सन्दर्भ : राष्ट्रीय जल नीति
केन्द्र सरकार द्वारा 1987 में राष्ट्रीय जल नीति अपनाई गई थी। तब से जल संसाधनों के विकास और प्रबन्धन में अनेक मुद्दे एवं चुनौतियाँ सामने आई हैं। राष्ट्रीय जल नीति 1987 की समीक्षा कर उसे अद्यतन बनाने के लिए 1 अप्रैल, 2002 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में विज्ञान भवन, नई दिल्ली में राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद् की पाँचवीं बैठक आयोजित हुई। बैठक में राष्ट्रीय जल नीति का एक प्रारूप स्वीकृत हुआ। प्रस्तुत है इस राष्ट्रीय जल नीति का सम्पूर्ण पाठ।
राष्ट्रीय जल नीति की आवश्यकता
1.1 जल एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन होने के साथ-साथ मनुष्य की एक मूलभूत आवश्यकता और एक मूल्यवान राष्ट्रीय सम्पत्ति है। अतः जल संसाधनों की आयोजना, विकास तथा प्रबन्धन राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में किए जाने की आवश्यकता है।
1.2 नवीनतम् अनुमान (1993) के अनुसार देश में लगभग 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर के कुल वर्ष में से सतही जल से हिमपात एवं पूर्ति योग्य भूजल सहित जल की मात्रा 1869 बिलियन क्यूबिक मीटर है। स्थलाकृतिक एवं अन्य अवरोधों के कारण इसमें से लगभग 50 प्रतिशत जल का ही अर्थात् 690 बिलियन क्यूबिक मीटर सतही जल से तथा 396 बिलियन क्यूबिक मीटर भूजल से लाभकारी उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा सकता है। लेकिन भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न स्थानों पर जल की उपलब्धता में बहुत कुछ असमानता रहती है, क्योंकि वर्ष में केवल तीन अथवा चार महीनों में ही वर्षा होती है तथा इसमें इतनी भिन्नता है कि जहाँ पश्चिमी राजस्थान में 100 मिलीमीटर वर्षा होती है वहीं मेघालय में चेरापूँजी में 10,000 मिलीमीटर से भी अधिक वर्षा होती है। नदियाँ एवं भूजल भण्डार भी प्रायः राज्यों की भौगोलिक सीमाओं को पार कर जाते हैं। जल वृहत् पारिस्थितिक प्रणाली का ही एक अंग है। चूँकि जल, एक अनन्य एवं अविभाज्य संसाधन है, अतः वर्षाजल, नदीजल, सतही तालाब और झीलें तथा भूजल सभी एक ही प्रणाली के अंग हैं।
1.3 ताजे जल के महत्व एवं कमी को ध्यान में रखते हुए इसे सभी जीवों के लिए अनिवार्य तत्व समझा जाना चाहिए।
1.4 विकासात्मक आयोजना में जल सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्व है। चूँकि देश 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर चुका है अतः ऐसे समय में इस महत्वपूर्ण संसाधन को चिरकाल तक बनाए रखने के लिए इसका विकास, संरक्षण, उपयोग एवं प्रबन्धन के लिए किए जाने वाले प्रयास राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में किए जाने चाहिए। इस प्रकार जल एक दुर्लभ एवं बहुमूल्य राष्ट्रीय संसाधन है। अतः सामाजिक-आर्थिक पहलुओं तथा सम्बन्धित राज्यों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एकीकृत एवं सुदृढ़ पर्यावरणीय आधार पर इसकी आयोजना, विकास, संरक्षण एवं प्रबन्धन किए जाने की आवश्यकता है।
1.5 बाढ़ और सूखा राज्य की सीमाओं से परे देश के व्यापक क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। देश का एक तिहाई भाग सूखा प्रवणक्षेत्र है। बाढ़ से प्रतिवर्ष औसतन लगभग 9 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित होता है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार देश का बाढ़ प्रवण क्षेत्र लगभग 40 मिलियन हेक्टेयर है। इसलिए सूखे और बाढ़ के प्रबन्धन के दृष्टिकोण को राष्ट्रीय स्तर पर समन्वित एवं संचालित करने की आवश्यकता है।
1.6 जल संसाधन परियोजना की आयोजना एवं कार्यान्वयन के साथ पर्यावरणीय सुरक्षा, परियोजना से प्रभावित व्यक्तियों एवं पशुओं के पुनर्वास, जल एकत्रित होने से उत्पन्न जन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ, बाँध सुरक्षा, सामाजिक-आर्थिक पहलू आदि कई अन्य मुद्दे निहित हैं। इन मामलों में सर्वमान्य दृष्टिकोण और दिशा-निर्देश अपनाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त कुछ समस्याओं एवं कमियों ने सम्पूर्ण देश में बड़ी संख्या में बहुत-सी परियोजनाओं को प्रभावित किया है। इसी कारण परियोजनाओं पर लगने वाले समय एवं आने वाली लागत में पर्याप्त वृद्धि होती है। कुछ सिंचाई कमानों में जल-जमाव एवं भू-लवणता की समस्या भी देखने को मिली है, जिसके कारण कृषि भूमि की गुणवत्ता में कमी आई है। जहाँ तक जल वितरण का प्रश्न है, उसमें भी निष्पक्षता एवं सामाजिक न्याय जैसी जटिल समस्याएँ विद्यमान हैं। देश के भूजल संसाधनों के विकास एवं दोहन के सम्बन्ध में भी संसाधनों के न्यायसंगत और वैज्ञानिक प्रबन्धन एवं परिरक्षण करने सम्बन्धी प्रश्न भी उठते है। इन सभी समस्याओं को सर्वमान्य नीतियों एवं योजनाओं के आधार पर हल करने की आवश्यकता है।
