भूजल विषाक्तता और फिल्टर (Groundwater toxicity and Filter)


आर्सेनिक एक भयंकर विष है जिसकी जल में अनुमत मात्रा भारतीय मानक के अनुसार 0.05 मिलिग्राम प्रति लीटर मानी गई है यद्यपि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह और भी कम, 0.01 मिलिग्राम होनी चाहिए। सामान्यतः आर्सेनिक अपने जाने-माने यौगिक संखिया के रूप में ही उपस्थित होता है। अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में लगातार ग्रहण किये जाने पर यह मुख्यतः बालों और नाखूनों में एकत्र होने लगता है। बाल झड़ने लगते हैं और हाथ पैरों में पीड़ा रहने लग जाती है। वैसे इसका एकत्रीकरण हड्डियों तथा यकृत में भी होता है।

जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। समस्त जीव जगत का आधार ही जल है। शरीर के अन्दर चलने वाली जैवरासायनिक प्रक्रियाएँ तो पूर्णरूप से रुक ही जाएँगी यदि मनुष्य जल ग्रहण करना बन्द कर दे। परन्तु विश्व के अनेक देश जिनमें हमारा भारत भी है, जल के अभाव की समस्या से जूझ रहे हैं। कहना न होगा कि इस समय भारत में विश्व की 17 प्रतिशत आबादी का निवास है यद्यपि जल केवल चार प्रतिशत ही है।

यही नहीं शहरीकरण और बढ़ते उपयोग ने जल की माँग और बढ़ा दी है। यह एक तथ्य है कि बहुसंख्य भारतीय तो भूजल के दोहन और उसके उपयोग पर ही आश्रित हो गए हैं। परन्तु औद्योगिक अपशिष्ट एवं मलजल के कारण अब यह गम्भीर रूप से प्रदूषित हो रहा है। भूजल स्तर कम होने के कारण अनेक प्रदेशों में हानिकारक तत्वों की सान्द्रता भी इसमें बढ़ती जा रही है।

दिसम्बर 2014 में डॉ. मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में एक संसदीय पैनल ने जो रिपोर्ट दी उसके अनुसार देश के दस राज्यों के 86 जिलों का भूजल अत्यधिक प्रदूषित हो चुका है। पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक जैसे विष की बहुत बड़ी समस्या है। पिछले वर्ष जारी की गई केन्द्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि 10 राज्य आर्सेनिक 20 फ्लोराइड तथा 15 लेड, कैडमियमऔर क्रोमियम जैसी भारी धातुओं की विषाक्तता से ग्रस्त हैं। हरियाणा जैसे छोटे राज्य में भी 18 जिलों के भूजल में फ्लोराइड, 13 में आर्सेनिक और 16 में लौह अनुमत स्तर से कहीं अधिक मात्रा में उपस्थित पाये गए हैं।

इस दृष्टि से भूजल विषाक्तता के लिये उत्तरदायी इन तत्वों की चर्चा समीचीन होगी। इस लेख में मुख्यतः अत्यधिक समस्यामूलकआर्सेनिक, फ्लोराइड और लौह की ही चर्चा की जा रही है। आर्सेनिक एक भयंकर विष है जिसकी जल में अनुमत मात्रा भारतीय मानक के अनुसार 0.05 मिलिग्राम प्रति लीटर मानी गई है यद्यपि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह और भी कम, 0.01 मिलिग्राम होनी चाहिए।

अब संसदीय पैनल की ऊपर बताई गई रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि भारत में भी मात्रा 0.05 से कम की जानी चाहिए। सामान्यतः आर्सेनिक अपने जाने-माने यौगिक संखिया (ट्राइऑक्साइड) के रूप में ही उपस्थित होता है। अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में लगातार ग्रहण किये जाने पर (जैसे भूजल को पीने से) यह मुख्यतः बालों और नाखूनों में एकत्र होने लगता है। बाल झड़ने लगते हैं और हाथ पैरों में पीड़ा रहने लग जाती है। वैसे इसका एकत्रीकरण हड्डियों तथा यकृत में भी होता है।

मात्रा बहुत अधिक हो जाने पर आर्सेनिक रक्त की लाल कणिकाओं (हीमोग्लोबिन) को नष्ट करने लगता है, हृदगति मन्द कर देता है, रक्तचाप गिरा देता है, पेट में ऐंठन, डायरिया और अन्तड़ियों में रक्तस्राव उत्पन्न करता है। अत्यधिक मतली और उल्टियाँ भी इसके लक्षण हैं।

