और जिसमें दूसरी तरंग भूकम्प के लिये कारक होती है, जो कुछ सेकेंड के अन्तराल से प्राथमिक तरंग के पीछे चलती है। इस कारण अलार्म बजने के बाद कुछ सेकेंड का समय सुरक्षा व्यवस्था के लिये मिल जाता है। अलार्म बजने का समय और ज्यादा या कम हो सकता है बशर्ते भूकम्प का केन्द्र मेट्रो ढाँचे से कितना दूर है यह बड़ा सवाल है। अधिकारियों ने बताया कि मेट्रो का यह अलार्म 5 रिक्टर के तरंग पर चालू किया गया है। जिसके बजते ही मेट्रो कर्मचारी और डीएमआरसी ऑपरेशन कंट्रोल सेंटर (ओसीसी) को भूकम्प की सूचना पहुँच जाती है। यह सूचना तुरन्त मेट्रो ट्रेन ऑपरेटरों को भी चली जाती है और मेट्रो ट्रेनें जिस रूट पर जहाँ रहती हैं, वहीं रुक जाती हैं। एक अधिकारी ने बताया कि भूकम्प के बाद जब फिर से मेट्रो ट्रेनें चलनी शुरू होती हैं तो ट्रेन ऑपरेटरों के जरिए ट्रैक की जानकारी जमा कर लेते हैं।
मेट्रो के ढाँचा निर्माण के बारे में अधिकारियों का कहना है कि डीएमआरसी के प्रत्येक जोन में मिट्टी को देखते हुए ढाँचों की नींव गहरी और फाउंडेशन अलग-अलग तरह की है। जबकि धरातल के ऊपर और नीचे की इमारतें ब्रिटिश स्टैंडर्ड कोड के हिसाब से निर्मित हैं। वहीं यमुना के किनारे बने सभी मेट्रो स्टेशनों का निर्माण यमुना स्टैंडर्ड कमेटी के आधार पर निर्मित हैं। मेट्रो भूकम्प के दौरान और भूकम्प के बाद लोगों की सुरक्षा के लिये जरूरी उद्घोषणा भी करती है ताकि लोग की सुरक्षा मेट्रो ट्रेन के अन्दर और बाहर सभी जगह सुनिश्चित रहे।
आपदा आये तो जूझ नहीं सकते राजधानी के अस्पताल
आपदा वार्ड जरूर बने हैं पर भारी कमी है संसाधनों और कर्मचारियों की
भूकम्प की भविष्यवाणी हो नहीं पाती। ऐसे में राहत और बचाव कार्य को लेकर तैयारी काफी अहम है। लेकिन राजधानी दिल्ली में किसी आपदा की सूरत में क्या हालात हो सकते हैं, इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। यहाँ की तमाम घनी आबादी वाले इलाके और सैकड़ों साल पुरानी इमारतों के साथ तमाम गलियाँ और मोहल्ले ऐसे हैं, जहाँ बचाव और राहत कार्य पहुँचना लगभग असम्भव है।
अस्पतालों में आपदा वार्ड जरूर बनाए गए हैं लेकिन जिस तरह की हालत और कर्मचारियों की कमी है वह काफी हद तक स्थिति की भयावहता अपने आप बयाँ करने को काफी हैं। एक ओर अस्पतालों में एक बिस्तर पर कई मरीजों का बोझ है तो दूसरी ओर संसाधनों की भारी कमी। राजधानी में जन-जागरुकता का आलम यह है कि किसी को मालूम ही नहीं चलता कि आपदा की सूरत में कहाँ जाएँ और क्या करें। यहाँ तक की लोग आपदा हेल्प लाइन का नम्बर तक नहीं जानते। बहुत लोगों को तो इसकी भी जानकारी नहीं है होती कि आपदा की सूरत में क्या करें और क्या नहीं। यहाँ तक कि दिल्ली के तमाम छात्र और युवा तक नहीं जानते कि आपदा की सूरत में किस नम्बर पर सम्पर्क करें।