1.7 विकास प्रक्रिया एवं आर्थिक गतिविधियों में विस्तार के फलस्वरूप घरेलू, औद्योगिक, कृषि, जल-विद्युत, तापीय ऊर्जा, नौवहन, मनोरंजन इत्यादि जैसे विभिन्न प्रयोजनों के लिए जल की माँग में वृद्धि होना स्वाभाविक है। अब तक जल के सबसे अधिक खपत मुख्य रूप से सिंचाई में होती है। यद्यपि स्वतन्त्रता के समय देश की कुल सिंचाई क्षमता लगभग 19.5 मिलियन हेक्टेयर थी, अब यह अनुमान है कि वर्ष 1999-2000 के अन्त तक यह बढ़कर लगभग 15 मिलियन हेक्टेयर हो गई है। बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्य और कपड़े सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सिंचाई क्षमता में अत्यधिक वृद्धि करनी होगी। देश की वर्तमान जनसंख्या 1022 मिलियन से ऊपर है और यह अनुमान है कि वर्ष 2025 तक यह लगभग बढ़कर 1390 मिलियन हो जाएगी।
1.8 खाद्यान्नों का उत्पादन जो पाँचवें दशक में लगभग 50 मिलियन टन था, वर्ष 1999-2000 के अन्त तक बढ़कर 208 मिलियन टन हो गया है, परन्तु इसे वर्ष 2025 तक 400 मिलियन टन तक बढ़ाना होगा। इसके साथ ही जनता और पशुओं की पेयजल की आवश्यकताओं को भी पूरा करना होगा। यद्यपी घरेलू और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए जल की माँग अधिकतर मुख्य नगरों में अथवा उनके आस-पास केन्द्रित रहती है फिर भी जैसे-जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्यक्रमों से लोगों की आर्थिक दशा में सुधार होगा वैसे-वैसे वहाँ जल की माँग में वृद्धि होने की सम्भावना है। जल-विद्युत और ताप-विद्युत के उत्पादन के लिए तथा अन्य औद्योगिक उपयोगों के लिए भी जल की माँग में उल्लेखनीय वृद्धि होने की सम्भावना है। इन सबके परिणामस्वरूप जल जो पहले ही कमी वाला संसाधन है, भविष्य में और अधिक कमी वाला संसाधन हो जाएगा। ऐसी परिस्थितियों में जल उपयोग में सर्वाधिक दक्षता पैदा करने और जल के संरक्षण के महत्व के प्रति जनता में जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है।
1.9 दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है जल की गुणवत्ता। एक सुदृढ़ विज्ञान और प्रौद्योगिकी के आधार पर नई तकनीकों को बेहतर बनाना और वर्तमान कार्यनीतियों में सुधार करना आवश्यक होगा ताकि भूजल और सतही जल संसाधनों में प्रदूषण को समाप्त किया जा सके एवं जल की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सके और जल के पुनर्चक्र (रिसाइक्लिंग) और पुनर्प्रयोग में और वृद्धि की जा सके। सामान्यतः जल संसाधनों के विकास और प्रबन्धन में विज्ञान और प्रौद्योगिकी एवं प्रशिक्षण की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
1.10 राष्ट्रीय जल नीति सितम्बर, 1987 में अपनाई गई थी। तब से जल संसाधनों के विकास और प्रबन्धन में अनेक मुद्दे एवं चुनौतियाँ सामने आई हैं। इसलिए राष्ट्रीय जल नीति (1987) की समीक्षा की गई और उसे अद्यतन किया गया है।
सूचना प्रणाली
2.1 संसाधन आयोजना हेतु, जल सम्बन्धी आँकड़ों के लिए, उनके समग्र रूप में, राष्ट्रीय/राज्य स्तर पर एक सुविकसित सूचना प्रणाली होना पहली आवश्यकता है। आँकड़ा बैंकों और आँकड़ा आधारों का नेटवर्क सहित, वर्तमान केन्द्रीय और राज्य स्तर के अभिकरणों को एकीकृत तथा सुदढ़ करने एवं आँकड़ों की गुणवत्ता और संसाधन क्षमताओं में सुधार करते हुए एक मानकीकृत राष्ट्रीय सूचना प्रणाली की स्थापना की जानी चाहिए।
2.2 आँकड़े की कोडिंग करने, उन्हें वर्गीकृत करने, संसोधित करने तथा उनके लिए अपनाई जाने वाली पद्धतियों/प्रक्रियाओं के लिए मानकों को अपनाया जाना चाहिए। विभिन्न अभिकरणों में आँकड़ों के निःशुल्क विनिमय को बढ़ावा देने क लिए आधुनिक सूचना प्रणाली लागू करने के लिए एक उन्नत सूचना प्रणाली शुरू की जानी चाहिए। इच्छित समयमान में विश्वसनीय आँकड़ों को एकत्र करने, संसोधित करने और उनका प्रचार-प्रसार करने के लिए तकनीकी क्षमता को विकसित करने और उसे निरन्तर उन्नत बनाने के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए।
