भाग -1
1. वातावरण/पर्यावरण का निर्माण अलग-अलग मंडलों से मिलकर हुआ है।
2. वायुमंडलः गैसें और जलवाष्प
3. जलमंडल: पानी
4. स्थलमंडलः 1. चट्टानों वाला भाग 2. मिट्टी वाला भाग
5. जीवमंडल: जीव प्रजातियाँ
6. पानी मुख्य रूप से सूर्य की ऊर्जा के कारण इन मंडलों से होकर गुजरता है। अपने इस प्रवाह के दौरान पानी अपना रूप और स्थान बदलता है।
7. जल चक्र में पानी का प्रवाह विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा होता है। उदाहरण: वर्षण (वर्षा या हिमपात), वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन, रिसन, सतही जल बहाव और सघनन।
8. इस प्रवाह का अर्थ यह भी है कि पानी वातावरण में एक मण्डल में जाता है और वापिस आता है।
2. यह जमीन की सतह के नीचे चट्टानों की दरारों व छिद्रों में पाया जाने वाला जल है।
3. भूजल वह जल है जो स्रोतों/झरनों (Springs) और सतही रिसाव या मूल प्रवाह के रूप में जमीन से बाहर निकलता है।
4. जमीन में अलग-अलग गहराई के कुँए खोदकर या मशीन से छेद (बोरवेल एवं ट्यूबवेल) करके भूजल प्राप्त किया जाता है।
भूजल एक संसाधन है, कुँए व स्रोत/झरना इसको पाने के साधन हैं।
2. खेती
3. पशुपालन
4. उद्योग
5. प्राकृतिक/पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखना
भूजल का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिये होता है।
भूजल को समझने के पाँच प्रमुख स्तम्भ:-
1. चट्टानों का अध्ययन या भूविज्ञान।
2. भूजल स्तर का अध्ययन।
3. भूजल के भंडारण और प्रवाह को समझना, उसके परिणाम और उसकी मात्रा को समझना और इनका विश्लेषण करना या मात्रात्मक विश्लेषण करना।
4. भूजल की गुणवत्ता को समझना।
5. भूजल संसाधनों का प्रबन्धन करना।
भाग -2
भूजल और भूगर्भ-विज्ञान
भूजल को समझने के लिए चट्टानों का अध्ययन आवश्यक है क्योंकिः
2. भूजल चट्टानों और चट्टानों से बने पदार्थों (शैल पदार्थ, जैसे रेत, बालू, गाद आदि) में पाया जाता है।
3. यह चट्टानों में मौजूद छिद्रों और दरारों में जमा/ठहरा रहता है।
5. ये छेद और दरारें ऐसी प्रक्रिया द्वारा भी बन सकते हैं जो चट्टानों को प्रभावित करती हैं।
6. चट्टानों के बहुत से प्रकार हैं और हर प्रकार की चट्टान में भूजल अलग-अलग प्रकार से पाया जाता है और उसका बहाव भी अलग-अलग होता है।
1. भू-विज्ञान, चट्टानों और उसमें पायी जाने वाली सरंचनाओं का विज्ञान है।
2. चट्टानें जमीन की सतह पर उभरी हुई या जमीन के नीचे पायी जाती है।
3.जमीन के धरातल को प्रभावित/नियन्त्रण करने वाला प्रमुख कारक धरातल के नीचे की चट्टानें हैं। भूगर्भ - विज्ञान की वह शाखा जो जमीन की बनावट/आकृति का अध्ययन करती हैं उसे भू-आकृति विज्ञान कहते हैं।
4. भू- आकृति विज्ञान हमें पानी के जमीन में रिसन से पूर्व उसके सतही प्रवाह को समझने में सहायता करता है।
5. भूजल-विज्ञान भूगर्भ-विज्ञान की वह शाखा है जो जमीन की सतह के नीचे चट्टानों में पानी के भंडारण और प्रवाह का अध्ययन करती है। इसकी सहायता से भूजल की उपलब्धता और उसकी गुणवत्ता के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
(भूगर्भ - विज्ञान, चट्टानों का विज्ञान, भूजल को समझने के लिए उपयोगी है। हवा, बर्फ और पानी की क्रिया विभिन्न चट्टानों पर अलग-अलग स्थलाकृतियों को जन्म देती है जैसे घाटी, झरने आदि।)
2. सतह पर मौजूद चट्टानों का अपक्षय (टूटना), अपरदन (बहाव/स्थानान्तरण) और अपने मूल स्थान से दूर भरण (जमाव) होता है।
3. जमा हुुआ पदार्थ समय के साथ ठोस होकर चट्टान का रूप ले लेता है और पुनः अपक्षय, अपरदन व भरण की प्रक्रिया से होकर गुजरता है। इस प्रकार ये चक्र लगातार चलता रहता है।
4. पत्थरों के ठोस होने, टूटने और फिर से ठोस होने की प्रक्रिया को शैल चक्र कहते हैं।
(अपक्षय, अपरदन और भरण तीन प्रक्रियाएँ हैं जो जमीन की सतही बनावट को बनाती है। अपक्षय, अपरदन और भरण की प्रक्रिया हवा, पानी और बर्फ जैसे कारकों द्वारा की जाती है।)
2. चट्टानों का अपक्षय एक बहुत लम्बी और लगातार चलने वाली प्रक्रिया है।
3. चट्टानों का अपक्षय हवा, बहते हुए पानी या हिमखण्डों की बर्फ जैसे कारकों की वजह से होता है।
4. इन सबमें से बहता हुआ पानी सबसे प्रभावी कारक है क्योंकि यह लम्बे समय तक लगातार चट्टानों का अपक्षय करता है।
5. हवा, पानी और बर्फ की भौतिक और रासायनिक क्रियाओं के कारण कठोर चट्टानें छोटे टुकड़ों या कई बार बारीक कणों में टूट जाती हैं।
6. टूटी हुई चट्टानों को अपक्षीण या टूटी हुई चट्टानें कहते हैं।
जमीन की सतह के अंदर या ऊपर चट्टानों के भौतिक और रासायनिक रूप से टूटने की प्रक्रिया को अपक्षय कहते हैं।
विभिन्न प्रकार की चट्टानों का अलग-अलग प्रकार से अपक्षय होता है। कठोर चट्टानों के मुकाबले नर्म चट्टानों का अपक्षय अधिक आसानी से होता है।
2. चट्टानों के टूटे हुए टुकड़ों और कणों को पानी, हवा या हिमखण्ड बहाकर ले जाते हैं, इस प्रक्रिया को अपरदन कहते हैं।
3. पानी की अपरदन क्षमता वर्षा की दर, जिस ढाल पर टूटी हुई चट्टान पड़ी है उसका तीखापन और ढाल पर मौजूद वनस्पति पर निर्भर कराती है। ये सब अपरदन के विरुद्ध बचाव का कार्य करते हैं।
बेड लोडः चट्टानों के बड़े टुकड़े नदी के तल में आगे बढ़ते हैं। वे तल में घिसटकर, लुढ़ककर या उछल कर आगे जाते हैं।
निलम्बित (लटकता हुआ): शैल पदार्थ पानी में लटके रहते हैं और नदी या नाले के बहाव के साथ बहते हैं।