किसी भी अस्पताल में जरूरत भर को बिस्तर तक नहीं है। हालांकि कुछ चिकित्सकों का मानना है कि पहले की तुलना में अब इन्तजाम बेहतर हैं। आपदा के लिये लगभग सभी बड़े अस्पतालों मे अलग से आपदा वार्ड बनाए गए हैं या फिर आपदा राहत से लिये बिस्तर आरक्षित हैं। तीन बड़े अस्पतालों के ट्रामा सेंटर भी हैं। पर राहत व बचाव फिर भी एक बड़ी चुनौती है। किसी भी तरह से इसकी जानकारी अस्पतालों को मिले कि कहीं कोई हादसा हुआ है ताकि वे समय रहते तमाम जरूरी इन्तजाम कर सकें।महर्षि वाल्मीकि अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक डॉ बिजन कुमार डे ने कहा कि हमारे अस्पतालों में बाकायदा वार्ड बना है, पूरी तैयारी रहती है। समय-समय पर माक ड्रिल वगैरह होती रहती है। त्वरित सूचना कैसे पहुँचे, इसके लिये रेडियो का विकल्प होना चाहिए। राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के सदस्य डॉ डीएन शर्मा का कहना है कि आपदा प्रबन्धन की तमाम तैयारियाँ हैं। यहाँ तक कि किसी भी आपदा की सूरत में रेडियोएक्टिव पदार्थ के रिसाव का खतरा रहता है। इस रिसाव को जानने व समय रहते इसकी पहचान कर उसका समाधान करने के लिये समझने के लिहाज से भी तैयारियाँ रहती हैं। देश के 12 बड़े हवाई अड्डों पर भी इस तरह के रेडिएशन को पहचानने व पकड़ने के उपकरण लगाए गए हैं। इसके अलावा पुलिस के वैन में भी यह उपकरण लगाने की योजना पर काम हो रहा है ताकि वे तमाम इलाकों में रहते हुए किसी आपदा की सूरत में रेडिएशन को पकड़ने में कामयाब हो सकें। व समय रहते समुचित उपाय किये जा सकें। लेकिन जबकि जानकारों की मानें तो रासायनिक हथियारों जैविक हथियारों, परमाणु हथियारों के उपयोग से होने वाले हमले की सूरत में रेडिएशन को पहचानने व पकड़ने का प्रशिक्षण दिया जाता है।
फिर भी दावों व हकीकत में काफी फर्क है। सूत्रों के मुताबिक कागजी काम ज्यादा है। आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के पूर्व सदस्य लेफ्टिनेंट कर्नल डॉ. जेआर भारद्वाज का कहना है कि दिल्ली में कभी तेज भूकम्प आया तो हालात बेहद भयावह होंगे। क्योंकि चाँदनी चौक सहित तमाम इलाकों मे चार से पाँच सौ साल पुरानी इमारतें तक हैं। इन तमाम इलाकों मे किसी आपदा की सूरत में पहुँचना लगभग असम्भव-सा है। लोकनायक जय प्रकाश नारायण अस्पताल के डॉ. तोलिया ने बताया कि अस्पताल में 40 बिस्तरों का वार्ड तो है पर इसमें एक समय में करीब सौ लोगों को राहत व इलाज दिया जा सकता है। फिर भी तमाम इलाकों में पहुँचना एक चुनौती है। सुश्रुत ट्रामा सेंटर में छह बिस्तर हैं जिन पर अमूमन 20 से 25 लोगों का इलाज किया जाता है। 2012 के बाद से स्थिति बेहतर हुई है।
एम्स का अपना ट्रोमा सेंटर है, जो पूरी तरह से इस तरह के हादसों के लिये आधुनिक सुविधाओं से युक्त है। फिर भी मरीजों का बोझ यहाँ आम दिनों में भी इतना रहता है कि सभी आने वालों को सामान्य दिनों में दाखिला नहीं मिल पाता। आरएमएल अस्पताल में भी ट्रामा सेंटर है। इसके अलावा आपदा वार्ड है। सफदरजंग अस्पताल में भी आपदा वार्ड है पर चिकित्सकों ने कहा कि आपदा के लिहाज से जरूरी संसाधन हर समय उपलब्ध नहीं रहते।
फरीदाबाद में नियमों को ताख पर रखकर बन रही हैं बहुमंजिली इमारतें
