भुतही नदी और तकनीकी झाड़-फूंक

भुतही नदी
भुतही नदी

1. भुतही-बलान का परिचय


भारत के उत्तर बिहार के मधुबनी जिले में कोसी और कमला नदियों के बीच भुतही-बलान एक मुख्य नदी है, नक्सेे में देखने पर पता चलता है कि कोसी के कहीं ज्यादा नजदीक पड़ती है। कहने को यह नदी हर मायने में बहुत छोटी है मगर इसके आकार को देखते हुए इससे होने वाली तबाहियां जरूर बड़ी हैं। फिर भी अगर किसी जानकार आदमी से उत्तर बिहार की नदियों का नाम गिनाने को कहा जाय तो भुतही-बलान का नाम आते-आते तक उसकी याददाश्त निश्चित ही खत्म हो जायेगी। अजीब नदी है यह जिसका न तो कोई निश्चित प्रवाह था और न ही निश्चित तल। स्थानीय लोग बताते हैं कि यह नदी बरसात में देखते-देखते चढ़ जाती है। इसका पानी घरों में घुस जाता है, रास्ते बन्द हो जाते हैं और इसके पहले कि बचाव के लिये कुछ किया जा सके, यह नदी बालू की मोटी परत छोड़ कर गायब हो जाती है। अनजान आदमी अगर नदी की धारा में फंस गया तो पानी उसे पटक देगा और नदी की रेत उसे दफन कर देगी। उसमें से जिंदा बच निकलना नामुमकिन है। धार में हांथी भी फंस जाय तो सीधे दरभंगा निर्मली रेल लाइन पर किशुनीपट्टी के रेल पुल पर ही आकर अटकेगा, इतना प्रवाह रहता है कि नदी में (चित्र-2) वहीं आधे घण्टे बाद जाइये तो सब शान्त, कहीं कुछ नहीं, पैदल पार कर जाइये नदी को। यही कारण है कि इस नदी में नाव नहीं चलती। कहते हैं कि जैसे भूतों का आना या जाना पता नहीं लगता उसी तरह इस नदी का भी आना-जाना पता नहीं लग पाता है। शायद इसलिये इसे ‘भुतही’ नाम मिला है।

पुराने लोगों का कहना है कि नेपाल से लौकहा में भारत में प्रवेश करने के बाद यह नदी चिकना, तमुरिया और निर्मली के बीच अपनी मर्जी से घुमा करती थी। एक बड़ी लहर की तरह इसका पानी इलाके में आता था, जमीन पर बालू पड़ जाता था और कई जगहों पर खेती की उपज पर असर पड़ता था मगर ऐसा शायद ही कभी होता हो कि किसान खाली हाथ खेत से वापस चला आये। बालू पड़ने की जगहें भी बदलती रहती थीं और आजाद रहने की वजह से नदी का पानी बड़े इलाके पर फैलता था जिससे इसकी बाढ़ का स्तर एक सीमा के अन्दर ही रहता था और नदी कभी खतरनाक नहीं हो पाती थी। लोग नदी की शरारत और आंख मिचौली से वाकिफ थे और इसी लुका-छिपी के बीच जीवनधारा आराम से चला करती थी। आम आदमी नदी को ‘माता’ कहकर बुलाता था और देवी मानकर उसकी पूजा होती थी। बरसात के मौसम में नदी का बेताबी से इन्तजार होता था, उससे मिठाइयों की सौगात चढ़ाने का वायदा होता था और सही समय पर नदी में उफान आने का एक शुभ संकेत माना जाता था। यहां के लोग नदी को आराध्य देवी मानते हैं जिसका मायका फुलपरास में है। आज भी फुलपरास के ब्रह्मस्थान में नदी की व्यक्तिगत और सामूहिक पूजा का रिवाज है। बुजुर्ग लोग बताते हैं कि आज से कोई सौ साल पहले नदी एक बार फुलपरास से कोई 3-4 किलोमीटर पश्चिम की ओर सरक गई थी। तब सुग्गापट्टी गाँव वालों ने नदी की पूजा-अर्चना की थी कि वह उनके गाँव चली आयी। काफी बड़ा अनुष्ठान हुआ था और मन्नत मानने वाले सारे रास्ते में बालू छिड़कते हुये और नदी को अगली बरसात में उसका रास्ता दिखाते हुए फुलपरास तक लौटे थे। नदी ने अपने आराधकों को मायूस नहीं किया और अगली बरसात में फुलपरास चली आई। इसी तरह नरहिया के एकदूसरे भगत ने जब भुतही-बलान को अपने यहां बुलाया तो नदी ने उनकी भी बात रखी और नरहिया चली आई। ऐसी जबर्दस्त आस्था थी नदी पर लोगों की। नदी जैसे परिवार की ही एक सदस्य थी और उसने परिवार को कभी परेशानी में नहीं डाला। पुराने समय में जब माचिस का आविष्कार नहीं हुआ था और तब तक जब तक कि उनका प्रचलन आम नहीं हुआ था, गाँव के घरों में आग का आदान-प्रदान हुआ करता था। इस इलाके में नदी के बीच में रहने के बावजूद लोगों के साथ कभी ऐसा नहीं हुआ कि आग न मिलने की वजह से किसी घर में चूल्हा न जला हो। पुराने लोग बताते हैं कि 1952-63 के बीच में फुलपरास में एक लबनियाँ बुढ़िया नदी की धार के प्रायः बीचो-बीच रहती थी और सभी बुढ़िया को बेफिक्री पर आश्चर्य करते थे लेकिन उसने भी कभी नदी के व्यवहार के प्रति अपने पड़ोसियों से शिकायत नहीं की। नदी के साथ इतना सुन्दर तादात्म्य था सबका।

बहुत से लोग भुतही-बलान को नदी मानने को तैयार नहीं होते और इसे केवल एक सोता मानते हैं जो कि अपने मर्जी और चाल से बहता है। इंजीनियर लोग जरूर इसको वह सभी इज्जत देते हैं जो कि एक नदी को मिलनी चाहिए और यह नदी इंजीनियरों के सामने वह सभी मुश्किलें खड़ी करती है, जिसके लिये इंजीनियरों की जरूरत पड़ती है।

2 - भुतही-बलान और उसकी बदलती धारायें


कोसी की इस सहायक धारा भुतही-बलान का उद्गम हिमालय में चूरे पर्वतमाला में लगभग 910 मीटर की ऊंचाई पर नेपाल में अवस्थित है और यह भारत-नेपाल सीमा का मधुबनी जिले में लौकहा गाँव के पास पार करती है। नेपाली हिस्से में लगभग 42 किलोमीटर और भारतीय भू-भाग में 45 किलोमीटर का रास्ता तय करने के बाद यह नदी दरभंगा-निर्मली रेल लाइन के पुल नं. 133 से होती हुई कोसी से संगम कर लेती है (चित्र 2)। इस नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र लौकहा में 466 वर्ग किलोमीटर, टेंगरार में 515 वर्ग किलोमीटर तथा 133 नं. रेल-पुल के पास 556 वर्ग किलोमीटर है। भारतीय सीमा में इस नदी के तल का ढाल ऊपरी इलाकों में 0.88 मीटर प्रति किलोमीटर से लेकर निचले इलाकों में 0.52 मीटर प्रति किलोमीटर है। नेपाल में पहाड़ी के ठीक नीचे बहुत सी छोटी-छोटी धारायें इस नदी में मिल कर इसे एक नदी की शक्ल देती हैं। भारतीय भाग में भारत-नेपाल सीमा से प्रायः 23 किलोमीटर दक्षिण में नरहिया के पास बिहुल नाम की एक दूसरी नदी इससे मिलती है। 1954 की बाढ़ में यह दोनों धारायें अलग हो गई थीं। इस बाढ़ में भुतही-बलान से दो नई धाराएं फूट गई थीं। इनमें से एक बलान पट्टी के पास और दूसरी धारा महथौर के पास अलग हुई थी। यह दोनों धारायें फिर मुरली गाँव के पास मिल जाती थीं और वहाँ से कोसी की ओर बढ़ती थी। 1960 में एक बार फिर इसने धौसही गाँव के पास किनारे तोड़े और बहते पानी में धौसही, बरही और फुलपरास आदि गाँवों में ताण्डव मचाया। इसके बाद 1968 में धौसही के पास जो धारा फूटी थी उसमें तो पानी कम आया पर फुलपरास के पास दाहिने किनारे पर नदी की एक नई शाखा निकली और फुलपरास से घोघरडीहा वाले रास्ते के साथ-साथ बहने लगी और रास्ते में जो कुछ भी पड़ा उसे बरबाद किया। 1970 में एक बार फिर महथौर के पास भुतही-बलान और बिहुल एक हो गईं।

इस बार बिशुनपुर गाँव के दक्षिण एक नई धारा फूटी जिससे बिशुनपुर के दक्षिण, राजपुर के पश्चिम और एकहट्टा के पूरब वाला इलाका पानी से घिर गया था। यह सारा पानी बह कर नीचे एक अन्य धारा में जाकर मिल गया जो कि राजपुर के पास से निकली थी। राजपुर से फूटने वाली यह धारा महाराजपुर गाँव से पश्चिम होकर बही और फुलपरास-खुटौना मार्ग को कालापट्टी पुल से होकर पार किया। इस धार की लम्बाई तो सिर्फ साढ़े पांच किलोमीटर थी मगर इसकी वजह से महाराजपुर, राजपुर, एकहट्टा, सिसवार और काला पट्टी आदि गाँव भुतही-बलान की चपेट में आ गये।

भुतही-बलान की तीसरी धारा दाहिने किनारे से धौसही गाँव के पास से निकल पड़ी। इसकी लम्बाई भी मात्र 5 किलोमीटर थी और इसने फुलपरास-झंझारपुर मार्ग को पार करके बरहमपुर, फुलपरास, लोहिया पट्टी, पइता आदि गाँवों को तबाह किया। इनके अलावा दो अन्य छोटी-छोटी धारायें भी फुलपरास/घोघरडीहा के पास से अलग हुई थीं।

भुतही-बलान की धाराओं में परिवर्तन तथा नई-नई शाखाओं में नदी की धाराओं का फूटना एक बड़ी समस्या रही है। इसमें भी नदी की अधिकांश नई शाखाएं उसके दाहिने किनारे पर फूटी हैं। उत्तर बिहार की दूसरी नदियों की तरह भुतही-बलान नदी के प्रवाह में भी बालू और सिल्ट की मात्रा बहुत अधिक है जिसकी वजह से नदी की धारा में परिवर्तन सांप की तरह चलता हुआ बहाव, किनोर तोड़कर बहना, नदी का छिछला और अस्थिर रहना आदि वह सभी गुण मौजूद हैं जो आम लोगों के लिये परेशानी पैदा कर सकते हैं।

3 - भुतही-बलान को बाँधने की मजबूरी


1955 में आजाद भारत में कोसी को तटबन्धों के बीच कैद कर लेने का बाढ़ नियंत्रण का पहला बड़ा प्रयोग हुआ और उस समय पहले दौर में पश्चिम में निर्मली से कुनौली तक तटबन्ध बना। इस तटबन्ध के निर्माण से उत्तर-पश्चिम दिशा से आकर कोसी में मिलने वाली नदियों जैसे खड़क, परबत्ता, तिलयुगा और भुतही-बलान आदि के प्रवाह में बाधा पड़ी। स्लुइस गेट या पुल बनने में समय लगता है इसलिये उन-उन जगहों पर जहाँ यह नदियां पश्चिमी कोसी तटबन्ध को काटती थीं वहाँ मिट्टी न डाल कर खुला छोड़ दिया गया। तटबन्धों के निर्माण से पहले यह नदियां बरसात में अपने पानी के पूरे फैलाव के साथ कोसी से मिलती थीं जिससे बाढ़ का लेवल और प्रकोप अपने आप कम हो जाता था। पश्चिमी कोसी तटबंध के निर्माण ने नदियों के इस फैलाव को संकुचित और सीमित कर दिया जिसकी वजह से पश्चिमी तटबंध के बाहर पानी का फैलाव बढ़ा और खुद पश्चिमी कोसी तटबन्ध पर इन नदियों के हमले तेज हुये। निर्मली के उत्तर बनगामा और अमचीरी के बीच से खड़क नदी कोसी में मिलती थी और पश्चिमी तटबन्ध बनने के कारण अब उसका रास्ता रूका पड़ा था, जिसकी वजह से हिरपट्टी, बनगामा, अमचीरी और बगहा गाँवों में पानी भर गया और ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ था। यहां के किसानों ने पश्चिमी कोसी तटबंध को काटने तक की कोशिशें कीं ताकि तटबन्ध के बाहर अटके पानी को कोसी में डाला जा सके।

इसी तरह की समस्या भुतही-बलान के साथ भी देखने को मिली। पश्चिमी कोसी तटबन्ध बनने के पहले इस नदी का पानी आसानी से कोसी में मिल जाया करता था। तटबन्ध के निर्माण के एक हिस्से की शक्ल में निर्मली घोघरडीहा रेल लाइन की सतह को 1955-56 में ऊंचा कर दिया गया जिसकी वजह से भुतही-बलान समेत कई नदियों के प्रवाह के मार्ग में रूकावटें आ गईं। 1956 में पश्चिमी कोसी तटबन्ध का निर्माण कार्य घोघरडीहा से मधेपुर के बीच में शुरू हो गया था और इस तटबन्ध को भुतही-बलान की बाढ़ के झोंकों से बचाना जरूरी था जिसके लिये सरकार ने रेलवे लाइन के पश्चिम किशुनीपट्टी से बेलहा तक एक मार्जिनल बाँध बना दिया। यह भी उम्मीद की गई थी कि इस मार्जिनल बाँध के निर्माण से घोघरडीहा, पिरोजगढ़, चिकना, भिरहर, बिरौल और घोघरडीहा के पश्चिम एवं रेलवे लाइन के दोनों ओर तमुरिया स्टेशन तक के गाँवों को बाढ़ के पानी से कुछ निजात मिलेगी। जहाँ एक ओर यह फायदा होने वाला था, वहीं रेलवे बाँध, मार्जिनल बाँध और पश्चिमी कोसी तटबन्ध के सामूहिक प्रभाव से भुतही-बलान टेंगरार, महथौर, फुलकाही, बिशुनपुर, मुरली, कनकहिया, बरही, हनुमान नगर, धौसही, नरहिया, फुलपरास, गोरगामा, भबटियाही, रामनगर, बरहमपुर, बेलहा, बथनाहा तथा धनखोर आदि गाँवों पर भविष्य में होने वाले तबाही की पूर्व सूचना दे रही थीं।

