कृषि, पशु-पालन, उद्योग-धंधों तथा पेयजल हेतु नदी जल व भूजल का ही सर्वाधिक उपयोग हो रहा है। उक्त उपयोगार्थ नदी जल से पर्याप्त पूर्ति न होने के फलस्वरूप भूजल का पर्याप्त दोहन किया जाता है। फलतः भूजल स्तर 1 से 1.5 प्रतिवर्ष के हिसाब से नीचे गिरता जा रहा है। परिणामस्वरूप भूजल के ऊपरी जल स्रोत सूख रहे हैं अतः जल की आवश्यकता की पूर्ति हेतु भूजल के निचले एवं गहरे जल स्रोतों का दोहन किया जा रहा है, इनमें अधिकांश जल लवणीय गुणवत्ता का मिल रहा है। हमारी अनादिनिधना, अक्षुण्ण व दिव्य भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही जल व कृषि दोनों का ही पर्याप्त स्थान व महत्व रहा है। जहां हमारे प्रचीनतम साहित्य वेदों व कालांतर में अष्ठादश पुराणों के कथा-प्रसंगों के अनुसार एक ओर हमारी समूची सृष्टि को क्षीरसागर में शयन करने वाले भगवान श्रीमन्नारायण के नाभिकमल से उत्पन्न, श्री ब्रह्माजी द्वारा रचित व सृजित माना जाता है, वहीं भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा लोकरक्षण व कृषि-संस्कृति के उन्नयन से संबंधित विविध अनुपम प्रसंग हमारे अष्ठादश पुराणों में यत्र-तत्र-सर्वत्र प्राप्त होते हैं। जहां एक ओर शापित सगर पुत्रों व संपूर्ण मानव-मात्र के कल्याणार्थ महाराज भगीरथ द्वारा पावन सलिला गंगा को धराधाम पर अवतरित कराने का प्रसंग शताब्दियों से हमारे मानस-पटल पर अंकित होता आया है, वहीं दूसरी ओर महाराज जनक द्वारा सपत्नीक कृषि-कर्म करते समय प्राप्त पुत्री अवनिसृता जगज्जननी माता सीता को संपूर्ण जगत् के जन्म, पालन व संहार का कारण बताते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी ने उनकी निम्न श्लोक द्वारा वंदना की है-
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीं।
सर्वेश्रेयस्करीं सीतां नतोहं रामवल्लभाम्।।
-मानस, बालकांड,5
किसी सुविख्यात लेखक ने कृषि को किसी राष्ट्र के उन्नयन का मूल व दृढ़ आधार माना है-
कृपा कृष्ण की हलधर का हल,
कर्मभूमि पर नूतन हल चल...।
किंतु इनके महत्व को अविच्छिन्न बनाए रखने हेतु हमें आधुनिक परिवर्तनशील पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में इनके (कृषि-संपदा व जल-संपदा के) संरक्षण पर पुनर्विचार करना होगा। विशेषकर आधुनिक समय में उत्पन्न भूजल संकट से जिस चिंताजनक स्थिति का जन्म हो रहा है, वह संपूर्ण मानव समाज के लिए प्रतिकूल होने के साथ ही हमें यह सोचने पर विवश करती है कि भारत व समूचे विश्व के वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों व समाजशास्त्रियों द्वारा इस दिशा में पर्याप्त चिंतन व जागृति फैलाने की परम आवश्यकता है।
जल को जीवन का पर्याय माना जाता है। सुप्रसुद्ध गीतकार व संगीतकार रवींद्र जैन ने एक ही वाक्य में यह सिद्ध कर दिया है। उनका कथन है-
जल जो न होता तो, ये जग जाता जल।
संपूर्ण जीवधारियों अर्थात् मनुष्य पशु-पक्षियों व वृक्ष-लताओं के शरीर का लगभग 90 प्रतिशत भाग जल-निर्मित है। जीवन की समस्त क्रियाओं हेतु जल की परम आवश्यकता है। जलाभाव में इन क्रियाओं का निष्पादन सर्वथा असंभव ही है। भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से इस पृथ्वी का ¾ भाग जलावृत्त है, जिसके पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल राशि का 97 प्रतिशत भाग मौजूद है। किंतु वह जल अत्यधिक लवणयुक्त होने के कारण सुपेय नहीं है, न ही उपयोगी है। पृथ्वी का शेष ¼ भाग भू-आच्छादित है। इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्राप्त जानकारी के आधार पर भूमि पर कुल पानी की मात्रा का केवल 3 प्रतिशत भाग ही उपलब्ध है। वैज्ञानिकों का मत है कि पानी की यह मात्रा हिमाच्छादित हिमशिखरों पर बर्फ के रूप में, नदियों में, भूजल के रूप में तथा वायुमंडल में वाष्प के रूप में विद्यमान रहती है।