विलयन: शैल पदार्थ पानी में ‘आयन’ के रूप में घुलकर विलय बनकर प्रवाहित होते हैं।
(अपक्षय के बाद होने वाली प्रक्रिया जो चट्टानों व शैल पदार्थों को अपने स्थान से हटा देती है, अपरदन कहलाती है। परिवहन/प्रवाह के दौरान कारक शैल पदार्थ का रूप बदल देता है।)
1. अपक्षय और अपरदन के बाद की अंतिम प्रक्रिया भरण है।
2. अपरिदित पदार्थ भौतिक प्रक्रियाओं जैसे पानी या हवा के वेग में कमी के कारण भंडारित किया जाता है।
3. उदाहरण: पहाड़ों से आने वाली नदी मैदानी इलाके में पहुँचने पर अपने साथ लायी गाद इत्यादि को उसके वेग में कमी आने के कारण भंडारित कर देती हैं।
4. अपरिदित पदार्थ रासायनिक रूप से भी भंडारित किये जा सकते हैं।
5. उदाहरणः अनुकूल परिस्थिति होने पर नदी, अपने साथ लाये घुलित पदार्थ को जमा कर देती है।
6. भंडारित पदार्थ का पुनः अपक्षय और अपरदन हो सकता है।
7. अपक्षय और अपरदन आपस में परिवर्तित होने वाली प्रक्रियाएँ हैं।
(भंडारित पदार्थ ठोस होकर चूना पत्थर किस्म की चट्टान बनता है। हवा, पानी और बर्फ द्वारा भंडारित अपरिदित पदार्थ डेल्टा, अलुवियल फैन, ओक्सबो लेक्स, सीढ़ीदार खेत, जलोढ़, रेत के टीले आदि भू-आकृतियों का निर्माण करते हैं।)
2. विभिन्न चट्टानों में खनिजों के अलग-अलग मिश्रण होते हैं, जो चट्टानों के बनाने की प्रक्रिया पर निर्भर हैं।
3. चट्टानें तीन प्रक्रियाओं द्वारा बनती हैं
क. ज्वालामुखीय घटना
ख. कायान्तरण
ग. अवसादन
(विभिन्न चट्टानों की सच्छिद्रता अलग होती हैं जो उनकी बनावट और बनाने की प्रक्रिया पर निर्भर करती है।)
2. यह पदार्थ जब तक जमीन के अन्दर होता है तो ‘मैग्मा’ कहलाता है और जमीन की सतह पर आने पर इसे ‘लावा’ कहते हैं।
3. लावा जमीन पर आकर हवा और पानी के सम्पर्क में आने पर ठंडा होता है जिससे ज्वालामुखी चट्टानें बनती हैं।
4. कई बार यह पदार्थ जमीन के ऊपर नहीं आ पाता और सतह के नीचे ही ठंडा हो जाता है, इससे बनने वाली चट्टानों को प्लूटोनिक चट्टानें कहते हैं।
5. ज्वालामुखी और प्लूटोनिक दोनों प्रकार की चट्टानों को एक साथ आग्नेय चट्टानें कहते हैं।
(बसाल्ट एक ज्वालामुखी चट्टान है ग्रेनाईट एक प्लूटोनिक चट्टान है।)
2. यह टूटा हुआ पदार्थ हवा, पानी, जैसे कारकों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। अनुकूल परिस्थिति आने पर यह पदार्थ एक स्थान पर जमा कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को अवसादन कहते हैं और इन पदार्थों को अवसाद कहते हैं।
3. अवसाद से बनने वाली चट्टान को अवसादी चट्टान कहते हैं।
4. बलुई/रेतीली चट्टान रेत के जमा होकर ठोस होने से बनती है।
5. चूना पत्थर का निर्माण पानी द्वारा बहाकर लाए गए कैल्शियम कार्बोनेट के निक्षेपण (जमाव) के कारण होता है।
(अवसादन विभिन्न प्रक्रियाओं का मिश्रण है जिसमें अपक्षय, अपरदन, भरण और संघनन (ठोस होना) शामिल है। अवसादी चट्टानों का निर्माण जमाव या निक्षेपण की प्रक्रिया द्वारा होता है।)
2. चट्टान की सम्पर्क में आने वाला लावा और मैग्मा आस-पास के तापमान को बढ़ा सकता है।
3. तापमान और दबाव में यह परिवर्तन चट्टान में भी परिवर्तन लाते हैं, इन परिवर्तनों को कायांतरण कहते हैं।
4. जिस चट्टान का कायांतरण होता है उसे कायांतरित चट्टान कहते हैं।
5. चूना पत्थर (लाइमस्टोन) जब अत्यधिक तापमान में कायांतरित होता है तो संगमरमर (मार्बल) बनता है।
6. ग्रेनाईट जब अत्यधिक दबाव में कायांतरित होता है तो नाईस बनता है।
(आग्नेय और अवसादी दोनों चट्टानें कायांतरति हो सकती है। कायांतरण से चट्टान के गुणधर्म बदल जाते हैं।)
1. आग्नेय चट्टानें
2. अवसादी चट्टानें
3. कायांतरित चट्टानें
1. चट्टानें खनिजों से बनती हैं।
2. हर खनिज का एक भौतिक स्वरूप/ढाँचा होता है।
3. हर खनिज की एक रासायनिक बनावट होती है।
4. एक चट्टान का एक या अधिक खनिजों से मिलकर बनी हो सकती है।
5. खनिज विभिन्न प्रक्रियाओं, जैसे ज्वालामुखी घटना या कायांतरण के द्वारा बनते हैं। एक चट्टान के खनिज उसके बनने की प्रक्रिया को दर्शाते हैं।
6. खनिज चट्टान को उसका विशिष्ठ रंग और स्वरूप प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए मार्बल उसके खनिज कैल्साईट के कारण सफेद रंग का होता है।
7. खनिज उसके सम्पर्क में आने वाले पानी की गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं।
(विभिन्न खनिजों के अलग-अलग गुणधर्म होते हैं।)
1. चट्टानों में भूजल का एकत्रित होना और प्रवाह छिद्रों व खाली भागों की प्रकृति पर निर्भर है।
2. ये छिद्र या खाली भाग चट्टान या अवसाद के कणों के बीच खाली जगह के रूप में हो सकते हैं, जिन्हें नंगी आँखों से देखना मुश्किल हैं। कई बार ये छिद्र या खाली जगह एक गुुफा के समान बड़ी भी हो सकती हैं (उदाहरण के लिए चूना पत्थर में)
3. ये छेद या खाली जगह चट्टान में मौजूद दरारों या चट्टानों के जोड़ों के बीच खाली जगह बनने के कारण भी हो सकती हैं। दरारें आदि, सीधी या झुकी हुई हो सकती है।
4. भूजल चट्टानों में दरारों और छिद्रों में एकत्रित होता और बहता है।
5. किसी चट्टान में कितना पानी एकत्रित हो सकता है, चट्टान के अन्दर पानी एक स्थान से दूसरे स्थान तक किस गति से प्रवाह करेगा और अन्य बहुत सी चीजें उस चट्टान में मौजूद छिद्रों व दरारों के आकार और आकृति पर निर्भर करता है।