बीते दस साल से बहुमंजिली रिहायशी इमारतें बनाने की होड़ में लगे फरीदाबाद के बिल्डरों को हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण ने मनमानी की खुली छूट दे रखी है। ग्रेटर फरीदाबाद के नाम से विकसित हो रहे नए शहर में बहुमंजिली इमारतों के निर्माण की गुणवत्ता के लिये कोई मापदण्ड नहीं है। हालांकि सभी इमारतें नेशनल बिल्डिंग कोड के दिशा-निर्देशों के तहत बनाना अनिवार्य है पर इसकी पालना के लिये प्रशासन ने किसी विभाग की जिम्मेवारी निर्धारित नही की है।
बहुमंजिली इमारतों को बिल्डर कम्पनी के इंजीनियर ही सेल्फ सर्टिफाइड नियम के तहत खुद ही नक्शा पास कर देते हैं। जिला शहरी योजनाकार मात्र इसी सर्टिफाइड को आधार मानकर नक्शा पास कर देते हैं। फरीदाबाद और गुड़गाँव में इन दिनों बहुमंजिली इमारतों का जंगल खड़ा हो गया है। एक जानकारी के मुताबिक फरीदाबाद में 750 से ज्यादा बहुमंजिली इमारतें बनकर तैयार हैं। करीब इतनी ही इमारतें निर्माणाधीन हैं। इनके अलावा हरियाणा सरकार की अफोर्डेबल स्कीम के तहत प्रदेश में करीब 800 से ज्यादा लाइसेंस जारी किये हैं। इनमें अकेले फरीदाबाद में एक दर्जन प्रोजेक्ट अफोर्डेबल हाऊसिंग स्कीम के तहत बन रहे हैं।
फरीदाबाद जिले में दो तरह की जमीन है। फरीदाबाद के पूर्व में नहर पार की जमीन रेतीली और थलथली है। वहीं पश्चिम अरावली की पहाड़ियाँ हैं, इन पहाड़ियों पर बहुमंजिली इमारतें थोड़ी बेहतर सुरक्षा स्थिति में हैं। दूसरी तरफ पूर्व में यहाँ कभी यमुना बहती थी जो कालान्तर में सरकते-सरकते 10 से 20 किलोमीटर उत्तर प्रदेश की तरफ चली गई है। ग्रेटर फरीदाबाद का विकास इसी थलथली जमीन पर हो रहा है। इस जमीन पर नौ से 20 मंजिली रिहायशी इमारतें बनाई जा रही हैं। यहाँ करीब 500 से ज्यादा बहुमंजिली इमारतें तैयार खड़ी हैं। करीब 100 से ज्यादा इमारतों में तो लोग रह रहे हैं।
यमुना के इस पठार में नेशनल बिल्डिंग कोड के तहत भूकम्परोधी बहुमंजिली इमारत होने का दावा प्रशासन और बिल्डर कर रहे हैं पर इसका पुख्ता प्रमाण किसी के पास नहीं है। जिला उपायुक्त चन्द्रशेखर ने नगर निगम कमिश्नर और हुडा के सम्पदा अधिकारी से जानकारी चाही तो वह पुख्ता नियमों की जानकारी नहीं दे पाये।
मालूम हो 2013 में एसआरएस सोसायटी सेक्टर 87 में स्कूल की एक निर्माणाधीन बहुमंजिली इमारत थलथली जमीन में समा गई थी। हालांकि हादसे के वक्त मजदूरों के परिवार बच्चे समेत करीब 62 लोग इसमें मौजूद थे पर राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन बचाव का दल मात्र सात लोगों की लाशें ही निकाल पाया था। इस हादसे के बाद तत्कालीन उपायुक्त बलराज सिंह ने लोगों के गुस्से को शान्त करने के लिये एक कमेटी बनाई थी। इसके अलावा एसडीएम की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय निगरानी कमेटी भी बनाई गई थी जिसका काम बहुमंजिली इमारत के निर्माण सामग्री की गुणवत्ता जमीन की जाँच और नेशनल बिल्डिंग कोड के अमल पर नजर रखना था पर इनके कमेटियों की आज तक कोई मीटिंग ही नहीं हुई है। थलथली जमीन पर बनी भूकम्प निरोधी इमारतें भूकम्प का झटका तो सह जाएँगी पर जमीन में धँसने से इन्हें बचाया नहीं जा सकेगा।
