भूकम्प का रहस्य और विज्ञान

Secrets and science of earthquake
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Secrets and Science of Earthquake

बीते दिनों नेपाल में लामजंग में आए विनाशकारी भूकम्प ने सबको दहलाकर रख दिया है। इसके चलते आजकल भूकम्प के कारणों पर बहस सर्वत्र चर्चा का मुद्दा बना हुआ है। यह भी कि आखिर इसका रहस्य क्या है। देखा जाए तो वर्तमान में प्लेट टेक्टॉनिक सिद्धान्त के बहाने भूकम्प का अनुमान एवं फिर आपदा प्रबन्धन की बात मृग मरीचिका मात्र है। जबकि सर्वत्र इसी की चर्चा है। क्योंकि अल्फ्रेड वेगनर की ‘कांटिनेंटल ड्रिफ्रंट थ्योरी’ से अभिप्रेरित प्लेट ‘टेक्टॉनिक थ्योरी’ भूकम्प के रहस्य को उजागर करने में पूर्णतः असमर्थ है।

यह भारत का दुर्भाग्य है कि हम ‘प्लेट टेक्टॉनिक थ्योरी’ के माध्यम से आने वाली पीढ़ी को आपदा प्रबन्धन का ‘गुर’ सिखाना चाहते हैं और अपनी प्राचीन ऋषि प्रज्ञा की अवहेलना कर बच्चों को यह पढ़ाने से कतई बाज नहीं आते कि आइजक न्यूटन द्वारा सेब के वृक्ष से सेब गिरते देखकर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त की खोज हुई। नतीजन ब्रह्माण्ड के महान रहस्य को उजागर करने वाले के रूप में उसकी पूजा होने लगी। हमने उस तथ्य को क्रूरता से मिटा दिया या भुला दिया जिस पर भारतीयों को गर्व होना चाहिए था कि ब्रह्माण्ड के महान रहस्य गुरुत्वाकर्षण की खोज सबसे पहले कम-से-कम पाँच हजार साल पहले भारतीयों ने की थी।

हम भीष्म पितामह एवं युधिष्ठिर संवाद में प्रयुक्त महाभारत के शान्तिपर्व अध्याय 261 में भीष्म द्वारा गुरुत्व एवं गुरुत्वाकर्षण के सन्दर्भ में युधिष्ठिर को पाठ पढ़ाए जाने वाले उस सन्दर्भ को भूल गए जब भीष्म पृथ्वी के गुणों को युधिष्ठिर को समझाते हैं-

‘‘भूमैः स्थैर्यं गुरुत्वं च काठिन्यं प्रसवात्मता।
गन्धो भारश्च शक्तिश्च संघातः स्थापना धृतिः।।’’


वाह! विडम्बना देखिए कि अल्बर्ट आइंस्टीन से ही भारतीयों ने जाना कि पिण्ड का रूपान्तरण ऊर्जा में और ऊर्जा का रूपान्तरण पिण्ड में होता है। (E=Mc2) इस ब्रह्माण्ड के ज्ञात और अज्ञात प्राणियों में इसका श्रेय भी सिर्फ भारतीयों को मिलना चाहिए। आज भी ब्रह्माण्ड के किसी भू-भाग पर प्राणी मृत्यु के बाद मनुष्य के रूपी मृत पिण्ड को ऊर्जा के स्रोतों द्वारा ऊर्जा में परिवर्तित करने का सिद्धान्त सिर्फ भारत में है।

मृत शरीर अग्नि में रूपान्तरित कर बहुत अल्प बचे शेष को पंचमहाभूतों में जल में प्रवाहित करने की परम्परा सिर्फ भारतीयों में ही है। ‘थ्योरीटिकल फिजिस्ट’ एवं नोबल पुरस्कार से सम्मानित मेसेच्युसेटस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी के वैज्ञानिक फ्रैंक विल्जेक ने अपनी खोजों द्वारा सिद्ध किया है कि 95 प्रतिशत पिण्ड द्रव्यमान जो हमें ज्ञात है, ऊर्जा का रूपान्तरण है। यह भारतीयों को हजारों साल पहले से मालूम था। इसलिये दुनिया में अकेले भारतीय मृत्यु के बाद मृत पिण्ड को ऊर्जा में रूपान्तरित करने की परम्परा एवं शेष जल में प्रवाहित करने पर आज भी अडिग हैं।