वर्तमान में कृषि, पशु-पालन, उद्योग-धंधों तथा पेयजल हेतु नदी जल व भूजल का ही सर्वाधिक उपयोग हो रहा है। उक्त उपयोगार्थ नदी जल से पर्याप्त पूर्ति न होने के फलस्वरूप भूजल का पर्याप्त दोहन किया जाता है। फलतः भूजल स्तर 1 से 1.5 प्रतिवर्ष के हिसाब से नीचे गिरता जा रहा है। परिणामस्वरूप भूजल के ऊपरी जल स्रोत सूख रहे हैं अतः जल की आवश्यकता की पूर्ति हेतु भूजल के निचले एवं गहरे जल स्रोतों का दोहन किया जा रहा है, इनमें अधिकांश जल लवणीय गुणवत्ता का मिल रहा है। इसके कारण मृदा स्वास्थ्य खराब होने के कारण फसलोत्पादन व मानव स्वास्थ्य पर इसके अवांछित परिणाम स्पष्ट अनुभव किए जा रहे हैं। इसके साथ ही पानी के भूमि से निकालने की लागत मे वृद्धि से फसल की उत्पादन लागत बढ़ती जा रही है।
अतः आज हमारे समक्ष यह विचारणीय प्रश्न है कि हम अपने भूजल स्रोतों को किस प्रकार सुरक्षित रखकर कृषि, मानव व पशुधन के स्वास्थ्य को सुरक्षित बनाए रखें। विज्ञानवेत्ता मानते हैं कि निःसंदेह ‘पौधों का प्रथम भोज्य’ जल ही है। अतः जल संरक्षण सर्वोपरि है। जल के प्रत्येक बूंद का हमारे जीवन व हमारी कृषि संपदा रक्षण में बड़ा महत्व है।
इस समय देश के सभी भागों में जल-स्तर दिन-पर-दिन गिरता जा रहा है। जिसके लिए निम्न कारण जिम्मेदार बताए जाते हैं-1. अधिक उत्पादन और कम पानी चाहने वाली फसल-प्रजातियों का प्रादुर्भाव- फसलों की नवीनतम बौनी एवं संकर प्रजातियों में सिंचाई जल की अधिक आवश्यकता होता ही। इन प्रजातियों में अधिक उत्पादन हेतु अधिक मात्रा में पोषण-तत्वों की आवश्यकता होती है, जिसकी पूर्ति रासायनिक उर्वरकों द्वारा की जाती है, परिणामस्वरूप अधिक सिंचाई जलावश्यकता के चलते अधिक मात्रा में भूजल का दोहन या नदियों एवं नहरों के पानी का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है, जो भूजल स्तर के पतन के मूल रूप से उत्तरदायी है।
2. अधिक पानी चाहने वाली नकदी फसलों का उगाया जाना- वर्तमान में हम कृषि के मूलभूत सिद्धांत ‘फसल चक्र’ (Crop Rotation) को प्रायः विस्मृत करते जा रहे हैं। अतः हमारे कृषक बंधु केवल अधिक मात्रा में धनार्जन की इच्छा से अधिक पानी चाहने वाली नकदी व अन्य फसलों जैसे-आलू, गन्ना, धान, गेहूं इत्यादि का अधिकाधिक उत्पादन कर रहे हैं। परिणामस्वरूप इन उत्पादों हेतु अधिक सिंचाई जल की आवश्यकता की पूर्ति की इच्छा से भूजल का दोहन हो रहा है, किंतु दुःख का विषय है कि इसके फलस्वरूप गिरते भूजल स्तर पर बहुत कम लोगों का ध्यान है।
3. बाढ़ सिंचाई विधि का प्रयोग करना- आजकल कृषि के यंत्रीकरण के फलस्वरूप जल के दोहन में अंधाधुंध वृद्धि हो रही है, क्योंकि पंपसेट व ट्यूबवेल द्वारा कम लागत व कम समय में अधिक जल बाहर निकाला जाता है, जिसके कारण हमारे कृषक कृषि फसलों में बाढ़ सिंचाई (Flood Irrigation System) का प्रयोग करते हैं, अतः इससे भूजल स्तर अधिक तीव्र गति से पतन को प्राप्त हो रहा है।
इनके अतिरिक्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारणों की संक्षिप्त चर्चा अनिवार्य है-