अग्निशमन विभाग के पास बहुमंजिली इमारतों में हादसे होने की सूरत में पुख्ता और आधुनिक नवीनतम सुरक्षा उपकरण नहीं है। इस सिलसिले में नगर निगम आयुक्त अदित्य दहिया ने बताया कि बहुमंजिली इमारतों का निर्माण कायदे कानून के तहत ही किया जा रहा है।
गुड़गाँव बेफिक्र नहीं है भूकम्प के खतरों से
पिछले काफी समय से थोड़े-थोड़े अन्तराल पर दिल्ली-एनसीआर में भूकम्प के झटके महसूस किये गए हैं। गुड़गाँव शहर को अति संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है। इस शहर में बहुमंजिली इमारतें बड़ी संख्या में हैं। जब भी भूकम्प आता है हजारों परिवार खतरे में आ जाते हैं भूकम्प आने की स्थिति में जिला प्रशासन गुड़गाँव की सामान्य तरह की तैयारी है। अन्य जगहों की तरह ही यहाँ जिला आपदा संस्थान का गठन किया गया है।
आपदा प्रबन्धन से जुड़े अधिकारी रोबिन अग्रवाल ने बताया कि अतिरिक्त उपायुक्त प्रबन्धन के सीइओ हैं और एसडीएम, तहसीलदार, फायर अधिकारी, हुडा के वरिष्ठ अधिकारी, पुलिस वरिष्ठ अधिकारी, नगर निगम अधिकारी इसके सदस्य व घटना कमांडर होते हैं। अग्रवाल ने बताया कि समय-समय पर अकस्मात आये भूकम्प से निपटने के लिये जिला स्तर पर अभ्यास होता रहता है। उन्होंने बताया कि गत दिनों इसी शृंखला में गुड़गाँव के आईटीआई कैम्पस, राइट भवन, पावर ग्रिड रिहायशी क्षेत्र, गोल्ड सूक मॉल और मारूति प्लांट में मॉक ड्रिल का अभ्यास किया गया। उन्होंने बताया कि उक्त कार्यक्रम राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान के साथ मिलकर किया गया। भूकम्प रोधक अधिकारी ने बताया कि किसी भी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिये तैयार हैं।
भूकम्प से रियल एस्टेट कारोबार भी काँपा
आशीष दुबे
नोएडा, 11 अप्रैल। गगनचुम्बी इमारतों के लिये मशहूर नोएडा और ग्रेटर नोएडा पर लगातार आ रहे भूकम्पों का असर ज्यादा पड़ रहा है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के इन दोनों शहरों की अर्थव्यवस्था रीयल एस्टेट पर टिकी है। देश की तीन दर्जन से ज्यादा नामचीन कम्पनियाँ यहाँ ऊँची इमारतों और बिल्डर फ्लैटों का निर्माण कर रही हैं। लेकिन लगातार आ रहे भूकम्पों ने इस व्यवसाय पर सीधा असर डाला है। दोनों शहरों दोनों इलाकों में निर्माणाधीन फ्लैट परियोजनाओं पर पड़ता है। इस इलाके के सिसमिक जोन-चार में होने की वजह से यहाँ भूकम्प का आशंका ज्यादा है।
रविवार को आये भूकम्प के बाद नोएडा के प्राधिकरण के अधिकारी शहर की इमारतों को लेकर फिक्रमन्द हो गए हैं। लिहाजा 2010 से पहले बनी 30 मीटर से ऊँची इमारतों का सेफ्टी ऑडिट कराने का फैसला लिया गया है। नोएडा इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट की निगरानी में यह ऑडिट कराया जाएगा। प्राधिकरण के बिल्डिंग सेल और प्लानिंग विभाग के अधिकारियों ने बताया कि 2010 से सभी मकान समेत ऊँची इमारतों में भूकम्प रोधी के इस्तेमाल को जरूरी कर दिया गया है। इसके लिये 30 मीटर से कम ऊँचाई वाली इमारत में स्ट्रक्चल इंजीनियर से प्रमाणित कराना जरूरी है। जबकि 30 मीटर से ज्यादा ऊँचाई वाली इमारतों में भूकम्परोधी तकनीक इस्तेमाल होने की पुष्टि आईआईटी से कराना अनिवार्य की गई है। लिहाजा 2010 के बाद 30 मीटर से ऊँची इमारतों के नक्शे को भूकम्परोधी तकनीक का इस्तेमाल करने के बाद ही मंजूरी मिल रही है।