ग़ौरतलब है कि विश्व की आधारभूत परमसत्ता के दो नाम भारतीय परम्परा में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं- विज्ञान और ब्रह्म। प्रथम से स्वरूप स्पष्ट होता है एवं दूसरे से कार्यरूप विश्व का। भारतीय दर्शन में ब्रह्म किसी हाथ-पाँव, नेत्रवाली महती आकृति का नाम नहीं, वह विज्ञान को ही ब्रह्म स्वीकार करता है, उसकी ही उपासना और साधना करता है।

अतः विज्ञान ही उस मूल पदार्थ का स्वरूप लक्षण है, जो सम्पूर्ण रूप में अपने विश्वरूप लक्ष्य पदार्थ में व्याप्त है। कारण कार्य की लक्ष्यभूता अवस्थाओं में व्याप्त होती है, इसलिये विज्ञान विश्व का कारणभूत स्वरूप लक्षण है चाहे कालपुरुष हो या इतिहासपुरुष। विज्ञानघन महासत्ता से वह प्रकट होता है, उसमें ही उसकी कालयात्रा सम्पन्न होती है।

ब्रह्म उसी का सनातन कार्यरूप तटस्थ लक्षण विज्ञानघन महासत्ता का ही परिणाम व विकास है, विश्व की परमसत्ता के सन्दर्भ में- विज्ञानं ब्रह्ममेति व्याजानात् श्रुति का यही वैज्ञानिक तात्पर्य है- यह बृंह्णधर्मी निरतिशय वृहण् विस्तारोन्मुख परमतत्त्व ही ब्रह्म है, और इसकी निरतिशय बृह्णधर्मिता या प्रसारणधर्मिता ही उसका विज्ञान व वैज्ञानिक स्वरूप।

इस प्रसारणधर्मिता के विज्ञान से ही विश्व के कारणभूत भूतसमुदाय की सृष्टि होती है, विज्ञान में ही उनके अस्तित्त्व का नियमन होता है, और अन्त में उसमें ही उनका विलय हो जाता है। दुर्भाग्य से भारत में विज्ञान को धर्म एवं आध्यात्म का विरोधी तत्त्व ठहराया जाने लगा। जबकि इतिहास गवाह है कि मिथिलांचल एवं बनारस के ज्योतिषाचार्य सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण की पूर्व सूचना एवं उसका बिल्कुल सही समय-काल अपने पंचांग के माध्यम से कम-से-कम एक वर्ष पहले प्रकाशित किया करते थे।

लेकिन वे कभी न तो इसरो और न ही ‘नासा’ से कोई डाटा (आँकड़े) प्राप्त करते। वे आखिर बिना विज्ञान के कैसे सही तथ्य पेश करते? यह सत्य है कि ऋषि परम्परा के समक्ष विश्व की विज्ञानघन महासत्ता का कोई भी तत्त्व अलक्षित नहीं था। उसने महाकाल की सीमा को लांघकर सृष्टि के परम वैज्ञानिक रहस्यों को जाना है।

भूकम्प के सन्दर्भ में ‘कांटिनेंटल ड्रिफ्ट’ सिद्धान्त के महान उपदेशक अलफ्रेड वेगनर ग्रीनलैण्ड से बहुत अभिभूत थे और उसी वियावान बर्फीले रेगिस्तान में उनकी दुःखद मृत्यु भी हुई। वहाँ उन्होंने देखा था कि जल के ऊपर बर्फ के विशालकाय चट्टानें तैरा करती हैं। उन्होंने उससे प्रेरणा पाकर दुनिया को बताया कि पृथ्वी के विशालकाय भूखण्ड ट्रीलियन, ट्रीलियन द्रव्यमान के भी ऊपर नाव की तरह मैग्मा के ऊपर तैरते हैं। यह सिद्धान्त 1921 में इंग्लैंड पहुँचा और फिर अमेरिका।

