गांवों से तालाबों, कुओं, झीलों और बावड़ियों के खत्म होने या सरकारी उपेक्षा से उन्हें जानबूझ कर खत्म कर देने के बाद देशभर में भूजल का रिचार्ज सिस्टम भी ध्वस्त हो गया। देशभर में रासायनिक खेती जोर-शोर से बढ़ रही है, जिसमें सिंचाई के लिए बहुत पानी की जरूरत होती है। ‘जब ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ने 20 वर्षों में खेती के लिए पानी की खपत में 30 फीसदी की कमी कर ली है तो फिर भारत क्यों नहीं कर सकता?’ ऐसे सवालों के जवाब हमारी पर्टियां के घोषणापत्रों में नहीं मिलते। देश में भूजल का गिरता स्तर पर्यावरणविदों और भूवैज्ञानिकों की चिंता का कारण बना हुआ है। यह चिंता अक्सर कई माध्यमों से सामने भी आती रही है लेकिन सभी राजनीतिक दलों के एजेंडे में यह मुद्दा शामिल नहीं है। ‘यमुना जिये अभियान’ के संयोजक और पर्यावरणविद मनोज मिश्र कहते हैं, ‘बात केवल भूजल का स्तर गिरने की नहीं है बल्कि राजनीतिक दलों ने देश में पर्यावरण से जुड़े सभी मुद्दों से कन्नी काट रखी है। इनके लिए नीतियां बनाने की जहमत कोई नहीं उठाना चाहता।
लिहाजा जल, जंगल जमीन और बिगड़ते पर्यावरण को लेकर केवल स्वयंसेवी संस्थाएं और पर्यावरविदों को ही सक्रिय होना पड़ा है।’ भूजल के गिरते स्तर के कारण कई राज्य सूखे की चपेट में है। उत्तर भारत में दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में कई जिलों में भूजल 100 फुट तक नीचे चला गया है। ‘नेशनल एनवायरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में भूजल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है।
इतना ही नहीं, सरकारी उदासीनता के चलते पूर्वोत्तर के राज्यों में अंधाधुंध वनकटान के कारण कई इलाके जलसंकट से गुजर रहे हैं। केंद्र सरकार की नीतियों के चलते मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़ीशा और आंध्र प्रदेश में खनन की मंजूरी के बाद कई इलाके जल संकट के दौर से गुजर रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि भूजल के गिरते स्तर की रोकथाम के लिए अगर राष्ट्रव्यापी नीति नहीं बनाई गई तो आने वाले दिनों में देश में भयंकर खाद्यान्न संकट खड़ा हो सकता है।
मनोज मिश्र कहते हैं, ‘देश में तालाब, झील, पोखर, बावड़ियां और नदियां सूख रही हैं। भूजल का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, खेतीबाड़ी के तौर-तरीकों, मुफ्त में बिजली देने की घोषणाओं, अव्यवस्थित शहरीकरण के कारण भूजल बहुत नीचे जा चुका है।’
भारत में हर साल 230 घनकिलोमीटर भूजल का दोहन होता है। इसमें 60 फीसदी खेती की जरूरत को और शेष शहरी और ग्रामीण इलाकों की खपत में तथा उद्योग-धंधों की जरूरतों को पूरा करने के काम आता है। देश में भूजल दोहन की कोई नीति नहीं बनाई गई तो 2025 तक भारत में पानी का खतरनाक स्तर पर संकट खड़ा हो जाएगा।
गौरतलब है कि भूजल के दोहन पर हर राज्य सरकार का रवैया सतही है और उन्होंने भूजल की चिंता की सारी जिम्मेदारी केंद्र पर डाल रखी है। केंद्र सरकार ने भूजल संरक्षण एवं प्रबंधन के संबंध में एक विधेयक का मसौदा 1970 में ही राज्य सरकारों के पास भेजा था लेकिन उन्होंने इस विषय में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
स्वयंसेवी संगठनों और पर्यावरणविदों के दबाव के बाद आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, गोवा, गुजरात और महाराष्ट्र सरकार ने अपने यहां भूजल प्राधिकरण का गठन तो जरूर कर दिया है लेकिन जमीन स्तर पर जल संरक्षण के उपाय कहीं दिखाई नहीं देते वाटर रिचार्जिंग, रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम और औद्योगिक व सिंचाई आवश्यकताओं के लिए नलकूपों के निर्माण पर राज्य सरकारों की कोई नीति नहीं है।