एक ओर पश्चिमी कोसी तटबंध के निर्माण और उसके द्वारा कोसी को काबू कर लेने की वजह से उठते हुये जय-जयकार का शोर और दूसरी ओर इन गाँवों पर भुतही-बलान की बाढ़ की दस्तक ने इस नदी को भी नियंत्रित किये जाने की मांग को 1950 के दशक में ही जन्म दे दिया था। बिहार सरकार भी इस दिशा में 1955 से ही सक्रिय थी और वह भुतही-बलान को नियंत्रित करने की बात करने लगी थी। भुतही-बलान पर तटबन्ध बनाये जाने को लेकर तब स्थानीय लोगों में कुछ मतभेद था।

बाढ़ नियंत्रण के लिये तटबंधों के निर्माण और उनकी भूमिका तथा इस मसले पर पक्ष और विपक्ष की बहस में पड़े बिना यहां इतना ही बता देना काफी है कि मुक्त रूप से बहुती हुई नदी की बाढ़ के पानी में काफी मात्रा में गाद (सिल्ट/बालू/पत्थर) मौजूद रहती है। बाढ़ के पानी के साथ यह गाद बड़े इलाके पर फैलती है। नदियां इसी तरीके से भूमि का निर्माण करती हैं। तटबन्ध पानी का फैलाव रोकने के साथ-साथ गाद का फैलाव भी रोक देते हैं और नदियों के प्राकृतिक भूमि निर्माण में बाधा पहुँचाते हैं। अब यह गाद तटबन्धों के बीच ही जमा होने लगती है जिसेकि नदी का तल धीरे-धीरे ऊपर उठना शुरू हो जाता है और इसी के साथ तटबन्धों के बीच बाढ़ का लेवल भी ऊपर उठता है। नदी की पेटी लगातार ऊठते रहने के कारण तटबन्धों को ऊंचा करते रहना इंजीनियरों की मजबूरी बन जाती है मगर इसकी भी एक व्यावहारिक सीमा है। तटबन्धों को कितना ज्यादा ऊंचा और मजबूत किया जायेगा, सुरक्षित क्षेत्रों पर बाढ़ और जल-जमाव का खतरा उतना ही ज्यादा बढ़ता है।

तटबन्धों के बीच उठता हुआ नदी का तल और बाढ़ का लेवल तटबन्धों की टूटन का कारण बनते हैं। यह दरारें तटबन्धों के ऊपर से होकर नदी के पानी के बहाव, तटबन्धों से होने वाले रिसाव या तटबन्धों के ढलानों के कटाव के कारण पड़ती हैं। तटबन्धों के टूटने की स्थिति में बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में तबाही का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। कभी-कभी चूहे, लोमड़ी या छछूंदर जैसे जानवर तटबन्धों में अपने बिल बना लेते हैं। नदी का पानी जब इन बिलों में घुसता है तो पानी के दबाव के कारण तटबन्धों में छेद हो जाता है और वह टूट जाते हैं।

किसी भी नदी पर तटबन्धों के निर्माण के कारण उस नदी की सहायक धाराओं का पानी मुख्य नदी में न आकर बाहर ही अटक जाता है। बाहर अटका हुआ यह पानी या तो पीछे की ओर लौटने पर मजबूर होगा या तटबन्धों के बाहर नदी की दिशा में बहेगा। दोनों ही परिस्थितियों में यह नये-नये स्थानों को डुबायेगा जहाँ कि, मुमकिन है, अब तक बाढ़ न आती रही हो। इस समस्या को जो जाहिर सा समाधान है वह यह कि जहाँ सहायक धारा तटबन्ध पर पहुँचती हैं वहाँ एक स्लुइस गेट बना दिया जाय। स्लुइस गेट बन जाने के बाद भी उसे बरसात के मौसम में खोलना समस्या होती है क्योंकि अगर कहीं मुख्य धारा में पानी का लेवेल ज्यादा हुआ तो उसका पानी उलटे सहायक धारा में बहने लगेगा और अनियंत्रित स्थिति पैदा करेगा। अपने निर्माण के कुछ ही वर्षों के अन्दर अक्सर स्लुइस गेट जाम हो जाया करते हैं क्योंकि फाटकों के सामने नदी की साइड में बालू जमा हो जाता है। इस तरह से स्लुइस गेट के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता ओर सहायक धारा का पानी गाँव-गिरांव के सुरक्षित क्षेत्रों में फैलता ही हैं। इन स्लुइस गेट का संचालन बरसात समाप्त होने के बाद ही हो पाता है जब कि नदी में बाढ़ का लेवल काफी नीचे चला जाय। इस समय तक जो नुकसान होना था वह हो चुकता है।

जब स्लुइस गेट नहीं काम कर पाते हैं तो अगला उपाय बचता है कि सहायक धाराओं पर भी तटबन्ध बना दिये जायें जिससे कि बाढ़ सुरक्षित क्षेत्रों में उनका पानी न फैले। ऐसा कर देने पर मुख्य नदी के तटबंध और सहायक धारा के तटबन्ध के बीच जो वर्षा का पानी जमा हो जाता है, उसकी निकासी का रास्ता ही नहीं बचता। यह पानी या तो भाप बन कर ऊपर उड़ सकता है या जमीन में रिस-कर समाप्त हो सकता है। तीसरा रास्ता है कि इस अटके हुये पानी को पम्प कर के किसी एक नदी में डाल दिया जाय। अब अगर पम्प कर के ही बाढ़ की समस्या का समाधान करना था तो मुख्य नदी, सहायक नदी पर तटबन्ध और स्लुइस गेट बनाने की क्या जरूरत थी? और अगर कभी दुर्योग से इन दोनों तटबन्धों में से कोई एक टूट गया तो बीच के लोगों की जल समाधि निश्चित है।

कभी-कभी तटबन्ध के ग्रामीण इलाकों में बसे लोग जल-जमाव से निजात पाने के लिये तटबन्धों को काट दिया करते हैं। इसके अलावा न तो आज तक कोई ऐसा तटबन्ध बना और न ही इस बात की उम्मीद है कि भविष्य में कभी बन भी पायेगा जो कि कभी टूटे नहीं। यह दरारें तटबन्ध तकनीक का अविभाज्य अंग हैं जिनके चलते कन्ट्री-साइड के तथाकथित सुरक्षित इलाकों में बसे लोग अवर्णनीय कष्ट भोगते हैं और जान-माल का नुकसान उठाते हैं।

तटबन्धों के कारण बारिश का वह पानी जो कि अपने आप नदी में चला जाता है वह तटबन्धों के बाहर अटक जाता है और जल-जमाव की स्थिति पैदा करता है। तटबन्धों से होकर होने वाला रिसाव जल-जमाव को बद से बदतर स्थिति में ले जाता है। इसके अलावा नदी के बाढ़ के पानी में जमीन के लिये उर्वरक तत्व मौजूद होते हैं। बाढ़ के पानी को फैलने से रोकने की वजह से यह उर्वरक तत्व भी तटबंधों के बीच ही रह जाते हैं। इस तरह से जमीन की उर्वराशक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। उर्वराशक्ति में गिरावट की भरपायी रासायनिक खाद से की जाने लगी है जिसका खेतों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और इस तरह के खाद की कीमत अदा करनी पड़ती है।

कभी-कभी स्थानीय कारणों से नदी के एक ही किनारे पर तटबन्ध बनाने पड़ते हैं। ऐसे मामलों में बाढ़ का पानी नदी के दूसरे किनारे फैल कर तबाही मचाता है और साथ में ही उपर्युक्त सारी दिक्कतें तो मौजूद रहती ही हैं। तटबन्धों द्वारा बाढ़ का नियंत्रण करना अपने आप को एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसाना है जहाँ से निकलना बहुत मुश्किल होता है।

उधर इंजीनियरों के एक बड़े वर्ग का विश्वास है कि नदी पर जब तटबंध बना दिया जाता है तो उसकी पानी के निकासी का रास्ता कम होने से पानी का वेग बढ़ जाता है। धारा का वेग बढ़ जाने से नदी की कटाव की क्षमता बढ़ जाती है और वह अपने दोनों किनारों को काटना आरंभ कर देती है और अपनी तलहटी को भी खंगाल देती है जिससे उसकी चौड़ाई और गहराई दोनों बढ़ जाती है और उसका जलमार्ग पहले से कहीं ज्यादा हो जाता है। नतीजतन नदी में पहले से कहीं ज्यादा पानी प्रवाहित होने लगता है जो कि बाढ़ के प्रभाव को कम कर देता है। तकनीकी हलकों में आज तक इस बात पर सहमति नहीं हो पाई है कि नदी पर बना तटबन्ध बाढ़ को बढ़ाता है या कम करता है। अलग-अलग नदियों और उनमें आने वाली गाद का चरित्र अलग-अलग होता है- ऐसा कह कर इंजीनियर लोग किसी भी बहस से बच निकलते हैं। इंजीनियर लोग इसी बात का फायदा उठाते हैं और अपनी सुविधा और अपने ऊपर पड़ने वाले सामाजिक और राजनैतिक दबाव के सन्दर्भ में इन तर्कों की व्याख्या किसी योजना को स्वीकार करने या उसे खारिज करने में करते हैं। तटबन्धों के पक्ष में और उनके खिलाफ दोनों तर्क इतने मजबूत हैं कि उन पर कोई उंगली नहीं उठा सकता है। सच यह है कि बाढ़ नियंत्रण के लिये किसी नदी पर तटबन्ध बनें या नहीं, यह फैसला अपनी समझ के अनुसार राजनीतिज्ञ लेते हैं और इन अनिर्णित तर्कों का सहारा लेकर इंजीनियर सिर्फ उनकी हां में हां मिलाते हैं। इंजीनियरों का कद चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, राजनीतिज्ञ उन पर अपना फैसला थोपने में कायमाब होते हैं और इंजीनियर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

नदियों के किनारे बाढ़ से बचाव पर तटबन्ध की भूमिका को लेकर पूरे ब्रिटिश शासन काल में एक लम्बी बहस चली थी और तब क्योंकि सरकार तटबन्धों के खिलाफ थी इसलिये इंजीनियर तबका भी आमतौर पर तटबन्धों के खिलाफ था। शायद यही वजह थी कि जब आजादी के लगभग ठीक बाद तटबन्धों के निर्माण की बात उठी तब आम लोगों में उनकी भूमिका पर सहमति नहीं बन पाती थी और भुतही-बलान पर प्रस्तावित तटबन्ध इसी दायरे में आते थे।

4. भुतही-बलान पर तटबन्ध बनाने को लेकर प्रयास


उभरते हुए इस स्थानीय विवाद के कारण विधायक रसिक लाल यादव (1957) के तारांकित प्रश्न सं. 133 के उत्तर में सरकार की तरफ से केदार पाण्डे ने बिहार विधान सभा का विरोध किया था कि , ‘‘.... स्थानीय जनता द्वारा वर्तमान स्वीकृत योजना का विरोध किया गया है अतः जनता के परामर्श को ध्यान में रखकर इस योजना का पुनरीक्षण विचारधीन है।’’ उस समय तो यह बात आई गई हो गई मगर नदी का दबाव रेलवे लाइन और कोसी के पश्चिमी तटबन्ध पर बना रहा। इसके साथ पश्चिमी कोसी तटबन्ध से होकर नदी के पानी की जल-निकासी की समस्या भी समय के साथ परेशानी बढ़ाती जा रही थी।

भुतही-बलान के तटबन्ध सिर्फ बिगड़ती हुई जल-निकासी की स्थिति और लोगों के अनुरोध पर बन गये थे, ऐसा नहीं था। तत्कालीन सिंचाई मंत्री, बिहार सरकार, द्वीप नारायण सिंह (1962) ने विधान-सभा में इस मांग को कन्नी से काट दिया था। उनका कहना था कि ‘यह बात सही है कि दरभंगा जिलान्तर्गत फुलपरास तथा लौकही थाने को भुतही-बलान नदी सात वर्षों से बरबाद कर रही है; उक्त नदी पर तटबन्ध बनाने के सम्बन्ध में तत्काल कोई योजना सरकार के पास नहीं है।... भुतही-बलान अपना रास्ता बदलती ही रहती है और जब तक इसके मार्ग में स्थिरता नहीं आ जाती, इसके किसी किनारे पर तटबन्ध बनाने का कोई फायदा नहीं होगा।’ 1962 में दिये गये सिंचाई मंत्री के इस बयान से इतना जरूरत निश्चित होता है कि सात साल पहले तक, यानी पश्चिमी कोसी तटबन्ध बनने से पहले, भुतही-बलान की बाढ़ कोई समस्या नहीं पैदा करती थी। उन्होंने इतना कह कर तसल्ली जरूर दी कि इस विषय की अध्ययन जारी है और यथा-समय इस नदी से ग्रस्त क्षेत्र की रक्षा के लिये कोई योजना तैयार की जायेगी।

1966 में 22 अगस्त से 1 सितम्बर तक भुतही-बलान में जर्बदस्त बाढ़ आई। इतने लम्बे समय तक बाढ़ के टिके रहने के कारण ग्रामीणों की भोजन की व्यवस्था चरमरा गई और अगली फसल के उत्पादन की संभावना जाती रही। बड़ी संख्या में घर गिर गये। गाँवों और रास्तों पर 2-2 मीटर से अधिक गहराई का पानी था। लोगों को पेड़ों पर, छप्परों पर या फिर चौकी पर चौकी सजा कर रहने की व्यवस्था करनी पड़ी। नावों का एकदम अभाव था। इसलिये पूरा इलाका बाकी दुनिया से कटा हुआ था। फुलपरास थाने की कोई दस पंचायतें इस बाढ़ की चपेट में थीं जिनमें धौसही, बरही, फुलपरास, बरहमपुर, पिरोजगढ़, चिकना और घोघरडीहा आदि शामिल थीं। हुआ यह कि धौसही से मुरली तक के बीच में लगभग 200 मीटर लम्बा एक ग्रामीण बाँध बना हुआ था। कुछ वर्षों से भुतही-बलान के पानी का थोड़ा-थोड़ा हमला इस बाँध पर शुरू हो गया था। इसके टूट जाने की स्थिति में नदी का पानी बड़े इलाके पर फैल जाता इसलिये गाँव वालों ने मिल कर स्थानीय प्रखण्ड विकास पदाधिकारी से इस बाँध की मरम्मत करने को कहा। इस मरम्मत के काम में 5,000 रुपया खर्च जरूर होता मगर इन पंचायतों की 56,000 आबादी का भुतही-बलान की संभावित बाढ़ से बचाव हो जाता। योजना बनी मगर माइनर इरिगेशन के एस.डी.ओ. ने इसे यह कर खारिज कर दिया कि बाढ़ रोकी जायेगी तो पटवन (सिंचाई) भी नहीं होगी इसलिये मरम्मत न की जाय। फिर नये सिरे से कोशिशें शुरू हुई। मधुबनी के सिविल एस.डी.ओ. से मिलकर एक दूसरी योजना तैयार हुई जिसे कलक्टर ने भी स्वीकृति दे दी मगर प्रखण्ड स्तर पर अफसरों के हिले-हवाले के चलते मरम्मत नहीं हो पाई। नतीजा यह हुआ कि जो भुतही-बलान रामनगर परसा होकर कोसी में मिलती थी उसने धौसही-मुरली बाँध को तोड़ दिया और इन सारे गाँवों को पहले पानी से धोया और बाद में बालू से पाट दिया। फसल तो मारी ही गई, गाँव भी बरबाद हुआ। फुलपरास थाने की एक को छोड़कर बाकी 27 पंचायतों पर इस बाढ़ का असर पड़ा और सिसवार, कालापट्टी, बैरिया, धमडीहा, जगतपुर, सुग्गापट्टी, सुजौलिया, गढ़ाटोल, बेल मोहन, नवानी और संग्राम आदि पंचायतों की फसलें पूरी तरह से साफ हो गईं। इस पूरी दुर्घटना की जांच की मांग उठी और धौसही मुरली बाँध की मरम्मत करने की मांग को फिर दुहराया गया। इसके साथ ही भुतही-बलान पर तटबन्ध बनाने की मांग ने फिर जोर पकड़ा।