फ्लोराइड मारक तो नहीं होता परन्तु मनुष्य को विकलांग अवश्य बना सकता है। जल में इसकी अधिकतम मात्रा केवल एक पीपीएम (जल के दस लाख अणुओं में एक) मानी गई है। फ्लोराइड से उत्पन्न विकलांगता को फ्लोरोसिस कहा जाता है।

प्रतिदिन 20-80 मिलीग्राम फ्लोराइड ग्रहण करने से दाँतों में काले दाग बन जाते हैं और हड्डियों में पीड़ा रहने लग जाती है। हाथ पैर टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं और जोड़ों का लोच समाप्त हो जाता है। स्मरणीय है कि हरियाणा के अतिरिक्त राजस्थान, छत्तीसगढ़ (15 जिले) और मध्य प्रदेश (12 जिले) भी फ्लोराइड से बुरी तरह ग्रस्त हैं।

वैसे तो लौह शरीर के लिये एक अत्यन्त उपयोगी तत्व है क्योंकि रक्त का निर्माण ही इसके माध्यम से होता है, परन्तु इसका आधिक्य स्वास्थ्य के लिये हानिकर ही ठहरता है। वास्तव में शरीर को प्रतिदिन लगभग एक मिलिग्राम लौह की ही आवश्यकता होती है। अधिक लोह शरीर के विभिन्न अवयवों में एकत्रित होने लगता है। यदि फेफड़ों में ऐसा हो जाये तो सिडरोसिस रोग उत्पन्न होता है जो साँस लेना ही दुश्वार कर देता है। यद्यपि बहुधा ऐसा धात्विक लौह की धूल को श्वास द्वारा ग्रहण करने पर हीहोता है। यकृत में एकत्रण सिरोसिस पैदा करता है और हाथ-पैरों की मांसपेशियों में होने से मनुष्य गठिया का रोगी हो जाता है।

अत्यधिक मात्रा केन्द्रीय नाड़ी संस्थान को गम्भीर क्षति पहुँचाती है और मनुष्य को डिमेन्शिया की गोद में डाल सकती है। यद्यपि यह प्रभाव बिरला ही देखने को मिलता है। भूजल में फ्लोराइड एवं धात्विक तत्वों (आयन एवं विलयशील यौगिक) के मिश्रण के अतिरिक्त महीन रेत तथा मिट्टी के कण तथा हानिकारक बैक्टीरिया भी उपस्थित हो सकते हैं।

इन सब को विलग कर जल को शुद्ध करने के लिये बाजार में फिल्टर उपलब्ध हैं। सामान्य फिल्टर में अत्यन्त सूक्ष्म छिद्रों वाली कैंडल होती है जो मिट्टी आदि को रोक लेती है। इसके छिद्र इतने सूक्ष्म होते हैं कि अधिकांश बैक्टीरिया भी उन्हें पार नहीं कर पाते। इनसे निकला जल सक्रिय चारकोल से गुजारा जाता है जो उसमें यदि कोई दुर्गन्ध आदि (क्लोरीन की गंध भी) हो तो समाप्त कर देता है।

जल के रहे-सहे बैक्टीरिया को पराबैंगनी किरणों की सहायता से समाप्त कर दिया जाता है। कुछ अत्यन्त सामान्य से फिल्टरों में यह सुविधा नहीं भी होती। साधारणतः पराबैंगनी किरणों वाले फिल्टर भी धात्विक आयनों को नहीं निकाल पाते और घरों में पाइप से उपलब्ध होने वाले जल के लिये ही ठीक रहते हैं। धात्विक आयनों से मुक्ति पाने के लिये (और इसीलिये विशेषकर भूजल के लिये) आर.ओ. अधिक उपयुक्त रहता है।

आर.ओ. में एक अत्यन्त पतली-सेलोफेन की मोटाई की झिल्ली (मेम्ब्रेन) भी होती है जिससे अधिकांश धातुओं का निकल जाना दुष्कर रहता है और पीने के लिये जल यथेष्ट शुद्ध अवस्था में प्राप्त हो जाता है। स्मरणीय है कि भूजल की आर्सेनिक जैसी कुछ अशुद्धियाँ फिर भी काफी मात्रा में शेष रह जाती हैं और फ्लोराइड तो पानी में बना ही रहता है।