1. जीवांश खाद (Organic Maures) के प्रयोग का अभाव- जीवांश खादों का प्रयोग न करने से मृदा में उपलब्ध जीवांश कार्बन की मात्रा 0.0 प्रतिशत से 0.5 प्रतिशत के बीच रह गई है, जबकि स्वस्थ मृदा के लिए जीवांश कार्बन की मात्रा 0.8 प्रतिशत से अधिक होनी चाहिए। खेद का विषय है कि मृदा की जल धारण क्षमता घटाने के कुप्रभाव से भूजल का दोहन हो रहा है।
2. भूजल का रिचार्ज न किया जाना- सामान्यतः हरित क्रांति 1966-67 के पश्चात् उच्च उपज हेतु अधिक जल की मांग के फलस्वरूप भूजल दोहन बढ़ गया है, किंतु जल की मांग के अनुपात में भूजल को पुनर्भरित (रिचार्ज) नहीं किया जा रहा है। राष्ट्रीय आकड़ों के अनुसार देश में जल विकास की स्थिति 58 प्रतिशत है। अर्थात् 100 लीटर भूजल के दोहन के उपरांत जल स्रोत को मात्र 58 लीटर जल ही लौटाया जा रहा है।
3. प्रतिवर्ष वर्षा की मात्रा का उत्तरोत्तर घटना- ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप जलवायु में निरंतर परिवर्तन हो रहा है, फलतः वर्षा की मात्रा निरंतर घटती जा रही है, परंतु कृषि फसलों, मानव व पशुओं तथा उद्योंगों हेतु भूजल का उपयोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। साथ ही मानव, पशुओं व उद्योगों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।
4. कृषकों की निःशुल्क विद्युत उपलब्ध कराया जाना- कुछ राज्यों की सरकारें कृषक भाइयों को निःशुल्क विद्युत उपलब्ध करा रही हैं। खेद का विषय है कि हमारे कृषक अनियंत्रित रूप से भूजल का दोहन कर उसका अपव्यय करते जा रहे हैं।
1. भूजल स्रोतों के सूखने की पूर्णतः संभावना,
2. कृषि फसलों व शाकाहार के लागत मूल्य में वृद्धि की संभावना,
3. हरे चारे की समस्या,
4. दुग्ध उत्पादन में घटोतरी की संभावना।
1. फसल चक्र (Crop Rotation) के सिद्धांत को आत्मसात किया जाए।
2. ड्रिप एवं बौछारी सिंचाई विधि एवं क्यारी विधि अपनाई जाए।
3. जीवाश्म खादों की मात्रा बढ़ाई जाए।
4. भूजल स्तर को (रेन वाटर) से रिचार्ज किया जाए।
5. तालाबों, पोखरों एवं झीलों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग की जाए।
6. पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय श्री अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा प्रारंभ की गई (रिवर लिंकेज योजना, 2002) को अपनाया जाए।
7. प्रत्येक गांव, शहर, सड़क के किनारे तथा बंजर भूमि में अधिकाधिक वृक्षारोपण किया जाए।
8. कृषकों को निःशुल्क विद्युत की आपूर्ति न कर उनसे यथोचित विद्युत मूल्य अवश्य ही लिया जाए।
निष्कर्षतः यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि हर परिस्थिति में सिंचाई जल का समुचित प्रयोग एवं प्रबंधन फसलोत्पादनार्थ किया जाए, तभी हमारे देश व परमपावनी पूजनीया वसुंधरा माता की गोद में खाद्यान्न, दलहन, तिलहन, चारा फसलों, शाकाहार इत्यादि के उत्पादन में निरंतर वृद्धि होगी। कृषि संस्कृति के रक्षण व भूजल के संरक्षण के प्रति सारे विश्व को प्रतिबद्ध होने की आवश्यकता है। अपने द्वारा इस दिशा में कृत प्रयत्नों के फलस्वरूप ही हम यह गर्वोक्ति करने में समर्थ हो सकते हैं-
हरे खेत, नहरें नद निर्झर, जीवन शोभा उर्वर।
-सुमित्रानंदन पंत
अतः आइए, हम सभी समवेत प्रयत्नों से भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना पर्यावरण के प्रति अपने पुनीत कर्तव्य का शुद्ध अंतःकरण से निर्वाह करें।
एन.टी.पी.सी. राजभाषा, विभाग, उज्जवलनगर, सीपत (छ.ग.)