प्राधिकरण के शहर नियोजक ए मिश्र ने बताया कि सेक्टरों में बनने वाली सभी मकान और बहुमंजिला इमारतों में भूकम्परोधी तकनीक अपनाई गई है। अलबत्ता गाँवों की आबादी या अवैध कॉलोनियों में बने ऊँचे मकान भूकम्प के लिहाज से खतरनाक हैं।
नाम न छापने की शर्त पर एक नामी रीयल एस्टेट कम्पनी के अधिकारी ने बताया कि रविवार को एक बहुमंजिला बिल्डिंग में तीन फ्लैटों की बुकिंग कराने खरीददार आये थे। सब कुछ तय होने पर सोमवार को 10 फीसद बुकिंग धनराशि देनी थी। लेकिन रविवार शाम आये भूकम्प के बाद तीनों खरीददारों ने अब तक सम्पर्क नहीं किया है।
नोएडा के सेक्टर- 94, 151, 74 में 300 मीटर ऊँचाई वाली इमारतें बन रही हैं। भले ही इन इमारतों को तैयार होने में अभी दो साल का समय लगेगा, अलबत्ता भूकम्प आते ही इन इमारतों में फ्लैट बुक कराने वाले दहशत में आ गए हैं। हालांकि क्रेडाई का कहना है कि नोएडा और ग्रेटर नोएडा की बहुमंजिला इमारतों में भूकम्परोधी तकनीक अपनाई जा रही है। यह तकनीक रिक्टर स्केल पर नौ तीव्रता तक का भूकम्प आने पर भी इमारत और उसमें रहने वालों को नुकसान से बचाने में सक्षम है। इसलिये घबराने की जरूरत नहीं है।
उत्तर भारत की सबसे ऊँची इमारत भी नोएडा के सेक्टर-18 में तैयार हो चुकी है। वेव वन नाम की इस इमारत की ऊँचाई करीब 160 मीटर है। इसके अलावा 125-200 मीटर ऊँची आधा दर्जन अन्य इमारतें भी अगले एक साल में तैयार हो जाएँगी। शहर में करीब 150 से ज्यादा ऊँची इमारतों में लोग रह रहे हैं। जबकि 250 से ज्यादा इमारतें निर्माणाधीन हैं।
पूर्वी दिल्ली और नोएडा-ग्रेटर नोएडा का इलाका सिसमिक जोन-4 में आता है। सिसमिक जोन को जमीन के अन्दर चट्टानों की परतों में होने वाली हलचल के आधार पर तय किया जाता है। इस तरह के पाँच जोन होते हैं। सिसमिक जोन- 4 और 5 में भूकम्प के लिहाज से बेहद संवेदनशील इलाकों को शामिल किया गया है। सिसमिक जोन 4 के अलावा नोएडा और ग्रेटर नोएडा का का इलाका दो नदियों के बीच बसे होने की वजह से रेतीला इलाका है। दक्षिण भारत के ग्रेनाइट या पथरीली जमीन के चलते वहाँ भूकम्प का असर यहाँ के मुकाबले काफी कम होगा।
नोएडा मुख्य चिकित्साधिकारी कार्यालय में जूनियर इंजीनियर विजय कुमार ने दिल्ली आईआईटी से एमटेक (पर्यावरण) की पढ़ाई की है। वो फिलहाल आपदा प्रबन्धन विषय पर शोध कर रहे हैं। वो कहते हैं, ‘हिमालय के बनने की प्रक्रिया बहुत प्राचीन समय से लेकर आज तक जारी है। हिमालय को ऊँचा करने के दौरान टैक्टोनिक प्लेट्स आपस में टकराती हैं। इससे हिमालय की ऊँचाई बढ़ती है। प्लेट्स के टकराने से जमीन के अन्दर से निकलने वाली ऊर्जा भूकम्प के रूप में बाहर निकलती है। वो बताते हैं कि भूकम्प से होने वाला नुकसान भूकम्प के केन्द्र की गहराई पर निर्भर करता है, यानी जमीन के जितना अन्दर केन्द्र होगा, जमीन के ऊपर उतना ही कम नुकसान होगा। ऊपरी सतह पर आने वाले भूकम्पों की तीव्रता भले ही रिक्टर स्केल पर कम हो लेकिन नुकसान ज्यादा होता है।