2.3 इस प्रणाली में जल उपलब्धता और वास्तविक जल उपयोग से सम्बन्धित आँकड़ों के अलावा, विविध प्रयोजनों के लिए जल की भावी माँगों के व्यापक और विश्वसनीय प्रक्षेपण (प्रोजेक्शन) भी शामिल किए जाने चाहिए।
जल संसाधन आयोजन
3.1 देश में उपलब्ध जल संसाधनों को जहाँ तक सम्भव हो सके अधिक-से-अधिक उपयोग योग्य संसाधनों की श्रेणी में लाया जाना चाहिए।
3.2 उपयोग योग्य जल संसाधनों में और अधिक वृद्धि करने के लिए जल का अन्तर्बेसिन हस्तांतरण, भूजल का कृत्रिम पुनःपूरण, खारे अथवा समुद्री जल के अलवणीकरण जैसे जल उपयोग के गैर-पारम्परिक तरीकों तथा साथ-ही-साथ जल संरक्षण के प्रारम्परिक तरीकों जैसे वर्षा जल संचयन को अपनाना चाहिए। इन तकनीकों के लिए केन्द्रीभूत तरीके से अति प्रमुख अनुसन्धान और विकास को बढ़ावा देना आवश्यक है।
3.3 समग्र जल निकास बेसिन अथवा उपबेसिन जैसी जल वैज्ञानिक इकाई के लिए आयोजना, विकास और प्रबन्धन, परिमाण और गुणवत्ता के पहलुओं तथा पर्यावरणीय पहलुओं को शामिल करते हुए स्थायी उपयोग के लिए सतही तथा भूजल को ध्यान में रखते हुए बहुक्षेत्रीय आधार पर करनी होगी। सभी विकासात्मक परियोजनाओं और प्रस्तावों को एक ऐसी समग्र योजना के फ्रेमवर्क के रूप में तैयार किया जाना चाहिए और उस पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें किसी बेसिन-अथवा उपबेसिन के लिए विद्यमान समझौतों/निर्णयों को ध्यान में रखा गया हो ताकि विकल्पों का सर्वोत्तम सम्भव चयन किया जा सके और उन्हें दीर्घ काल तक बनाए रखा जा सके।
3.4 क्षेत्रों और बेसिनों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य पर आधारित एक नदी बेसिन से दूसरी नदी बेसिन को जल का अन्तरण करने के साथ ही जल की अधिकता वाले क्षेत्रों से जल की कमी वाले क्षेत्रों को जल अन्तरित करना चाहिए।
संस्थागत तन्त्र
4.1 बहुक्षेत्रीय, बहु-विषयक और सहभागिता दृष्टिकोण तथा जल की गुणवत्ता, मात्रा और पर्यावरणीय पहलुओं को एकीकृत करते हुए एक जल वैज्ञानिक यूनिट पर आधारित जल संसाधनों की आयोजना, विकास और प्रबन्धन को कार्यान्वित करने की दृष्टि से जल संसाधन क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले विभिन्न स्तरों पर मौजूदा संस्थानों को उपयुक्त रूप में पुनः उन्मुखी/पुनर्गठित करना होगा और जहाँ कहीं आवश्यक हो उन्हें स्थापित करना होगा। चूँकि जल संसाधन योजनाओं का रखरखाव गैर योजना बजट के तहत् आता है, इसलिए सामान्यतः यह उपेक्षित रहा है। संस्थागत् व्यवस्थाएँ ऐसी होनी चाहिए कि इस अति महत्वपूर्ण पहलू के बराबर अथवा उससे भी अधिक महत्व दिया जाना चाहिए जितना कि नए निर्माण कार्य को दिया जाता है।
4.2 अन्तरराज्यीय नदियों का नियमन और विकास, जहाँ तक इसे संसद द्वारा लोकहित में घोषित किया गया है, का उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार पर है। अन्तरराज्यीय नदी बेसिनों के इष्टतम् विकास और प्रबन्धन के लिए आवश्यक उपाय किए जा सकते हैं।
4.3 एक सम्पूर्ण नदी बेसिन अथवा उपबेसिन के लिए, जहाँ कहीं आवश्यक हो, सुनियोजित विकास और प्रबन्धन करने के लिए उपयुक्त नदी बेसिन संगठनों की स्थापना की जानी चाहिए। सिंचाई की आवश्यकताओं को ध्यान में रखने के साथ-साथ जल के अनेक अन्य उपयोगों के बीच सन्तुलन बनाए रखने के लिए व्यापक योजनाएँ तैयार करने के लिए विशेष बहुविषयी इकाइयाँ स्थापित की जानी चाहिए ताकि सम्बद्ध कानूनों के अन्तर्गत मौजूदा समझौतों अथवा अधिकरणों के निर्णयों को ध्यान में रखते हुए उपलब्ध जल संसाधन को निर्धारित किया जाए और उनका अधिकतम उपयोग किया जा सके।
जल आवंटन की प्राथमिकताएँ
5. प्रणालियों की आयोजना और प्रचालन में जल आवंटन की प्राथमिकताएँ मोटे तौर पर निम्न प्रकार होनी चाहिएः
1. पेयजल
2. सिंचाई
3. जल-विद्युत
4. पारिस्थितिकी
5. कृषि उद्योग और गैर कृषि उद्योग
6. नौवहन एवं अन्य उपयोग
7. तथापि क्षेत्र/अंचल विशेष को ध्यान में रखते हुए यदि आवश्यक हो तो उस क्षेत्र में प्राथमिकताओं में संशोधन किया जा सकता है।
परियोजना की आयोजना
