खाद्य सुरक्षा की अवधारणा व्यक्ति के मूलभूत अधिकार को परिभाषित करती है। अपने जीवन के लिये हर किसी को निर्धारित पोषक तत्वों से परिपूर्ण भोजन की जरूरत होती है। महत्वपूर्ण यह भी है कि भोजन की जरूरत नियत समय पर पूरी हो। इसका एक पक्ष यह भी है कि आने वाले समय की अनिश्चितता को देखते हुये हमारे भण्डारों में पर्याप्त मात्रा में अनाज सुरक्षित हो, जिसे जरूरत पड़ने पर तत्काल जरूरतमंद लोगों तक सुव्यवस्थित तरीके से पहुँचाया जाये। हाल के अनुभवों ने सिखाया है कि राज्य के अनाज गोदाम इसलिये भरे हुए नहीं होना चाहिए कि लोग उसे खरीद पाने में सक्षम नहीं हैं। इसका अर्थ है कि सामाजिक सुरक्षा के नजरिये से अनाज आपूर्ति की सुनियेजित व्यवस्था होना चाहिए। यदि समाज की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित रहेगी तो लोग अन्य रचनात्मक प्रक्रियाओं में अपनी भूमिका निभा पायेंगे। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार का दायित्व है कि बेहतर उत्पादन का वातावरण बनाये और खाद्यान्न के बाजार मूल्यों को समुदाय के हितों के अनुरूप बनाये रखे।
• मानव अधिकारों की वैश्विक घोषणा (1948) का अनुच्छेद 25 (1) कहता है कि हर व्यक्ति को अपने और अपने परिवार को बेहतर जीवन स्तर बनाने, स्वास्थ्य की स्थिति प्राप्त करने, का अधिकार है जिसमें भोजन, कपड़े और आवास की सुरक्षा शामिल है।
• खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) ने 1965 में अपने संविधान की प्रस्तावना में घोषणा की कि मानवीय समाज की भूख से मुक्ति सुनिश्चित करना उनके बुनियादी उद्देश्यों में से एक है।
खाद्य सुरक्षा के व्यावहारिक पहलू
• उत्पादन-
यह माना जाता है कि खाद्य आत्मनिर्भरता के लिए उत्पादन में वृद्धि करने के निरन्तर प्रयास होते रहना चाहिए। इसके अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के अनुरूप नई तकनीकों का उपयोग करने के साथ-साथ सरकार को कृषि व्यवस्था की बेहतरी के लिये पुनर्निर्माण की नीति अपनाना चाहिए।
• वितरण-
उत्पादन की जो भी स्थिति हो राज्य के समाज के सभी वर्गों को उनकी जरूरत के अनुरूप अनाज का अधिकार मिलना चाहिए। जो सक्षम है उसकी क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए आजीविका के साधन उपलब्ध होना चाहिए और जो वंचित एवं उपेक्षित समुदाय हैं (जैसे- विकलांग, वृद्ध, विधवा महिलायें, पिछड़ी हुई आदिम जनजातियां आदि) उन्हें सामाजिक सुरक्षा की अवधारणा करवाना राज्य का आधिकार है।
• आपाताकालीन व्यवस्था में खाद्य सुरक्षा समय की अनिश्चितता उसके चरित्र का सबसे महत्वपूर्ण है। प्राकृतिक आपदायें समाज के अस्तित्व के सामने अक्सर चुनौतियां खड़ी करती हैं। ऐसे में राज्य यह व्यवस्था करता है कि आपात कालीन अवस्था (जैसे- सूखा, बाढ़, या चक्रवात) में प्रभावित लोगों को भुखमरी का सामना न करना पड़े।
खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि और गरीबी
भारत में 1960 के दशक के मध्य से गरीबी के स्तर में एक औसत और निश्चित गिरावट दर्ज की गई है। इसके बावजूद सरकार की नवीनतम घोषणा के मुताबिक देश की 26 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे है हालांकि इस आंकड़े को कई स्तरों पर चुनौती दी गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि देश में चार गुना उत्पादन बढ़ने के बाद भी लोगों की रोटी का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है। हम अब भी लोगों की खाद्यान्न सम्बन्धी जरूरतों को पूरा कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। स्वाभाविक रूप से देख का अनुभव यह सिद्ध करता है कि खाद्य उत्पादन की वृद्धि का सीध संबंध समाज की खाद्य सुरक्षा की स्थिति से नहीं है और यह स्वीकार करना पड़ेगा कि देश के उत्पादन में जो वृद्धि हुई है उसमें गैर खाद्यान्न पदार्थों का हिस्सा बहुत ही चिंतनीय ढंग से बढ़ा है जैसे- तेल, शक्कर, दूध, मांस, अण्डे, सब्जियां और फल। ये पदार्थ अब लोगों के कुल उपभोग का 60 फीसदी हिस्सा अपने कब्जे में रखते हैं। ऐसी स्थिति में यदि हम चाहते हैं कि लोगों तक खाद्य पदार्थों की सहज पहुंच हो तो इन गैर खाद्यान्न पदार्थों के बाजार को नियंत्रित करना होगा। यह महत्वपूर्ण है कि 1951 से 2001 के बीच में देश में खाद्यान्न उत्पादन में चार गुना बढ़ोत्तरी हुई है पर गरीब की खाद्य सुरक्षा अभी सुनिश्चित नहीं हो पायी है।
खाद्यान्न और दाल की सकल उपलब्धता
वर्ष |
प्रति व्यक्ति एकल उपलब्धता (ग्राम प्रतिदिन) |
खाद्य तेल (किलोग्राम) |
वनस्पति (किलोग्राम) |
शक्कर (किलोग्राम) |
||
|
|
अनाज |
दालें |
|
|
|
1951 |
334.2 |
60.7 |
394.9 |
2.5 |
0.7 |
5.0 |
1961 |
399.2 |
69.0 |
468.7 |
3.2 |
0.8 |
4.8 |
1971 |
417.3 |
51.2 |
468.8 |
3.5 |
1.0 |
7.4 |
1981 |
417.3 |
37.5 |
454.8 |
3.8 |
1.2 |
7.3 |
1991 |
435.3 |
41.1 |
476.4 |
5.3 |
1.1 |
12.3 |
1992 |
468.5 |
41.6 |
510.1 |
5.5 |
1.0 |
12.7 |
1993 |
434.5 |
34.3 |
468.8 |
5.4 |
1.0 |
13.0 |
1994 |
427.9 |
36.2 |
464-1 |
5.8 |
1.0 |
13.7 |
1995 |
434.0 |
37.2 |
471.2 |
6.1 |
1.0 |
12.5 |
1996 |
457.6 |
37.8 |
495.4 |
6.3 |
1.0 |
13.2 |
1997 |
443.4 |
32.8 |
476.2 |
7-0 |
1.0 |
14.1 |
1998 |
448.2 |
37.3 |
505.5 |
8.0 |
1.0 |
14.6 |
1999 |
417.3 |
33.0 |
450.5 |
6.2 |
1.0 |
14.6 |
2000 |
433.5 |
36.9 |
470.4 |
8.5 |
1.3 |
14.6 |
2001 |
426.0 |
32.0 |
458.0 |
9.1 |
1.3 |
15.6 |
2002 |
290.6 |
26.4 |
417 |
8.0 |
14 |
15.8 |
(स्रोत: भारत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण)
2003 सरकार ने 21 करोड़ अन अनाज उत्पादन होने के बाद पूरी दुनिया के सामने घोषणा कर दी थी कि भारत खाद्यान्न के मामले में अब आत्म निर्भर हो गया है। परन्तु इसी दौर में कुछ चौंकाने वाले आंकड़े भी सामने आते हैं। 1980 की तुलना में 1990 के दशक में कृषि उत्पादन में कमी दर्ज की गई। जहां 1980 के दशक में उत्पादन वृद्धि क़ी दर 3.54 प्रतिशत थी वहां 1990 के दशक में घटकर 1.92 प्रतिशत पर आ गई। इतना ही नहीं उत्पादक की दर पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा, यह दर 1980 के 3.3 प्रतिशत से घटकर 1990 के दशक में 1.31 प्रतिशत हो गई है। बहुत संक्षेप में यह जान लेना चाहिये कि 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौर में किसानों ने उच्च उत्पादन क्षमता वाले बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और मशीनों का उपयोग करके प्रगति की तीव्र गति का जो रास्ता अपनाया था अब उसके नकारात्मक परिणाम आने शुरू हो गये हैं। इन साधनों से न केवल मिट्टी की उर्वरता कम हुई बल्कि कृषि की पारम्परिक व्यवस्था का भी विनाश हुआ है। अगर हमने इतना विकास किया है कि उत्पादन 5 करोड़ टन से बढ़कर 20.11 करोड़ टन हो गया तो प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्ध 1951 में 394.9 ग्राम प्रति व्यक्ति से बढ़कर केवल 417.0 ग्राम तक ही क्यों पहुंच पाई ?
