भूदान: यज्ञ की लूट की बेशर्मी

भूदान यज्ञ ने अपने 6 दशक पूरे कर लिए हैं। इस प्रक्रिया में करीब 60 लाख एकड़ भूमि एकत्रित हुई थी। इसमें से आधी वितरित हो पाई है और उसमें भी अनेक अनियमितताएं हैं। पौराणिक कथाओं में यज्ञ की लूट को निकृष्टतम अपराध माना जाता था जो कि सिर्फ असुर ही करते थे। लेकिन भूदान यज्ञ में प्राप्त भूमि को हथियाने में तो निजी व्यक्तियों के साथ अब सरकारें भी पीछे नहीं हैं। पिछले वर्षों में आंध्रप्रदेश के अलावा राजस्थान का मामला भी सामने आया था जहां पर ग्रामदान की कानूनी प्रक्रिया को पलटने का प्रयास किया गया था।

सरकार को वर्तमान में ‘भूदान’ का जोश चढ़ गया है और उस पर भूमि अधिग्रहण करने का दौरा पड़ गया है। इसे अक्सर कारपोरेट घरानों के लिए ‘भूदान’ कहकर पुकारा जाता है। एक युवा देश में भूदान तब एक आंदोलन की तरह घटित हुआ था जब इसकी उम्र महज चार वर्ष की थी। इसका अर्थ है भूस्वामित्व वाले या अमीर लोगों द्वारा गरीबों को भूमि का उपहार। प्रश्न उठता है कि हम अब इस आंदोलन पर मनन क्यों कर रहे हैं?

सर्वप्रथम इसलिए कि इस आंदोलन ने सन् 2011 में 60 वर्ष पूरे कर लिए हैं और आज हमें यह नहीं पता कि उन बहुमूल्य उपहारों का क्या हुआ? दूसरा यह कि आधुनिक कानून भूदान आंदोलन द्वारा इकट्ठा की गई 9,31,000 हेक्टेयर भूमि के अधिग्रहण की धमकी दे रहा है। यह बात चहुंओर फैल रही है कि विकास योजनाओं के लिए इन जमीनों को हड़पा जाने वाला है। इस मामले में सरकार का रवैया उदासीन व निष्क्रिय है।

पहले इतिहास पर नजर दौड़ाएं। भूदान आंदोलन की शुरुआत महात्मा गांधी के अनुयायी विनोबा भावे ने अप्रैल 1951 में की थी। आंध्रप्रदेश के एक गांव (पोचमपल्ली) में शाम की प्रार्थना सभा में स्वमेव प्रारंभ हुए इस आंदोलन ने भूमि मालिकों को भूमिहीनों को भूमि भेंट करते देखा है। 6 वर्ष के समयकाल में करीब 19 लाख हेक्टेयर (47 लाख एकड़) भूमि इकट्ठा हो गई थी। अगले दो दशकों में इस आंदोलन ने कानून की शक्ल अख्तियार कर ली। यह कानून ‘भूदान अधिनियम’ कहलाया, जिसके अंतर्गत सरकार को भूमि बैंक से भूमि के वितरण हेतु अधिकृत किया गया था। बाद में यह आंदोलन ग्रामदान में रुपांतरित हो गया जिसमें गांव की पूरी या अधिकांश भूमि का दान करना होता था। इस हेतु अनिवार्य था कम से कम 75 प्रतिशत भूमि का दान किया जाए और इसे गांव के सभी रहवासियों में बराबरी से बांट दिया जाए। आदिवासी क्षेत्र, जो कि वर्तमान में अत्यधिक भूमि अधिग्रहण के शिकार हैं, ग्रामदान आंदोलन के महत्वपूर्ण भागीदार थे। अंततः दोनों ही आंदोलन समाप्त हो गये लेकिन वे अपने पीछे भूमि बैंक छोड़ गए।

पिछले 6 दशकों में सरकार ने भूदान की करीब 9,71,000 हेक्टेयर भूमिहीनों के मध्य वितरित की है। जिन लोगों को भूमि मिली है उनमें से कई इसका कब्जा नहीं ले पाए क्योंकि इस पर प्रभावशाली लोगों का कब्जा है। लेकिन अभी भी 9,31,000 हेक्टेयर (22,99,570 एकड़) भूमि का वितरण नहीं हुआ है। परंतु सरकार इस भूमि बैंक के बारे में अधिक बात नहीं करती। वास्तविकता तो यह है कि सरकार इसकी स्थिति रिपोर्ट तक जारी नहीं करती। वह सिर्फ इतना करती है कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की भारी भरकम वार्षिक रिपोर्ट में इसका 5 से 10 पंक्तियों में उल्लेख भर कर देती है। भूमि के इन टुकड़ों का कोई अधिकारिक रिकॉर्ड भी नहीं है तथा इनके स्थान एवं वर्तमान स्थिति की भी कोई जानकारी नहीं है। साथ ही साथ इनकी पहचान एवं वितरित करने के भी कोई गंभीर प्रयत्न नहीं किए गए।