6.1 जहाँ तक सम्भव हो जल संसाधन विकास परियोजनाओं की आयोजना एवं विकास एक बहुद्देश्यीय परियोजना के रूप में किया जाना चाहिए। इसमें पेयजल सम्बन्धी प्रावधान को पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
6.2 परियोजना के निर्माण कार्य के दौरान तथा उसके उपरान्त भी जनजीवन, बस्तियों, व्यवसायों, सामाजिक-आर्थिक, पर्यावरणीय एवं अन्य पहलुओं पर परियोजनाओं के प्रभावों का अध्ययन करना परियोजना आयोजन का अनिवार्य घटक होना चाहिए।
6.3 परियोजना के आयोजना, कार्यान्वयन और प्रचालन में पर्यावरण की गुणवत्ता तथा पारिस्थितिक सन्तुलन बनाए रखने पर मुख्यतः ध्यान दिया जाना चाहिए। पर्यावरण पर यदि कोई प्रतिकूल प्रभाव प्रड़ता भी है तो उसे न्यूनतम किया जाना चाहिए और पर्याप्त प्रतिपूरक उपाय कर उसे दूर किया जाना चाहिए। तथापि परियोजना स्थायी होनी चाहिए।
6.4 परियोजना की आयोजना, प्रतिपादन, स्वीकृति और कार्यान्यवन के लिए आवाह क्षेत्र सुधार और प्रबन्धन, पर्यावरण और पारिस्थितिक पहलुओं प्रभावित लोगों के पुनर्वास और कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम को शामिल करते हुए एक समेकित और बहुविषयक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। पर्वतीय क्षेत्रों में परियोजनाओं की आयोजना में भौतिक विशेषताओं तथा बेसिन की बाधाओं अर्थात् अत्यधिक ढलानों, त्वरित अपवाह तथा मृदाक्षरण के प्रकोप के सन्दर्भ में सुनिश्चित पेयजल जल विद्युत विकास की सम्भावनाओं और ऐसे क्षेत्रों में सिंचाई की उपयुक्त उपलब्ध कार्याविधि की आवश्यकता को ध्यान में रखा जाना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों में परियोजनाओं के आर्थिक मूल्यांकन में भी इन पहलुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
6.5 सामाजिक रूप से कमजोर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों जैसे समाज के पिछड़े वर्गों के लिए अथवा जनजाति वाले क्षेत्रों को विशेष रूप से लाभ पहुँचाने के लिए परियोजनाओं के अन्वेषण और प्रतिपादन के लिए विशेष प्रयत्न किए जाने चाहिए। अन्य क्षेत्रों में भी परियोजना का आयोजन करते समय अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और समाज के कमजोर वर्गों की आवश्यकताओं की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। ऐसे अलाभ प्राप्त वर्गों को लाभ पहुँचाने वाली परियोजनाओं के अर्थिक मूल्यांकन में इन कारकों को भी शामिल किया जाना चाहिए।
6.6 जल निकास प्रणाली को आयोजन चरण से ही किसी सिंचाई परियोजना का अभिन्न अंग बनाना चाहिए।
6.7 जल से सम्बन्धित अधिकतर परियोजनाओं में लगने वाले समय और लागत में वृद्धि तथा उनके लाभों में होने वाली कमी को दूर करने के लिए परियोजना तैयारी और प्रबन्धन की गुणवत्ता को बेहतर बनाकर इस समस्या पर काबू पाया जाना चाहिए। चल रही परियोजनाओं को शीघ्र पूरा करने के साथ-साथ क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए प्राथमिकताओं के आधार पर संसाधनों का अनुकूलतम् आवण्टन कर परियोजनाओं की निधि सम्बन्धी होने वाली कमी का निराकरण किया जाना चाहिए।
6.8 परियोजना आयोजना की अवस्था में ही लाभग्राहियों और अन्य अंशधारियों की भागीदारी और सहभागिता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
भूजल विकास
7.1 भू-जल क्षमता का वैज्ञानिक ढँग से समय-समय पर पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए, ऐसा करते समय उपलब्ध जल की गुणवत्ता एवं इसके निकाले जाने की आर्थिक व्यवहार्यता का ध्यान रखा जाना चाहिए।
7.2 भूजल संसाधनों के दोहन को इस प्रकार विनियमित किया जाना चाहिए कि वह पुनर्भरण सम्भावनओं से अधिक न हो और सामाजिक न्याय भी सुनिश्चित किया जा सके। भूजल के अति दोहन के हानिकारक पर्यावरणीय परिणामों को केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा प्रभावशाली ढँग से रोकने की आवश्यकता है। भूजल संसाधनों की गुणवत्ता तथा उपलब्धता दोनों में सुधार करने के लिए भूजल पुनर्भरण परियोजनाओं को विकसित एवं कार्यान्वित किया जाए।
7.3 परियोजना आयोजना की अवस्था से ही सतही और भूजल के एकीकृत और समन्वित विकास और उनके संयुक्त उपयोग की योजना बनानी चाहिए तथा वह परियोजना कार्यान्वयन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए।
7.4 तटीय क्षेत्रों के निकट भूजल का अत्यधिक मात्रा में दोहन न किया जाए ताकि मीठे जल के जलभृतों में समुद्री जल के प्रवेश को रोका जा सके।