1972-73 से 1999-2000 की समयावधि में अनाज के प्रति व्यक्ति उपभोग में कमी आई है। जहां 1972-73 में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 15.3 किलोग्राम अनाज को उपभोग होता था, अब वह घटकर 12.22 किलोग्राम प्रतिमाह आ गया है। अब सवाल केवल यहीं तक सीमित नहीं है। एक वर्ग दावा कर सकता है कि आज लोग अण्डे और मांस खा रहे हैं और दूध पी रहे हैं तो अनाज उपभोग में गिरावट चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए पर अब भी एक पक्ष अभी उल्लेखनीय है और वह पक्ष है कैलोरी उपभोग का, जिससे तय होता है कि व्यक्ति को कितना पोषण आहार मिल रहा है।
(ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति कैलोरी उपभोग)
वर्ग |
1972-73 |
1977-78 |
1983-84 |
1993-94 |
1999-2000 |
निम्न वर्ग |
1504 |
1630 |
1620 |
1678 |
1626 |
मध्य वर्ग |
2170 |
2296 |
2144 |
2119 |
2009 |
उच्च वर्ग |
3161 |
3190 |
2929 |
2672 |
2463 |
कुल |
2268 |
2364 |
2222 |
2152 |
20300 |
खाद्य सुरक्षा और जीवन निर्वाह की अर्थव्यवस्था
उत्पादन बढ़ा, लोगों तक नहीं पहुंचा, और लोग भूख से मरे, यह सब कुछ सही है। पर इसके साथ ही एक और पक्ष भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है और वह पक्ष है जीवन निर्वाह की पारम्परिक अर्थ व्यवस्था का। समाज का एक हिस्सा अपनी जरूरत का खाद्यान्न बाजार से नहीं खरीदता था वह या तो पैदा करता था या संग्रहित करता था। परन्तु अब हर कोई बाजार के हवाले है। आर्थिक लाभ कमाने के लिये छोटे-छोटे किसानों ने भी खाद्यान्न की फसलों को छोड़कर नकद आर्थिक लाभ देने वाली फसलों पर ध्यान केन्द्रित किया और विपरीत परिस्थितियों में बमुश्किल अपना अस्तित्व बचा पाये। क्या एक बार फिर खाद्य सुरक्षा की पारम्परिक व्यवस्था पुर्नजीवित हो पायेगी।
स्पष्ट है कि निम्न और मध्यम वर्ग यानी आबादी का 70 प्रतिशत हिस्सा अभी अपने भोजन से न्यूनतम कैलोरी हासिल नहीं कर पा रहा है। जबकि यही गरीबी को मापे जाने का सबसे अहम सूचक है। जब सरकार बाजार मूल्य से कम दाम पर समाज के एक निश्चित तबके को अनाज या राशन उपलब्ध करवाती है तो बाजार मूल्य और रियायती दर के बीच के अन्तर का भार सहन करती है। यही खाद्य सब्सिडी या रियायत कहलाती है। वास्तव में देश और समाज में लोग भुखमरी के शिकार किसी भी परिस्थिति में न हों और उन्हें पोषण युक्त पर्याप्त भोजन मिले, यह सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है। अपने आप में खाद्यान्न सामग्री पर दी जाने वाली रियायत राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक राजनीति का अहम् विषय है। 