मनोज मिश्र कहते हैं कि देश में वर्षा के जल के सही नियोजन की नीति की जरूरत है और कम पानी से खेती करने के तौर-तरीकों के प्रचार-प्रसार के बारे में किसानों को जागरूक करने की आवश्यकता है। सत्तर के दशक के बाद ट्यूबवेल क्रांति की शुरुआत हुई और खेत-खेत पर बड़े-बड़े नलकूप दिखाई देने लगे, सिंचाई के कुएं खत्म हो गए। विशालकाय ट्यूबवेल भूजल के लिए सबसे बड़े अभिशाप हैं। राज्य सरकारों को इनके बारे में नीति बनानी चाहिए। गांवों से तालाबों, कुओं, झीलों और बावड़ियों के खत्म होने या सरकारी उपेक्षा से उन्हें जानबूझ कर खत्म कर देने के बाद देशभर में भूजल का रिचार्ज सिस्टम भी ध्वस्त हो गया।
देशभर में रासायनिक खेती जोर-शोर से बढ़ रही है, जिसमें सिंचाई के लिए बहुत पानी की जरूरत होती है। ‘जब ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ने 20 वर्षों में खेती के लिए पानी की खपत में 30 फीसदी की कमी कर ली है तो फिर भारत क्यों नहीं कर सकता?’ ऐसे सवालों के जवाब हमारी पर्टियां के घोषणापत्रों में नहीं मिलते।
पर्यावरणविदों का कहना है कि भूजल के गिरते स्तर को तभी थामा जा सकता है जब छोटे-छोटे चेकडैमों का निर्माण हो, औद्योगिक क्षेत्रों से निकलने वाला रासायनिक कचरा रिसाइकिलिंग के बाद ही प्रवाहित हो, वर्षा जल को संरक्षित किया जाए, परंपरागत जल स्रोतों से अवैध कब्जे हटाए जाएं, कचरा प्रबंधन की व्यवस्था हो, वनों से छेड़छाड़ बंद हो, जल संरक्षण को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए और शहरों को व्यवस्थित तरीके से बसाया जाए। जल जिसे जीवन माना जाता है, उसे बचाने के लिए पार्टियों के चुनाव घोषणापत्र खामोश नजर आते हैं।
खेत-खेत पर बड़े-बड़े नलकूप भूजल के लिए सबसे बड़े अभिशाप हैं। राज्य सरकारों को इनके बारे में नीति बनानी चाहिए और गांवों से तालाबों, कुओं, झीलों और बावड़ियों के खत्म होने से बचाना चाहिए अन्यथा देशभर में भूजल को रिचार्ज करने वाले सिस्टम ही ध्वस्त हो जाएंगे।
मनोज मिश्र, पर्यावरणविद्, संयोजक, यमुना जिये अभियान
लिहाजा जल, जंगल जमीन और बिगड़ते पर्यावरण को लेकर केवल स्वयंसेवी संस्थाएं और पर्यावरविदों को ही सक्रिय होना पड़ा है।’ भूजल के गिरते स्तर के कारण कई राज्य सूखे की चपेट में है। उत्तर भारत में दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में कई जिलों में भूजल 100 फुट तक नीचे चला गया है। ‘नेशनल एनवायरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में भूजल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है।
इतना ही नहीं, सरकारी उदासीनता के चलते पूर्वोत्तर के राज्यों में अंधाधुंध वनकटान के कारण कई इलाके जलसंकट से गुजर रहे हैं। केंद्र सरकार की नीतियों के चलते मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़ीशा और आंध्र प्रदेश में खनन की मंजूरी के बाद कई इलाके जल संकट के दौर से गुजर रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि भूजल के गिरते स्तर की रोकथाम के लिए अगर राष्ट्रव्यापी नीति नहीं बनाई गई तो आने वाले दिनों में देश में भयंकर खाद्यान्न संकट खड़ा हो सकता है।