पेयजल
8. शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों की समस्त जनता के लिए पर्याप्त सुरक्षित पेयजल सुविधाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए। जिन क्षेत्रों में पेयजल का कोई वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध नहीं है वहाँ सिंचाई और बहुद्देशीय परियोजनाओं में पेयजल घटक के रूप से शामिल किया जाना चाहिए। किसी भी उपलब्ध जल के प्रयोग में मनुष्य और पशुओं की पेयजल की जरूरतों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
सिंचाई
9.1 किसी एक परियोजना अथवा एक पूरी बेसिन में सिंचाई आयोजन करते समय इष्टतम् जल उपयोग की क्षमता के लिए सिंचाई सहित भूमि की सिंचाई क्षमता, जल के सभी उपलब्ध संसाधनों तथा उपयुक्त सिंचाई तकनीकों से सम्भव लागत प्रभावी सिंचाई विकल्पों पर ध्यान देना चाहिए। अत्यधिक उत्पादन करने सम्बन्धी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए सिंचाई सघनता इस प्रकार होनी चाहिए कि जहाँ तक सम्भव हो सके अत्यधिक किसानों को सिंचाई लाभ पहुँच सके।
9.2 जल उपयोग और भूमि उपयोग नीतियों में गहन एकीकरण होना चाहिए।
9.3 सिंचाई प्रणाली में जल का आवण्टन समानता और सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। शीर्ष पहुँच और खेत के अन्तिम सिरे तथा बड़े और छोटे खेतों के बीच जल की उपलब्धता में असमानता को चक्रीय (रोटेशनल) जल वितरण प्रणाली अपनाकर तथा कुछ प्रतिबन्धों तथा युक्तियुक्त मूल्य निर्धारण के अधीन मात्रा के आधार पर जल की आपूर्ति कर दूर किया जाना चाहिए।
9.4 सृजित सिंचाई क्षमता का पूर्ण उपयोग सुनिश्चित करने के लिए सतत् प्रयास किए जाने चाहिए। इस प्रयोजन के लिए सभी सिंचाई परियोजनाओं में कमान क्षेत्र विकास दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।
9.5 सिंचाई में ताजे जल का अत्यधिक उपयोग होने के कारण प्रति यूनिट जल से अधिक फसल पैदा करने का लक्ष्य रखना चाहिए। जहाँ कहीं व्यावहारिक हो वहाँ वैज्ञानिक जल प्रबन्धन, फसल पद्धतियाँ और सिंचाई की स्प्रिंकलर और ड्रिप प्रणाली अपनाई जानी चाहिए।
9.6 जल जमा वाली भूमि/लवणता से प्रभावित भूमि का वैज्ञानिक एवं लागत प्रभावी तरीके से सुधार करना कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम का एक हिस्सा होना चाहिए।
पुनःस्थापना एवं पुनर्वास
10. जल संसाधनों के इष्टतम् उपयोग के लिए भण्डारणों का निर्माण तथा इसके परिणामस्वरूप विस्थापित लोगों की पुनःस्थापना और पुनर्वास की व्यवस्था करना आवश्यक है।
इस सम्बन्ध में इस प्रकार की राष्ट्रीय नीति तैयार करने की आवश्यकता है, जिससे इन परियोजनाओं से प्रभावित लोगों का समुचित पुनर्वास किया जाए, जिससे वे लाभ के भगीदार बन सकें। परियोजनाओं का निर्माण कार्य और विस्थापित लोगों का पुनर्वास कार्य साथ-साथ निर्बाध गति से करने के लिए कार्यों की सावधानीपूर्वक आयोजना करने की आवश्यकता है।
वित्तीय एवं भौतिक स्थायित्व (सस्टेनेबिलिटी)
11. विभिन्न उपयोगों के लिए अतिरिक्त जल संसाधन सुविधाएँ सृजित करने के अलावा विद्यमान सुविधाओं के भौतिक और वित्तीय स्थायित्व पर पर्याप्त बल दिए जाने की आवश्यकता है। इसलिए यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि विभिन्न उपयोगों के लिए जल प्रभार इस प्रकार निश्चित किए जाने चाहिए कि उनसे प्रारम्भ में सेवा प्रदान करने के लिए प्रचालन और अनुरक्षण प्रभारों की पूर्ति हो तथा बाद में वे पूँजीगत लागत का हिस्सा बनें। ये दरें सीधे प्रदान की गई सेवा की गुणवत्ता से सम्बद्ध होनी चाहिए। समाज के लाभ से वंचित और गरीब वर्गों को जल दरों पर दी जाने वाली रियायत का लक्ष्य स्पष्ट तथा पारदर्शी होना चाहिए।
जल संसाधन प्रबन्धन में सहभागी दृष्टिकोण
12. जल के विभिन्न उपयोगों के लिए जल संसाधनों का प्रबन्धन सहभागी दृष्टिकोण अपनाकर न केवल विभिन्न सरकारी अभिकरणों को शामिल करके बल्कि प्रयोक्ताओं और दावेदारों (स्टेकहोल्डर) को जल संसाधन स्कीमों की आयोजना, अभिकल्प (डिजाइन), विकास और प्रबन्धन के विभिन्न पहलुओं में प्रभावी और निर्णायक ढँग से शामिल करके किया जाना चाहिए। महिलाओं के लिए उपयुक्त भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न स्तरों पर आवश्यक कानूनी और संस्थागत परिवर्तन किए जाने चाहिए। जल उपयोगकर्ता संघों तथा नगरपालिका एवं ग्राम प्रचायत जैसे स्थानीय निकायों को उचित स्तर पर उत्तरोत्तर रूप से जल अवसंरचनाओं/सुविधाओं के प्रचालन, अनुरक्षण और प्रबन्धन में शामिल किया जाए ताकि ऐसी सुविधाओं का प्रबन्धन वास्तव में जल उपयोगकर्ता समूह/स्थानीय निकायों को हस्तान्तरित किया जा सके।