1960 के दशक में जब रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, बदले हुये चरित्र के बीजों, कृषि व्यवस्था के मशीनीकरण के कारण जब हरित क्रांति हुई थी तब देश में उत्पादन की मात्रा तेजी से बढ़ी थी। महत्वपूर्ण यह है कि इस क्रांति के हितग्राही बड़े और सम्पन्न किसान थे। कीटनाशक का उपयोग करने की क्षमता सम्पन्न और बड़े रकबे वाले किसानों के पास ही थी। जब यह उत्पादन बढ़ा तो स्पष्ट नजर आने लगा कि इतने उत्पादन के लिये बाजार तो उपलब्ध है नहीं। लोग गरीब है और भण्डारण क्षमता तक जो कृषि व्यवस्था का उद्योग की तरह इस्तेमाल करते हैं, उनके हितो के संरक्षण के लिये आगे आना पड़ा। तब सरकार ने अनाज खरीदने का कार्यक्रम शुरू किया। यह तय हुआ कि सरकार किसानों को लाभ पहुँचाने के लिये खुले बाजार के भावों के आसपास ही खरीद करेगी। इस व्यवस्था का लाभ भी बड़े किसान ही उठा पाये और छोटे किसानों को अपनी फसल औने-पौने दामों पर बड़े किसानों या आड़तियों को बेंचना पड़ी। सरकार ने जमकर खाद्यान्न खरीदा। उसी माहौल में विश्व बैंक के निर्देशों के अनुरूप सरकार ने भारतीय खाद्य निगम की स्थापना की। वास्तव में तब संकट यह था कि इतनी मात्रा में खरीदकर रखे गये अनाज का भण्डारण कैसे किया जायेगा? और ऐसे में यह तय हुआ कि ज्यादा दामों पर खरीदे गये गये आज का सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये उपयोग किया जायेगा और फिर गरीबों को कम कीमत पर राशन उपलब्ध कराया जाने लगा। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि कई दशकों तक सरकारी खरीद पर पंजाब- हरियाणा के किसानों का एक छत्र राज रहा। देश के किसी और हिस्से से खाद्य निगम के भण्डारण भरे ही नहीं जाते थे।
सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये उसके उपयोग के बीच लागत मूल्य में जो अंतर आता है उसे सरकार वहन करती है। रियायत की इस व्यवस्था को इस समीकरण से समझा जा सकता है। सरकारी समर्थन मूल्य + भारतीय खाद्य निगम की आज भण्डारण लागत + संचालन लागत + नुकसान - सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये बिक्री मूल्य + खाद्य सब्सिडी
सरकारी समर्थन मूल्य हर वर्ष सरकार फसल आने के बाद यह तय करती है कि वह किस न्यूनतम मूल्य पर अनाज खरीदी करेगी। आमतौर पर समर्थन मूल्य का निर्धारण राजनैतिक व्यवस्था से प्रभावित होता है। तर्क होता है बाजार भावों की उठा-पटक से किसानों को बचाने का।
भारतीय खाद्य निगम की अनाज भण्डारण की लागत किसानों से समर्थन मूल्य पर अनाज की खरीदी करके सरकार खाद्य निगम के गोदामों में अनाज का भण्डारण करती है। अब ज्यादातर जिलों में खाद्य निगम के गोदाम है। यहां अनाज के रख रखाव पर मण्डी से गोदाम तक आज लाने का परिवहन व्यय को सरकार वहन करती है।
संचालन लागत खाद्य निगम पर रिकार्ड, देख-रेख वितरण का संचालन करने की व्यवस्था पर आने वाला व्यय।
नुकसान
सरकार के इन गोदामों की खराब हालत एवं चूहों की भरमार के कारण हर साल 10 से 20 फीसदी अनाज बर्बाद होता है। इतना ही नहीं जितनी मात्रा में सरकार ने अनाज खरीद कर रख लिया है उतनी भण्डारण क्षमता के गोदाम उसके पास नहीं है इसलिये भारी मात्रा में आज खुले आसमान के नीचे रखा जाता है, जिसकी बर्बादी निश्चित होती है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये बिक्री का मूल्य सरकार इस प्रणाली के जरिये समाज में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को कम मूल्य पर राशन उपलब्ध करवाती है, इस बिक्री से प्राप्त होने वाली राशि।
क्या और कितनी रियायत?