दरभंगा जिले के 6-7 अंचलों की भुतही-बलान से तबाही का बयान करते हुए विधायक तेज नारायण झा (1968) ने सरकार को याद दिलाया कि इस नदी की बाढ़ से सड़कें और रेल लाइनें कट जा रही हैं और इलाके को भारी तबाही का सामना करना पड़ रहा है। ‘‘... गत साल संयुक्त सरकार ने मुस्तैदी के साथ इस काम को लिया। चीफ इंजीनियर वहाँ गये, एक योजना बनी भुतही-बलान इलाके को बचाने के लिये। राज्य सरकार का काम होता है केन्द्रीय सरकार के समक्ष इस प्रस्ताव को रखना, प्लानिंग कमीशन की मंजूरी लेना तथा रकम मुहैया करवाना जिससे उस इलाके की रक्षा हो सके।’’ सरकार पिघली 1969 में आकर जब विधायक बिलट पासवान के एक प्रश्न के जवाब में, जिसमें उन्होंने लौकहा और फुलपरास थानों के 50 गाँवों में भुतही-बलान के आतंक का मुद्दा उठाया था, सिंचाई विभाग के प्रभारी मंत्री ने बताया कि ‘(योजना की)’ स्वीकृति नहीं हुई है तथा राज्य के चतुर्थ-पंचवर्षीय योजना में बाढ़ नियंत्रण के लिये जो उपबन्ध किया गया है, उसमें कुछ बचत होगी या नहीं और अगर होगी तो इस योजना को लेना संभव है या नहीं, अभी कहना संभव नहीं है।’’

1970 में भी यह सब दुहराया गया जो 1968 में हुआ था मगर 1971 में भुतही-बलान ने मई के महीने में ही बाढ़ से बरबादी के किस्से गढ़ना शुरू किये। 12 जून को नदी में आई बाढ़ ने पुराने सभी रिकार्ड तोड़ दिये। झंझारपुर-खुटौना मार्ग का काफी बड़ा हिस्सा बाढ़ में डूब गया और रास्ता बन्द हो पाया। ब्रह्मपुत्र गाँव के निवासियों ने पानी की निकासी के लिये सड़क को काट डाला जिसके लिये सरकार ने उनको अभियुक्त बनाकर मुकदमा दायर किया। धनिक लाल मंडल ने जो कि उस समय विधायक थे और बाद में केन्द्रीय मंत्री और राज्यपाल तक रहे, विधानसभा में मांग की कि भुतही-बलान की जिस योजना को पिछले साल केएल. राव ने स्वीकृति दी थी उसका क्रियान्वयन शीघ्र किया जाय। लेकिन राज्य सरकार के लिये यह योजना अभी भी विचाराधीन थी।

सरकारों की यह आदत होती है कि जब तक जनता उसे इतना मजबूर न कर दे कि उसे झुकना पड़ जाय, तब तक कोई काम होता नहीं है। इसलिये भुतही-बलान पर तटबन्धों के निर्माण का प्रस्ताव आगे 1970 के दशक तक खिंचता गया। इस साल भुतही-बलान के पश्चिमी तटबन्ध की एक परियोजना रिपोर्ट तैयार की गई। इस रिपोर्ट में तत्कालीन दरभंगा जिले के लौकहा, फुलपरास, घोघराडीह, झंझारपुर और मधेपुर प्रखण्डों को भुतही-बलान की बाढ़ से बचाव का प्रस्ताव किया गया था।

उधर कोसी के पश्चिमी तटबन्ध को घोधेपुर तक ले जाकर खुला छोड़ दिया गया था। यह स्थान किशुनीपट्टी से 54 किलोमीटर दक्षिण में है। यहां से कोसी का पानी तटबन्ध के पीछे से घूम कर कोसी के पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम वाले गाँवों को डुबोने लगा था। कमला नदी पर भी जयनगर से दरजिया तक 60 के दशक में तटबन्ध बन गया था। अब अगर कोसी में बाढ़ हो तो कमला के पानी की निकासी में बाधा पड़ने लगी और दरजिया के नीचे तटबन्ध खुला होने के कारण उसका पानी भी आसपास के उन्हीं इलाकों में फैलने लगा जहाँ कोसी का पानी तबाही मचाता था। इस तरह से पश्चिमी कोसी तटबन्ध के पश्चिम कमला के पूर्वी तटबन्ध के पूरब का इलाका तकनीकी रूप से इन दोनों नदियों की बाढ़ से सुरक्षित था। मगर सच्चाई यह थी कि इस क्षेत्र से पानी की निकासी के सारे रास्ते जाम हो गये थे और बाढ़ ने यहाँ स्थायी रूप से घर कर लिया था। दूसरी ओर भुतही-बलान का दबाव लगातार पश्चिम की ओर बढ़ने लगा। तब भुतही-बलान की बाढ़ से सुरक्षा की मांग और भी बलवती होने लगी।

इसके अलावा भुतही-बलान के दाहिने किनारे के क्षेत्र को पश्चिमी कोसी नहर से सिंचाई मिलने की बात थी और उसके लिये यह जरूरी था कि इस क्षेत्र को भुतही-बलान की बाढ़ से सुरक्षित किया जाय। इस परियोजना से सिंचाई का समुचित लाभ मिल पाये उसके लिये भी भुतही-बलान पर तटबन्ध बनाना जरूरी हो गया। जनता और नदियों के बढ़ते हुए दबाव पर इस तरह से मजबूर होकर नदी के दाहिने किनारे पर 33.6 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध की योजना 1970 में बनी जिसमें नदी को लौकहा के पास भारत-नेपाल सीमा से लेकर गोरगामा तक घेरने का प्रस्ताव किया गया जहाँ की भुतही-बलान तटबन्ध को कोसी के पश्चिमी तटबन्ध से जोड़ देने का इरादा था।

इतने सारे कूएं झांकने के बाद और विस्तृत परियोजना रिपोर्ट 1970 में बन जाने के बाद दो साल का समय यह घोषणा करने में लग गया कि अब योजना पर काम शुरू होगा। 18 मई 1972 को बिहार विधानसभा में राधानन्दन झा ने वक्तव्य दिया कि भुतही-बलान के दाहिने किनारे पर लौकहा से लेकर कोसी के पश्चिमी तटबन्ध पर बसे गोरगामा तक 33.6 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध पर इसी वित्तीय वर्ष में काम शुरू हो जायेगा।

इस घोषणा के बाद भी काम शुरू होने में दो साल लगे जबकि 1974 आ गया। तटबन्ध केवल नदी के पश्चिमी किनारे पर बनना था जिसकी वजह से बहुत से लोगों को परेशान होना लाजिमी था। भुतही-बलान के पूर्वी किनारे पर बसे गाँवों के लोग स्वाभाविक रूप से परेशान थे क्योंकि पश्चिमी तटबन्ध बन जाने के बाद नदी का सारा पानी उधर की ओर ही मुंह करने वाला था। मगर उनकी जबान पर ताले लगा दिये गये जबकि योजना का काम शुरू होने के बाद देश में इंदिरा गांधी की सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर दी।

भुतही-बलान तटबन्ध परियोजना की प्रोजेक्ट रिपोर्ट में यह साफ तौर पर कहा गया है कि नदी के पूर्वी किनारे पर भी बहुत सी धारायें हैं जो कि बाढ़ के मौसम में चढ़ने लगती हैं पर उस किनारे पर किसी तटबन्ध का प्रस्ताव नहीं किया गया क्योंकि सिंचाई विभाग का मानना था कि भुतही-बलान के दाहिने तटबन्ध का कोई विशेष विपरीत प्रभाव नदी के बायें किनारे पर नहीं पड़ेगा। भुतही-बलान के पश्चिमी तटबन्ध के निर्माण के बाद नदी के पूर्वी भाग में बाढ़ से तबाही बढ़ी और इंजीनियरों की यह मान्यता गलत साबित हुई कि नदी के पश्चिमी किनारे पर तटबंध बनने के कारण पूरब में कोई तबाही नहीं होगी। इसके अलावा परियोजना रिपोर्ट में यह भी साफ लिखा हुआ है कि निर्मली-घोघरडीहा रेलखण्ड में पुल संख्या 133 से 140 के बीच में से होकर 800 फुट (244 मीटर) चौड़ा रास्ता पानी के प्रवाह के लिये उपलब्ध है जिससे भुतही-बलान के सर्वाधिक प्रवाह के चौगुने से भी ज्यादा पानी के बहाव में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। पश्चिमी तटबन्ध के निर्माण से नदी की धारा स्थिर होगी और उसका सारा पानी इसी सीमा के बीच बह पायेगा। तब पूर्वी किनारे पर कितना हिस्सा डूबता है उसका अध्ययन किया जा सकेगा और अगर जरूरी हुआ तो नदी के बायें और पूर्वी किनारे पर भी तटबन्ध बनाया जायेगा।

भुतही-बलान पर प्रस्तावित इस तटबन्ध की अनुमानित लागत 91.90 लाख रुपये थी और ऐसा अन्दाजा था कि इस योजना से 1.28 लाख एकड़ (0.52 लाख हेक्टेयर) जमीन को बाढ़ से सुरक्षित किया जा सकेगा। यह उम्मीद की गई थी कि योजना पर खर्च किये गये हर एक रूपये पर तीन रूपये अठ्ठाइस पैसे का फायदा होगा।

5. भुतही-बलान का पश्चिमी तटबन्ध बनने के बाद


1974 से 1978 के बीच भुतही-बलान का पश्चिमी तटबन्ध लौकहा से लेकर परसा तक, करीब 30 किलोमीटर की दूरी में बन कर तैयार हो गया। भुतही-बलान का पश्चिमी तटबन्ध जब बन कर तैयार हुआ तब दो बातें देखने में आईं। एक तो यह कि नदी का पश्चिमी की तरफ रूझान बना रहा जिसकी वजह से यह नया बना हुआ तटबन्ध जगह-जगह टूटने लगा और जब तक और जहाँ तक यह तटबन्ध दुरूस्त हालत में रहता था तब तक नदी के दूसरे किनारे पर बाढ़ का पानी फैलता रहता था। धीरे-धीरे इस बाढ़ के पानी ने बायें किनारे के 54 गाँव अपनी चपेट में ले लिये। इनमें से लगभग आधे गाँव निर्मली-घोघरडीहा रेल लाइन के दक्षिण, कोसी तटबन्धों के बीच में पड़ते थे। इस तरह रेल लाइन के उत्तर में नदी के बायें किनारे के बहुत से गाँव कोसी की बाढ़ से तो बच गये मगर बिना बात भुतही-बलान की बाढ़ में फंस गये। गनीमत यही थी कि राज्य सरकार ने लोगों की तकलीफ समझने में बहुत देर नहीं की और नदी के पूरब में भी तटबन्ध बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। यह एक अलग बात है कि मजबूरी में दिखाई गई इस हमदर्दी की वजह से सरकार ने अपने गले में एक और घंटी बाँध ली थी। भुतही-बलान के पूर्वी तटबन्ध की आवाज उठाते हुए देवेन्द्र प्रसाद यादव ने बिहार विधानसभा में 4 जुलाई 1977 को मांग रखी कि, ‘... पश्चिमी तटबन्ध तो बन कर तैयार हो गया है लेकिन पूर्वी तटबन्ध अभी तक नहीं हो पाया है। इसका नतीजा होता है कि प्रत्येक साल कई गाँव बाढ़ में दह जाते हैं। हजारों हजार घर बह जाते हैं, टूट जाते हैं। मेरे क्षेत्र के अनेक गाँव जैसे महथौर, फुलकाही, ननपट्टी, हनुमान नगर, बैरियाही, राम नगर, सुरियाही, गिधहा, जहली पट्टी, परसा और बसुआरी आदि इलाका हर साल बाढ़ से तबाह होता है ... इसलिये सरकार इसके लिये जल्द उपाय करे।’

राज्य के जल-संसाधन विभाग ने 6 दिसंबर 1978 को प्रथम चरण के काम के तौर पर भुतही-बलान के बायें किनारे पर लक्ष्मीपुर से टेंगरार गाँव तक 16 किलोमीटर की लम्बाई में अपने पत्र संक्या 10058 के माध्यम से निर्माण कार्य की मंजूरी दी। इस पर 81.52 लाख रुपये का खर्च अनुमानित था अैर यह काम 1980 तक करीब-करीब पूरा कर लिया गया। जल संसाधन विभाग की मांगों पर कटौती प्रस्ताव की बहस (1980) में भाग लेते हुए विधायक सुरेन्द्र यादव योजना की इस प्रगति से सन्तुष्ट नहीं थे। उनका कहना था कि, ‘‘भुतही-बलान के बारे में कहना चाहता हूं कि बाढ़ नियंत्रण की बात सिर्फ कही जाती है। उस क्षेत्र में 54 गाँव ऐसे हैं जहाँ बाढ़ का प्रकोप हर साल होता है। लक्ष्मीपुर से भुतही-बलान का पूर्वी तटबन्ध का काम हुआ। पूर्वी तटबन्ध का प्रथम चरण ज्यों ही समाप्त हुआ तो निश्चित रूप से द्वितीय चरण का काम होना चाहिए था और यह काम सरकार को 1980 के जून महीने तक ही पूरा करना था लेकिन यह काम नहीं हो रहा है।’’