बाजार में उपलब्ध उपरोक्त सभी प्रकार के फिल्टर काफी महंगे होते हैं और अधिकांश जनता उनका लाभ उठाने से वंचित ही रह जाती है। परन्तु अब वैज्ञानिकों ने कुछ सस्ते फिल्टर भी विकसित कर लिये हैं और आशा है कि कुछ वर्षों के बाद वे भी बाजार में आ जाएँगे।

पहली विधि वर्ष 2014 के प्रारम्भ में प्रकाश में आई। इसे विकसित करने का श्रेय अमेरिका के प्रसिद्ध शिक्षण एवं शोध संस्थान एम.आई.टी. के वैज्ञानिकों को जाता है। सम्बन्धित शोध पत्र में दिये गए तथ्यों के अनुसार वृक्षों के तने में उपस्थित जाइलेम कोशिकाओं की सहायता से दूषित जल को रंगहीन, गन्धहीन एवं निर्जर्मीकृत किया जा सकता है। इन कोशिकाओं के माध्यम से हीवृक्ष में जल एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचता रहता है।

शोधकर्ताओं के अनुसार जाइलेम आधारित फिल्टर सस्ते और कार्यक्षम होंगे यद्यपि तकनीक को अपेक्षित रूप से उन्नत बनाने में अभी 2-3 वर्षों का समय लग सकता है। दूसरी विधि भी इसी साल में आगे प्रतिष्ठित ‘नेचर’ समूह के ही जर्नल ‘साइंटिफिक रिपोर्ट्स’ में प्रकाशित एक शोध पत्र के माध्यम से प्रकाश में आई है जिसके लेखकों के नायक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी)-मद्रास के रसायन विभाग के प्रोफेसर प्रदीप है।

इस विधि में दूषित जल के शोधन का आधार उसमें अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में मिलाए जाने वाले सिल्वर एवं कार्बोनेट आयन हैं। आवश्यक मात्रा इतनी कम होती है कि वह पीने के पानी में अनुमत सीमा का अतिक्रमण नहीं करती। 25 पीपीबी की मात्रा में मिलाए गए सिल्वर आयन पानी में उपस्थित बैक्टीरिया लोड को एक लाख गुना तक तथा वायरस लोड को एक हजार गुना तक कम करने में समर्थ सिद्ध हुए हैं। इन आयनों की इतनी कम मात्रा की आवश्यकता के कारण इन पर आधारित फिल्टर निश्चित ही महंगे नहीं होंगे।

इस तकनीक के पूर्ण विकास में अभी कुछ समय लगेगा। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-खड़गपुर के वैज्ञानिकों ने अभी कुछ समय पूर्व ही भारत के अनेक भागों में सरलता से उपलब्ध लाल मिट्टी (लैटेराइट) पर आधारित एक अत्यन्त सस्ते फिल्टर को बनाने में सफलता प्राप्त की है। लैटेराइट की परत आर्सेनिक को पूरी तरह रोकने में सक्षम पाई गई है और यह लोहे को भी अलग कर सकती है। इनके अतिरिक्त यह नया फिल्टर जल को निर्जमीकृत भी कर सकेगा और उसे गंधहीन भी बना सकेगा।

भूजल की आर्सेनिक विषाक्तता से छुटकारा पाने की दृष्टि से यह निश्चित रूप से एक क्रान्तिकारी अनुसन्धान है और इसीलिये पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेशों के लिये वरदान भी। कुछ ही समय में सम्भवतः यह बाजार में उपलब्ध हो जाएगा। कहना न होगा कि भूजल भारत के विकास में अत्यावश्यक भूमिका निभा रहा है। परन्तु उपयोग के पूर्व इसका शुद्धिकरण आवश्यक है ताकि स्वास्थ्य उत्तम बना रहे। भूजल दोहन की सीमा भी नियत कर देनी चाहिए तथा उद्योगों को बस्ती से दूर रखना श्रेयस्कर होगा।

डॉ. ओम प्रभात अग्रवाल (पूर्व अध्यक्ष, रसायन विभाग, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक तथा पूर्व अध्यक्ष, रसायन खण्ड, इण्डियन साइंस कांग्रेस एवं पूर्व सदस्य, केन्द्रीय हिन्दी समिति, भारत सरकार), श्री वेंकटेश भवन, 445-बी, देव कॉलोनी, रोहतक-124001

ई-मेलः omprabhatagarwal1938@gmail.com



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