भारत में भूजल दोहन की स्थिति जानने का मौजूदा तरीका मूलतः गणितीय है। उसकी इकाई विकासखण्ड होने के कारण, भूजल दोहन को विकासखण्ड वार दर्शाया जाता है। इस तरीके में एक साल में प्राकृतिक तरीके से जितना पानी विकासखण्ड की धरती में रीचार्ज होता है उसका अनुमान लगाया जाता है। तदोपरान्त, आलोच्य वर्ष में उसी विकासखण्ड में भूजल दोहन का अनुमान लगाया जाता है। इसके बाद, रीचार्ज और दोहन का सम्बन्ध ज्ञात किया जाता है। इस सम्बन्ध को प्रतिशत में दर्शाया जाता है।
आमजन की भाषा में कहा जा सकता है कि यदि बरसात के दिनों में विकासखण्ड में एक सौ लीटर पानी जमीन में उतरता है और अगली बरसात के पहले पूरा सौ लीटर पानी बाहर निकाल लिया जाता है तो उसे भूजल का 100 प्रतिशत दोहन कहेंगे। गौरतलब है कि मौजूदा सोच, भूजल रीचार्ज के शत-प्रतिशत दोहन का पक्षधर है। विदित हो, वह, दोहन के प्रभाव को कुओं, नलकूपों या नदियों के सूखने से जोड़ने का प्रयास नहीं करता।
भारत में भूजल भण्डारों की स्थिति जानने का पहला प्रयास 1972 में हुआ था। यह फौरी प्रयास था। इसके दौरान अनुभव हुआ कि देश के भूजल भण्डारों के विकास का रोडमैप तय करने के लिये तथ्य आधारित, तार्किक एवं उपयुक्त विधि आवश्यक है। इस हेतु, भारत सरकार ने, 1979 में ग्राउंड वाटर ओवरएक्सप्लायटेशन कमेटी (Ground water overexploitation committee) का गठन किया।
कमेटी ने, भूजल दोहन की हकीकत दर्शाने के लिये विकासखण्डों को इकाई मानकर भूजल रीचार्ज और दोहन के आधार पर मानक तय किये। समय-समय पर मूल विधि को परिष्कृत करने के लिये उसमें बदलाव किये। वर्तमान में 1997 में सुझाई विधि के आधार पर भूजल दोहन की वास्तविकता जानी जाती है।
इस विधि द्वारा अपनाए मानकों के अनुसार, 70 प्रतिशत से कम भूजल दोहन वाले विकासखण्डों को सुरक्षित, 71 प्रतिशत से 90 प्रतिशत तक दोहन वाले विकासखण्डों को सेमी-क्रिटिकल, 91 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक दोहन वाले विकासखण्डों को क्रिटिकल और 100 प्रतिशत से अधिक भूजल दोहन वाले विकासखण्डों को अतिदोहित विकासखण्ड कहा जाता है।
मौजूदा विधि का आधार पूरी तरह गणितीय है। यह विधि, आलोच्य वर्ष में विकासखण्ड में भूजल दोहने के प्रतिशत को दर्शाती है। वह प्रतिशत, भूजल के उपयोग की भावी सम्भावना का संकेत देता है। यह संकेत, भूजल दोहन को अतिदोहन की दिशा में ले जाता है। कुछ लोगों को लगता है, नदियों के सूखने और पेयजल संकट का यही असली कारण है।
भूजल की श्रेणी या दोहन प्रतिशत के आधार पर, अधिकांश लोग, जमीनी हकीकत नहीं समझ पाते। किसी को भी समझ में नहीं आता कि उस स्थिति में पहुँचने के कारण विकासखण्ड के कुओं और नलकूपों पर क्या असर हुआ होगा। विधि, उनके सूखने के बारे में भी संकेत नहीं देती। उससे यह भी पता नहीं चलता कि विकासखण्ड की नदियों में प्रवाह की क्या स्थिति है?
