सतह पर उपस्थित जलस्रोतों के अतिरिक्त भूजल स्रोत भी जल प्रदाय के बड़े स्रोत होते हैं। भूमि सतह के भीतर तरह-तरह की चट्टानें पाई जाती हैं। भूमि सतह के भीतर जल धाराएँ एवं जलकुंड भी पाए जाते हैं। भूमि की सतह के भीतर पाए जाने वाले जलस्रोतों पर भूजल चट्टानों वाले जलस्रोतों पर भूजल चट्टानों का प्रभाव पड़ता है। ये प्रभाव चट्टानों की प्रकृति के अनुसार होता है। चट्टानों में उपस्थित तत्वों में से घुलनशील तत्व पानी में घुलकर उसकी गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं।
लाइम स्टोन के चट्टानों में स्थित भूजल स्रोतों में कैल्शियमयुक्त लवणों की सांद्रता अधिक पाए जाने के कारण पानी कठोर होता है। अनेक भारी धातुएँ अपनी विशेष ऑक्सीकरण अवस्था (oxidation State) में जल घुलनशील होती हैं। अतः वे चट्टानों में उन ऑक्सीकरण अवस्था में उपस्थित रहने पर पानी में घुल जाती हैं और पेयजल में मिलकर उसे प्रदूषित कर देती हैं। लौह अयस्क बहुल क्षेत्र के भूजल स्रोतों में आयरन एवं अन्य धातुओं की सान्द्रता अधिक पाई जाती है। आयरन अपनी ऑक्सीकरण अवस्था (+3) अर्थात फेरिक अवस्था में जल में घुलनशील होता है। इस अवस्था में इसका रंग लाल भूरा होता है। कई स्थानों में हानिकारक भारी धातुएँ भी भूमिगत चट्टानों के रूप में या उनमें मिली हुई अवस्था में होती हैं।
अनेक स्थानों पर भूजल में लेड की सांद्रता निर्धारित मानदंडों से अधिक पाई जाती है। पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के अनेक स्थानों पर पानी में लेड की सांद्रता अत्यधिक पाए जाने की शिकायत आई है। लेड की सांद्रता अधिक होने के कारण इस जल का उपयोग करने वालों को स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
छत्तीसगढ़ राज्य में राजनांदगांव जिले के अम्बागढ़ चौकी ब्लॉक के ग्राम कौड़ीकसा एवं आस-पास के क्षेत्र में अनेक स्थानों पर भूजल स्रोतों में आर्सेनिक की अत्यधिक मात्रा पाई गई है। आर्सेनिक एक अत्यन्त विषैली धातु है, इस कारण यहाँ के निवासी अनेक शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों से पीड़ित रहते हैं। इसके सम्पर्क में आने वाले लोगों में चर्म रोग, हड्डियों का मुड़ना एवं विकृत होना आदि लक्षण पाये गये हैं। कारणों की जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा भूजल के पेयजल स्रोतों में आर्सेनिक की सांद्रता के निर्धारित मापदण्डों से काफी अधिक होने के कारण है। समस्या का कारण पता लगने के उपरान्त इन भूजल स्रोतों से पेयजल आपूर्ति रोक वैकल्पिक व्यवस्था की गई है। इस सम्बन्ध में सभी प्रभावित गाँवों में प्रचार-प्रसार के माध्यम से पर्याप्त जागरुकता पैदा की गई है ताकि लोग आर्सेनिक प्रभावित जलस्रोतों का उपयोग करने से बचें।
अनेक स्थानों पर भूजल में प्राकृतिक कारणों से फ्लोराइड की सांद्रता अधिक पाई जाती है। फ्लोराइड की एक सीमा तक पेयजल में उपस्थिति से कोई विशेष हानि नहीं होती है। लेकिन सांद्रता इससे अधिक बढ़ने पर हड्डियों, दाँतों एवं आँखों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इसकी अधिक मात्रा आँखों में मोतियाबिन्द जैसे रोग को जन्म देती है। इसकी अधिकता होने पर दाँत पीले और टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त पेयजल में इसकी अधिकता से हड्डियों में विकृति आने लगती है। हाथ-पैर टेढ़े एवं विकृत होने लगते और धीरे-धीरे मनुष्य में विकलांगता आ जाती है। फ्लोराइड की अत्यधिक सांद्रता जानलेवा हो सकती है।