मनोज मिश्र कहते हैं, ‘देश में तालाब, झील, पोखर, बावड़ियां और नदियां सूख रही हैं। भूजल का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, खेतीबाड़ी के तौर-तरीकों, मुफ्त में बिजली देने की घोषणाओं, अव्यवस्थित शहरीकरण के कारण भूजल बहुत नीचे जा चुका है।’
भारत में हर साल 230 घनकिलोमीटर भूजल का दोहन होता है। इसमें 60 फीसदी खेती की जरूरत को और शेष शहरी और ग्रामीण इलाकों की खपत में तथा उद्योग-धंधों की जरूरतों को पूरा करने के काम आता है। देश में भूजल दोहन की कोई नीति नहीं बनाई गई तो 2025 तक भारत में पानी का खतरनाक स्तर पर संकट खड़ा हो जाएगा।
गौरतलब है कि भूजल के दोहन पर हर राज्य सरकार का रवैया सतही है और उन्होंने भूजल की चिंता की सारी जिम्मेदारी केंद्र पर डाल रखी है। केंद्र सरकार ने भूजल संरक्षण एवं प्रबंधन के संबंध में एक विधेयक का मसौदा 1970 में ही राज्य सरकारों के पास भेजा था लेकिन उन्होंने इस विषय में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
स्वयंसेवी संगठनों और पर्यावरणविदों के दबाव के बाद आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, गोवा, गुजरात और महाराष्ट्र सरकार ने अपने यहां भूजल प्राधिकरण का गठन तो जरूर कर दिया है लेकिन जमीन स्तर पर जल संरक्षण के उपाय कहीं दिखाई नहीं देते वाटर रिचार्जिंग, रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम और औद्योगिक व सिंचाई आवश्यकताओं के लिए नलकूपों के निर्माण पर राज्य सरकारों की कोई नीति नहीं है।
मनोज मिश्र कहते हैं कि देश में वर्षा के जल के सही नियोजन की नीति की जरूरत है और कम पानी से खेती करने के तौर-तरीकों के प्रचार-प्रसार के बारे में किसानों को जागरूक करने की आवश्यकता है। सत्तर के दशक के बाद ट्यूबवेल क्रांति की शुरुआत हुई और खेत-खेत पर बड़े-बड़े नलकूप दिखाई देने लगे, सिंचाई के कुएं खत्म हो गए। विशालकाय ट्यूबवेल भूजल के लिए सबसे बड़े अभिशाप हैं। राज्य सरकारों को इनके बारे में नीति बनानी चाहिए। गांवों से तालाबों, कुओं, झीलों और बावड़ियों के खत्म होने या सरकारी उपेक्षा से उन्हें जानबूझ कर खत्म कर देने के बाद देशभर में भूजल का रिचार्ज सिस्टम भी ध्वस्त हो गया।
देशभर में रासायनिक खेती जोर-शोर से बढ़ रही है, जिसमें सिंचाई के लिए बहुत पानी की जरूरत होती है। ‘जब ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ने 20 वर्षों में खेती के लिए पानी की खपत में 30 फीसदी की कमी कर ली है तो फिर भारत क्यों नहीं कर सकता?’ ऐसे सवालों के जवाब हमारी पर्टियां के घोषणापत्रों में नहीं मिलते।
पर्यावरणविदों का कहना है कि भूजल के गिरते स्तर को तभी थामा जा सकता है जब छोटे-छोटे चेकडैमों का निर्माण हो, औद्योगिक क्षेत्रों से निकलने वाला रासायनिक कचरा रिसाइकिलिंग के बाद ही प्रवाहित हो, वर्षा जल को संरक्षित किया जाए, परंपरागत जल स्रोतों से अवैध कब्जे हटाए जाएं, कचरा प्रबंधन की व्यवस्था हो, वनों से छेड़छाड़ बंद हो, जल संरक्षण को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए और शहरों को व्यवस्थित तरीके से बसाया जाए। जल जिसे जीवन माना जाता है, उसे बचाने के लिए पार्टियों के चुनाव घोषणापत्र खामोश नजर आते हैं।
खेत-खेत पर बड़े-बड़े नलकूप भूजल के लिए सबसे बड़े अभिशाप हैं। राज्य सरकारों को इनके बारे में नीति बनानी चाहिए और गांवों से तालाबों, कुओं, झीलों और बावड़ियों के खत्म होने से बचाना चाहिए अन्यथा देशभर में भूजल को रिचार्ज करने वाले सिस्टम ही ध्वस्त हो जाएंगे।
मनोज मिश्र, पर्यावरणविद्, संयोजक, यमुना जिये अभियान
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