(रेत के कणों के बीच की खाली जगह/छिद्र भूजल संचय कर सकती है। चट्टान के अन्दर की दरारें भी भूजल का संचय कर सकती हैं और उसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रवाहित कर सकती है।)
भाग - 3
भूजल धारक
1. भूजल धारकों (Aquifers) में पाया जाता है।
3. भूजल धारक जमीन की सतह के नजदीक या फिर जमीन के नीचे गहराई में पाए जाते हैं।
4. यदि अप्रतिबंधित भूजल धारक में कुँआ खोदें तो उस कुँए में जल स्तर एक स्तर तक ऊपर उठकर स्थिर हो जाता है। यदि प्रतिबंधित भूजल धारक में नलकूप बनाया जाता है तो पानी का स्तर ऊपर उठता है और प्रतिबंधित भूजल धारक की मोटाई से ऊपर स्थिर होता है। इन जलस्तरों को स्थैतिक जलस्तर (भूजल का स्थिर स्तर) कहते हैं।
एक भूजल धारक जमीन के नीचे एक जलागम की तरह होता है।
उथले भूजल धारक जिनका, मिट्टी या अपक्षयित चट्टान में मौजूद छिद्रों, केशिकाओं, दरारों आदि के माध्यम से वायुमंडल से सम्पर्क होता है, अप्रतिबंधित भूजल धारक कहलाते हैं। अप्रतिबंधित भूजल धारक के जलस्तर को स्थैतिक जलस्तर कहते हैं।
गहरे भूजल धारक जिनके नीचे और ऊपर चट्टानों की परत होने के कारण भूजल दबाव की स्थिति में रहता है, प्रतिबंधित भूजल धारक कहलाते हैं। प्रतिबंधित भूजल धारक के जलस्तर को पोटेन्शियोमेट्रिक सर्फेस कहते हैं।
2. इसलिए भूजल के प्रवाह को समझाने के लिए जलस्तर को मापने की आवश्यकता होती है।
3. जल स्तर की ऊँचाई में अंतर और ऊँचाई की वजह से बनने वाले दबाव के कारण पानी एक जगह से दूसरी जगह प्रवाहित होता है।
(वह ऊर्जा जो भूजल प्रवाह को बढ़ाती है, जलस्तर की ऊँचाई या पानी के दबाव से प्राप्त होती है। भूजल स्तर की ऊँचाई में एक स्थान से दूसरे स्थान में अन्तर होता है, इसी अन्तर के कारण भूजल प्रवाहित होता है।
2. कुएँ में भूजल का मापन निम्न प्रकार से किया जाता हैः
क. जमीन स्तर से पानी की गहराई
ख. स्थैतिक भूजल स्तर की समुद्रतल से ऊँचाई
स्थैतिक भूजल स्तर की समुद्रतल से ऊँचाई = जमीन की समुद्रतल से ऊँचाई - पानी की गहराई
3. स्थैतिक भूजल स्तर समोच्च रेखा मानचित्र को भूजल धारक के गुणधर्म समझाने के लिए उपयोग किया जा सकता है।
स्थैतिक जलस्तर की दूर फैली हुई समोच्च रेखाएँ भूजल को कम ढलान और अधिक प्रवाह क्षमता को दर्शाती हैं।
घनी समोच्च रेखाएँ भूजल की अधिक ढलान और कम प्रवाह क्षमता को दर्शाती हैं।
2. समोच्च रेखाओं से लम्बवत खींची रेखाएँ भूजल प्रवाह की दिशा दर्शाती हैं, इन्हें भूजल प्रवाह रेखाएँ कहते हैं।
3. समोच्च रेखाओं के अंक भूजल स्तर की समुद्रतल से ऊँचाई दर्शाते हैं।
4. भूजल समोच्च रेखाएँ और भूजल प्रवाह रेखाएँ भूजल रिसन और भूजल स्राव क्षेत्र को दर्शाती हैं।
भूजल धारक की सीमाएँ जलागम की सीमाओं से आगे भी फैल सकती हैं - भूजल धारक एक या अधिक जलागम क्षेत्रों में फैला हो सकता है।
1. एक जलागम क्षेत्र में एक से अधिक भूजल धारक भी हो सकते हैं।
2. एक जलागम में सभी जल धारकों की सीमाएँ जलागम क्षेत्र की सीमाओं के अन्दर हो सकती हैं।
3. एक जलागम में कुछ जल धारकों की सीमाएँ जलागम क्षेत्र की सीमाओं के अन्दर और कुछ की सीमा के बाहर हो सकती हैं।
जलस्तर सम्बन्धी आँकड़े नदी-नालों में सतही प्रवाह को समझाने के लिए लाभदायक होते हैं।
भाग - 4
1. जल गुणवत्ता पानी की भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषता है।
2. सुरक्षित पेयजल हर व्यक्ति का अधिकार है।
3. सुरक्षित जल का अर्थ है उपयुक्त गुणवत्ता वाले, उपयुक्त मात्रा में, निरन्तर, हर जगह और उपयुक्त कीमत पर पानी की उपलब्धता।
4. उचित गुणवत्ता वाले जल का अर्थ है सूक्ष्म जीवों और रासायनिक प्रदूषण से मुक्त जल।
पानी की गुणवत्ता को मापने के अधिकतर मानक पेयजल, घरेलू उपयोग हेतु जल और पर्यावरण की स्थिति से सम्बन्धित है।
पानी (सतही व भूजल) की गुणवत्ता निम्न पर निर्भर करती है:-
1. भूगर्भीय संरचना
2. पानी का उपयोग
3. पानी और चट्टानों के बीच का सम्पर्क समय
4. मनुष्य के दैनिक क्रियाकलाप
5. पर्यावरण की स्थिति
1. ग्रामीण भारत के कुल जल प्रयोग का 90 प्रतिशत भाग भूजल से आता है। (DDWS 2009)
3. भारत के 50 प्रतिशत जिलों में भूजल की गुणवत्ता को लेकर कोई न कोई समस्या है।
i. आर्सेनिक
ii. फ्लोराईड
iii. लवणता
iv. अधिक क्षारता
v. लौह तत्व की अधिकता
vi. कठोरता
देश के अधिकतर भागों में स्वास्थ्य और स्वच्छता की उचित व्यवस्था न होने के कारण पानी में जैविक प्रदूषण काफी आम है।
जल धारक चट्टानों में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले तत्वों के कारण प्रदूषण।
उदाहरण: आर्सेनिक, लौह तत्व, कठोरता, फ्लोराईड
मानवजनित स्रोत: मानवीय क्रिया कलापों के कारण प्रदूषण
उदाहरण: जैविक
कुछ समस्याएँ दोनों के मेल से होती हैं।
1. भूजल का अत्यधिक दोहन तटीय क्षेत्रों में पानी की खराब गुणवत्ता और लवणता को बढ़ाता है।
2. कम वर्षा या कम पुनर्भरण के कारण भूजल धारकों में प्रतिवर्ष ताजा पानी न भरना।
3. गहरे भूजल धारकों से पानी के उपयोग के कारण कठोर चट्टानों वाले क्षेत्रों में पानी में खनिजों की अधिकता और फ्लोराईड की समस्या।
4. कीटकनाशकों और उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण नाईट्रेट और सल्फेट की अधिकता।
5. पानी में अजैविक पदार्थों की अधिकता के कारण अधिक कठोरता और अधिक टीडीएस.