वास्तव में प्रथम फेज का काम समाप्त होने के पहले सरकार ने 14 दिसंबर 1979 (पत्र संख्या -अ/321) को टेंगरार से परसा तक के बाकी पूर्वी तटबन्ध के काम की मंजूरी भी दे दी। द्वितीय फेज के इस काम पर 95.20 लाख रुपये खर्च होने का अनुमान था। यह काम जून 1980 तक समाप्त कर लिया जाना था मगर यह प्रस्तावित काम हो नहीं पाया क्योंकि तटबन्ध को और आगे बढ़ाने पर दायें (पश्चिमी) और बायें (पूर्वी) तटबन्ध की कन्ट्रीसाइड में बसे लोगों में तीव्र मतभेद थे। इसका कारण एकदम साफ था। भुतही-बलान नदी के बाढ़ के पानी का झुकाव स्वाभाविक रूप से उसके पश्चिमी तटबन्ध पर है। अगर नदी के दूसरे किनारे पर पूरब में तटबन्ध बनता है या उसका आगे विस्तार किया जाता है तो नदी की बाढ़ का पानी पूरब में फैलने से रूक जायेगा जिससे उसका हमला पश्चिमी तटबन्ध पर पहले से ज्यादा तेज होगा और इस वजह से पश्चिमी तटबन्ध के टूटने की संभावनायें बढ़गी और वहाँ तथाकथित रूप से सुरक्षित क्षेत्र में बाढ़ से तबाही बढ़ेगी। इसलिये वह लोग नहीं चाहते कि भुतही-बलान के पूरब में तटबन्ध बने या उसका विस्तार हो। इसके विपरीत, अगर पूरब का तटबन्ध नहीं बनता है तो भुतही-बलान का पानी हमेशा के लिये इन पूरब वाले 54 गाँवों को बरबाद करेगा। इन 54 गाँवों के लोग चाहते हैं कि भुतही-बलान का पूर्वी तटबन्ध घोघरडीहा निर्मली रेल लाइन पर परसा तक बने। इस तरह भुतही-बलान के पूर्वी तटबन्ध के बनने या न बनने, दोनों ही परिस्थितियों में, असंतोष का बीज बोया जा चुका था और यहां एक न एक पक्ष हमेशा नाराज रहेगा। इसके अलावा कोसी तटबन्धों के बीच बसे जिन गाँवों पर भुतही-बलान की मार पड़ती है, उनकी हालत पहले से बदतर ही होगी। पूर्वी तटबन्ध बनने की स्थिति में कुछ नये गाँव दोनों तटबन्धों के बीच में फंस जायेंगे इसलिये वहाँ के लोग भी नहीं चाहते कि पूर्वी तटबन्ध बने। सबसे मजे की बात है कि बिलट पासवान ने बिहार विधान सभा में 1969 में 50 गाँवों की सुरक्षा के लिये भुतही-बलान पर तटबन्ध की मां की थी। तटबन्ध बना भी और उसके बनने के बावजूद बाढ़ से बरबाद होने वाले गाँव की संख्या अब 54 हो गई थी। इस तरह से समस्या का समाधान तो नहीं हुआ मगर उसे दूसरी जगह जरूर भेज दिया गया।

Map Showing Location of North Biharथोड़ा बहुत फेर-बदल के बाद सरकार द्वारा एक नया प्रस्ताव गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग के पास 29 सितंबर 1981 को स्वीकृति के लिये भेजा गया। इस योजना में भुतही-बलान के पूर्वी तट पर लगभग 30 किलोमीटर लंबा तटबन्ध, भारत-नेपाल सीमा पर लौकहा से लेकर झंझारपुर-निर्मली रेल लाइन के परसा हाल्ट स्टेशन के पास तक, प्रस्तावित था। इस निर्माण कार्य की अनुमानित लागत 256.39 लाख रुपये थी।

इस प्रस्ताव पर रेल विभाग को आपत्ति थी और वह नहीं चाहता था कि पूर्वी तटबन्ध को परसा हाल्ट पर रेल लाइन से जोड़ा जाय। ऐसा करने से रेल लाइन को खतरा था, यह उसका मानना था। इस बहस में विधायक सुरेन्द्र यादव के एक प्रश्न के उत्तर में मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र (1962) ने आश्वासन दिया था कि, ‘‘समय सीमा तो हम नहीं बाँध रहे हैं लेकिन भुतही-बलान के पूर्वी तटबन्ध के टेंगरार से परसा हाल्ट तक का निर्माण कार्य हम पूरा करवा देंगे।’’ इसके बाद फिर एक लम्बे समय तक सन्नाटा रहा फिर 25 मई 1986 को तत्कालीन मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी दुवे ने घोघरडीहा में नदी के पूर्वी तटबन्ध के बनाये जाने की घोषणा की। गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग और योजना मंत्रालय की स्वीकृति जब 1991 तक नहीं मिली तब बिहार विधान परिषद में कृपानाथ पाठक द्वारा एक दूसरा ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाया गया। इस ध्यानाकर्षण का जवाब देते हुए राज्य के जल-संसाधन मंत्री जगदानन्द सिंह ने बताया कि रेल विभाग की आपत्ति को देखते हुए सरकार ने यह निर्णय लिया कि योजना के प्रथम चरण के रूप में लौकहा से टेंगरार 16 किलोमीटर की लम्बाई में तटबन्ध का निर्माण कर लिया जाय। दूसरे चरण में इसे टेंगरार से शुरू कर के रेलवे लाइन से 5 किलोमीटर पहले ले जाकर छोड़ दिया जाय। इस पर रेलवे को भी आपत्ति नहीं होगी। इस उम्मीद के साथ कि बाकी विभागों से बाद में स्वीकृति मिल ही जायेगी। 17 फरवरी 1982 को जल संसाधन विभाग ने तटबन्ध बनाने के लिये कूच करने की आज्ञा दे दी (पत्र सं.-3985)। इसके बाद काम शुरू हुआ और द्वितीय फेज में भुतही-बलान का पूर्वी तटबन्ध टेंगरार (16 किलोमीटर) से आगे बढ़ कर नरहिया (21.5 किलोमीटर) तक आ पहुँचा। इस पूरे निर्माण कार्य पर 1 करोड़ 87 लाख रुपया खर्च हुआ। मगर रेलवे लाइन तक काम पूरा फिर भी नहीं हुआ था।

इसके आगे तटबन्ध को बढ़ाने पर नदी के दायें तटबन्ध के कन्ट्रीसाइड में बसे हुये लोगों और नदी के दोनों तटबन्धों के बीच फंसने वाले फुलपरास प्रखण्ड के कुछ गाँवों के बाशिन्दों को ऐतराज है। इस बीच 1989 में भुतही-बलान के दोनों निर्मित तटबन्धों के बीच फुलपरास गाँव के पुबरिया टोल के कुछ ऐसे हिस्से को जो कि तटबन्धों के बीच पड़ता था, एक रिंग बाँध के द्वारा जिला प्रशासन की मदद से जवाहर रोजगार योजना के तहत बाढ़ से तथाकथित रूप से सुरक्षित कर दिया गया। इस रिंग बाँध के निर्माण के लिये, जाहिर है, जल-संसाधन विभाग से इजाजत नहीं ली गई और इसके बन जाने से नदी के पानी के बहाव के लिये उपलब्ध मार्ग कम हो गया और नरहिया तक बने पूर्वी तटबन्ध पर उसका बुरा प्रभाव पड़ने लगा। यह एक अलग बात है कि ऐसा करने से रिंग बाँध के अन्दर बसे लोगों में बाढ़ से सुरक्षा का एक भाव पैदा हुआ है। ऐसी हालत में कभी पूर्वी तटबन्ध टूट जाने की वजह से और कभी 21.5 किलोमीटर पर और उसके दक्षिण खुले पडे़ हुये तटबन्ध से पीछे की ओर बह कर आने वाले भुतही-बलान के पानी ने पूरब के गाँवों की हालत पहले से भी ज्यादा बिगाड़ दी। पानी की मार तो शायद यह लोग झेल लेते मगर उसके साथ आने वाले बालू ने तो और भी ज्यादा तबाही मचाई जिसके चलते नरहिया, भबटियाही, मुसहरनियां, बैरियाही, औराहा, भुतहा, रतनसेरा, धबही, कुड़ीबन, झिटकी, बसुबाही, ननपट्टी, सखुआ, रामनगर, छजना-मंझोरा, परसा, धनखोर, मुजियासी और मठिया आदि गाँवों में खेती चौपट हो गई, गाँव-घर में बालू भर गया यहां तक कि इन घरों की रेत में डूबने तक की नौबत आ गई और पानी भी ज्यादा समय तक रहने लगा। नरहिया में प्रायः हर घर में बालू भरा हुआ है और हर साल इसकी सतह ऊपर उठती है। गाँव के रास्ते प्रायः बन्द है। यहां कुछ वर्ष पहले दो चावल मिलें चलती थीं, जो कि अब बन्द हैं और इसका कारोबार पूरी तरह से ठप्प हुआ है। गाँव के बाहर के मंदिर में खिड़की तक बालू पटा हुआ है और स्कूल का भवन तो है मगर वह भी किसी लायक नहीं बचा है। इन कारणों से इन गाँवों का आवागमन भी प्रभावित हुआ। इन गाँवों के लोग चाहते हैं कि पूर्वी तटबन्ध थोड़ा आगे खिसक जाय तो इन गाँवों को राहत मिलेगी। सरकार इसे एक किलोमीटर से और आगे यानी 22.5 किलोमीटर से आगे बढ़ा सकने की स्थिति में नहीं थी क्योंकि रेल विभाग ऐसा होने ही नहीं देगा। बाद में तटबन्ध को आगे बढ़ाने की सीमा 1.75 किलोमीटर कर दी गई और राज्य सरकार ने भारत-नेपाल सीमा से इसे 23.28 किलोमीटर तक ले जाने की स्वीकृति दे दी पर वह किसी भी हालत में 25 किलोमीटर से आगे जाने के बारे में कोई निर्णय नहीं ले सकती थी। इतना जरूर था कि राज्य सरकार ने 1991 में रेलवे लाइन तक तटबन्ध के विस्तार के अध्ययन के लिये 1.05 लाख रुपये की स्वीकृति देकर तटबन्ध को आगे बढ़ाने की अपनी मंशा को साफ कर दी थी।

मुश्किल इस 1.75 किलोमीटर को लेकर जनता के बीच भी कम नहीं थी। ऐसा करने पर तटबन्ध के अन्दर जो गाँव पड़ते हैं उन पर खतरा बढ़ता और उधर फुलपरास गाँव के बाशिन्दों को भी आशंका है कि नदी के पानी को अगर पूरब में फैलने से रोका जायेगा, जो कि पूर्वी तटबन्ध को आगे बढ़ाने पर जरूर होगा, और उनको मुश्किल में डालेगा। यह परेशानी उठाने के लिये वह लोग तैयार नहीं हैं।

बिहार विधान परिषद में कृपानाथ पाठक के ध्यानाकर्षण प्रस्ताव (1991) में सरकार को आगाह किया गया था कि भुतही-बलान के पूर्वी किनारे के उक्त गाँवों ने अब भुतही-बलान पूर्वी तटबन्ध निर्माण संघर्ष समिति का गठन करके जनता संघर्ष करने के लिये भी तैयार है और अगर सरकार ने युद्ध स्तर पर तटबन्धों का निर्माण तुरन्त शुरू नहीं किया तो आन्दोलन शुरू हो जायेगा और सड़क तथा रेल को जाम कर दिया जायेगा। जल संसाधन मंत्री जगदानन्द सिंह का कृपानाथ पाठक को आश्वासन (1991) था कि, ‘‘हम निर्माण करेंगे और जिन विभिन्न गाँवों की चर्चा आप ने यहां की है, यदि नहीं निर्माण होगा तो बालू से भर जायेंगे। हम स्वीकारते हैं इसको और इस चीज को बचाने के लिये हम 22.5 किलोमीटर तक बाँध को इस वर्ष बना लेंगे और 25 किलोमीटर तक जो निर्णय है बनाने का। उसको भी हम अगले साल बना लेंगे और शेष जो गैप रह जायेगा वह भारत सरकार की ओर रेलवे डिपार्टमेंट की सहमति से ही बनायेंगे।’’ उन्होंने यह भी बताया कि कार्य-स्थल पर कुछ अवरोध थे जो कि समाप्त हो चुके हैं और जैसे ही बरसात खत्म होगी, काम में हाथ लगा दिया जायेगा। 1991 तक पूर्वी तटबन्ध पर 1987 करोड़ खर्च किये गये थे और मंत्री महोदय ने ऐसा संकेत दिया कि टेण्डर की औपचारिकता और काम के आवंटन के बावजूद पिछले दो वर्षों से नरहिया के बीच तटबन्धों को आगे बढ़ाने का काम नहीं हो पाया था।

वर्ष 1994-95 में भी टेण्डर और ठेकेदारों का चुनाव कर लिया गया था कि तटबन्ध पर नरहिया के नीचे काम शुरू होगा। तब तक चुनाव की घोषणा होने की वजह से आदर्श आचार संहिता लागू हो गई और काम शुरू होने के पहले ही बन्द हो गया। 1996 में एक बार फिर कोशिश हुई क्योंकि विधानसभा में एक बार फिर आश्वासन दिया गया था कि नरहिया के नीचे तटबन्ध का काम पूरा कर दिया जायेगा। जनवरी माह के अन्त में जल संसाधन विभाग ने काम शुरू करने की पहल की मगर जो लोग इस तटबन्ध के खिलाफ थे, उन्होंने मौके पर जाकर छेंका-छांकी की और इंजीनियरों के साथ कुछ जोर-जबर्दस्ती तक हुई। जल संसाधन विभाग के लोग इस परिस्थिति के लिये तैयार नहीं थे और उन्होंने पर्याप्त सुरक्षा मिलने तक काम करने से इन्कार कर दिया और इसकी सूचना विभाग के सचिव को पटना भेज दी। सचिव ने इस मामले को प्रशासनिक स्तर पर उठाया और जिला प्रशासन ने सचिव को सूचित किया कि मौके पर पर्याप्त सुरक्षा की व्यवस्था थी, मगर यह मामला इतना संवेदनशील हो गया कि चाहे कितनी ही सुरक्षा व्यवस्था क्यों न कर ली जाय, कानून व्यवस्था गड़बड़ हो सकती है। इसके साथ ही जिलाधिकारी ने दरभंगा के आयुक्त को यह भी बताया कि तटबन्ध निर्माण के लिये भूमि के अधिग्रहण में समस्यायें आयेंगी। उधर विधान सभा में विधायक देवनाथ यादव को जल संसाधन मंत्री यह आश्वासन दे चुके थे कि 1.75 किलोमीटर लम्बे और 15 लाख रुपये लागत वाले इस तटबन्ध का निर्माण शीघ्र करवाया जायेगा और इसमें अगर कोई बाधा आती है तो जिला प्रशासन की मदद ली जायेगी।

6. धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे ....