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीं।
सर्वेश्रेयस्करीं सीतां नतोहं रामवल्लभाम्।।
-मानस, बालकांड,5
किसी सुविख्यात लेखक ने कृषि को किसी राष्ट्र के उन्नयन का मूल व दृढ़ आधार माना है-
कृपा कृष्ण की हलधर का हल,
कर्मभूमि पर नूतन हल चल...।
किंतु इनके महत्व को अविच्छिन्न बनाए रखने हेतु हमें आधुनिक परिवर्तनशील पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में इनके (कृषि-संपदा व जल-संपदा के) संरक्षण पर पुनर्विचार करना होगा। विशेषकर आधुनिक समय में उत्पन्न भूजल संकट से जिस चिंताजनक स्थिति का जन्म हो रहा है, वह संपूर्ण मानव समाज के लिए प्रतिकूल होने के साथ ही हमें यह सोचने पर विवश करती है कि भारत व समूचे विश्व के वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों व समाजशास्त्रियों द्वारा इस दिशा में पर्याप्त चिंतन व जागृति फैलाने की परम आवश्यकता है।
जल को जीवन का पर्याय माना जाता है। सुप्रसुद्ध गीतकार व संगीतकार रवींद्र जैन ने एक ही वाक्य में यह सिद्ध कर दिया है। उनका कथन है-
जल जो न होता तो, ये जग जाता जल।
संपूर्ण जीवधारियों अर्थात् मनुष्य पशु-पक्षियों व वृक्ष-लताओं के शरीर का लगभग 90 प्रतिशत भाग जल-निर्मित है। जीवन की समस्त क्रियाओं हेतु जल की परम आवश्यकता है। जलाभाव में इन क्रियाओं का निष्पादन सर्वथा असंभव ही है। भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से इस पृथ्वी का ¾ भाग जलावृत्त है, जिसके पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल राशि का 97 प्रतिशत भाग मौजूद है। किंतु वह जल अत्यधिक लवणयुक्त होने के कारण सुपेय नहीं है, न ही उपयोगी है। पृथ्वी का शेष ¼ भाग भू-आच्छादित है। इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्राप्त जानकारी के आधार पर भूमि पर कुल पानी की मात्रा का केवल 3 प्रतिशत भाग ही उपलब्ध है। वैज्ञानिकों का मत है कि पानी की यह मात्रा हिमाच्छादित हिमशिखरों पर बर्फ के रूप में, नदियों में, भूजल के रूप में तथा वायुमंडल में वाष्प के रूप में विद्यमान रहती है।
वर्तमान में कृषि, पशु-पालन, उद्योग-धंधों तथा पेयजल हेतु नदी जल व भूजल का ही सर्वाधिक उपयोग हो रहा है। उक्त उपयोगार्थ नदी जल से पर्याप्त पूर्ति न होने के फलस्वरूप भूजल का पर्याप्त दोहन किया जाता है। फलतः भूजल स्तर 1 से 1.5 प्रतिवर्ष के हिसाब से नीचे गिरता जा रहा है। परिणामस्वरूप भूजल के ऊपरी जल स्रोत सूख रहे हैं अतः जल की आवश्यकता की पूर्ति हेतु भूजल के निचले एवं गहरे जल स्रोतों का दोहन किया जा रहा है, इनमें अधिकांश जल लवणीय गुणवत्ता का मिल रहा है। इसके कारण मृदा स्वास्थ्य खराब होने के कारण फसलोत्पादन व मानव स्वास्थ्य पर इसके अवांछित परिणाम स्पष्ट अनुभव किए जा रहे हैं। इसके साथ ही पानी के भूमि से निकालने की लागत मे वृद्धि से फसल की उत्पादन लागत बढ़ती जा रही है।