चट्टान या मिट्टी के सम्पर्क में आने के बाद पानी की रासायनिक संरचना में बदलाव आता है।
भूजल धारक के अन्दर और एक भूजल धारक से दूसरे भूजल धारक में प्रवाह के दौरान पानी की गुणवत्ता में बदलाव आ सकता है।
अधिकतर गहरे प्रतिबंधित भूजल धारकों में फ्लोराईड की मात्रा अधिक पाई जाती है।
2. pH मीटर, कंडक्टिविटी मीटर या H2S किट या फ्लोराईड किट या नाइट्रेट किट की सहायता से स्रोत पर ही जाँच करके।
पानी का नमूना लेकर मान्यता प्राप्त प्रयोगशाला में जाँच करवाई जा सकती है। प्रयोगशाला में जाँच के लिये पानी का नमूना 24 घंटे के भीतर प्रयोगशाला में पहुँच जाना चाहिए।
रासायनिक जाँच के लिए कम से कम 1 ली. पानी का नमूना लेना चाहिए।
कुएँ/नलकूप/ट्यूबवेल की नमूना जाँच कम से कम वर्ष में दो बार (मानसून से पहले और बाद में) करनी चाहिए।
पानी की नमूना जाँच पानी की रासायनिक संरचना के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान कराती है और समय, स्थान, रिसन क्षेत्र, स्राव क्षेत्र आदि के कारण पानी की गुणवत्ता में होने वाले परिवर्तन को भी दर्शाती है।
पानी के प्रकार को जानने के लिए आम तौर पर ‘पाई आलेख’ का उपयोग किया जाता है। इसमें पानी के रासायनिक गुणों को रेखाचित्र द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
1. भारत में उपलब्ध कुल मीठे पानी का 38.5 प्रतिशत पानी भूजल है।
2. भूजल सिंचाई की 55 प्रतिशत ग्रामीण भागों की 85 प्रतिशत और शहरी भागों तथा उद्योगों की 50 प्रतिशत पानी की आवश्यकता को पूरा करता है।
3. सीमित वर्षा और बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण पानी की मांग लगातार बढ़ रही है।
4. आने वाले 30-35 वर्षों में भूजल संसाधन पर अत्यधिक दबाव रहेगा।
भारत में पिछले 5 दशकों में भूजल का विकास और वर्तमान स्थिति (सिलेंडर हर दशक में भूजल की स्थिति दर्शा रहे हैं) (after COMMAN 2005)
1995 में देश में 4 प्रतिशत मंडल (Blocks) असुरक्षित भाग में थे, 2004 में 15 प्रतिशत मंडल असुरक्षित भाग में है।
सामुदायिक सम्पत्ति: सम्पत्ति के स्वामित्व की सामाजिक व्यवस्था जिसमें, संसाधन, उपभोक्ता समूह, संस्थागत ढाँचा, नियम, विवादों को सुलझाना, लाभ का वितरण और नियमों को बदलने के प्रावधान है।
1. समता का मुद्दा - पानी और जमीन के अधिकारों को अलग करना।
2. संसाधन का कुशल उपयोग - संसाधन उपयोग में समता और निरंतरता को बनाये रखते हुए खेत के स्तर पर जितना उपयोग सम्भव हो।
3. निरंतरता - लम्बे समय तक संसाधन की स्थिति और उसके उपयोग के बीच तालमेल।
भूगर्भिक स्थिति: डेकन बेसाल्ट और वैसीक्यूलर अमिग्ड़ोलाय्डल बेसाल्ट की एक के बाद एक परत।
भूजल शास्त्रीय अध्ययन के आधार पर इलाके को तीन वर्गों में बाँटा गया है:
वर्ग 1: भूजल के अत्यधिक दोहन वाला क्षेत्र
वर्ग 2: भूजल लवणता वाला क्षेत्र
वर्ग 3: समुदाय आधारित भूजल प्रबंधन के लिए उपयुक्त क्षेत्र
दोनों अवस्थाओं में पेयजल की समस्या है
1. ऊँचाई वाली जमीन
2. छोटा जोत आकार
3. अधिकतर वर्षा आधारित खेती
4. कम पानी देने वाले कुएँ, अधिक मौसमी
5. गर्मियों में पानी का भारी अभाव
6. जल गुणवत्ता की समस्या नहीं
1. नीची और अधिकतर उपजाऊ जमीन
2. मध्यम और बड़ा जोत आकार
3. अधिकतर सिंचित खेती
4. अधिक पानी देने वाले कुँआ
5. जल गुणवत्ता की समस्या, जल अभाव नहीं।
1. भूजल की गुणवत्ता और मात्रा सम्बन्धी मुद्दे
2. उपलब्धता
3. निश्चित पूर्ति
भूजल प्रबंधन के लिए भूजल धारकों को समझना आवश्यक है।
भूजल निकासी और पुनर्भरण
1. एक प्रकार की चट्टान से बने भूजल धारक उनकी जल संग्रहण और उनकी जल परिवहन क्षमता के कारण अलग-अलग व्यवहार कर सकते हैं।
2. हालाँकि जलागम ए और जलागम बी डेकन बेसाल्ट में है फिर भी उनकी जल संग्रहण क्षमता और पुनर्भरण की सम्भावना में अंतर है।
3. जलागम परियोजनाओं को लागू करते समय भूजल धारकों के इन गुणों का ध्यान रखना चाहिए।
4. भूजल धारकों को समझना भूजल प्रबंधन और जलागम प्रबंधन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।
भूजल धारकों का पता लगाने और उनका रेखांकन करने और जलागम विकास कार्यक्रम में जलागम ढाँचों के बारे में योजना बनाने में भूगर्भिक जानकारी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
कुएँ और बोर होल के जलस्तर के आंकड़ों का अध्ययन भूजल धारकों के सीमांकन के लिए किया जा सकता है।
जल गुणवत्ता का अध्ययन भी भूजल धारकों के सीमांकन के लिए किया जा सकता है। (refer भाग -4)
1. अलग-अलग विषय के लोगों को मिलाकर टीम बनाना
2. सर्वेक्षण (जानकारी और आंकड़े)
3. वैज्ञानिक सर्वेक्षण: भूगर्भिक सर्वेक्षण
4. तकनीकी सर्वेक्षण: इंजीनियरिंग
5. सामाजिक -आर्थिक और आजीविका सर्वेक्षण
6. एकत्रित जानकारी का संकलन
7. समुदाय के स्तर पर कार्ययोजना और लागू करने की कार्यविधि बनाना
8. समुदाय के साथ सम्पर्क में निरन्तरता
9. तय कार्ययोजना लागू करना और प्रभाव आकलन
1. सामुदायिक भूमि: समुदाय और सामुदायिक संसाधनों के बीच संघर्ष।
उदाहरण - जंगल या सामुदायिक भूमि पर कब्जा।
2. जल उपयोग की पद्धतियों को बदलने का प्रतिरोध।
3. सांझे जल प्रबंधन की धारणा की कमी।
4. मापन और निरीक्षण के प्रति उदासीनता।
5. भूजल संसाधन की मान्यता का प्रश्न।
6. मात्रा निर्धारण: उपलब्धता का अनुमान लगाने की चुनौती।
भूजल का महत्व
जल चक्र
1. वातावरण/पर्यावरण का निर्माण अलग-अलग मंडलों से मिलकर हुआ है।
2. वायुमंडलः गैसें और जलवाष्प
3. जलमंडल: पानी
4. स्थलमंडलः 1. चट्टानों वाला भाग 2. मिट्टी वाला भाग
5. जीवमंडल: जीव प्रजातियाँ
