गत वर्ष 11 मार्च को जापान में आई सुनामी और भूकम्प जैसी भौमिकीय घटनाओं के बाद मीडिया के विभिन्न माध्यमों में इनके स्वरूप, कारणों आदि पर विविध प्रकार की चर्चाएं शुरू हो गई हैं। इसने आम लोगों को भी अपने प्रति और परिवेश के संबंध में नए सिरे से विचार करने को प्रेरित किया है। और इसी परिप्रेक्ष्य में पृथ्वी तथा इसके परिवेश को सर्वाधिक निकटता से अध्ययन करने वाले विषय भू-विज्ञान की उपयोगिता सामने आती है।
साहित्य, संस्कृति और कला में भारत के वैश्विक योगदान को स्वीकार करते हुए इसे ‘विश्वगुरु’ तो काफी पहले ही मान लिया गया था, मगर विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत का योगदान अप्रतिम रहा है। विज्ञान जगत को भारत का योगदान मुख्यत: प्रचलित विषयों यथा-गणित, खगोल, रसायन, चिकित्सा, आयुर्वेद आदि में ही माना गया। आज जब विजन 2020 जैसे लक्ष्य की बात होती है तब उसमें भारत को पुन: ज्ञान के केंद्रबिंदु के रूप में उभारने की चाह शिद्दत से उभरती है। ऐसे में वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में भारत के विविध योगदानों को नए सिरे से देखने की जरूरत भी महसूस की जा रही है। मगर जरूरत सिर्फ अतीत की ओर देख उस पर फर्क करने तक सीमित रहने की ही नहीं, बल्कि उस पर भविष्य की आधारशिला रखने की भी है।
भूगर्भ विज्ञान या भौमिकी ऐसा ही एक अनछुआ विषय है, जिसमें भारत के योगदान को वास्तविक परिप्रेक्ष्य में नहीं आंका जा सका है। सर्वप्रथम तो इस भ्रांति का निराकरण आवश्यक है कि विज्ञान महज औद्योगिक क्रांति या पिछली चंद सदियों के मानवीय विकास की ही देन है। आधुनिक युग ने तकनीकी उपलब्ध्यिाँ तो काफी हासिल की हैं, मगर यह हजारों वर्षों की मानवीय विकास यात्रा की बुनियाद पर ही संभव हो सका है। गुफाओं से बाहर निकल सूर्य और चाँद के उगने और डूबने से चमत्कृत होने, पत्थर के औजार बनाने से लेकर आग और पहिये के आविष्कार तक में भी मनुष्य का साझीदार विज्ञान ही रहा है। और पत्थरों का मनुष्य से साक्षात्कार का प्रथम अवसर ही साक्षी बना भू-विज्ञान के प्रादुर्भाव का भी।
विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययन 1,00,000-7000 ई. पू. कालक्रम में पाषाणकालीन मानवों द्वारा रोजमर्रा के कामों में पत्थरों का उपयोग आरंभ कर देने की पुष्टि कर चुके हैं। इन अध्ययनों के अनुसार पाषाणकालीन मानव कई धात्विक खनिजों जैसे- कैल्सीडोनी, क्वार्टज, सरपेंटाइन, पायराइट, जैस्पर, जैडेआइट, एमेथिस्ट आदि से परिचित था। नव पाषाण युगीन मानवों के सोने और तांबे से परिचित होने के भी तथ्य सामने आ चुके हैं। इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में पाषाण युग को ही भू-विज्ञान के उषाकाल के रूप में देखा जा सकता है।
प्राग-ऐतिहासिक युग में लिखित साक्ष्यों का अभाव पत्थरों के प्रति मानव के ज्ञान का सही प्रतिबिम्ब प्रस्तुत नहीं कर पाता, भारत भी इसका अपवाद नहीं। किंतु प्राचीनतम लिखित साक्ष्य अर्थात वेदों से ही खनिजों, रत्नों तथा धातुओं का वर्णन इस ज्ञान के सुदूर अतीत में भी अस्तित्व की पुष्टि ही करता है।
इण्डियन नेशनल सार्इंस अकादमी (इनसा) के वरिष्ठ वैज्ञानिक और प्रतिष्ठित भू-वैज्ञानिक प्रो. एम.एस. श्रीनिवासन वैदिक युग तथा उसके आगे भी भू-विज्ञान के क्रमिक विकास का उल्लेख करते हैं। वैदिक युग के अध्ययन के प्रमुख स्रोतों में चारों वेद- ऋग्वेद, सामवेद, यर्जुवेद तथा अथर्ववेद के अलावा संहिता, ब्राह्मण, अरण्यक तथा उपनिषद आदि ग्रंथ आते हैं। प्रो. श्रीनिवासन के अनुसार भू-विज्ञान के उद्गम अर्थात धरती की ही उत्पत्ति से बात करें तो वेदों में भी आरंभ से ही अंतरिक्ष और धरती के अस्तित्व में आने के कारणों आदि पर भी चर्चा की गई है। तैत्तरेय उपनिषद में अनंत अंतरिक्ष से धरती की उत्पत्ति का उल्लेख है तो ऋग्वेद में उपयुक्त परिस्थितियों में भूमि और पर्वतों की उत्पत्ति के पश्चात वनस्पतियों के उद्गम तथा उसके बाद मनुष्य के प्रादुर्भाव का भी संकेत हैं।