अतः आज हमारे समक्ष यह विचारणीय प्रश्न है कि हम अपने भूजल स्रोतों को किस प्रकार सुरक्षित रखकर कृषि, मानव व पशुधन के स्वास्थ्य को सुरक्षित बनाए रखें। विज्ञानवेत्ता मानते हैं कि निःसंदेह ‘पौधों का प्रथम भोज्य’ जल ही है। अतः जल संरक्षण सर्वोपरि है। जल के प्रत्येक बूंद का हमारे जीवन व हमारी कृषि संपदा रक्षण में बड़ा महत्व है।
भूजल स्तर के गिरने के कारण
इस समय देश के सभी भागों में जल-स्तर दिन-पर-दिन गिरता जा रहा है। जिसके लिए निम्न कारण जिम्मेदार बताए जाते हैं-1. अधिक उत्पादन और कम पानी चाहने वाली फसल-प्रजातियों का प्रादुर्भाव- फसलों की नवीनतम बौनी एवं संकर प्रजातियों में सिंचाई जल की अधिक आवश्यकता होता ही। इन प्रजातियों में अधिक उत्पादन हेतु अधिक मात्रा में पोषण-तत्वों की आवश्यकता होती है, जिसकी पूर्ति रासायनिक उर्वरकों द्वारा की जाती है, परिणामस्वरूप अधिक सिंचाई जलावश्यकता के चलते अधिक मात्रा में भूजल का दोहन या नदियों एवं नहरों के पानी का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है, जो भूजल स्तर के पतन के मूल रूप से उत्तरदायी है।
2. अधिक पानी चाहने वाली नकदी फसलों का उगाया जाना- वर्तमान में हम कृषि के मूलभूत सिद्धांत ‘फसल चक्र’ (Crop Rotation) को प्रायः विस्मृत करते जा रहे हैं। अतः हमारे कृषक बंधु केवल अधिक मात्रा में धनार्जन की इच्छा से अधिक पानी चाहने वाली नकदी व अन्य फसलों जैसे-आलू, गन्ना, धान, गेहूं इत्यादि का अधिकाधिक उत्पादन कर रहे हैं। परिणामस्वरूप इन उत्पादों हेतु अधिक सिंचाई जल की आवश्यकता की पूर्ति की इच्छा से भूजल का दोहन हो रहा है, किंतु दुःख का विषय है कि इसके फलस्वरूप गिरते भूजल स्तर पर बहुत कम लोगों का ध्यान है।
3. बाढ़ सिंचाई विधि का प्रयोग करना- आजकल कृषि के यंत्रीकरण के फलस्वरूप जल के दोहन में अंधाधुंध वृद्धि हो रही है, क्योंकि पंपसेट व ट्यूबवेल द्वारा कम लागत व कम समय में अधिक जल बाहर निकाला जाता है, जिसके कारण हमारे कृषक कृषि फसलों में बाढ़ सिंचाई (Flood Irrigation System) का प्रयोग करते हैं, अतः इससे भूजल स्तर अधिक तीव्र गति से पतन को प्राप्त हो रहा है।
इनके अतिरिक्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारणों की संक्षिप्त चर्चा अनिवार्य है-
1. जीवांश खाद (Organic Maures) के प्रयोग का अभाव- जीवांश खादों का प्रयोग न करने से मृदा में उपलब्ध जीवांश कार्बन की मात्रा 0.0 प्रतिशत से 0.5 प्रतिशत के बीच रह गई है, जबकि स्वस्थ मृदा के लिए जीवांश कार्बन की मात्रा 0.8 प्रतिशत से अधिक होनी चाहिए। खेद का विषय है कि मृदा की जल धारण क्षमता घटाने के कुप्रभाव से भूजल का दोहन हो रहा है।
2. भूजल का रिचार्ज न किया जाना- सामान्यतः हरित क्रांति 1966-67 के पश्चात् उच्च उपज हेतु अधिक जल की मांग के फलस्वरूप भूजल दोहन बढ़ गया है, किंतु जल की मांग के अनुपात में भूजल को पुनर्भरित (रिचार्ज) नहीं किया जा रहा है। राष्ट्रीय आकड़ों के अनुसार देश में जल विकास की स्थिति 58 प्रतिशत है। अर्थात् 100 लीटर भूजल के दोहन के उपरांत जल स्रोत को मात्र 58 लीटर जल ही लौटाया जा रहा है।