इस मदद की जरूरत 1 फरवरी 1996 को पड़ी जब विभाग के इंजीनियर, ओवरसियर और कर्मचारी भुतही-बलान के बायें किनारे पर नरहिया के नीचे तटबन्ध निर्माण के काम को अंजाम देने के लिये पहुँचे। वहाँ विरोध में एक उग्र भीड़ पहले से ही तैयार थी और उसने इन लोगों को चले जाने के लिये कहा वरना गंभीर परिणाम और जीप जलाने की धमकी दी। तब काम बन्द हो गया और सब लोग अपनी-अपनी जगह वापस चले गये।

उसके बाद एक नया मोर्चा जिला प्रशासन और जल संसाधन विभाग के बीच खुल गया और उनके बीच आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला चल पड़ा। इंजीनियरों का कहना है कि जिला प्रशासन उन्हें सुरक्षा नहीं देता और जिला प्रशासन का कहना है कि इस तरह की कोई बात ही नहीं है।

उधर भुतही-बलान तटबन्ध निर्माण संघर्ष समिति अपने तरीके से कार्यरत थी मगर वह कमजोर इसलिये पड़ जाती थी कि भुतही-बलान के पश्चिमी तटबन्ध के बाहर फुलपरास कस्बा पड़ता है जोकि राजनैतिक रूप से बहुत ताकतवर है। यहाँ से कई विधायक, लोकसभा सदस्य और मंत्री इत्यादि होते रहे हैं और राज्य तथा केन्द्रीय स्तर पर सरकार के निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता इनमें लम्बे समय से रही है। इस राजनैतिक प्रभाव के सामने कोई भी संघर्ष समिति टिक नहीं सकती। देखें बाॅक्स हम चाहते हुये भी कुछ नहीं कर सकते।

यह बड़ी ही दिलचस्प बात है कि वर्तमान सांसद देवेन्द्र प्रसाद यादव ने खुद 1977 में, जब वह बिहार विधान सभा के सदस्य थे, भुतही-बलान के पूर्वी तटबन्ध की मांग विधानसभा में की थी और वह एकाएक इस तटबन्ध के खिलाफ हो गये। देवनाथ यादव, तत्कालीन विधायक ने 1996 में उन पर यह आरोप लगाया कि 10,000 जनसंख्या के हितों के लिये वह 60,000 लोगों को भुतही-बलान को भेंट चढ़ा देना चाहते हैं। भुतही-बलान के मसले पर यह दोनों नेता आमने सामने खड़े थे।

जहाँ बाँध के निर्माण न होने से लोगों के दिलों में इतनी कड़वाहट है वहीं तटबन्ध के निर्माण को रोकने वालों की परेशानियाँ भी कम नहीं हैं ‘यहाँ तो झूठे कटाव और झूठी सुरक्षा का धंधा चलता है’

रतनसेरा गाँव के किसान राम जुलुम मिश्र (93) बाकी की कहानी बताते हैं, ‘‘... जब पूर्वी तटबन्ध पर मिट्टी पड़ने का कार्यक्रम चल रहा था तब मैं। वहाँ मौजूद था। मेरे ऊपर इल्जाम है कि मैं भी लड़ाई में शामिल था। मेरी उम्र को देखते हुए तो यह बात सच नहीं ही लगती होगी। फुलपरास का सर्किल आॅफिसर बड़ी हिम्मत करके तटबन्ध बनवा रहा था। इस निर्माण को तकनीकी और प्रशासनिक स्वीकृति मिली हुई थी। विधान सभा का आश्वासन था, सरकार के इंजीनियर काम पर आये थे और प्रशासन मौजूद था। तब गलत क्या हो रहा था? जिन्हें मार पड़ी वह तो तटबन्ध पर मिट्टी डाल रहे थे। मैं तो भाग भी नहीं सकता था। भवटियाही के कुछ लोग अगर मुझे लेकर भागते नहीं तो मैं भी मार खाता हमारे गाँव के तीन आदमियों, जागेश्वर सिंह, घोघन सिंह और ठ्ठिर मण्डल को बुरी तरह चोट लगी। किसी का हाथ टूटा तो किसी की जाँघ। बस! वह लोग किसी तरह से जिन्दा लौट आये लेकिन हमलोग इनका बहुत इलाज करवाने के बावजूद इन लोगों को बचा नहीं सके। अब यह तीनों हमारे बीच नहीं है। यहाँ हमलोगों को अब बड़ी तकलीफ है। आप जहाँ बैठे हैं यहाँ घुटने पर पानी रहता है बरसात में। घरों में बालू पट जाता है। हर दो तीन साल बाद घर ऊँचा करना पड़ता है। फुलपरास वाले पूर्वी तटबन्ध बनने ही नहीं देते। हमलोग क्या कर सकते हैं?”

तटबन्ध पर विवाद की स्थिति लौकहा से लेकर परसा तक बनी हुई है। पश्चिमी कोसी नहर के उत्तर में भी भुतही-बलान का तटबंध कभी बरमोतर तो कभी खरहुरिया या मधवापुर में टूटता या लोगों द्वारा कटता रहता है। नहर और पश्चिमी तटबंध के बीच में एक-एक बांस पानी लगता है क्योंकि बारिश के पानी के रास्ते में तटबन्ध और नहर खड़ी रहती है। यहाँ के गाँवों के रहने वाले लोग बताते हैं कि अगर उन्हें जरा भी अंदाजा रहा होता कि उनकी यह हालत होगी तब वह न तो पश्चिमी कोसी नहर बनने देते और न ही भुतही-बलान का तटबन्ध। ‘तभी काट दिया होता मगर अब काटेंगे तो नदी हम को मार देगी’। 1987 में तटबन्ध टूटने से इन गाँवों में 4-4 फूट बालू पड़ गया था।

7. तटबन्ध-भूल या साजिश?

 


भुतही-बलान तटबन्ध के पूरे मसले पर नदी को केवल दायें तरफ बाँधने की एक छोटी सी जान-बूझ कर या अनजाने में, की गई तकनीकी भूल ने इस पार और उस पार के लोगों को आपस में लड़ाया भले ही उनके बीच खून के रिश्ते रहें हों। कहीं-कहीं तो एक ही गाँव के दो टोलों के बीच लड़ाई के आसार बनने लगे। प्रशासन और जल संसाधन विभाग को एक दूसरे के आमने-सामने ला खड़ा किया और अलग-अलग हितों की रक्षा करने के लिये राजनीतिज्ञों और उनकी पार्टियों में वर्चस्व की लड़ाई को तेज किया। राजनीतिज्ञों को तो मुद्दा चाहिए कि वह जनता के बीच बने रहें और भुतही-बलान तटबन्धों ने इनको यह सुविधा प्रदान कर दी। उनको तो इस भूल का फायदा ही हुआ। रही सरकारी विभागों की बात, तो उनका पत्राचार कुछ ज्यादा हो गया। रोटी के लाले तो लोगों को पड़े।

क्योंकि इस तटबन्ध के दुष्परिणाम उस वक्त लोगों को नहीं मालूम थे जबकि दायें तटबन्ध का निर्माण हुआ, तब विरोध उतना मुखर नहीं था और यह काम तो वैसे भी तब पूरा किया गया जब देश में एमरजेन्सी लगी हुई थी। जुबान खोलते ही सींकचों के अन्दर भेज दिये जाने का डर था। बायां तटबंध भी उसी समय बना लिया गया होता तो किसी को कोई परेशानी नहीं होती। जिस तरह से राज्य की बाकी नदियों पर बने तटबन्ध बरसात में नदी के दोनों तरफ जगह-जगह टूटते रहते हैं उसी तरह भुतही-बलान के तटबन्ध भी दोनों तरफ टूटते ओर किसी को यह लगता भी नहीं कि वह किसी दूसरे की वजह से मुसीबत में फँस गया है। आज भी इस नदी का जितना भी तटबन्ध बना है वह किसी भी मायने में सुरक्षित नहीं है और दोनों तरफ लगातार टूटता है। भुतही-बलान के पूर्वी तटबन्ध पर भजनहा शायद अकेला ऐसा गाँव है जिसके सामने तटबंध बनने के बाद कभी नहीं टूटा और ऐसी ही सुखद स्थिति पश्चिमी तटबन्ध पर बलान पट्टी गाँव की है (2003)। बसनियां और बलान पट्टी गाँवों के बारे में यह बता देना जरूरी है कि यह दोनों गाँव मूल डिजाइन के अनुसार भुतही-बलान के पश्चिमी तटबन्ध की रिवर साइड में पड़ने वाले थे। उस समय यह तत्कालीन सत्तारुढ़ पार्टी के समर्थक गाँव हुआ करते थे और इनके निवासियों ने अपने सम्पर्कों का फायदा उठाते हुए पैरवी पैगाम करके तटबंध का अलाइन्मेन्ट बदलवा दिया और यह गाँव तटबन्ध के कन्ट्री साइड में चले गये। सरकार से अच्छे सम्पर्क होने के कारण इन गाँवों को कोई आंदोलन नहीं करना पड़ा। इसके अलावा तो प्रायः हर जगह तटबंध का टूटना/कटना जारी है। मगर अब इस विश्वास का क्या किया जाय कि उस पार वाला तटबन्ध हमारे तटबन्ध से ज्यादा मजबूत है और जितनी बर्बादी हमारे यहाँ होती है उसके मुकाबले उस पार की परेशानी कुछ भी नहीं है?

इस बात की भी पूरी संभावना है कि विस्तृत परियोजना रिपोर्ट बनाने के समय रेलवे विभाग से कोई सम्पर्क ही नहीं किया गया था और जल संसाधन विभाग ने खुद ही यह फैसला कर लिया कि रेल लाइन की कुल संख्या 133 से 140 के बीच से नदी का पानी बड़े आराम से दूसरी तरफ निकल जायेग। भुतही-बलान की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में इस बात का कहीं भी जिक्र नहीं है कि रेलवे से किसी प्रकार का कोई सम्पर्क किया गया था। नदी के दोनों तरफ के गाँवों को विश्वास में लेने का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि योजनाओं के निर्माण में आम जनता की सहमति ली जाय, ऐसा दस्तूर ही हमारे यहाँ नहीं है। भुतही-बलान के प्रवाह में आने वाले बालू का तटबन्धों, पुलों और रेल लाइन पर पड़ने वाले प्रभाव का तो इंजीनियरों ने संज्ञान ही नहीं लिया। मगर इस समय तो सभी पक्षों को साफ समझ में आ रहा है कि तटबन्ध को आगे बढ़ाने या न बढ़ाने का अंजाम क्या होगा। अब तो भूसे में आग लगाकर जल संसाधन विभाग की शक्ल में जमालो दूर खड़ी सिर्फ तमाशा देख रही है जिसमें एक ओर नदी के दाये तटबंध से अब तथाकथित बाढ़ से सुरक्षित लोग तथा उनके सरपरस्त राजनीतिज्ञ हैं तो दूसरी तरफ 54 गाँवों की करीब साठ हजार की आबादी है जो कि पूर्वी तटबन्ध पूरा न बन पाने के कारण परेशान है। राजनैतिक नेतृत्व इन गाँवों को भी मिला हुआ है।

आज भुतही-बलान का पूरा क्षेत्र बालूमय है। यह नदी कब किसी गाँवों के दो टोलों या घरों के बीच बहकर नया रास्ता बना लेगी, कोई नहीं जानता। कहाँ खाइयाँ बन जायेंगी और कहाँ बालू की मोटी परत पड़ेगी, यह भी तय नहीं है। ऐसी जगहों पर रास्तों ओर खेतों का कोई मतलब नहीं रह जाता। किशुनीपट्टी से लेकर निर्मली तक के रास्ते की हालत तो और भी बदतर है। इस दूरी में घोघरडीहा से लेकर निर्मली तक की छोटी लाइन बिछी हुई है। यहाँ नदी की पेटी का बालू जमाव अब रेल लाइन तक पहुँच गया है। जो भी पुल बने हुये हैं और जिनके बोर में परियोजना रिपोर्ट में लिखा हुआ है कि उनसे होकर भुतही-बलान के अधिकतम प्रवाह के चार गुने से ज्यादा पानी बड़ी आसानी से गुजर जायेगा, अब प्रायः बेकार हो चुके हैं। इन पुलों पर से गुजरते वक्त घोर से घोर नास्तिक भी भगवान को एक बार जरूर याद कर लेता होगा। अब हर साल इन पुलों पर से नदी का पानी बह जाता है और घोघरडीहा-निर्मली रेल-सेवा कई चक्रों में बंद रहा करती है। और रेल सेवा बन्द तो निर्मली से लेकर कुनौली तक का सम्पर्क बाकी दुनिया से छिन्न-भिन्न हो जाता है।

नदी की बदलती धारा ने बहुत से पुलों को धत्ता बता दिया है और इसकी सबसे ताजा मिसाल है 1999-2000 में बना परसा को मुजियासी से जोड़ने वाले रास्ते पर बना एक कंक्रीट का पुल। यह पुल 2000 में बन कर तैयार हुआ और उसी साल भुतही-बलान ने पुल को ही पाट कर उसके बगल से नया रासता बना लिया और पुल के निर्माण पर खर्च हुए 16 लाख रुपये बट्टे खाते में चले गये। इस पुल का शिलान्यास तो बड़े लाव-लश्कर और गाजे-बाजे के साथ हुआ मगर उद्घाटन की नौबत ही नहीं आई। नदी के प्रवाह में आने वाली रेत ने परिवहन व्यवस्था को चौपट कर दिया है। अब यहाँ या तो बैलगाड़ी या ट्रैक्टर चल सकते हैं या पैदल चला जा सकता है। कुछ दुस्साहसी लोग मोटर साइकिलें भी चलाते हैं। इसके आगे जान हथेली पर लेकर कुछ भी किया जा सकता है। भुतही-बलान के साथ दिक्कत यह है कि उसमें बहुत ही तेज और क्षणिक प्रवाह के कारण नावें भी नहीं चल सकतीं।