6. पानी मुख्य रूप से सूर्य की ऊर्जा के कारण इन मंडलों से होकर गुजरता है। अपने इस प्रवाह के दौरान पानी अपना रूप और स्थान बदलता है।
7. जल चक्र में पानी का प्रवाह विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा होता है। उदाहरण: वर्षण (वर्षा या हिमपात), वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन, रिसन, सतही जल बहाव और सघनन।
8. इस प्रवाह का अर्थ यह भी है कि पानी वातावरण में एक मण्डल में जाता है और वापिस आता है।
भूजल
2. यह जमीन की सतह के नीचे चट्टानों की दरारों व छिद्रों में पाया जाने वाला जल है।
3. भूजल वह जल है जो स्रोतों/झरनों (Springs) और सतही रिसाव या मूल प्रवाह के रूप में जमीन से बाहर निकलता है।
4. जमीन में अलग-अलग गहराई के कुँए खोदकर या मशीन से छेद (बोरवेल एवं ट्यूबवेल) करके भूजल प्राप्त किया जाता है।
भूजल एक संसाधन है, कुँए व स्रोत/झरना इसको पाने के साधन हैं।
भूजल के उपयोग
2. खेती
3. पशुपालन
4. उद्योग
5. प्राकृतिक/पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखना
भूजल का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिये होता है।
भूजल की समझ
भूजल को समझने के पाँच प्रमुख स्तम्भ:-
1. चट्टानों का अध्ययन या भूविज्ञान।
2. भूजल स्तर का अध्ययन।
3. भूजल के भंडारण और प्रवाह को समझना, उसके परिणाम और उसकी मात्रा को समझना और इनका विश्लेषण करना या मात्रात्मक विश्लेषण करना।
4. भूजल की गुणवत्ता को समझना।
5. भूजल संसाधनों का प्रबन्धन करना।
भाग -2
चट्टान और शैल पदार्थः भूजल के धारक
भूजल और भूगर्भ-विज्ञान
भूजल को समझने के लिए चट्टानों का अध्ययन आवश्यक है क्योंकिः
2. भूजल चट्टानों और चट्टानों से बने पदार्थों (शैल पदार्थ, जैसे रेत, बालू, गाद आदि) में पाया जाता है।
3. यह चट्टानों में मौजूद छिद्रों और दरारों में जमा/ठहरा रहता है।
5. ये छेद और दरारें ऐसी प्रक्रिया द्वारा भी बन सकते हैं जो चट्टानों को प्रभावित करती हैं।
6. चट्टानों के बहुत से प्रकार हैं और हर प्रकार की चट्टान में भूजल अलग-अलग प्रकार से पाया जाता है और उसका बहाव भी अलग-अलग होता है।
भूगर्भ- विज्ञानः चट्टानों/पत्थरों का विज्ञान
1. भू-विज्ञान, चट्टानों और उसमें पायी जाने वाली सरंचनाओं का विज्ञान है।
2. चट्टानें जमीन की सतह पर उभरी हुई या जमीन के नीचे पायी जाती है।
3.जमीन के धरातल को प्रभावित/नियन्त्रण करने वाला प्रमुख कारक धरातल के नीचे की चट्टानें हैं। भूगर्भ - विज्ञान की वह शाखा जो जमीन की बनावट/आकृति का अध्ययन करती हैं उसे भू-आकृति विज्ञान कहते हैं।
4. भू- आकृति विज्ञान हमें पानी के जमीन में रिसन से पूर्व उसके सतही प्रवाह को समझने में सहायता करता है।
5. भूजल-विज्ञान भूगर्भ-विज्ञान की वह शाखा है जो जमीन की सतह के नीचे चट्टानों में पानी के भंडारण और प्रवाह का अध्ययन करती है। इसकी सहायता से भूजल की उपलब्धता और उसकी गुणवत्ता के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
(भूगर्भ - विज्ञान, चट्टानों का विज्ञान, भूजल को समझने के लिए उपयोगी है। हवा, बर्फ और पानी की क्रिया विभिन्न चट्टानों पर अलग-अलग स्थलाकृतियों को जन्म देती है जैसे घाटी, झरने आदि।)
अपक्षय, अपरदन और भरण (टूटना, बहना और जमाव)
2. सतह पर मौजूद चट्टानों का अपक्षय (टूटना), अपरदन (बहाव/स्थानान्तरण) और अपने मूल स्थान से दूर भरण (जमाव) होता है।
3. जमा हुुआ पदार्थ समय के साथ ठोस होकर चट्टान का रूप ले लेता है और पुनः अपक्षय, अपरदन व भरण की प्रक्रिया से होकर गुजरता है। इस प्रकार ये चक्र लगातार चलता रहता है।
4. पत्थरों के ठोस होने, टूटने और फिर से ठोस होने की प्रक्रिया को शैल चक्र कहते हैं।
(अपक्षय, अपरदन और भरण तीन प्रक्रियाएँ हैं जो जमीन की सतही बनावट को बनाती है। अपक्षय, अपरदन और भरण की प्रक्रिया हवा, पानी और बर्फ जैसे कारकों द्वारा की जाती है।)
अपक्षय (टूटना)
2. चट्टानों का अपक्षय एक बहुत लम्बी और लगातार चलने वाली प्रक्रिया है।
3. चट्टानों का अपक्षय हवा, बहते हुए पानी या हिमखण्डों की बर्फ जैसे कारकों की वजह से होता है।
4. इन सबमें से बहता हुआ पानी सबसे प्रभावी कारक है क्योंकि यह लम्बे समय तक लगातार चट्टानों का अपक्षय करता है।
5. हवा, पानी और बर्फ की भौतिक और रासायनिक क्रियाओं के कारण कठोर चट्टानें छोटे टुकड़ों या कई बार बारीक कणों में टूट जाती हैं।
6. टूटी हुई चट्टानों को अपक्षीण या टूटी हुई चट्टानें कहते हैं।
जमीन की सतह के अंदर या ऊपर चट्टानों के भौतिक और रासायनिक रूप से टूटने की प्रक्रिया को अपक्षय कहते हैं।
विभिन्न प्रकार की चट्टानों का अलग-अलग प्रकार से अपक्षय होता है। कठोर चट्टानों के मुकाबले नर्म चट्टानों का अपक्षय अधिक आसानी से होता है।
अपरदन (बहना)
2. चट्टानों के टूटे हुए टुकड़ों और कणों को पानी, हवा या हिमखण्ड बहाकर ले जाते हैं, इस प्रक्रिया को अपरदन कहते हैं।
3. पानी की अपरदन क्षमता वर्षा की दर, जिस ढाल पर टूटी हुई चट्टान पड़ी है उसका तीखापन और ढाल पर मौजूद वनस्पति पर निर्भर कराती है। ये सब अपरदन के विरुद्ध बचाव का कार्य करते हैं।
बेड लोडः चट्टानों के बड़े टुकड़े नदी के तल में आगे बढ़ते हैं। वे तल में घिसटकर, लुढ़ककर या उछल कर आगे जाते हैं।
निलम्बित (लटकता हुआ): शैल पदार्थ पानी में लटके रहते हैं और नदी या नाले के बहाव के साथ बहते हैं।
विलयन: शैल पदार्थ पानी में ‘आयन’ के रूप में घुलकर विलय बनकर प्रवाहित होते हैं।
(अपक्षय के बाद होने वाली प्रक्रिया जो चट्टानों व शैल पदार्थों को अपने स्थान से हटा देती है, अपरदन कहलाती है। परिवहन/प्रवाह के दौरान कारक शैल पदार्थ का रूप बदल देता है।)