दूसरे शब्दों में मौजूदा तकनीक नदियों, कुओं और नलकूपों की निरापद सेहत के बारे संकेत नहीं देती। वह, हकीकत में, भूजल भण्डारों के विकास का निरापद रोडमैप तय नहीं करती। वह, भूजल का उपयोग करने वाले लाखों किसानों के सरोकारों की पहरेदारी नहीं करती। वह विधि, श्रेणी या दोहन के प्रतिशत के आधार पर भूजल आश्रित पेयजल योजनाओं के दम तोड़ने या संकट के चक्रव्यूह में प्रवेश को नहीं दर्शाती। वह, समय रहते जिम्मेदारों, अधिकारियों तथा जनप्रतिनिधियों को सचेत नहीं करती। वह केवल, गणितीय तरीके से भूजल दोहन को प्रतिशत में दर्शाकर अपने दायित्वों को पूरा मान लेती है।
इसी कारण भूजल से जुड़े सामाजिक सरोकारों की अनदेखी हो रही है। भूजल आधारित खेती और पेयजल योजनाओं की सेवा और विश्वसनीयता साल-दर-साल घट रही हैं। यह लगभग हर साल की कहानी है।
देश के अधिकांश हिस्से को प्रभावित करने वाले सूखे का मुख्य कारण भूजल भण्डारों का रीतना है। कुछ लोग, जाने-अनजाने में बरसात के दिनों में भूजल रीचार्ज की बेइन्तहा पैरवी करते हैं। वे लोग, प्रकारान्तर से उस वैज्ञानिक हकीकत की अनदेखी करते हैं जो दर्शाती है कि हर साल बरसात के मौसम में धरती का पेट, लगभग भर जाता है इसलिये रीचार्ज प्रयासों को प्रारम्भ करने का असली समय वह है जब भूजल भण्डारों का रीतना और उस पर आधारित स्रोतों का सूखना प्रारम्भ होता है।
इसकी सटीक चेतावनी छोटी और मंझौली नदियों के प्रवाह के टूटने तथा उथले कुओं के सूखने से मिलती है। बरसों से इन संकेतों की अनदेखी और बरसात में ही भूजल रीचार्ज की पैरवी हो रही है। इस गलतफहमी के मायाजाल से बाहर आना ही होगा। जलस्रोतों की वास्तविकता दर्शाने वाली विधि को अपनाने से ही मुक्ति मार्ग मिलेगा। इसके लिये, सबसे पहले, मौजूदा विधि को तिलांजली देना होगा।
भूजल दोहन के स्तर को नेशनल वाटरशेड एटलस (1990) की वाटरशेड इकाई (सबसे छोटी पाँचवी इकाई, औसत साइज एक लाख हेक्टेयर) की मुख्य नदी के सूखने से जोड़ने की जरूरत है। इसके लिये वाटरशेड इकाई का नाम और प्रवाह सूखने के माह को तिथि सहित नोट किया जाना चाहिए। मुख्य नदी के सूखने की अवधि के आधार पर प्रस्तावित वर्गीकरण, कार्यवाही और अपेक्षित परिणामों को निम्न तालिका में दर्शाया है-
क्रमांक |
इकाई की मुख्य नदी के सूखने की अवधि |
श्रेणी |
प्रस्तावित कार्यवाही |
अपेक्षित परिणाम |
1. |
नवम्बर-दिसम्बर |
मरणासन्न |
इस इकाई में नदी पुनर्जीवन प्रयासों को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार प्रारम्भ किया जाये। |
प्रवाह बहाली के साथ-साथ भूजल स्रोतों का सूखना घटेगा। अति गम्भीर पेयजल संकट से मुक्ति की पूर्ण सम्भावना। |
2. |
जनवरी-फरवरी |
अत्यन्त गम्भीर |
इस इकाई में नदी पुनर्जीवन प्रयासों को प्राथमिकता के आधार प्रारम्भ किया जाये। |
जनवरी-फरवरी तक प्रवाह बहाली के कारण कुएँ और नलकूप रबी की फसलों को पानी दे सकेंगे। पेयजल संकट की सम्भावना बेहद कम।
|
3 |
मार्च-अप्रैल |
चिन्ताजनक |
इस इकाई में नदी पुनर्जीवन प्रयासों को प्रारम्भ किया जाये। |
कुओं और नलकूपों में भूजल उपलब्ध होगा। पेयजल संकट की सम्भावना बहुत कम। |
4. |
मई-जून |
सामान्य चिन्ता |
नदी पुनर्जीवन प्रयास चौथी प्राथमिकता पर। |
जलस्रोत सूखना प्रारम्भ। सामान्य पेयजल संकट सम्भावित। |
प्रस्तावित विधि, नदी प्रवाह की हकीकत और प्रवाह की निरन्तरता का आईना है। वह सूखती नदी इकाईयों में बरसात और बरसात बाद समानुपातिक रीचार्ज कार्य के लिये रेडी-रेकनर है। वह, प्रकारान्तर से कुओं और नलकूपों में पानी की उपलब्धता की स्थिति के बारे में संकेत देती है। वह, भूजल स्रोतों का उपयोग करने वाले लाखों किसानों के सरोकारों को सामने लाती है।
वह, भूजल पर आश्रित पेयजल योजनाओं के दम तोड़ने के पहले समुचित कदम उठाने का अवसर और सचेत करने का काम करती है। प्रस्तावित विधि को अपनाने और उसके आधार पर आगे काम करने का मतलब सामाजिक सरोकारों को सम्मान देना और भूजल आधारित खेती और पेयजल योजनाओं की विश्वसनीयता को बहाल करना होगा।
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