‘पृथ्वी सूक्त’ में तो भू-पटल पर विद्यमान चट्टानों के वर्गीकरण का भी प्रयास दिखाई देता है। पृथ्वी की उत्पत्ति के अलावा खनिजों तथा धातुओं का भी वैदिक ग्रंथों में पर्याप्त उल्लेख है। ऋग्वेद में तीन धातुओं हिरण्य (स्वर्ण, 100 से अधिक बार), रजत (चाँदी) तथा अयक (लौह) का जिक्र मिलता है। मैत्रेय हिता में सूर्योदय तथा सूर्यास्त की तुलना ताम्र वर्ण (तांबे के रंग) से की गई है। धातुओं के अलावा वैदिक ऋषियों (आज के संदर्भ में भू-विज्ञानी) के जीवाश्मों से परिचित होने के भी संकेत मिले हैं। ऐतरेय ब्राह्मण तथा मनुस्मृति में नवीनतम भू-वैज्ञानिक परिघटना प्लीस्टोसीन हिमयुग की भी चर्चा मिलती है। पुरावैदिक युग जिसके साक्ष्य हमें रामायण, महाभारत, स्मृतियों तथा पुराणों से प्राप्त होते हैं, में भी तत्कालीन समाज में खनिजों, धातुओं के प्रयोगों तथा अन्य भू-वैज्ञानिक सिद्धांतों के विकास के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। रामायण में स्वर्ण का ‘जलरूपम’ के रूप में उल्लेख हैं, साथ ही रावण की ‘सोने की लंका’, ‘स्वर्ण युग’ आदि तो प्रसिद्ध हैं। महाभारत के ‘सभापर्व’ में एक पर्वत का उल्लेख है जहाँ रत्नों आदि की प्रचुरता है। ऐसे पर्वतों का जिक्र कई अन्य वैदिक तथा पुरावैदिक ग्रंथों में भी है। नवीनतम अध्ययनों के अनुसार उक्त ग्रंथों में संभवत: अरावली, हिमालय, विंध्य, धारवार आदि क्षेत्रों को इंगित किया गया है।
‘अग्निपुराण’ तथा ‘विष्णुपुराण’ में अवतारवाद के संदर्भ से तत्कालीन समाज को ‘जैविक विकास का सिद्धांत’ की जानकारी का भी आभास मिलता है। ‘विष्णु पुराण’ में सोने के स्रोत को इंगित करते हुए कहा गया है कि- ‘‘सुवर्णामण्यो यात्रा सुप्रभ: अनेना सुवर्ण रत्नास्थितिर लभ्यते।’’ अर्थात सोना मुख्यत: श्वेत पत्थरों के साथ ही संबंद्ध होता है। उल्लेखनीय है कि आधुनिक भौमिकीय सर्वेक्षण भी यह पुष्टि करते हैं कि सोना श्वेतवर्णीय क्वार्टज की शिराओं से ही जुड़ा हुआ पाया जाता है।
‘मत्स्य पुराण’ में सोने के प्लेसर खनिज के रूप में पाए जाने का भी उल्लेख है। ‘सूर्य सिद्धांत’ में धरती की आयु 200 लाख वर्ष पूर्व आकलित किया जाना वाकई आश्चर्यजनक है। ‘भुवनकोष’ में ध्रुवों का विचलन और भूमध्यरेखा की स्थिति में परिवर्तन तत्कालीन उच्च वैज्ञानिक चेतना का प्रमाण है। भुवनकोष- गोलाध्याय संहिताओं तथा अरण्यकों में तत्कालीन आर्य समाज में जौहरी, धातुविद रत्नों तथा खनिजों से संबंद्ध व्यवसायों का भी उल्लेख है। इस युग की प्रमुख सभ्यताओं में एक सिंधु घाटी की सभ्यता धातु विज्ञान की दृष्टि से चरम पर थी। इसमें कोलार तथा अनन्तपुर की खानें सोने की प्रमुख उत्पादक थीं, तो तांबा राजपूताना से प्राप्त होता था। कांसे का प्रयोग इसे अन्य सभ्यताओं से धातु विज्ञान में कहीं आगे ला खड़ा करता है।
प्राचीन भारतीय खनिज विज्ञान के विकास का एक प्रमुख स्रोत कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ है। इसमें खनिजों तथा रत्नों के उत्खनन की शासकीय व्यवस्था के विवरण के अलावा विभिन्न खनिजों की उनके भौतिक गुणों के आधार पर पहचान तथा विभिन्न विधियों द्वारा उनसे अशुद्धियों को पृथक करने की विधियों का भी उल्लेख है। खनिजों के उपयोग तथा उनके स्रोतों का भी विशद वर्णन इस ग्रंथ में है।