भरण (जमाव)
1. अपक्षय और अपरदन के बाद की अंतिम प्रक्रिया भरण है।
2. अपरिदित पदार्थ भौतिक प्रक्रियाओं जैसे पानी या हवा के वेग में कमी के कारण भंडारित किया जाता है।
3. उदाहरण: पहाड़ों से आने वाली नदी मैदानी इलाके में पहुँचने पर अपने साथ लायी गाद इत्यादि को उसके वेग में कमी आने के कारण भंडारित कर देती हैं।
4. अपरिदित पदार्थ रासायनिक रूप से भी भंडारित किये जा सकते हैं।
5. उदाहरणः अनुकूल परिस्थिति होने पर नदी, अपने साथ लाये घुलित पदार्थ को जमा कर देती है।
6. भंडारित पदार्थ का पुनः अपक्षय और अपरदन हो सकता है।
7. अपक्षय और अपरदन आपस में परिवर्तित होने वाली प्रक्रियाएँ हैं।
(भंडारित पदार्थ ठोस होकर चूना पत्थर किस्म की चट्टान बनता है। हवा, पानी और बर्फ द्वारा भंडारित अपरिदित पदार्थ डेल्टा, अलुवियल फैन, ओक्सबो लेक्स, सीढ़ीदार खेत, जलोढ़, रेत के टीले आदि भू-आकृतियों का निर्माण करते हैं।)
चट्टानें और उनके प्रकार
2. विभिन्न चट्टानों में खनिजों के अलग-अलग मिश्रण होते हैं, जो चट्टानों के बनाने की प्रक्रिया पर निर्भर हैं।
3. चट्टानें तीन प्रक्रियाओं द्वारा बनती हैं
क. ज्वालामुखीय घटना
ख. कायान्तरण
ग. अवसादन
(विभिन्न चट्टानों की सच्छिद्रता अलग होती हैं जो उनकी बनावट और बनाने की प्रक्रिया पर निर्भर करती है।)
ज्वालामुखी घटना
2. यह पदार्थ जब तक जमीन के अन्दर होता है तो ‘मैग्मा’ कहलाता है और जमीन की सतह पर आने पर इसे ‘लावा’ कहते हैं।
3. लावा जमीन पर आकर हवा और पानी के सम्पर्क में आने पर ठंडा होता है जिससे ज्वालामुखी चट्टानें बनती हैं।
4. कई बार यह पदार्थ जमीन के ऊपर नहीं आ पाता और सतह के नीचे ही ठंडा हो जाता है, इससे बनने वाली चट्टानों को प्लूटोनिक चट्टानें कहते हैं।
5. ज्वालामुखी और प्लूटोनिक दोनों प्रकार की चट्टानों को एक साथ आग्नेय चट्टानें कहते हैं।
(बसाल्ट एक ज्वालामुखी चट्टान है ग्रेनाईट एक प्लूटोनिक चट्टान है।)
अवसादन
2. यह टूटा हुआ पदार्थ हवा, पानी, जैसे कारकों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। अनुकूल परिस्थिति आने पर यह पदार्थ एक स्थान पर जमा कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को अवसादन कहते हैं और इन पदार्थों को अवसाद कहते हैं।
3. अवसाद से बनने वाली चट्टान को अवसादी चट्टान कहते हैं।
4. बलुई/रेतीली चट्टान रेत के जमा होकर ठोस होने से बनती है।
5. चूना पत्थर का निर्माण पानी द्वारा बहाकर लाए गए कैल्शियम कार्बोनेट के निक्षेपण (जमाव) के कारण होता है।
(अवसादन विभिन्न प्रक्रियाओं का मिश्रण है जिसमें अपक्षय, अपरदन, भरण और संघनन (ठोस होना) शामिल है। अवसादी चट्टानों का निर्माण जमाव या निक्षेपण की प्रक्रिया द्वारा होता है।)
कायांतरण
2. चट्टान की सम्पर्क में आने वाला लावा और मैग्मा आस-पास के तापमान को बढ़ा सकता है।
3. तापमान और दबाव में यह परिवर्तन चट्टान में भी परिवर्तन लाते हैं, इन परिवर्तनों को कायांतरण कहते हैं।
4. जिस चट्टान का कायांतरण होता है उसे कायांतरित चट्टान कहते हैं।
5. चूना पत्थर (लाइमस्टोन) जब अत्यधिक तापमान में कायांतरित होता है तो संगमरमर (मार्बल) बनता है।
6. ग्रेनाईट जब अत्यधिक दबाव में कायांतरित होता है तो नाईस बनता है।
(आग्नेय और अवसादी दोनों चट्टानें कायांतरति हो सकती है। कायांतरण से चट्टान के गुणधर्म बदल जाते हैं।)
चट्टानों के प्रकार
1. आग्नेय चट्टानें
2. अवसादी चट्टानें
3. कायांतरित चट्टानें
चट्टान का प्रकार | आग्नेय | अवसादी | कायांतरित |
निर्माण | मैग्मा और पिघले हुए शैल पदार्थों के कठोर होने पर | अपक्षय, अपरदन, भरण और ठोस होने पर | किसी चट्टान में तापमान या दबाव में बदलाव आने पर |
उदाहरण | ग्रेनाईट, डोलोराईट, बसाल्ट, गैब्रो, डायोराइट, ऐंडेसाईट | सैंडस्टोन, शेल, लाइमस्टोन | नाइस, शिस्ट, क्वाटजार्ईट, मार्बल |
खनिज
1. चट्टानें खनिजों से बनती हैं।
2. हर खनिज का एक भौतिक स्वरूप/ढाँचा होता है।
3. हर खनिज की एक रासायनिक बनावट होती है।
4. एक चट्टान का एक या अधिक खनिजों से मिलकर बनी हो सकती है।
5. खनिज विभिन्न प्रक्रियाओं, जैसे ज्वालामुखी घटना या कायांतरण के द्वारा बनते हैं। एक चट्टान के खनिज उसके बनने की प्रक्रिया को दर्शाते हैं।
6. खनिज चट्टान को उसका विशिष्ठ रंग और स्वरूप प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए मार्बल उसके खनिज कैल्साईट के कारण सफेद रंग का होता है।
7. खनिज उसके सम्पर्क में आने वाले पानी की गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं।
(विभिन्न खनिजों के अलग-अलग गुणधर्म होते हैं।)
चट्टानों में भूजल- छिद्र और खुले भागों का महत्व
1. चट्टानों में भूजल का एकत्रित होना और प्रवाह छिद्रों व खाली भागों की प्रकृति पर निर्भर है।
2. ये छिद्र या खाली भाग चट्टान या अवसाद के कणों के बीच खाली जगह के रूप में हो सकते हैं, जिन्हें नंगी आँखों से देखना मुश्किल हैं। कई बार ये छिद्र या खाली जगह एक गुुफा के समान बड़ी भी हो सकती हैं (उदाहरण के लिए चूना पत्थर में)
3. ये छेद या खाली जगह चट्टान में मौजूद दरारों या चट्टानों के जोड़ों के बीच खाली जगह बनने के कारण भी हो सकती हैं। दरारें आदि, सीधी या झुकी हुई हो सकती है।
4. भूजल चट्टानों में दरारों और छिद्रों में एकत्रित होता और बहता है।
5. किसी चट्टान में कितना पानी एकत्रित हो सकता है, चट्टान के अन्दर पानी एक स्थान से दूसरे स्थान तक किस गति से प्रवाह करेगा और अन्य बहुत सी चीजें उस चट्टान में मौजूद छिद्रों व दरारों के आकार और आकृति पर निर्भर करता है।