प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त भूजल स्रोत विभिन्न औद्योगिक गतिविधियों के कारण भी प्रदूषित होते हैं। अनेक औद्योगिक प्रक्रियाओं में हानिकारक रसायन/भारी धातुएँ कच्चे माल, उप-उत्पाद, के रूप में या तो उपयोग किये जाते हैं या उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार औद्योगिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न दूषित जल में भी हानिकारक रसायनों/भारी धातुओं के होने की सम्भावना होती है। विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं में निर्माण, भण्डारण, संग्रहण तथा निपटान की प्रक्रिया के दौरान पर्याप्त उपाय न किये जाने अथवा वांछित सावधानी न बरतने पर ये हानिकारक रसायन/भारी धातुएँ रिसाव के माध्यम से भूमि सतह के भीतर पहुँच जाते हैं और भूमिगत जलस्रोतों में मिलकर उन्हें प्रदूषित कर देते हैं। बहुधा प्रक्रियाओं से उत्पन्न अपशिष्ट के निपटान हेतु उद्योगों द्वारा समुचित व्यवस्था न कर अपशिष्ट को भूमि में गाड़ दिया जाता है। वर्षा होने पर वर्षा के जल के साथ इस अपशिष्ट में उपस्थित हानिकारक रसायन एवं भारी धातुएँ पानी के साथ भूमि की भीतरी सतहों में पहुँचकर भूमिगत जल को प्रदूषित कर देती हैं। इसी प्रकार दूषित जल का समुचित उपचार न होने एवं उन्हें यथास्थिति निस्सारण की स्थिति में भी उपरोक्त हानिकारक पदार्थ भूमिगत जलस्रोतों तक पहुँच जाते हैं।
विभिन्न नैफ्था इकाइयों के कारण औद्योगिक क्षेत्र एवं आस-पास के भूमिगत जलस्रोतों में फिनॉलिक यौगिकों की सांद्रता बढ़ जाती है। इसी प्रकार विभिन्न कपड़ा उद्योगों की अभिरंजक इकाइयों से निकलने वाले रंजकों से भी भूमिगत जलस्रोतों के प्रदूषित होने के उदाहरण देखने में आते हैं। जिन स्थानों पर कृषि कार्य हेतु कीटनाशकों का प्रयोग बहुतायत में होता है। वहाँ भी भूमिगत जलस्रोतों में कीटनाशकों की उपस्थिति पाई जाती है।
भूमिगत जलस्रोतों का प्रदूषित होना एक विकट समस्या है। क्योंकि एक बार भूमिगत जल के प्रदूषित होने के उपरान्त उसका उपचार किया जाना सम्भव नहीं है। अर्थात यदि कोई जलस्रोत बाह्य कारकों के कारण एक बार प्रदूषित हो जाता है, तो उसके ठीक होने में अनेक वर्ष लग जाते हैं। सामान्य प्रक्रिया में अनेक वर्षों तक वर्षा के जल के माध्यम से तनु होते हुए अनेक सालों के उपरान्त ही वह स्रोत हानिकारक प्रभावों से मुक्त हो पाता है। अतः ये अत्यंत आवश्यक है कि किसी भी परिस्थिति में भूमिगत जलस्रोतों को प्रदूषित होने से बचाया जाये। इस हेतु ये आवश्यक है कि सभी प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों में कच्चे माल के भण्डारण, उत्पाद के संग्रहण एवं अपशिष्टों के भण्डारण एवं अपवहन हेतु समुचित व्यवस्था की जाये। वक्र-शेड को पक्का बनाया जाये तथा दूषित जल उपचार संयंत्र में लीक प्रूफ कांक्रीटीकरण अथवा टाइल्स लगाई जायें, ताकि किसी भी परिस्थिति में औद्योगिक गतिविधियों से लीकेज अथवा सीपेज की समस्या उत्पन्न न हो। साथ ही ऐसी प्रदूषक इकाइयों के परिसर एवं आस-पास स्थित नलकूप, कुएँ, तालाब आदि के जल नमूनों का समय-समय पर परीक्षण किया जाना आवश्यक है ताकि समय रहते ऐसे सम्भावित प्रदूषण की जाँच हो सके एवं उस पर नियंत्रण लगाने हेतु आवश्यक कार्यवाही की जा सके। भूमिगत जलस्रोतों को प्रदूषण की सम्भावना से बचाकर ही उनका संरक्षण किया जा सकता है।
जल प्रदूषण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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