प्राचीन ग्रंथ ‘रत्नाकरम’ में बहुमूल्य रत्नों की पहचान की ऐसी प्रमाणिक विधियों का वर्णन है कि इसे आज भी एक प्रमुख संदर्भ ग्रंथ की मान्यता प्राप्त है। डॉ. श्रीनिवासन एक रोचक तथ्य की ओर ध्यानाकर्षित करते हुए कहते हैं कि इस ग्रंथ में वर्णित कई खनिजों के नाम आज के यूरोपीय नामों से भी काफी मिलते-जुलते हैं, जैसे- कर्तज (क्वार्टज), गोकर्णमणि (गार्नेट), तूर्णमला मणि (टूरमलिन), कुरंदम मणि (कोरंडम) आदि। गुप्त काल में धातु विज्ञान की उत्कृष्टता का सशक्त उदाहरण दिल्ली के कुतुबमीनार परिसर में स्थित लौह स्तम्भ तो है ही।
मध्यकालीन भारत के भू-विज्ञान का विकास मुख्यतरू बहुमूल्य खनिजों के अध्ययन तथा उत्खनन तक ही सीमित रहा, जिसे आर्थिक भू-विज्ञान से सम्बद्ध माना जा सकता है। फिर भी इस युग में ‘रस रत्नाकर’, ‘रसेन्द्र चूड़ामणि’, ‘रस रत्न समुच्चय’, ‘धातु क्रिया’ आदि कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी हुई।
औपनिवेशिक काल में भी भू-विज्ञान से संबंद्ध कई संस्थाएं अस्तित्त्व में आर्इं जिनका मूल भले ही आर्थिक रहा हो, मगर इन्होंने भारत में भौमिकी की दशा-दिशा निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। रॉयल एशियाटिक सोसायटी (1784); जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (1851); जियोलॉजिकल, माइनिंग एण्ड मेटलरजिलकल सोसायटी ऑफ इण्डिया (1924); पैलेन्टोलॉजिकल सोसायटी (1956); इण्डियन साइंस कांग्रेस आदि संस्थाएं ऐसे ही प्रयासों का साकार रूप थीं।
वर्तमान में कुछ संस्थाओं जैसे- बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पैलेयोबॉटनी, लखनऊ; नेशनल जियोफिजीकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, हैदराबाद; वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, देहरादून; नेशनल इन्स्टीट्यूट आॅफ ओशियनोग्राफी, गोवा आदि के अंतर्गत भू-विज्ञान के विभिन्न अवयवों पर अध्ययन और अनुसंधान जारी है।
भू-विज्ञान आज मात्र खनिजों के अध्ययन और उत्खनन की सीमाओं से कहीं आगे बढ़ चुका है। विज्ञान का शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो इसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर हो। जलवायु परिवर्तन जैसे कई विषय जो आज वैश्विक चर्चा के केंद्र बने हुए हैं भी भौमिकीय गतिविधियों से ही प्रभावित होते हैं। स्वयं को प्रत्यक्ष रूप से सर्वाधिक प्रभावित करने वाले इस विषय से ही आम आदमी का आज प्रचलित विषयों की तुलना में ज्यादा अनभिज्ञ होना काफी निराशाजनक है। ऐसे में आवश्यकता है कि इस विषय के महत्व को स्थापित करने में भारत की ऐतिहासिक भूमिका का पुन: स्मरण करते हुए इसे लोकप्रिय तथा जनोन्मुखी बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास किए जाएँ।
इस संदर्भ में आम जनता विशेषकर विद्यालयों में जागरूकता कार्यक्रम चलाये जा सकते हैं। डाक टिकटों के माध्यम से भू-वैज्ञानिकों, भू-वैज्ञानिक घटनाओं, जीवाश्मों आदि के विषय में चेतना जगायी जा सकती है। बोझिल सेमिनारों के स्थान पर लोकप्रिय व्याख्यानों की श्रृंखला आरंभ की जा सकती है जिसमें विशेषज्ञ भू-वैज्ञानिक रोचक ढंग से इस विषय को आम लोगों विशेषकर युवाओं तक पहुँचा सकें। और साथ-ही-साथ पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा लोकप्रिय विज्ञान लेखन के माध्यम से इस अल्प चर्चित किंतु महत्त्वपूर्ण विषय के प्रति जागरूकता बढ़ायी जा सकती है।
भू-विज्ञान प्रकृति के अध्ययन का एक अत्यंत ही रोचक विषय है, इसलिए स्वाभाविक ही इसे प्रयोगशालाओं की जटिलताओं से मुक्त करते हुए इसके महत्व तथा लाभों को जनोन्मुखी बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए।
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अभिषेक मिश्र
यशंवत नगर, हजारीबाग, झारखंड
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