(रेत के कणों के बीच की खाली जगह/छिद्र भूजल संचय कर सकती है। चट्टान के अन्दर की दरारें भी भूजल का संचय कर सकती हैं और उसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रवाहित कर सकती है।)
भाग - 3
भूजल संचय और प्रवाह
भूजल धारक
1. भूजल धारकों (Aquifers) में पाया जाता है।
3. भूजल धारक जमीन की सतह के नजदीक या फिर जमीन के नीचे गहराई में पाए जाते हैं।
4. यदि अप्रतिबंधित भूजल धारक में कुँआ खोदें तो उस कुँए में जल स्तर एक स्तर तक ऊपर उठकर स्थिर हो जाता है। यदि प्रतिबंधित भूजल धारक में नलकूप बनाया जाता है तो पानी का स्तर ऊपर उठता है और प्रतिबंधित भूजल धारक की मोटाई से ऊपर स्थिर होता है। इन जलस्तरों को स्थैतिक जलस्तर (भूजल का स्थिर स्तर) कहते हैं।
एक भूजल धारक जमीन के नीचे एक जलागम की तरह होता है।
उथले भूजल धारक जिनका, मिट्टी या अपक्षयित चट्टान में मौजूद छिद्रों, केशिकाओं, दरारों आदि के माध्यम से वायुमंडल से सम्पर्क होता है, अप्रतिबंधित भूजल धारक कहलाते हैं। अप्रतिबंधित भूजल धारक के जलस्तर को स्थैतिक जलस्तर कहते हैं।
गहरे भूजल धारक जिनके नीचे और ऊपर चट्टानों की परत होने के कारण भूजल दबाव की स्थिति में रहता है, प्रतिबंधित भूजल धारक कहलाते हैं। प्रतिबंधित भूजल धारक के जलस्तर को पोटेन्शियोमेट्रिक सर्फेस कहते हैं।
भूजल का प्रवाह
2. इसलिए भूजल के प्रवाह को समझाने के लिए जलस्तर को मापने की आवश्यकता होती है।
3. जल स्तर की ऊँचाई में अंतर और ऊँचाई की वजह से बनने वाले दबाव के कारण पानी एक जगह से दूसरी जगह प्रवाहित होता है।
(वह ऊर्जा जो भूजल प्रवाह को बढ़ाती है, जलस्तर की ऊँचाई या पानी के दबाव से प्राप्त होती है। भूजल स्तर की ऊँचाई में एक स्थान से दूसरे स्थान में अन्तर होता है, इसी अन्तर के कारण भूजल प्रवाहित होता है।
भूजल स्तर और स्थैतिक भूजल स्तर
2. कुएँ में भूजल का मापन निम्न प्रकार से किया जाता हैः
क. जमीन स्तर से पानी की गहराई
ख. स्थैतिक भूजल स्तर की समुद्रतल से ऊँचाई
स्थैतिक भूजल स्तर की समुद्रतल से ऊँचाई = जमीन की समुद्रतल से ऊँचाई - पानी की गहराई
3. स्थैतिक भूजल स्तर समोच्च रेखा मानचित्र को भूजल धारक के गुणधर्म समझाने के लिए उपयोग किया जा सकता है।
स्थैतिक जलस्तर की दूर फैली हुई समोच्च रेखाएँ भूजल को कम ढलान और अधिक प्रवाह क्षमता को दर्शाती हैं।
घनी समोच्च रेखाएँ भूजल की अधिक ढलान और कम प्रवाह क्षमता को दर्शाती हैं।
भूजलस्तर समोच्च रेखाएँ
2. समोच्च रेखाओं से लम्बवत खींची रेखाएँ भूजल प्रवाह की दिशा दर्शाती हैं, इन्हें भूजल प्रवाह रेखाएँ कहते हैं।
3. समोच्च रेखाओं के अंक भूजल स्तर की समुद्रतल से ऊँचाई दर्शाते हैं।
4. भूजल समोच्च रेखाएँ और भूजल प्रवाह रेखाएँ भूजल रिसन और भूजल स्राव क्षेत्र को दर्शाती हैं।
जलागम और भूजल धारक के बीच सम्बन्ध को समझने के लिए स्थैतिक जलस्तर के आँकड़ों का उपयोग
भूजल धारक की सीमाएँ जलागम की सीमाओं से आगे भी फैल सकती हैं - भूजल धारक एक या अधिक जलागम क्षेत्रों में फैला हो सकता है।
1. एक जलागम क्षेत्र में एक से अधिक भूजल धारक भी हो सकते हैं।
2. एक जलागम में सभी जल धारकों की सीमाएँ जलागम क्षेत्र की सीमाओं के अन्दर हो सकती हैं।
3. एक जलागम में कुछ जल धारकों की सीमाएँ जलागम क्षेत्र की सीमाओं के अन्दर और कुछ की सीमा के बाहर हो सकती हैं।
जलस्तर सम्बन्धी आँकड़े नदी-नालों में सतही प्रवाह को समझाने के लिए लाभदायक होते हैं।
भाग - 4
जल गुणवत्ता
1. जल गुणवत्ता पानी की भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषता है।
2. सुरक्षित पेयजल हर व्यक्ति का अधिकार है।
3. सुरक्षित जल का अर्थ है उपयुक्त गुणवत्ता वाले, उपयुक्त मात्रा में, निरन्तर, हर जगह और उपयुक्त कीमत पर पानी की उपलब्धता।
4. उचित गुणवत्ता वाले जल का अर्थ है सूक्ष्म जीवों और रासायनिक प्रदूषण से मुक्त जल।
पानी की गुणवत्ता को मापने के अधिकतर मानक पेयजल, घरेलू उपयोग हेतु जल और पर्यावरण की स्थिति से सम्बन्धित है।
पानी (सतही व भूजल) की गुणवत्ता निम्न पर निर्भर करती है:-
1. भूगर्भीय संरचना
2. पानी का उपयोग
3. पानी और चट्टानों के बीच का सम्पर्क समय
4. मनुष्य के दैनिक क्रियाकलाप
5. पर्यावरण की स्थिति
भारत में भूजल की गुणवत्ता
1. ग्रामीण भारत के कुल जल प्रयोग का 90 प्रतिशत भाग भूजल से आता है। (DDWS 2009)
3. भारत के 50 प्रतिशत जिलों में भूजल की गुणवत्ता को लेकर कोई न कोई समस्या है।
मुख्य समस्याएँ
i. आर्सेनिक
ii. फ्लोराईड
iii. लवणता
iv. अधिक क्षारता
v. लौह तत्व की अधिकता
vi. कठोरता
देश के अधिकतर भागों में स्वास्थ्य और स्वच्छता की उचित व्यवस्था न होने के कारण पानी में जैविक प्रदूषण काफी आम है।
पानी की गुणवत्ता में कमी क्यों आती है?
जल धारक चट्टानों में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले तत्वों के कारण प्रदूषण।
उदाहरण: आर्सेनिक, लौह तत्व, कठोरता, फ्लोराईड
मानवजनित स्रोत: मानवीय क्रिया कलापों के कारण प्रदूषण
उदाहरण: जैविक
कुछ समस्याएँ दोनों के मेल से होती हैं।
कारण:
1. भूजल का अत्यधिक दोहन तटीय क्षेत्रों में पानी की खराब गुणवत्ता और लवणता को बढ़ाता है।
2. कम वर्षा या कम पुनर्भरण के कारण भूजल धारकों में प्रतिवर्ष ताजा पानी न भरना।
3. गहरे भूजल धारकों से पानी के उपयोग के कारण कठोर चट्टानों वाले क्षेत्रों में पानी में खनिजों की अधिकता और फ्लोराईड की समस्या।
4. कीटकनाशकों और उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण नाईट्रेट और सल्फेट की अधिकता।
5. पानी में अजैविक पदार्थों की अधिकता के कारण अधिक कठोरता और अधिक टीडीएस.