निजी क्षेत्र की भागीदारी
13. जहाँ कहीं भी व्यावहारिक हो, वहाँ जल के विभिन्न उपयोगों के लिए जल संसाधन परियोजनाओं की आयोजना, विकास और प्रबन्धन में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र की भागीदारी से नवीनतम विचार लागू करने, वित्तीय संसाधन जुटाने, निगमित प्रबन्ध लागू करने और सेवा कुशलता में सुधार करने और जल उपयोगकर्ताओं के प्रति उत्तरदायी बनाने में मदद मिल सकती है। विशिष्ट स्थितियों पर निर्भर करते हुए जल संसाधन सुविधाओं का निर्माण, स्वामित्व, प्रचालन, लीजिंग और स्थानान्तरण में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर विचार किया जा सकता है।
जल गुणवत्ता
14.1 जल की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए सतही जल और भूजल दोनों की नियमित माॅनीटरिंग की जानी चाहिए। जल की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए चरणबद्ध कार्यक्रम शुरू किया जाना चाहिए।
14.2 अपशिष्टों को प्राकृतिक नदियों में बहाने से पहले उनका स्वीकार्य स्तरों और मानकों तक परिशोधन किया जाना चाहिए।
14.3 पारिस्थितिकी और सामाजिक महत्व को बनाए रखने के लिए बारहमासी नदियों में न्यूनतम प्रवाह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
14.4 प्रदूषित जल के प्रबन्धन में प्रदूषक द्वारा भुगतान के सिद्धान्त का अनुसरण करना चाहिए।
14.5 अतिक्रमण के निवारण द्वारा विद्यमान जल राशि का संरक्षण करने के लिए और जल गुणवत्ता में गिरावट के लिए आवश्यक कानून बनाए जाने हैं।
जल का मण्डलीकरण (जोनिंग)
15. जल उपलब्धता की स्थिति के अनुसार व्याप्त जलाभाव को ध्यान में रखते हुए कृषि, औद्योगिक और शहरी विकास सहित आर्थिक विकास एवं गतिविधियों की आयोजना की जानी चाहिए। देश में जल का मण्डलीकरण (जोनिंग) किया जाना चाहिए और ऐसे मण्डलीकरण के अनुसार आर्थिक गतिविधियों का मार्गदर्शन और नियमन किया जाना चाहिए।
जल का संरक्षण
16.1 जल के सभी विभिन्न उपयोगों के उपयोग की क्षमता को इष्टतम् बनाया जाना चाहिए तथा इस सम्बन्ध में जन जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए कि जल एक दुर्लभ संसाधन है। शिक्षा, नियमन, पुरस्कार एवं दण्ड के माध्यम से लोगों में जल का संरक्षण करने सम्बन्धी चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए।
16.2 अधिकतम अवधारण, प्रदूषण निवारण और हानि को न्यूनतम् करने से सम्बन्धित उपायों के माध्यम से संसाधनों का संरक्षण और उपलब्धता को बढ़ाया जाना चाहिए। इसके लिए, जहाँ कहीं सम्भव हो, जलाशयों में वाष्पीकरण रोधकों के इस्तेमाल, वाहक प्रणालियों में चयनात्मक अस्तरण, विद्यमान प्रणालियों का आधुनिकीकरण एवं पुनःस्थापना, जिसमें तालाब, उपचारित बहिःस्राव का पुनःचक्रण, एवं पुनः उपयोग तथा मल्चिंग अथवा घट सिंचाई जैसे परम्परागत तकनीकों और ड्रिप एवं स्प्रिंकलर जैसी नई तकनीकों को अपनाना सम्मिलित है, जैसे उपायों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
बढ़ नियन्त्रण एवं प्रबन्धन
17.1 प्रत्येक बाढ़ प्रवण बेसिन के बाढ़ नियन्त्रण और प्रबन्धन के लिए एक मास्टर योजना होनी चाहिए।
17.2 जहाँ कहीं भी व्यावहारिक हो वहाँ जल भण्डारण परियोजनाओं में पर्याप्त बाढ़ कुशन प्रदान किए जाने चाहिए ताकि बेहतर बाढ़ प्रबन्धन आसान हो सके। नियन्त्रण पर सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए, इसके लिए यदि कुछ सिंचाई अथवा विद्युत लाभों की तिलांजलि भी देनी पड़े तो दे देनी चाहिए।
17.3 तटबन्धों और डाइको जैसे वास्तविक बाढ़ सुरक्षा कार्यों को जारी रखने के साथ-साथ बाढ़ से होने वाली क्षति को कम-से-कम करने तथा बाढ़ राहत कार्यों पर बार-बार किया जाने वाला व्यय कम करने के लिए बाढ़ पूर्वानुमान और चेतावनी, बाढ़ मैदान जोनिंग और बाढ़ प्रूफिंग जैसे गैर संरचनात्मक उपाय करने पर अधिक बल दिया जाना चाहिए।
17.4 बाढ़ से होने वाली जानमाल तथा सम्पत्ति की हानि को कम करने के लिए बाढ़ प्रूफिंग के साथ बाढ़ मैदान-क्षेत्रों में बस्तियाँ बनाने और व्यावसायिक कार्य को वर्जित करने के लिए कठोर नियम बनाने चाहिए।