विजय कुमार ने बताया कि नोएडा और ग्रेटर नोएडा की ज्यादातर जमीन रेतीली है। इस वजह से यहाँ भूकम्प आने पर यहाँ इमारतों के गिरने के बजाय धँसने की अधिक आशंका है। यानी भूकम्प आने पर इमारतें भरभराकर रेतीली जमीन में धँस जाएँगी। इससे नुकसान ज्यादा होगा। वैज्ञानिक रंजीत सिंह बताते हैं कि भूकम्प आने से पहले कम्पन की पहचान के लिये समूचे विश्व में प्रयोग किये जा रहे हैं। कुछ जीव जन्तुओं के भूकम्प आने से पहले असमान्य करने पर भी शोध चल रहा है।
नोएडा और ग्रेटर नोएडा के सिसमिक जोन-4 में आने के बाद 2010 से मकानों के निर्माण में भूकम्परोधी तकनीक अपनाने पर प्राधिकरण ने सख्ती की थी। नोएडा प्राधिकरण के अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी पीके अग्रवाल ने बताया कि शहर में ना केवल ऊँची इमारतें बल्कि मकान बनाने में भी भूकम्प रोधी तकनीक का इस्तेमाल अनिवार्य कर दिया गया है।
साल 2015 में नोएडा डिजास्टर रिस्पांस फोर्स का गठन किया गया था। आपदा प्रबन्धन के तहत गठित इस फोर्स को संकरी गलियों में ऊँची इमारतों की जाँच करने का काम सौंपा गया है। अनहोनी होने पर तुरन्त मदद पहुँचाने और खतरनाक इमारतों को चिन्हित करने का भी काम फोर्स में शामिल विशेषज्ञों को करना है।
नींव वाले मकान ज्यादा खतरनाक
आर्किटेक्ट और इंजीनियरिंग पहलुओं को नजरअन्दाज कर राज मिस्त्री की सलाह पर बनाए जाने वाले घरों को भूकम्प से ज्यादा नुकसान का खतरा है। नींव पर बने ऐसे मकान 7.5 से ज्यादा तीव्रता वाला भूकम्प नहीं झेल पाएँगे। ये मकान रेतीली जमीन में धँस सकते हैं। इसके अलावा घरों के बाहर निकले छज्जे भूकम्प आने पर सबसे ज्यादा खतरनाक होते हैं। हिंडन और यमुना नदी के किनारे बसी ज्यादातर कालोनियाँ भूकम्प के लिहाज से बेहद खतरनाक हैं।
रॉफ्ट फ्लोर तकनीक से बचाव सम्भव
भूकम्प रोधी इमारतें बनाने की नई तकनीक रॉफ्ट फ्लोर, नुकसान की रोकथाम में बेहद कारगर है। रॉफ्ट फ्लोर तकनीक में नींव के बजाय इमारत की पूरी सतह (बेस) को कंक्रीट से तैयार किया जाता है। इससे भूकम्प आने की दशा में इमारत का पूरा ढाँचा हिलता तो है, लेकिन धँसने का खतरा नहीं होता है। इस तकनीक का फायदा यह भी है कि तेज तीव्रता का भूकम्प आने पर रेतीली जमीन एक द्रव्य जैसा व्यवहार करने लगती है।
नोएडा और ग्रेटर नोएडा की बहुमंजिला इमारतों में भूकम्परोधी तकनीक अपनाई जी रही है। यह तकनीक रिक्टर स्केल पर नौ की तीव्रता तक का भूकम्प आने पर भी इमारत और उसमें रहने वालों को नुकसान से बचाने में सक्षम है। लिहाजा ऊँची इमारतों में रहने वालों को भूकम्प को लेकर घबराने की जरूरत नहीं है ... प्रतीक ग्रुप के सीएमडी और क्रेडाई (पश्चिम यूपी) के उपाध्यक्ष प्रशान्त तिवारी
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