भूजल का क्रमिक विकास
चट्टान या मिट्टी के सम्पर्क में आने के बाद पानी की रासायनिक संरचना में बदलाव आता है।
भूजल धारक के अन्दर और एक भूजल धारक से दूसरे भूजल धारक में प्रवाह के दौरान पानी की गुणवत्ता में बदलाव आ सकता है।
अधिकतर गहरे प्रतिबंधित भूजल धारकों में फ्लोराईड की मात्रा अधिक पाई जाती है।
भूजल की नमूना जाँच
2. pH मीटर, कंडक्टिविटी मीटर या H2S किट या फ्लोराईड किट या नाइट्रेट किट की सहायता से स्रोत पर ही जाँच करके।
पानी का नमूना लेकर मान्यता प्राप्त प्रयोगशाला में जाँच करवाई जा सकती है। प्रयोगशाला में जाँच के लिये पानी का नमूना 24 घंटे के भीतर प्रयोगशाला में पहुँच जाना चाहिए।
रासायनिक जाँच के लिए कम से कम 1 ली. पानी का नमूना लेना चाहिए।
कुएँ/नलकूप/ट्यूबवेल की नमूना जाँच कम से कम वर्ष में दो बार (मानसून से पहले और बाद में) करनी चाहिए।
पानी की नमूना जाँच पानी की रासायनिक संरचना के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान कराती है और समय, स्थान, रिसन क्षेत्र, स्राव क्षेत्र आदि के कारण पानी की गुणवत्ता में होने वाले परिवर्तन को भी दर्शाती है।
पानी के प्रकार को जानने के लिए आम तौर पर ‘पाई आलेख’ का उपयोग किया जाता है। इसमें पानी के रासायनिक गुणों को रेखाचित्र द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
भूजल के मुख्य गुणधर्म:
गुणधर्म | अप्रतिबंधित भूजल धारक | प्रतिबंधित धारक |
पुनर्भरण | सामान्यतः जल्दी पुनर्भरण | अधिक लंबे प्रवास के कारण देर से पुनर्भरण |
खनिजीकरण | कम खनिजीय | अधिक खनिजीय |
पानी का प्रकार | HCO3 प्रकार | CO3-SO4-CI-Na-Mg प्रकार |
घुलित पदार्थ | कम TDS | अधिक TDS |
प्रदूषक | अधिक जैविक प्रदूषक | अधिक रासायनिक प्रदूषक |
भाग - 5
भूजल प्रबंधन
1. भारत में उपलब्ध कुल मीठे पानी का 38.5 प्रतिशत पानी भूजल है।
2. भूजल सिंचाई की 55 प्रतिशत ग्रामीण भागों की 85 प्रतिशत और शहरी भागों तथा उद्योगों की 50 प्रतिशत पानी की आवश्यकता को पूरा करता है।
3. सीमित वर्षा और बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण पानी की मांग लगातार बढ़ रही है।
4. आने वाले 30-35 वर्षों में भूजल संसाधन पर अत्यधिक दबाव रहेगा।
भारत में पिछले 5 दशकों में भूजल का विकास और वर्तमान स्थिति (सिलेंडर हर दशक में भूजल की स्थिति दर्शा रहे हैं) (after COMMAN 2005)
1995 में देश में 4 प्रतिशत मंडल (Blocks) असुरक्षित भाग में थे, 2004 में 15 प्रतिशत मंडल असुरक्षित भाग में है।
भूजल सांझे संसाधन के रूप में
सामुदायिक सम्पत्ति: सम्पत्ति के स्वामित्व की सामाजिक व्यवस्था जिसमें, संसाधन, उपभोक्ता समूह, संस्थागत ढाँचा, नियम, विवादों को सुलझाना, लाभ का वितरण और नियमों को बदलने के प्रावधान है।
1. समता का मुद्दा - पानी और जमीन के अधिकारों को अलग करना।
2. संसाधन का कुशल उपयोग - संसाधन उपयोग में समता और निरंतरता को बनाये रखते हुए खेत के स्तर पर जितना उपयोग सम्भव हो।
3. निरंतरता - लम्बे समय तक संसाधन की स्थिति और उसके उपयोग के बीच तालमेल।
पूर्वी पुरंदर: अच्छी भूगर्भिक समझ से भूजल की समस्याओं की समझ तक
भूगर्भिक स्थिति: डेकन बेसाल्ट और वैसीक्यूलर अमिग्ड़ोलाय्डल बेसाल्ट की एक के बाद एक परत।
भूजल शास्त्रीय अध्ययन के आधार पर इलाके को तीन वर्गों में बाँटा गया है:
वर्ग 1: भूजल के अत्यधिक दोहन वाला क्षेत्र
वर्ग 2: भूजल लवणता वाला क्षेत्र
वर्ग 3: समुदाय आधारित भूजल प्रबंधन के लिए उपयुक्त क्षेत्र
साँझे संसाधन के रूप में भूजल का प्रबंधन
दोनों अवस्थाओं में पेयजल की समस्या है
पहली अवस्था के किसान
1. ऊँचाई वाली जमीन
2. छोटा जोत आकार
3. अधिकतर वर्षा आधारित खेती
4. कम पानी देने वाले कुएँ, अधिक मौसमी
5. गर्मियों में पानी का भारी अभाव
6. जल गुणवत्ता की समस्या नहीं
दूसरी अवस्था के किसान
1. नीची और अधिकतर उपजाऊ जमीन
2. मध्यम और बड़ा जोत आकार
3. अधिकतर सिंचित खेती
4. अधिक पानी देने वाले कुँआ
5. जल गुणवत्ता की समस्या, जल अभाव नहीं।
मुख्य मुद्दे
1. भूजल की गुणवत्ता और मात्रा सम्बन्धी मुद्दे
2. उपलब्धता
3. निश्चित पूर्ति
भूजल धारकों की समझ
भूजल प्रबंधन के लिए भूजल धारकों को समझना आवश्यक है।
भूजल निकासी और पुनर्भरण
1. एक प्रकार की चट्टान से बने भूजल धारक उनकी जल संग्रहण और उनकी जल परिवहन क्षमता के कारण अलग-अलग व्यवहार कर सकते हैं।
2. हालाँकि जलागम ए और जलागम बी डेकन बेसाल्ट में है फिर भी उनकी जल संग्रहण क्षमता और पुनर्भरण की सम्भावना में अंतर है।
3. जलागम परियोजनाओं को लागू करते समय भूजल धारकों के इन गुणों का ध्यान रखना चाहिए।
4. भूजल धारकों को समझना भूजल प्रबंधन और जलागम प्रबंधन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।
भूजल धारक सीमांकन: अच्छी भूगर्भिक जानकारी महत्त्वपूर्ण
भूजल धारकों का पता लगाने और उनका रेखांकन करने और जलागम विकास कार्यक्रम में जलागम ढाँचों के बारे में योजना बनाने में भूगर्भिक जानकारी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
कुएँ और बोर होल के जलस्तर के आंकड़ों का अध्ययन भूजल धारकों के सीमांकन के लिए किया जा सकता है।
जल गुणवत्ता का अध्ययन भी भूजल धारकों के सीमांकन के लिए किया जा सकता है। (refer भाग -4)
भूजल उपयोग के अलग-अलग चरणों में भूजल प्रबंधन के नियम (प्रोटोकाल)
भूजल प्रबंधन की प्रक्रिया
1. अलग-अलग विषय के लोगों को मिलाकर टीम बनाना
2. सर्वेक्षण (जानकारी और आंकड़े)
3. वैज्ञानिक सर्वेक्षण: भूगर्भिक सर्वेक्षण
4. तकनीकी सर्वेक्षण: इंजीनियरिंग
5. सामाजिक -आर्थिक और आजीविका सर्वेक्षण
6. एकत्रित जानकारी का संकलन
7. समुदाय के स्तर पर कार्ययोजना और लागू करने की कार्यविधि बनाना
8. समुदाय के साथ सम्पर्क में निरन्तरता
9. तय कार्ययोजना लागू करना और प्रभाव आकलन
कार्य क्षेत्र में आने वाली कठिनाइयाँ
1. सामुदायिक भूमि: समुदाय और सामुदायिक संसाधनों के बीच संघर्ष।
उदाहरण - जंगल या सामुदायिक भूमि पर कब्जा।
2. जल उपयोग की पद्धतियों को बदलने का प्रतिरोध।
3. सांझे जल प्रबंधन की धारणा की कमी।
4. मापन और निरीक्षण के प्रति उदासीनता।
5. भूजल संसाधन की मान्यता का प्रश्न।
6. मात्रा निर्धारण: उपलब्धता का अनुमान लगाने की चुनौती।
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