पहले जब नदी बंधी नहीं थी तब वह अपने मर्जी के मुताबिक घुमती थी। बाढ़ का लेवल आज इतना बढ़ने नहीं पाता था। परेशानी ज़रूर होती थी मगर नदी घातक नहीं बन पाती थी। पैदावार एकदम न हो, ऐसा कभी नहीं होता था। मगर अब जो इस इलाके की हालत है उसमें बरसात शुरू होते ही माल-मवेशी, औरतों और बच्चों को लोग अपने रिश्तेदारों के यहाँ भेज देते हैं क्योंकि तब न चारा मिल पाता है न भोजन-भात की व्यवस्था हो पाती है। दवा दारू की व्यवस्था हो जाए तो लोग अपने आप को रईस गिनने लगते हैं। ईंधन होता नहीं है और इन सब के ऊपर किसी भी समय तटबन्ध टूटने का खतरा। कम से कम तीन महीने तक लोग इसी आतंक के साये में जीते हैं। दुर्गा-पूजा अगर सकुशल बीत गई तो गंगा स्नान हो गया। ऐसी हालत में अगर रिलीफ न मिले तो तात्कालीक जीवन खतरे में पड़ जाय और दिल्ली, पंजाब में कमाई के स्रोत न हों तो बाल बच्चों की परवरिश ही न हो सके। सरकारी या स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली रिलीफ बाढ़ से प्रभावित होने वाले कितने प्रतिशत लोगों को मिल पाती है यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में केवल जिंदगी केवल घिसटती है।

8. और अब फैसला न्यायालय का


इस बीच भुतही-बलान पूर्वी तटबंध निर्माण संघर्ष समिति ने पटना उच्च न्यायालय में याचिका संख्या सी.डब्ल्यू.जे.सी क्रमांक: 17717/1999 के माध्यम से माननीय उच्च न्यायालय से यह दरख्वास्त की कि वह इस मामले में दखल दे और बिहार सरकार को यह निर्देश दे कि वह भुतही-बलान के पूर्वी तटबन्ध के निर्माण के लिये जरूरी कदम उठाये। माननीय न्यायाधीश नागेन्द्र राय और माननीय न्यायाधीश आर.एस. गर्ग की खण्डपीठ ने इस याचिका पर 3 जुलाई 2003 को अपना फैसला देते हुए लिखा कि, ‘‘... पलट हलफनामों का अध्ययन करने से यह पता लगता है कि सरकार ने तटबन्ध को पूरा करने की दिशा में जरूरी कदम उठाये हैं। फिर भी स्थानीय जनता द्वारा आपत्ति किये जाने के कारण यह तटबन्ध पूरा नहीं किया जा सका है... हमारी राय में राज्य और उसके अधिकारी इतने क्षमता विहीन नहीं है कि इस परिस्थिति से निपट न सकें। इसलिये हम आयुक्त, जल संसाधन विभाग को इस हिदायत के साथ इस याचिका का निष्पादन करते हैं कि वह हर जरूरी कदम उठायें जिससे इस तटबन्ध के निर्माण का काम पूरा हो सके ओर अगर स्थानीय लोग कोई भी रुकावट डालते हैं तब जिला पदाधिकारी अधिकारियों की मदद के लिये जरूरी कदम उठायेंगे जिससे कि तटबन्ध का निर्माण कार्य पूरा हो सके।.... इस कथित हिदायत के साथ इस याचिका का निष्पादन किया जाता है।’’

इस तरह से तटबन्ध बनाने के पक्ष में एक अन्य हथियार भी आ गया और तटबन्ध निर्माण के पक्षधरों की स्थिति पहले से ज्यादा मजबूत हुई है मगर यह स्पष्ट नहीं होता है कि क्या रेल विभाग ने भी इसकी स्वीकृति दे दी है? राज्य सरकार ने तटबन्ध के लिये भूमि अधिग्रहण के लिये मधुबनी के भूमि अधिग्रहण अधिकारी के पास 43.36 लाख रुपये 31 मार्च 1999 की तारीख में जमा कर दिये हैं।

माननीय उच्च न्यायालय के इस फैसले के पुनरीक्षण के लिये दो अन्य याचिकाएँ तटबन्ध निर्माण के विरोधियों द्वारा दायर की गई। मगर माननीय उच्च न्यायालय ने अपना फैसला बरकरार रखा और 6 अप्रैल 2004 को तटबन्ध के निर्माण के पक्ष में एक बार फिर फैसला सुनाया। यह फैसला दो याचिकाओं (1) भुतही-बलान बाढ़ समस्या समाधान समिति बनाम बिहार सरकार और अन्य तथा (2) बंशी लाल यादव बनाम बिहार सरकार तथा अन्य पर एक साथ दिया गया था जिसमें अपीलकर्ताओं ने माननीय उच्च न्ययालय से अपने 3 जुलाई 2003 वाले फैसले की तामील रुकवाने तथा एन. नागमणि, भा.प्र.से. की अध्यक्षता में गठित तकनीकी सलाहकार समिति की रिपोर्ट के आधार पर भुतही-बलान के पूर्वी तटबंध की वांछनीयता और औचित्य को ध्यान में रखते हुए ही राज्य सरकार कोई अंतिम निर्णय लें, ऐसी हिदायत देने के लिये प्रार्थना की थी। अपीलकर्ताओं की यह मान्यता थी कि 1978-79 में गठित नागमणि समिति ने भुतही बलान के पूर्वी तटबंध के निर्माण के खिलाफ सिफारिश की थी और इसीलिये वह इस रिपोर्ट को अपनी मांग का आधार बनाना चाहते थे। अपने फैसले में विद्वान न्यायाधीशों ने लिखा है कि, ‘‘... दूसरी तरफ राज्य सरकार का पक्ष है कि इस तरह की किसी तकनीकी विशेषज्ञ समिति का गठन हुआ ही नहीं है, जैसा कि अपीलकर्ताओं का कहना है। इतना जरूर है कि भुतही-बलान पर तटबन्ध के निर्माण की योजना के बारे में तकनीकी सलाहकार समिति की 27वीं मीटिंग (23 जून 1979) में चर्चा हुई थी। इस समिति के अध्यक्ष सिंचाई आयुक्त एन नागमणि भा.प्र.से. थे। इस समिति ने तटबन्ध निर्माण का विरोध नहीं किया था बल्कि तकनीकी सलाहकार समिति की रिपोर्ट से ऐसा लगता है कि उसने चार स्तरों पर भुतही-बलान के पूर्वी तटबंध के निर्माण की सिफारिश की थी।’’

फैसले में आगे कहा गया है कि, ‘‘... विकास या अन्य किसी क्षेत्र में सरकार अगर एक बार कोई नीतिगत निर्णय ले लेती है तब अगर इस नीतिगत निर्णय से किसी संवैधानिक प्रावधान का कोई उल्लंघन नहीं होता है तब न्यायालय इस नीतिगत निर्णय में सिर्फ इसलिये कोई दखल नहीं देगा कि इसे लागू करने पर कुछ लोगों पर इसका प्रभाव पड़ेगा और खास कर तब जबकि इसमें अधिकांश जनता के हितों की पूर्ति होती हो। इस मामले में राज्य सरकार द्वारा दाखिल पलट हलफनामें से ऐसा लगता है कि योजना 1979-80 में ही स्वीकृत हो गई थी, तटबन्ध का अधिकांश भाग बन भी चुका है और केवल थोड़े से हिस्से का ही निर्माण बाकी है जो कि राजनैतिक हस्तक्षेप और गाँव वालों के ऐतराज के कारण नहीं हो पा रहा है ... यह अदालत इस योजना के काम को आगे बढ़ाने को किसी भी प्रकार से गैर-कानूनी नहीं मानती है। इसके दूसरी तरफ व्यापक जनहित में इस योजना का क्रियान्वयन जरूरी है ताकि लोगों को बाढ़ से बचाया जा सके।’’

इस तरह पूर्वी तटबंध के निर्माण की दिशा में अब एक तरह से कानूनी कार्यवाही भी पूरी हो चुकी है। तटबंध निर्माण के पक्षधरों के हाथ में अब यह कानूनी हथियार भी आ गया है। वह लोग जोकि इस तटबन्ध का विरोध करते हैं, अगर वह चाहें तो, अब सर्वोच्च न्यायालय के सामने गुहार लगा सकते हैं। पता नहीं माननीय उच्च न्यायालय ने भुतही-बलान के पश्चिमी तटबन्ध के टूटने की घटनाओं और उससे होने वाले नुकसान पर नजर डाली या नहीं और जल संसाधन विभाग से इन घटनाओं के बारे में स्पष्टीकरण भी मांगा या नहीं। दोनों तटबन्ध पूरे हो जाने के बाद इन घटनाओं में निश्चित रूप से वृद्धि होगी। यह भविष्य ही बतायेगा कि बिहार सरकार और उसके अधिकारी अब क्या कदम उठाते हैं। इस पूरे मसले में रेल विभाग एक अहम किरदार है जिसका कहीं भी जिक्र नहीं होता। वह भी पूर्वी तटबन्ध पूरे किये जाने का उतना ही विरोध करता है जितना कि स्थानीय लोग। उसकी एक संवैधानिक हैसियत भी है। तटबन्ध बनाने के पहले बिहार सरकार को किसी न किसी सूरत में रेल विभाग को संतुष्ट करना होगा। रेल विभाग को अब तक इस प्रक्रिया में शामिल न किया जाना भी आश्चर्यजनक ही है क्योंकि विरोध केवल राजनैतिक या स्थानीय ग्रामीणों का ही नहीं वरन रेलवे का भी है। चलते-चलते इस बात की सूचना मिली है कि मई 2004 के मध्य में भुतही-बलान के पूर्वी तटबंध को नरहिया के नीचे बढ़ाने की कोशिश सरकार द्वारा की गई थी मगर स्थानीय जनता के विरोध के कारण यह काम एक बार फिर बंद कर देना पड़ा।

9. आखिरी फैसला तो नदी ही करेगी


यह नदी इंजीनियरों, ठेकेदारों और राजनीतिज्ञों को अब मुँह जरूर चिढ़ाती है कि क्या बिगाड़ लिया तुमने मुझे तटबन्ध से बाँध कर? और अब क्या करोगे क्योंकि मैं तो इतनी छोटी हूँ कि मुझ पर कोई बड़ा बाँध भी नहीं बना सकते जो कि तुम्हारे बचाव का अकेला रास्ता है मगर तुम चाहो तो भी ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि मेरे लिये तो तुम्हारे पास इस तरह का बाँध बनाने का कोई स्थल ही नहीं है। किसी तरह की छेंका-छेंकी मेरे साथ की गई तो उसकी वही गत बनाऊँगी जो मैंने पश्चिमी कोसी नहर की बनाई है बालू से पाट कर।

इस नदी की समस्या का फिलहाल कोई समाधान नहीं है। अगर पूर्वी तटबंध बनाने की कोशिश हुई तो एक तरफ के लोग और रेल प्रशासन विरोध में खड़ा हो जायेगा। इसके अलावा पूर्वी तटबन्ध अगर बन भी जाता है तो नदी का सारा बालू दोनों तटबन्धों के बीच फँसकर नदी की पेटी को बहुत तेजी से ऊपर उठायेगा। जिसकी वजह से भुतही-बलान के तटबन्ध को भी उसी रफ्तार से ऊँचा करना पड़ेगा। इससे रेल लाइन और पुलों पर खतरा पहले से ज्यादा बढ़ेगा और कोसी के पश्चिमी तटबन्ध और कोसी नदी के पूरे रास्ते पर लोग पहले से ज्यादा तबाह होंगे क्योंकि भुतही-बलान के दोनों तटबंधों के सलामत रह जाने की स्थिति में परसा के पास रेल पुल से होकर नदी का पानी तीर की तरह निकलेगा और कोसी तटबन्ध के अन्दर गाँवों में आज से कहीं ज्यादा तबाही मचायेगा।

इसके अलावा नदी का पूर्वी तटबन्ध नहीं कटेगा, इसकी गारन्टी कौन देगा? और अगर यह तटबन्ध नहीं बनता है तो सरकार को रोज-ब-रोज 54 गाँवों की जनता को झूठी तस्लली देना पड़ेगी जो कि वह वैसे भी पिछले लगभग 20 साल से कर रही है। तीसरी संभावना यह है कि भुतही-बलान के पश्चिमी तटबंध को तोड़ दिया जाय तो ऐसा करते समय उतना ही या उससे भी कहीं ज्यादा बवाल होगा जितना 1995 और 1996 में नरहिया के नीचे तटबन्ध का काम शुरू करने के समय हुआ था और आखिरकार इस इरादे को मुल्तवी कर देना पड़ेगा।

चौथी संभावना यह है कि नदी पश्चिमी तटबन्ध को इस कदर और लगातार तहस नहस करे कि सरकार की नाक में दम हो जाये और वह नये सिरे से इसका ऐसा समाधान खोजने पर मजबूर हो जाये जिसे सब कबूल कर लें। यह काम उतना आसान नहीं है क्योंकि भुतही-बलान के व्यवहार पर काफी कुछ पश्चिमी कोसी तटबन्ध की सुरक्षा तथा झंझारपुर-निर्मली रेल लाइन की उपयोगिता आश्रित है। इसलिये सरकार पश्चिमी तटबन्ध की मरम्मत कर के उसे ठीक ठाक हालत में रखने के लिये बाध्य है, जिसका सीधा मतलब होता है कि पूरब के 54 गाँव आज की तरह ही बाढ़ से तबाह होते रहेंगे।

10. बाढ़ से निपटने के पारम्परिक तरीके


बाढ़ से निपटने का जहाँ तक पारम्परिक तरीके का सवाल है उसमें नदी के पानी के साथ-साथ उसमें आने वाली सिल्ट का भी पूरा-पूरा ख्याल रखा जाता था। विस्तृत क्षेत्र पर बाढ़ का पानी फैलने के कारण बाढ़ के लेवल में कमी आती थी, जमीन की उर्वरा शक्ति कायम रहती थी और भूमि निर्माण की प्रक्रिया भी निर्बाध गति से चलती थी। इससे धान की अच्छी फसल हो जाया करती थी क्योंकि किसानों के पास अलग-अलग बाढ़ की गहराई के लिये पारम्परिक बीज हुआ करते थे। बाढ़ के बाद की जमीन की नमी रबी फसल में मदद करती थी। कुछ समय के लिये नदी और बाढ़ से परेशानी जरूर होती थी मगर नदी कभी मारक नहीं बन पाती थी। यही कारण था कि लोग नदी को वापस लाने के लिये मनौतियाँ माँगते थे और तमाम मुश्किलों के बावजूद लबनियां बुढ़िया अपना चूल्हा जलाने के लिये बाढ़ के मौसम में आग लाने में कामयाब हो जाती थी जो कि आज की तारीख में मुमकिन नहीं है। हमारे पूर्वज इसी तरह से नदियों और उनकी बाढ़ के साथ जीते थे।

आधुनिक विज्ञान एक ओर प्रकृति पर काबू पा लेने की होड़ में लगा है तो दूसरी ओर वह बाढ़ के पानी में केवल पानी देखता है उसके साथ के सिल्ट और बालू को नहीं। यही कारण है कि तटबन्धों के अंदर नदियों की पेटी ऊपर उठ रही है और बड़े बाँधों की क्षमता दिनों दिन घट रही है। कभी तकनीक की इन खामियों पर कोई बहस न तो हो पाती है और न ही कभी आम जनता को किसी योजना से होने वाले नुकसान की कोई जानकारी दी जाती है। आम जनता यह नहीं जान पाती है कि अमुक तरीके से बाढ़ रोकने की उसे कितनी कीमत कब और कहाँ देनी पड़ेगी। उसे केवल इतना ही बताया जाता है कि अमुक योजना बन जाने के बाद उसकी सारी समस्याएँ समाप्त हो जायेंगी। इसका कारण है कि योजनाओं से संबंधित सारी सूचनाओं को गोपनीय रखा जाता है। भुतही-बलान के मसले को ही लें तो उस क्षेत्र की आधी जनता पिछले 25 साल से यही जानती थी कि नागमणि रिपोर्ट में पूर्वी तटबन्ध पर काम न करने की बात कही गई है। तीन बार मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर जिन्होंने एक बार फुलपरास का मुख्यमंत्री की हैसियत से बिहार विधान सभा में प्रतिनिधित्व भी किया था शायद यही जानते थे और सच क्या है, यह कोई नहीं जानता क्योंकि रिपोर्ट किसी ने देखी ही नहीं है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि इतने लम्बे समय तक लोगों को कैसे अंधेरे में रखा जा सका और यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि जगन्नाथ मिश्र 1982 में कैसे यह जानते थे कि भुतही-बलान के पूर्वी तटबन्ध के निर्माण की समय सीमा निर्धारित करना ठीक नहीं है?