17.5 बाढ़ पूर्वानुमान गतिविधियों को आधुनिक बनाया जाना चाहिए, उसकी उपयोगिता बढ़ाई जानी चाहिए तथा इसके अन्तर्गत छूटे हुए क्षेत्रों को भी लाया जाना चाहिए।
17.6 बाढ़ों की सघनता को कम करने के लिए व्यापक मृदा संरक्षण, जल ग्रहण क्षेत्र सुधार, वनों के संरक्षण के माध्यम से जल विभाजक प्रबन्ध को और अधिक क्षेत्र में वनरोपण और चेक बाँधों के निर्माण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
समुद्र अथवा नदी द्वारा भूमि कटाव
18.1 किसी भी प्रकार का भूमि कटाव चाहे तटवर्ती क्षेत्रों में समुद्र द्वारा किया गया भूमि कटाव हो या फिर नदियों द्वारा किया गया भूमि कटाव हो, उसे उचित लागत प्रभावी उपायों द्वारा कम किया जाना चाहिए। राज्यों और संघशासित क्षेत्रों की तटीय भूमि पर अन्धाधुन्ध कब्जा करने और उसका दोहन करने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए सभी अपेक्षित कदम उठाने चाहिए और समुद्र के आस-पास के क्षेत्रों में व्यावसायिक गतिविधियों वाले स्थानों को विनियमित करना चाहिए।
18.2 प्रत्येक तटीय राज्य को पर्यावरणीय और पारिस्थितिकी प्रभावों को ध्यान में रखते हुए एक व्यापक तटीय भूमि प्रबन्ध योजना तैयार करनी चाहिए और तद्नुसार विकासशील गतिविधियाँ नियमित करनी चाहिए।
सूखा प्रवण क्षेत्र का विकास
19.1 सूखा प्रवण क्षेत्रों को मृदा-नमी संरक्षण उपायों, जल संचयन पद्धतियों, वाष्पीकरण हानियों को कम करके, पुनर्भरण सहित भूजल क्षमता के विकास तथा जहाँ व्यावहारिक और उपयुक्त हो वहाँ अधिशेष जल वाले क्षेत्रों से सतही जल का हस्तान्तरण करके सूखे से सम्बन्धित समस्याओं को कम किया जाना चाहिए। इसके साथ ही चारागाह, वानिकी अथवा विकास के ऐसे अन्य तरीकों, जिनके लिए सापेक्षतः कम जल की आवश्यकता होती है, को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जल संसाधन विकास योजनाओं की आयोजना करते हुए सूखा प्रवण क्षेत्रों की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
19.2 सूखे से पीड़ित लोगों को रोजगार प्रदान करने के लिए किए गए राहत कार्य प्राथमिक रूप से सूखा प्रूफिंग के लिए होने चाहिए।
परियोजनाओं का प्रबोधन (माॅनिटरिंग)
20.1 परियोजनाओं के कार्य में आने वाली बाधाओं का पता लगाने और समय और लागत में होने वाली वृद्धि को दूर करने के लिए समय पर उपाय करने के वास्ते परियोजनाओं का गहन प्रबोधन (माॅनीटरिंग) करना परियोजना आयोजना और कार्यान्वयन का एक भाग होना चाहिए।
20.2 परियोजना के प्रदर्शन (परफाॅरमेंस) और सामाजिक-आर्थिक प्रभाव की माॅनीटरिंग करने के वास्ते एक प्रणाली होनी चाहिए।
राज्यों के बीच जल का बँटवारा/वितरण
21.1 राज्यों के बीच जल के बँटवारे/वितरण का निर्धारण बेसिन में जल संसाधन उपलब्धता और आवश्यकता को यथोचित ध्यान में रखते हुए राषट्रीय परिप्रेक्ष्य में किया जाना चाहिए। बेसिन राज्यों में भावी समझौते करने के उद्देश्य से यहाँ तक कि बेसिन से बाहर जल की कमी वाले राज्यों को शामिल करते हुए आवश्यक दिशा-निर्देश तैयार करने की जरूरत है।
21.2 अधिकरण को भेजे गए जल विवादों को समय से निर्णय करने के लिए अन्तरराज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 की उचित रूप से पुनरीक्षा की जाए और उसे संशोधित किया जाए।
कार्य प्रदर्शन (परफाॅरमेंस) में सुधार
22. जल संसाधन क्षेत्र के प्रबन्धन में दिए जाने वाले बल में प्रतिमानात्मक परिवर्तन करने की तत्काल आवश्यकता है। विभिन्न उपयोगों के लिए जल संसाधन अवसंरचनाओं के सृजन और विस्तार पर दिए जाने वाले वर्तमान बल के स्थान पर अब विद्यमान जल संसाधन सुविधाओं के कार्यनिष्पादन में सुधार करने पर अधिक बल देने की आवश्यकता है। इसलिए जल संसाधन क्षेत्र के अन्तर्गत निधियों के आवण्टन की प्राथमिकता का पुनः निर्धारण किया जाना चाहिए ताकि सुविधाओं के विकास के साथ-साथ उनके प्रचालन और अनुरक्षण की आवश्यकता को पूरा किया जा सके।
अनुरक्षण एवं आधुनिकीकरण
23.1 व्यापक निवेश से सृजित संरचनाओं और प्रणालियों की भलीभाँति व्यवस्थित रूप से रख रखाव किया जाना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए बजट में उपयुक्त वार्षिक प्रावधान किया जाना चाहिए।