ऐसी खबरें हैं कि सरकार अब इस भूमि बैंक से रहवास, औद्योगिक एवं अन्य परियोजनाओं के लिए भूमि वितरित कर रही है। जैसे ही ऐसा होता है, ‘भूदान’ की भूमि का मूल्य बढ़ जाता है। यहीं पर स्थानीय प्रभावशाली व्यक्तियों एवं सरकारी अधिकारियों का गठजोड़ सामने आता है। अवांछित (प्रभावशाली) व्यक्तियों के नाम भूमि का सौदा कर उन्हें जबरदस्त फायदा पहुंचाया जाता है। ‘एक तरह से इससे भूदान की भूमि की लूट खसोट में तेजी आ जाती है।’ भूमि की स्थिति स्पष्ट करने वाले अनेक दस्तावेजों से पता चलता है कि अवितरित रह गई 50 प्रतिशत भूदान भूमि पर या तो अतिक्रमण हो गया है या इसे अवांछित व्यक्तियों को हस्तांतरित कर दिया गया है। भूमि सुधार के क्षेत्र में कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि विशिष्ट आंकड़ों के अभाव में भी ऐसे मामले सामने आए हैं कि नौ राज्यों में भूदान की भूमि कारपोरेट घरानों को दे दी गई है।

उदाहरण के लिए आंध्रप्रदेश में विशाखापट्टनम के शहरी विकास प्राधिकरण ने ‘भूदान’ की भूमि को रहवासी परियोजनाओं के लिए आबंटित कर दिया है। राज्य सरकार ने रंगारेड्डी जिले में भूदान भूमि का बड़ा हिस्सा उद्योगपतियों को आबंटित कर दिया है, जिसका कि अनुमानित बाजार मूल्य 1500 करोड़ रुपए है। अब इस बात की जांच जारी है कि भूदान अधिनियम का उल्लंघन करते हुए ये भूखंड कंपनियों को किस तरह बेचे गए। महाराष्ट्र में भी बिल्डरों एवं राजनेताओं के वरदहस्त वाली हाउसिंग सोसाइटियों द्वारा भूदान भूमि हड़पने के मामलों की जांच जारी है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का दावा है कि भूदान भूमि का वितरण उनकी प्राथमिकता है लेकिन वहां भी ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं कि अनेक विधायकों (सभी दलों के) को यह भूमि दे दी गई है। बिहार भूमि सुधार आयोग ने हाल ही में वहां एक भूमि स्केंडल का भंडाफोड़ किया है। इसके अनुसार सरकारी भूमि बैंक के रिकार्ड में भूदान की 2,62,430 हेक्टेयर भूमि है। इसमें से केवल 1,03,335 हेक्टेयर भूमि 3,15,454 परिवारों में वितरित की गई है और करीब 1,12,000 हेक्टेयर भूमि को वितरण योग्य न होने लायक बताया गया है। इस बात की कोई सफाई नहीं दी गई है कि सरकार इस नतीजे पर कैसे पहुंची। साथ ही इसके सत्यापन का भी कोई लेखा-जोखा नहीं है। कमीशन ने चेतावनी दी है ‘बिना इस तरह के सत्यापन के इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भूदान भूमि का इस्तेमाल अवांछित व्यक्ति या भूमाफिया कर रहे हैं।

हालांकि भूदान भूमि का वितरण सरकार की भूमि सुधार प्रक्रिया का महत्वपूर्ण अंग है लेकिन इसने अभी गति नहीं पकड़ी है। बल्कि लगता है कि जैसे इसके बजाए सरकार को गरीबों के लिए आरक्षित भूमि को हड़पने की अनुमति मिल गई है। इस प्रक्रिया को राह पर लाने के लिए केंद्र सरकार ने सन् 2007 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन किया। परंतु अब तक इसकी एक भी बैठक नहीं हुई है। प्रधानमंत्री द्वारा इस संबंध में मंत्री परिषद की बैठक बुलाए जाने की संभावना है। उम्मीद है कि इसमें भूदान भूमि पर बात होगी। (वैसे अभी तक ऐसी किसी बैठक का समाचार नहीं आया है -) सप्रेस/सीएसई, डाउन टू अर्थ फीचर्स

परिचय - श्री रिचर्ड महापात्र डाउन टू अर्थ पत्रिका के वरिष्ठ सम्पादक हैं।

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