यह आधुनिक तकनीक का ही कमाल है कि वह एक समस्या के समाधान के क्रम में दूसरी समस्या को जन्म देती है। फिर यह उसका समाधान खोजती है और यह क्रम चलता रहता है। कोसी की बाढ़ को रोकने के लिये उस नदी पर तटबन्ध बना। इसके पश्चिमी तटबन्ध के कारण कई नदियों के बहाव में बाधा आई। फिर स्लुइस गेट बनाने की बात उठी और घोघरडीहा-निर्मली रेल लाइन को ऊँचा उठाना पड़ा। इसकी वजह से नदी के पश्चिमी तट पर तटबन्ध बनाना पड़ा और अब पूर्वी तटबन्ध को पूरा करने की बात चल रही है। परसा के रेल पुल को बढ़ाया जाना अभी भी बाकी है। यह इन्कलाब कहाँ जा कर थमेगा, कोई नहीं जानता। हर समय एक नये निर्माण का आश्वासन देना राजनीतिज्ञों के भी माफिक पड़ता है।

11. जो तटबन्धों के बीच फसेंगे उनकी पुनर्वास योजना


यह एक बहुत ही ज्वलंत प्रश्न है और इस बात की पूरी आशंका है कि वह लोग जोकि भुतही-बलान के दोनों तटबन्धों के बीच में अब कैद होंगे उन्हें न्याय संगत पुनर्वास नहीं मिलेगा क्योंकि बिहार सरकार कभी भी विस्थापितों के प्रति संवेदनशील नहीं रही है। यही उसका रिकॉर्ड है। कोसी तटबन्धों के विस्थापितों के हितों की रक्षा के लिये तटबन्ध निर्माण के तीस साल बाद 1987 में स्थापित कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार का दफ्तर कहाँ है यह अधिकांश कोसी पीड़ित नहीं जानते। बहुत सी सरकारी संस्थायें भी नहीं जानतीं कि यह कार्यालय किस जगह है। यह भी एक अविश्वासनीय सच्चाई है कि लगभग 50 वर्ष पहले बने कोसी तटबन्धों के बीच फँसे बहुत से गाँवों के पुनर्वास के लिये आज तक जमीन का अधिग्रहण तक नहीं हुआ है। किशनपुर (जिला - सुपौल) प्रखण्ड का परसा माधो गाँव इसका एक उदाहरण है जहाँ से विधानसभा के लिये सदस्य तो निर्वाचित हुआ है मगर इस गाँव के लिये पुनर्वास की जमीन का आज तक अधीग्रहण नहीं हुआ है।

बागमती, कमला और महानन्दा परियोजनाओं में पुनर्वास की स्थिति शर्मनाक है और इन योजनाओं में विस्थापितों को अपना घर तटबंधों के बीच से हटा लेने के लिये केवल 200 से 500 रुपयों का अनुदान दिया गया था और पुनर्वास की जमीन के पट्टे अधिकांश लोगों को अभी तक नहीं मिले हैं। इन योजनाओं में विस्थापितों को घर बनाने के लिये कोई अनुदान नहीं दिया गया है। विस्थापितों की जीविका का एक मात्र स्रोत उनकी खेती की जमीन है जोकि तटबन्धों के अन्दर है और कटाव, जल जमाव तथा बालू से पटने की उस पर हर साल आशंका बनी रहती है। केवल आशा की जा सकती है कि भुतही-बलान तटबन्धों के मामले में कम से कम अब से ऐसा नहीं होगा। यह बात तय है कि यदि तटबन्ध पीड़ित पहले अपने गाँव-घर से निकल कर चले जायेंगे और तब पुनर्वास की आशा रखेंगे तो यह पुनर्वास उन्हें कभी नहीं मिलेगा।

12. सावधानी की जरूरत


यह निहायत जरूरी है कि आज की परिस्थिति में नीचे लिखी बातों का ध्यान रखा जाय।

.(क) राज्य के जल संसाधन विभाग और उसके इंजीनियरों को इस बात के लिये जवाबदार बनाया जाय कि कम से कम अब से भुतही-बलान के पश्चिमी या पूर्वी तटबन्ध में कोई दरार नहीं पड़ेगी और जिन 54 गाँवों की सुरक्षा के लिये नरहिया से परसा तक का तटबन्ध जनता की गाढ़ी कमाई से बनेगा, यह सुरक्षा उन गाँवों को निश्चित रूप से मिलेगी जैसी कि मा. पटना उच्च न्यायालय की मान्यता है। अगर यह तटबन्ध या पहले से बना पश्चिमी तटबन्ध और अर्धनिर्मित पूर्वी तटबन्ध कहीं भी टूटता है तो उससे प्रभावित क्षेत्र में जितना भी नुकसान होगा उसकी भरपायी बिहार सरकार और उसका जल-संसाधन विभाग करेगा।

(ख) तटबन्ध प्रभावित जनता को यह पहले से पता होना चाहिये कि अगर अब भी पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम या पूर्वी तटबन्ध के पूरब के इन गाँवों में तटबन्ध टूटने के कारण या जल जमाव के रूप में बाढ़ आती है तो क्षति पूर्ति के लिये राज्य सरकार के किस अधिकारी से सम्पर्क करना होगा और इसकी प्रक्रिया क्या होगी।

(ग) जल संसाधन विभाग को यह चाहिए कि वह क्षेत्र के सभी प्रमुख जगहों पर इस नये तटबन्ध की लागत, उससे सुरक्षित होने वाले क्षेत्र और इन निर्माण से होने वाले सभी फायदों को प्रचारित करें। स्थानीय संघर्षरत समूहों की भी यह जिम्मेवारी बनती है कि वह आपसी मतभेद भुला कर यह सुनिश्चित करें कि परियोजना से जिस फायदे की बात की जाती है यह उनका हक है और यह सभी को सामन रूप से मिलना चाहिए।

(घ) भुतही-बलान के दोनों तटबन्धों के बीच फँसने वाली जनता का जीविका के साधनों के समेत पुनर्वास तटबन्ध निर्माण से पहले किया जाय।

13. उपसंहार


वास्तव में भुतही-बलान के पश्चिमी तटबन्ध का निर्माण करके बिहार सरकार ने स्वयं और क्षेत्र की जनता के गले में सांप बाँध दिया हुआ है। नदी के तटबन्धों को आगे बढ़ाने के पहले बेहतर यही हुआ होता कि अब तक बने तटबन्धों का मूल्यांकन हुआ होता और उसी पृष्ठभूमि में कोई निर्णय लिया गया होता। अक्सर टूटते रहने वाले इन तटबन्धों से क्या सचमुच वह फायदा हुआ जिसकी अपेक्षा थी और जैसा परियोजना रिपोर्ट में कहा गया था, क्या वह लाभ वास्तव में मिला?

भुतही-बलान पश्चिमी तटबन्ध परियोजना ने जो हर एक रूपये के निवेश पर तीन रूपये अट्ठाइस पैसे के फायदे का दावा किया था उस पर परियोजना कहाँ तक खरी उतरी? यही मूल्यांकन उस दावे का होना चाहिए जिसमें कहा गया था कि 133 से 140 नम्बर के पुलों से भुतही-बलान के सर्वाधिक प्रवाह से चार गुना पानी बड़े आराम से निकल जायेगा। रेल विभाग को भी इस पूरे मसले पर अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से रखनी चाहिए। तब पता लगता कि लक्ष्य से अगर कोई भटकाव हुआ है तो इसके कारण क्या थे और इसके लिये कौन-कौन लोग जिम्मेवार थे। स्थिति में सुधार के लिये क्या-क्या कदम उठाने जरूरी है? यह सब जाने बिना और दोनों तटबन्धों के बीच फँसने वाले गाँवों का पुनर्वास किये बिना अगर तटबन्ध आगे बढ़ता है तो यथा स्थिति बनी रहेगी। जब नदी की समस्या इस तरह की हो और इतनी ज्यादा हो तो केवल आपदा प्रबंधन और राहत कार्यों के जरिये उसका समाधान खोजना कहाँ तक तर्कसंगत होगा, यह गंभीर बहस का मसला है।

नदी की बाढ़ से निबटने का जो काम पहले किया गया और वह जो अब भी किया जा रहा है वह इस भुतही-बलान की बाढ़ रोकना कम और भूत भगाने का खेल ज्यादा है। इस मौके पर नदी वैज्ञानिकों को यह याद दिलाना जरूरी है कि असली समस्या पानी को रास्ता दिखाने की नहीं बल्कि बालू से निबटने की है जब तक इसकी व्यवस्था नहीं की जायेगी तब तक इंजीनियरिंग और झाड़-फूंक में कोई अन्तर स्पष्ट नहीं होगा। तब गले में बंधे इस सांप की फुफकारां को बिना हिले-डुले बर्दाश्त करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। वैसे भी पूरे मसले पर आखिरी फैसला नदी की तरफ से आयेगा जिसका सबको इन्तजार करना पड़ेगा।

हम चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकते

देव नारायण कामत, मुखिया-राम नगर-सुरियाही पंचायत, प्रखण्ड-फुलपरास, जिला-मधुबनी

मैं भुतही-बलान तटबन्ध निर्माण संघर्ष समिति का उपाध्यक्ष था। अध्यक्ष थे राम नगर के सूर्य नारायण यादव। भुतही-बलान का पूर्वी तटबन्ध अधूरा है। पश्चिमी तटबन्ध तो रेवले लाइन तक चल गया मगर पूर्वी तटबन्ध नरहिया में आकर रुक गया है जिसकी वजह से नरहिया तो बर्बाद ही हो गया। भुतही-बलान शायद दुनियाँ की अकेली नदी होगी जिसके एक ही तरफ तटबन्ध बना है। सरकार को अगर तटबन्ध बनाना ही था तो वह नदी के दोनों तरफ बनाती या फिर एकदम ही नहीं बनाती मगर राजनीति जो न करवा दे।

पश्चिम में फुलपरास एक महत्त्वपूर्ण गाँव है। कभी प्रखण्ड कार्यालय, अनमुंडल, कार्यालय, थाना और रजिस्ट्री आॅफिस से होती हुई भुतही-बलान बहती थी। अभी यह नदी काफी पूरब चली गई है। धनिक लाल मण्डल बेलहा के रहने वाले हैं जोकि पहले विधायक बने, फिर बिहार विधान सभा के अध्यक्ष, केन्द्रीय मंत्री और राज्यपाल तक रहे। फुलपरास के देवेन्द्र प्रसाद यादव भी केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं। पूर्व विधायक रसिक लाल यादव बरही के रहने वाले थे। इस तरह फुलपरास राजनीतिक दृष्टि से बड़ा ताकतवर गाँव रहा है। इसकी रक्षा के लिये भुतही-बलान का पश्चिमी तटबन्ध बना जिसे घुमा कर इन इलाकों को बचाया गया। मगर जब पूरब वाले तटबन्ध की परसा तक विस्तार की बात उठती है तो फुलपरास में जबर्दस्त विरोध होता है। कोई काम हो पाने से भुतही-बलान और बिहुल के बीच के 54 गाँव बाढ़ से तबाह होते हैं और तबाही में भुतही-बलान का अंश ज्यादा होता है। कोसी के पश्चिमी तटबन्ध और भुतही-बलान के बीच का जन-जीवन बरसात में एकदम असामान्य हो जाता है।

1978 में धनिक लाल मण्डल ने, जब वह केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री थे, बेलहा में क्षेत्रीय विकास के लिये एक आम सभा बुलाई। उस समय हम लोगों ने भुतही-बलान के पूर्वी तटबन्ध की मांग उठाई। उनके समझ में पता नहीं क्या आया कि उन्होंने सभा में कहा कि यह तटबन्ध उनकी लाश पर ही बनेगा। यह सुन कर हम लोगों को बड़ा दुःख हुआ। भगवान धनिक लाल जी को लम्बी उम्र दे क्योंकि यह तटबन्ध बना तो जरूर मगर नरहिया पर आकर थम गया। यह अगर आगे बढ़ गया होता तो कुछ इलाका बच गया होता मगर बर्बादी तो हमारे भाग्य में लिख गई है।

 

1955-56 में तटबन्ध को आगे बढ़ाने की बात हुई। इस बार हम लोगों ने देवनाथ यादव को विधानसभा में जिता कर भेजा कि वह तटबन्ध निर्माण के लिये कुछ करेंगे। घर उनका भी फुलपरास में ही था मगर उन्होंने सार्वजनिक घोषणा की थी कि जीतने पर पूर्वी तटबन्ध का निर्माण करवायेंगे। सरकार की घोषणा थी, जल-संसाधन विभाग की स्वीकृति थी, टेण्डर ठेका सब का फैसला हो चुका था और हम लोग देवनाथ बाबू के नेतृत्व में श्रमदान करने के लिये डलिया-कुदाल लेकर गये। सुरियाही, नरहिया, भवटियाही, छजना, मझोरा, बैरियाही, मुसहरनियां, जहली पट्टी और रतनसेरा के लोग थे-एक हजार के ऊपर की संख्या रही होगी। हम लोगों को बिल्कुल यह अन्दाज नहीं था कि सारी औपचारिकतायें पूरी कर लेने के बाद भी कुछ रुकावट आयेगी। निर्माण स्थल पर जाकर देखा कि बरही और फुलपरास के लोग काम रोकने के लिये पूरी तैयारी के साथ खड़े थे। आपस में मारपीट हो गई और प्रशासन मूकदर्शक बना सब कुछ देखता रहा। रतनसेरा के तीन आदमी घायल हुये और बाद में उनमें से एक मर भी गया। हम लोग डलिया कुदाल लेकर मिट्टी काटने गये थे, कोई मारपीट करने तो गये नहीं थे जबकि उधर के लोग पूरी तैयारी से आये थे। नतीजा हुआ कि हम लोग संख्या में ज्यादा होने पर भी मार खाकर लौटे।

मधुबनी के कलेक्टर मौजूद थे, इंजीनियर तैयार थे और सारी चीजें हमारे पक्ष में थी। प्रशासन अगर मदद करता तो तटबन्ध बन गया होता, मगर हमें खाली हाथ लौटना पड़ा। अब अपनी तबाही के बारे में क्या कहें? एक-एक बार में नदी 5-5 फुट बालू पाट देती है खेतों पर। घर बर्बाद हो जाते हैं। माल-मवेशी सम्भालना मुश्किल हो जाता है। हम चाहते हुए भी कुछ कर नहीं सकते।

मैं आग झेल लूँ, बाढ़ झेल लूँ, प्यासा रह जाऊँ, भूखा सो लूँ, मेरे बच्चे पढ़ाई लिखाई से वंचित रह जायें, मेरे माँ बाप इलाज के अभाव में मर जायें और मैं चूँ तक न करूँ तब तो मैं इस देश का एक जिम्मेवार नागरिक हूँ। और अगर मैं इसकी शिकायत किसी से कर दूँ तो वह अक्षम्य अपराध हो जाता है। गरीब का बेटा अगर किसी बड़े आदमी के बेटे द्वारा पीटे जाने की शिकायत करता है तो उसका बाप भी मार खाता है। हमारे यहाँ का दस्तूर यही है। मार खाने के अलावा और आजादी क्या है, हम नहीं जानते।

यहाँ तो झूठे कटाव और झूठी सुरक्षा का धंधा चलता है ...