3. प्रतिवर्ष वर्षा की मात्रा का उत्तरोत्तर घटना- ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप जलवायु में निरंतर परिवर्तन हो रहा है, फलतः वर्षा की मात्रा निरंतर घटती जा रही है, परंतु कृषि फसलों, मानव व पशुओं तथा उद्योंगों हेतु भूजल का उपयोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। साथ ही मानव, पशुओं व उद्योगों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।
4. कृषकों की निःशुल्क विद्युत उपलब्ध कराया जाना- कुछ राज्यों की सरकारें कृषक भाइयों को निःशुल्क विद्युत उपलब्ध करा रही हैं। खेद का विषय है कि हमारे कृषक अनियंत्रित रूप से भूजल का दोहन कर उसका अपव्यय करते जा रहे हैं।
भूजल स्तर के पतन से हानियां
1. भूजल स्रोतों के सूखने की पूर्णतः संभावना,
2. कृषि फसलों व शाकाहार के लागत मूल्य में वृद्धि की संभावना,
3. हरे चारे की समस्या,
4. दुग्ध उत्पादन में घटोतरी की संभावना।
भूजल स्तर के पतन को रोकने के उपाय
1. फसल चक्र (Crop Rotation) के सिद्धांत को आत्मसात किया जाए।
2. ड्रिप एवं बौछारी सिंचाई विधि एवं क्यारी विधि अपनाई जाए।
3. जीवाश्म खादों की मात्रा बढ़ाई जाए।
4. भूजल स्तर को (रेन वाटर) से रिचार्ज किया जाए।
5. तालाबों, पोखरों एवं झीलों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग की जाए।
6. पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय श्री अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा प्रारंभ की गई (रिवर लिंकेज योजना, 2002) को अपनाया जाए।
7. प्रत्येक गांव, शहर, सड़क के किनारे तथा बंजर भूमि में अधिकाधिक वृक्षारोपण किया जाए।
8. कृषकों को निःशुल्क विद्युत की आपूर्ति न कर उनसे यथोचित विद्युत मूल्य अवश्य ही लिया जाए।
निष्कर्षतः यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि हर परिस्थिति में सिंचाई जल का समुचित प्रयोग एवं प्रबंधन फसलोत्पादनार्थ किया जाए, तभी हमारे देश व परमपावनी पूजनीया वसुंधरा माता की गोद में खाद्यान्न, दलहन, तिलहन, चारा फसलों, शाकाहार इत्यादि के उत्पादन में निरंतर वृद्धि होगी। कृषि संस्कृति के रक्षण व भूजल के संरक्षण के प्रति सारे विश्व को प्रतिबद्ध होने की आवश्यकता है। अपने द्वारा इस दिशा में कृत प्रयत्नों के फलस्वरूप ही हम यह गर्वोक्ति करने में समर्थ हो सकते हैं-
हरे खेत, नहरें नद निर्झर, जीवन शोभा उर्वर।
-सुमित्रानंदन पंत
अतः आइए, हम सभी समवेत प्रयत्नों से भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना पर्यावरण के प्रति अपने पुनीत कर्तव्य का शुद्ध अंतःकरण से निर्वाह करें।
एन.टी.पी.सी. राजभाषा, विभाग, उज्जवलनगर, सीपत (छ.ग.)
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