यह सवाल तो महत्वपूर्ण है ही कि सरकार वास्तव में रियायत किसानों को देती है या फिर गरीबों को। एक नजर से देखा जाये तो खाद्य सब्सिडी का लाभ किसानों के हित में आता है क्योंकि जो घटा सरकार वहन करती है वह उसके नाकारापन के कारण होता है। वहीं दूसरी ओर किसानों को सरकारी खरीद के कारण भण्डारण और बाजार की उतार-चढ़ाव भरी कीमतों से कुछ हद तक निजात मिलती है।
किस योजना को |
कितने प्रतिशत |
कितने करोड़ रियायत |
अन्त्योदय अन्न योजना |
5.5 प्रतिशत |
1146 |
गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोग |
25.7 प्रतिशत |
5392 |
गरीबी की रेखा के ऊपर रहने वाले लोग |
2.3 प्रतिशत |
488 |
सार्वजनिक वितरण प्रणाली |
33.6 प्रतिशत |
7028 |
परिवहन एवं भण्डारण |
66.4 प्रतिशत |
13915 |
आंकड़ो से स्पष्ट है कि सरकार की रियायत का दो तिहाई हिस्सा तो उसकी अपनी अव्यवस्था की भेंट चढ़ रहा है। और इस रियायत का भार सरकार बजट में दूसरे वर्गों पर करों के रूप में डालती है। व्यवस्था में आये परिवर्तमनों को बड़े ही सकारात्मक अंदाज में पेश किया जाता है। भारतीय खाद्य निगम आज वर्ष में आठ हजार केन्द्रों के जरिये गेहूं और 4000 केन्द्रों के जरिये धान की खरीद करता है। जहां एक ओर 1950 भारत 5 करोड़ टन अनाज का उत्पादन करता था आज वहीं देश में 20 करोड़ टन का उत्पादन होता है। बहरहाल इस तथ्य को पूरी तरह से नजर अंदाज किया जाता हैं कि जहां एक ओर अनाज का उत्पादन पांच दशकों में चार गुना बढ़ा है तो वहीं दूसरी ओर जनसंख्या भी साढ़े तीन गुना बढ़ गई है।
विगत 2 दशकों में सरकारी संस्थाओं में अनाज की उपलब्धता 40 लाख टन से बढ़कर ढाई करोड़ टन हो गई है और खाद्य निगम हर वर्ष कुल गेहूं उत्पादन का 15 से 20 फीसदी और चावल का 12 से 15 फीसदी हिस्सा खरीदता है इस संबंध में यह साफ कर देना उचित है कि सैद्धांतिक रूप से खाद्य निगम की स्थापना केवल गेहूं और चावल खरीदने के लिये नहीं की गई है। बल्कि इसका दायित्व अन्य मोटे अनाजों, ज्वार: बाजरा खरीदने का भी है और वास्तविकता यह है कि चूंकि ये समाज की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली कम लाभ वाली फसलें हैं इसलिये सरकार इनका समर्थन मूल्य तो तय करती है परन्तु खरीदती नहीं है। यही कारण है कि इन फसलों का उत्पादन करने वाले किसानों को सरकार ने मदद न करके उन्हें बाजार के हवाले कर दिया, जहां अब वे मृतप्राय: अवस्था में हैं। ज्वार-बाजरा, कोदो-कुटकी ऐसी फसलें हैं जिनके भरोसे गरीब तबका और छोटे किसान अकाल जैसी विपदाओं से जूझकर अपना अस्तित्व बचा जाते थे। जबसे इन फसलों का विनाश होना शुरू हुआ है तब से समाज में खाद्य असुरक्षा का संगीन वातावरण बनने लगा है और लोग भुखमरी के शिकार होने लगे हैं। यह जानना महत्वपूर्ण है कि मोटे अनाजों की उत्पादन वृद्धि दर अब शून्य के चिंतनीय स्तर पर पहुंच चुकी है।
क्या खरीदती है सरकार?