हरि नारायण यादव

मुखिया - फुलपरास, जिला-मधुबनी

‘‘1962-63 में एक छोटा-सा तटबंध भुतही-बलान पर बना था जिससे उसकी धारा मुड़ गई थी और तब इसकी सीधी चोट मधेपुर के पास राधानन्दन झा (भूतपूर्व अध्यक्ष बिहार विधान सभा) के गाँव पर पड़ती थी। वह एक कद्दावर कांग्रेसी नेता हैं और उनका चिन्तित होना स्वाभाविक था। ललित नारायण मिश्र की उन दिनों तूती बोलती थी, उनके सहयोग से यह तय हुआ कि भुतही-बलान के पानी को पश्चिम जाने से रोका जाय और इसके लिये नदी के दायें किनारे पर तटबन्ध बनें। उस समय बायीं ओर पर तटबन्ध बनाने का प्रस्ताव क्यों नहीं किया गया, यह मैं नहीं जानता। 1970-71 में योजना बनी मगर काम शुरू होते-होते 1974 आ गया। उस समय बिहार का छात्र आंदोलन अपने चरम पर था और आन्दोलनकारियों ने भुतही-बलान तटबन्ध का जमकर विरोध किया। उन्होंने नारा दिया था- ‘तटबन्ध बनाना बन्द करो जनता को मत तंग करो।’ धबहा परती में छात्रों और आम जनता की जबर्दस्त मीटिंग हुई जिसमें छात्र नेता परमेश्वर यादव और निर्मली के डाॅ. डी.पी. यादव भी आये थे। पूरब के गाँवों का भी पूरा-पूरा विरोध था।’’

ऐसे ही समय एमरजेन्सी लग गई और कांग्रेसियों को छोड़कर सबकी जबान पर ताले लग गये। कार्यकर्ता पकड़ कर जेल में डाले जाने लगे और विरोध धीमा होने लगा। यह तटबन्ध एमरजेन्सी लगने की वजह से बना वरना यह बन नहीं पाता। 1975 से समस्या बढ़ गई। 1977-78 में भुतही-बलान की धारा बिहुल में जा मिली और बैरियाही पर खतरा बढ़ने लगा। नरहिया में पूँजीवाले लोग थे और बैरियाही वालों के सम्पर्क सूत्र अच्छे थे। दोनों के संयोग से भुतही-बलान तटबन्धों के पूर्वी तटबन्ध की मांग उठी।

1977 में कर्पूरी ठाकुर की सरकार बनी और उस समय सिंचाई आयुक्त एन. नागमणि की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाकर भुतही-बलान की समस्या का अध्ययन करवाया गया जिसकी मुख्य सिफारिश थी कि भुतही-बलान को बिहुल और धनजैया नदियों के साथ निर्मली के पास कोसी में समाहित कर दिया जाय। डेढ़ दो साल में कर्पूरी ठाकुर की सरकार भंग हो गई और उसी के साथ नागमणि रिपोर्ट भी ठंडे बस्तें में चली गई या फिर दबा दी गई।

फिर नई सरकार आई और पूर्वी तटबन्ध बनना शुरू हुआ- लक्ष्मीपुर से टेंगरार तक। जैसे-तैसे तटबन्ध आगे बढ़ता गया, उसका विरोध मुखर होता गया। इस विरोध का नेतृत्व फुलपरास के हाथ में था और हमारे साथ में धौसही, गोरगामा, ननपट्टी का आधा भाग, सुरियाही की मल्लाह टोली, बलुआही, बेलदारी, चेथरू टोल, मुजियासी, धनखोर कालीपुर (कामत) और किशुनीपट्टी- यह सब प्रस्तावित तटबन्धों के बीच फँसने वाले लोग हैं। इसके अलावा घोघरडीहा, ड्योढ, ब्रह्मपुरा, बथनाहा और बेलहा गाँवों की भी जमीन पड़ती है। इन गाँवों का भी विरोध था। यह सब लोग मिलकर विपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर से मिले। उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया। तब कहीं पूर्वी तटबन्ध का काम रुका।

यहाँ की हालत यह है कि हर साल अब मिट्टी डालने के समय, जनवरी से मई तक, दोनों पक्षों के लोग धरना, जुलूस, रास्ता रोको, रेल रोको जैसे कार्यक्रम में व्यस्त रहते हैं। कोई काम शुरू करवाने के लिये तो कोई रोकने के लिये। कर्पूरी जी ने बिन्देश्वरी दूबे को कहा था कि इस काम को हमेशा के लिये बन्द कर दीजिये वरना पचास हजार की आबादी बर्बाद हो जायेगी और खेती चौपट हो जायेगी। इस पूरे प्रकरण की जाँच ठीक तरह से करवा लीजिए। उसके बाद कोई शर्मा जी नाम के इंजीनियर यहाँ आये। हम लोगों ने उनसे पूछा कि आप जाँच करने आये हैं या नौटंकी करने? यहाँ दिक्कत यह थी कि इंजीनियर लोग नरहिया/बिहुल की धारा को मुख्य धारा नहीं दिखलाते। वह पूरब की एक मृत धारा को मुख्य धारा बनाकर दिखाते थे। हम लोगों ने शर्मा जी को दोनों धारायें दिखाईं तो वह हैरत में पड़ गये कि कैसे इतना कुछ हो जाता है? शर्मा जी ने क्या रिपोर्ट जमा की वह तो पता नहीं पर बाद में पता लगा कि रिटायर हो गये और इसी के साथ वह बात भी खत्म हो गई।

यहाँ तो झूठा कटाव और झूठी सुरक्षा का धंधा चलता है जिसमें ठेकेदार, इंजीनियर और राजनीतिज्ञ सभी बराबर के शरीक हैं। तटबंध के निर्माण में यह सब चलता है। साल मुझे अब याद नहीं है मगर टेंगरार से महथौर तक तटबंध बनने की बात थी। हम लोगों को खबर मिली तो वहाँ खलबली मच गई। हमने महथौर के मुखिया से सम्पर्क किया और उन्हें कार्यस्थल पर बुलाया। जवाब में ठेकेदार और जरायम पेशा लोग आये। हमें अपमानित किया और चले गये। हम लोग बहुत दुखी हुए और दूसरे दिन ठेकेदारों को खदेड़ दिया, जरायम पेशा लोग अपने आप भाग गये। फिर बैरियाही, नरहिया, भबटियाही, पूरब ननपट्टी, परसा, बसुआरी, बेलहा और रतनसेरा के लोग संगठित होकर दबाव डालने आये। मैं गांधीवादी हूँ और हिंसा में विश्वास नहीं करता। देवनाथ बाबू (तत्कालीन सदस्य-विधान सभा) ने आश्वासन समिति बनवा ली थी और उनका कार्यक्रम था कि आश्वासन समिति के लोग खुद खड़ा होकर पूर्वी तटबन्ध बनवायेंगे। यह तटबन्ध बन जायेगा तो हमारी मृत्यु निश्चित है। हमने ढोल बजा कर पूरे इलाके के लोगों को थोड़ी ही देर में इक्ट्ठा कर लिया। देवेन्द्र बाबू (सांसद) से सम्पर्क किया कि मिट्टी डालना अगर बन्द नहीं होगा तो हम बर्बाद हो जायेंगे। इस बीच पुलिस और मजिस्ट्रेट भी आ गये। मजिस्ट्रेट का तो हमारी महिलाओं ने घेराव कर दिया। देवनाथ बाबू के समर्थकों ने रेल जाम कर दी तो हम लोगों ने सड़क जाम की। हमें धमकी दी गई कि अगली बार बाँध बनाने के लिये गोली कट्टा के साथ आयेंगे। हमने भी चुनौती स्वीकार की और पारम्परिक हथियारों के साथ, मुकाबले के लिये अर्ध-चन्द्राकार व्यूह बना कर पहुँचे। प्रशासन भी झगड़े-झंझट की आशंका से एम्बुलेंस के साथ मौजूद था। व्यक्तिगत रूप से मेरे ऊपर भी खतरा कम नहीं था और दूसरे पक्ष का मानना था कि जब तक फुलपरास का मुखिया गिरफ्तार नहीं हो जाता तब तक तटबन्ध नहीं बन पायेगा।


हमने जम कर मोर्चा लिया और बाँध बनाने वालों को खदेड़ लिया। मार पीट भी हुई। वह सब हथियार छोड़ कर भाग गये। रतनसेरा वालों को कुछ ज्यादा ही चोट लगी। यह पूरा झगड़ा-झंझट व्यर्थ का था जिसकी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि बाँध के निर्माण को अब हम लोग नहीं रोकते तो रेलवे वाले रोकते। उनकी भी तो सहमति चाहिए जो कि मिली नहीं थी। तटबन्ध बनने वाला तो है नहीं मगर हम लोग जरूर आपस में लड़ रहे हैं।

उनके वोटों की जरूरत सबको है

 

कृपानाथ पाठक, पूर्व सदस्य, बिहार विधान परिषद

 

‘‘सत्तर के दशक में जब नदी पर पश्चिम में तटबन्ध बना तब वह समय की मांग थी। जनता की मांग थी और ललित बाबू का प्रभाव था, बन गया। यह तटबन्ध हठात बना। पता नहीं इसका सही-सही अनुसंधान भी हुआ या नहीं और डिजाइन भी ठीक से बनी या नहीं, मगर पश्चिमी तटबन्ध बन कर तैयार हो गया। पूरब वाला तटबन्ध पता नहीं क्यों उस वक्त नहीं बना, इसके लिये हम लेगों को लिखा पढ़ी, विधानसभा और विधान परिषद में सवाल-जवाब और आन्दोलन तक करना पड़ा। तब जाकर पूर्वी तटबन्ध लक्ष्मीपुर से नरहिया बाजार तक बना। पूर्वी तटबन्ध के निर्माण की मांग के पीछे कारण था कि इस किनारे पर नदी आजाद रहने के कारण 54 गाँवों को पानी और बालू से पाटने लगी। हजार मन धान का किसान हजार छटांक भर धान का मोहताज हो गया। उसे भी अनाज खरीद कर खाना पड़ता है। पूरब में तटबन्ध बने रहने पर उधर भी फसल का बचाव होगा। अब इसे नरहिया के आगे परसा के पास रेलवे लाइन तक जाना है- यह काम नहीं हो पा रहा है। यह इलाका कर्पूरी ठाकुर का विधान सभा क्षेत्र रहा है मगर वह भी मुख्यमंत्री रहने के बावजूद कुछ कर नहीं पाये। इसके दो कारण हैं। एक तो रेल विभाग मना करता है कि उनका परसा के पास का पुल नदी के प्रवाह को बर्दाश्त करने के काबिल नहीं है और जब तक उस पुल को और लम्बा नहीं किया जायेगा तब तक वह भुतही-बलान के पूर्वी तटबन्ध को नहीं बनने देगा। दूसरी बात यह है कि अगर पूर्वी तटबन्ध बनता है तो कुछ गाँव दोनों तटबन्धों के बीच में पड़ जायेंगे और यह लोग अपना गाँव छोड़ कर पुनर्वासित नहीं होना चाहते। जब तक पूर्वी तटबन्ध का अलाइनमेंट तय नहीं हो जाता, तब तक यह कहना मुश्किल है कि कौन-कौन से गाँव इसमें फँसेंगे मगर इतना तय है कि फुलपरास का पुबरिया टोल, गोरगामा, परसा और जहली पट्टी तो बीच में आ ही जायेंगे और इनका पुनर्वास करना पड़ेगा।’’

 

सरकार अगर इस समस्या के प्रति गंभीर रहती तो पहले ही रेल विभाग से सम्पर्क करके इसे पूरा कर लिया होता। बिहार सरकार और रेल विभाग के बीच पत्राचार की क्या स्थिति है यह तो हम नहीं जानते मगर जब कोई काम नहीं हो रहा है तो लगता है कि स्वीकृति नहीं मिली है। रेलवे वाले बिहार सरकार से रेल पुल को बड़ा करने का खर्च मांगते थे जोकि बिहार सरकार ने नहीं दिया। अब इस बाँध को लेकर राजनीति अपने चरम पर है। वह 54 गाँव जोकि अब भुतही-बलान से प्रभावित होते हैं वह अपनी मांग मनवाने की उम्मीद में जात-पात, ऊँच-नीच का भेद छोड़कर एक साथ वोट देते हैं। उनके वोट की जरूरत सबको है मगर 15-20 साल हो गया, उनके लिये कुछ हुआ नहीं है।

(दो पाटन के बीच में’ ले. दिनेश कुमार मिश्र, से उद्धृत)

भुतही नदी और तकनीकी झाड़-फूंक

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

भुतही नदी और तकनीकी झाड़-फूंक

2

Story of a ghost river and engineering witchcraft

 

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