1970 के दशक तक अमरीका इस सिद्धान्त को नकारता था। फिर अमरीकी युवा मेरिन जियोफिजिस्ट दल ने इस सिद्धान्त पर अपनी मुहर यह कहकर लगाई कि इण्डिया उत्तर की ओर और अमरीका पश्चिम की ओर ग्लाइड कर रहा है और इसका कारण समुद्री सतहों में निरन्तर प्रसरण है। इस प्रकार ‘प्लेट टेक्टॉनिक सिद्धान्त’ का जन्म हुआ और भूकम्पीय खतरे की दृष्टि से भारत समेत कई राष्ट्रों में भू-प्लेट के खिसकाव के आधार पर खतरे की समीक्षा कर जोनों में बाँटा जाने लगा।

18 अप्रैल, 1906 में सेन फ्रांसिस्को के सेन एंड्रियास फाल्ट में आए भीषण भूकम्प के कारण ज़मीनी खिसकाव जो मात्र कुछ मीटरों में ही था, को मानकर लगभग साठ वर्ष बाद ‘प्लेट टेक्टॉनिक सिद्धान्त’ का अमरीका ने डंका बजाना शुरू किया। ठीक वैसा ही जैसा ब्लैक होल की ग्राण्ड मिस्ट्री का डंका बजाया गया।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक कैप्लर की सुनिश्चित मान्यता थी कि पृथ्वी 6,000 वर्ष पूर्व निर्मित हुई है। विश्व के जाने माने वैज्ञानिक कार्लसैगन ने अपनी पुस्तक ‘द कास्मॉस’ के पृष्ठ 81 में इसका उल्लेख किया है। कार्ल सैगन भारत की प्राचीन महान वैज्ञानिक उपलब्धियों को जानकर आश्चर्यचकित थे। यह भी कि एस्ट्रोफिजिक्स की पढ़ाई प्रमाणिक तौर पर भारत में महाभारत काल में ही होती थी। भगवान कृष्ण के गुरू एवं भ्राता घोर आंगिरस (नेमीनाथ) ब्रह्माण्ड विज्ञान के महान द्रष्टा थे।

उस समय वर्तमान बनारस ब्रह्माण्ड विद्या का प्रमुख केन्द्र था। श्री कृष्ण ने स्वयं उनके सान्निध्य में रहकर खगोलविज्ञान का अध्ययन किया था। जबकि यूरोप और अमरीका की वैज्ञानिक उपलब्धि मात्र 500 वर्षों के अन्दर की है। विश्व की महान खोजों में प्रकाश की गति के सन्दर्भ में प्रथम खोज का श्रेय वैज्ञानिक रोमर की 1675 की खोज को जाता है। 1887 में माइकलसन और मोरले के अधुनातम् प्रयोग के अनुसार प्रकाश की गति 1,86,000 प्रति सेकेण्ड है। लेकिन प्रकाश की गति के सन्दर्भ में भारतीयों को हजारों साल पहले जानकारी थी। कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय ब्राह्मण के दिवोक्म मन्त्र के भाष्य में आचार्य सायण ने सूर्य को नमस्कार करते हुए इसका उल्लेख किया है-

‘‘योजनानां सहस्त्रे द्वे द्वे शते द्वे च योजने।
एकेन निमिषार्द्धेन क्रममाण नमोस्तु ते।।’’


अर्थात् प्रकाश अर्द्ध निमेष में 2202 योजन जाता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार 1 योजन 9 मील का होता है। 8000 धनुष का 1 योजन होता है-1 धनु में 6 फूट होते हैं- इसी आधार पर 1 योजन से 9 मील का मापदण्ड है। 1 निमेष 16/75 सेकेण्ड का है। इस गणना के अनुसार प्रकाश का वेग 1,87,670 मील प्रति सेकेण्ड होता है। प्रकाश की गति के सन्दर्भ में माइकलसन मूरलो एवं भारतीय गणना के बीच प्रार्थक्य नगण्य है।

वर्षों पहले वराहमिहिर ने सूर्यग्रहण और सोलर तूफान से जुड़े स्पॉट का अध्ययन भूकम्प की दृष्टि से किया था। सूर्य ग्रहण को उन्होंने भूकम्प के कारणों में माना था। बाद में अमरीकी अन्तरिक्ष विज्ञान केन्द्र कार्यक्रम ‘नासा’ ने 200 से ज्यादा भूकम्पों पर किए अनुसन्धान के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि सूर्यग्रहण भूकम्प के महत्त्वपूर्ण कारणों में है। इस तथ्य को आज तक नकारा नहीं जा सका है। भारतीयों के लिये यह गर्व की बात है।
 

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Post By: RuralWater
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