23.2 संरचनाओं और प्रणालियों की नियमित माॅनीटरिंग की जानी चाहिए और आवश्यक जीर्णोंद्धार और आधुनिकीकरण कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए।
23.3 समयबद्ध रूप में सिंचाई प्रणाली के अनुरक्षण सहित प्रबन्धन के लिए प्राधिकार एवं दायित्व सहित जल उपयोगकर्ता संघों के गठन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
संरचनाओं की सुरक्षा
24. भण्डारण बाँधों और जल से सम्बन्धित अन्य संरचनाओं जिसमें अन्वेषण, डिजाइन, निर्माण, जल विज्ञान, भू-विज्ञान आदि विषय शामिल हों, की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर उपयुक्त संगठनात्मक प्रबन्ध किए जाने चाहिए। विद्यमान बाँधों के निरीक्षण, रख-रखाव, निगरानी सुनिश्चित करने के लिए और नए बाँधों की सुरक्षा के लिए उचित आयोजना, अन्वेषण, डिजाइन एवं निर्माण सुनिश्चित करने के लिए एक बाँध सुरक्षा अधिनियम पारित करना चाहिए। इस विषय के दिशा-निर्देशों को आवधिक रूप से अद्यतन किया जाना चाहिए और उन्हें पुनः तैयार किया जाना चाहिए। इसमें एक ऐसी प्रणाली बनाई जाए जिसमें विशेषज्ञों द्वारा इसकी लगातार निगरानी करने और नियमित दौरे करने की व्यवस्था हो।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
25. हमारे जल संसाधनों के प्रभावी और किफायती प्रबन्धन के लिए निम्नलिखित क्षेत्रों सहित विभिन्न क्षेत्रों में अनुसन्धान के प्रयासों को और अधिक बढ़ावा देकर अनेक दिशाओं में ज्ञान के क्षेत्र में और अधिक वृद्धि करने की आवश्यकता है।
1. जल मौसम विज्ञान;
2. बर्फ तथा झील जल विज्ञान;
3. भू-जल विज्ञान और पुनर्भरण;
4. वाष्पीकरण और रिसाव से हानियाँ;
5. जल संसाधनों का आकलन;
6. जल गुणवत्ता
7. जल संरक्षण;
8. जल संचयन;
9. बेहतर जल प्रबन्धन पद्धतियाँ और प्रचालनात्मक प्रौद्योगिकी में सुधार;
10. फसल और फसल प्रणालियाँ;
11. पुनः चक्रण और पुनःऔर प्रयोग;
12. समुद्र जल संसाधनों का उपयोग;
13. नदी आकृति विज्ञान और जलीय विज्ञान;
14. मृदा और सामग्री अनुसन्धान;
15. नई निर्माण सामग्री और प्रौद्योगिकी (विशेषकर रोलर काम्पैक्टिड कंक्रीट, फाइबर रिइन्फोर्स्ड कंक्रीट, सुरंग प्रौद्योगिकी में नई पद्धतियाँ, यन्त्रीकरण, संरचनाओं में उन्नत सांख्यिकी विश्लेषण तथा पश्च विश्लेषण के सन्दर्भ में);
16. भूकम्प विज्ञान और संरचनाओं का भूकम्पीय डिजाइन;
17. जल से सम्बन्धित संरचनाओं की सुरक्षा और स्थायित्व;
18. संरचनाओं में उच्च संख्यात्मक विश्लेषण;
19. जल संसाधन परियोजनाओं के लिए किफायती डिजाइन;
20. जोखिम और विपदा प्रबन्धन का विश्लेषण;
21. विकास और प्रबन्धन में दूरस्थ संवेदी तकनीकों का उपयोग;
22. स्थिर भू-जल संसाधन का गम्भीर प्रबन्धन उपाय के रूप में प्रयोग करना;
23. जलाशयों का तलछटन;
24. लवणता प्रवेश को रोकना;
25. जल जमाव और मृदा लवणता को रोकना;
26. जलाक्रान्त और लवणीय भूमि का सुधार;
27. पर्यावरणीय प्रभाव
28. क्षेत्रीय साम्यता
26. मानकीकृत प्रशिक्षण के लिए एक परिप्रेक्ष्य योजना जल संसाधन विकास के एक अभिन्न अंग के रूप में होनी चाहिए। इसमें सूचना प्रणालियों, क्षेत्रीय आयोजना, परियोजना आयोजना और निर्माण परियोजना प्रबन्ध, परियोजनाओं का प्रचालन और उनके भौतिक संरचनाओं और प्रणरालियों तथा जल वितरण प्रणालियों के प्रबन्ध में प्रशिक्षण शामिल होना चाहिए। प्रशिक्षण में किसानों सहित इन गतिविधियों में शामिल सभी वर्गों के कार्मिकों को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
27. परिस्थितिकी सन्तुलन बनाए रखने और सभी प्रकार की आर्थिक और विकासशील गतिविधियों के लिए मानव और पशु जीवन के लिए जल के अति महत्व को देखते हुए और इसकी बढ़ती कमी को ध्यान में रखते हुए इस संसाधन की आयोजना और प्रबन्ध तथा इसका इष्टतम, किफायती और न्यायसंगत उपयोग करना अत्यन्त महत्व का विषय हो गया है। राष्ट्रीय जल नीति की सफलतापूर्वक पूर्णतः राष्ट्रीय सर्वसम्मति के विकास और अनुरक्षण और इसमें निहित सिद्धान्तों की वचनबद्धता तथा उद्देश्यों पर निर्भर करेगी। वांछित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए, प्रचलनात्मक कार्य सहित राज्य जल नीति को समयबद्ध अवधि यानी दो वर्ष में तैयार किया जाए। जब कभी भी आवश्यकता हो, राष्ट्रीय जल नीति में समय-समय पर संशोधन किए जाएँ।
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Post By: Shivendra