भारत की विशेषता है कि यहां पर कदम-कदम पर लोगों का रहन-सहन, संस्कृति और खानपान बदल जाता है। और फिर एक प्रदेश का खान-पान सम्बन्धी व्यवहार तो दूसरे शहर से बिल्कुल ही भिन्न होता है। परन्तु सरकार के लिए समुदाय की पारम्परिक विशेषतायें कोई मायने रखती है। यही कारण है कि वह देश के सभी कोनों में बसे लोगों को केवल गेहूं और चावल ही खिलाना चाहती है।
केन्द्रीय समूह खाते में अनाज की उपलब्धता
वर्ष |
गेहूं |
धान |
चावल |
मोटा अनाज |
कुल |
1994-95 |
11.9 |
8.2 |
13.4 |
नकारात्मक |
25.3 |
1995-96 |
12.3 |
6.3 |
9.9 |
- |
22.2 |
1996-97 |
8.2 |
5.5 |
12.2 |
नकारात्मक |
20.4 |
1997-98 |
9.3 |
7.9 |
14.3 |
नकारात्मक |
23.6 |
1998-99 |
12.6 |
6.3 |
11.8 |
नकारात्मक |
24.4 |
1999-2000 |
14.1 |
9.2 |
17.3 |
- |
31.4 |
2000.01 |
16.3 |
11.8 |
19.1 |
नकारात्मक |
35.4 |
2001-02 |
20.6 |
14.7 |
21.2 |
0.3 |
42.1 |
2002-03 |
19.0 |
14.3 |
15.8 |
0.6 |
35.4 |
2003-04 |
15.8 |
16.3 |
22.6 |
0.3 |
39.0 |
इन आंकड़ो से यह तस्वीर जरूर उभरकर आती है कि सरकार ने समाज को मदद करने वाली, खासतौर पर छोटे किसानों और वंचित तबकों की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने वाली फसलों को मदद करना पूरी तरह से बंद कर दिया है। पिछले दस सालों में मोटे अनाजों के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने नकारात्मक रवैया दिखाया है पिछले तीन वर्षों में संगठनों के दबाव के फलस्वरूप नाम मात्र की खरीदी की है जो उसकी कुल खरीदी के एक फीसदी हिस्से के लगभग है। अब से चार साल पहले उड़ीसा राज्य ने महाविनाशकारी समुद्री चक्रवात का सामना किया। इस चक्रवात ने उड़ीसा के बड़े हिस्से में समाज और अधोसंरचना को न केवल जड़ों से हिला दिया बल्कि तहस-नहस भी कर दिया। उस दौर में सरकार ने वहां के तटवर्तीय इलाकों में राहत के रूप में अपने खाद्य भण्डार से भारी मात्रा में वहां गेहूं भेजा था गेहूं उड़ीसा के तटवर्ती इलाकों में परम्परागत खाद्य पदार्थ नहीं है पर लोगों की मजबूरी थी।
संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के अन्तर्गत अनुच्छेद 47 में भी यह स्पष्ट किया गया है कि लोगों के पोषाहार के स्तर पर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोगों के स्वास्थ्य का सुधार करने का कर्तव्य राज्य का है और राज्य इसे अपना प्राथमिक कर्तव्य मानेगा। हालांकि नीति निर्देशक तत्व न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं है, जबकि मूल (बुनियादी) अधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय है। ये निदेश न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं कराये जा सकते हैं और यदि तत्कालीन सरकार इन्हें क्रियान्वित करने में असफल रहती है तो कोई न्यायालय सरकार को बाध्य नहीं कर सकता कि वह इन्हें क्रियान्वित करे। किन्तु यह घोषित किया जा चुका है कि ये सभी तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और जो सरकार जनता के मत पर टिकी है वह राज्य व्यवस्था को आकार देने में इनकी उपेक्षा नहीं कर सकती (डॉ. भीमराव अम्बेडकर)। मूलत: संविधान के निदेशक तत्व देश के सामाजिक-आर्थिक विकास की दिशा को तय करने वाले सिद्धांत हैं भले ही इस आधार पर सरकार को न्यायालय में चुनौती न दी जा सके परन्तु जब बुनियादी अधिकारों का हनन होता है और जीवन के अधिकार पर प्रश्न चिन्ह लगा है तब संविधान के चौथे भाग में दर्ज इन सिद्धांतों को पूर्नपरिभाषित किया जा सकता है। जैसे कि पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज विरूद्ध भारतीय संघ एवं अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल जनहित याचिका के सन्दर्भ में हुआ है।
सूखे और अकाल के दौर में गोदाम भरे होने के बावजूद देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग भुखमरी के शिकार हो रहे थे, सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं हो रहा था तब लोगों के संगठन ने न्यायालय की शरण ली थी। न्यायालय ने माना कि यह बुनियादी अधिकारों के हनन की स्थिति है। इसे परिभाषित करने के लिए न्यायालय के अंतरिम आदेश का अवलोकन सार्थक होगा। 20 अगस्त 2001 को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ''अदालत की चिंता यह देखना है कि गरीब लोग, दरिद्रजन, और समाज के वंचित-कमजोर वर्ग भूख और भुखमरी से पीड़ित न हों। इसे रोकना सरकार का एक प्रमुख दायित्व है, चाहे वह केन्द्र हो या राज्य। इसे सुनिश्चित करना नीति का विषय है, जिसे सरकार पर छोड़ दिया जाये तो बेहतर है। अदालत को बस इससे संतुष्ट होना चाहिए और इसे सुनिश्चित भी करना पड़ सकता है कि जो अन्न भण्डारों में खास कर भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में भरा पड़ा है, वह समुद्र मे डुबोकर या चूहों द्वारा खाया जाकर बर्बाद न किया जाय'' और फिर इसके बाद तो सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारों को एक-एक जनकल्याणकारी योजना के बारे में आदेश देने शुरू कर दिये। स्पष्ट है कि लोगों की खाद्य सुरक्षा का सवाल केवल एक सिद्धांत नहीं बल्कि बुनियादी अधिकार है।
तथ्य यह है कि 1999 से देश के विभिन्न हिस्से गंभीर सूखे और अकाल के संकट से जूझ रहे थे। राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, झारखण्ड, बिहार और आंध्रप्रदेश के ऐसे कई उपेक्षित और आदिवासी गांव थो जहां लोग खाद्यान्न के अभाव में जंगली वनस्पतियां, जंगली फल, घास, बीज और यहां तक की चूहे मारकर अपने भोजन की व्यवस्था कर रहे थे। योजनाओं और राहत कार्यक्रम भ्रष्ट सरकारी तंत्र में उलझ कर दम तोड़ रहे थे। ऐसे में राजस्थान के जन संगठनों ने पीपुल्स यूनियम फॉर सिविल लिबर्टीज के बैनर के तले सर्वोच्च न्यायालय में लोगों को भुखमरी से बचाने के लिये निर्देश देने का आश्वासन किया।
सरकारी रियायत का सवाल
इस सवाल के कई हिस्से हैं, मसलन -
• इस रियायत की सियासत में अनाज का समर्थन मूल्य कौन तय करता है?
• क्या इस रियायत का लाभ सरकार और भारतीय खाद्य निगम लोगों तक पहुंचा पाते हैं।
यह एक अहम सवाल है कि देश में होने वाले उत्पादन की खरीद किस समर्थन मूल्य पर की जायेगी यह आखिर कौन तय करता है? उल्लेखनीय है कि अलग-अलग परिस्थितियों में देश में खाद्य सुरक्षा की स्थिति बनाये रखने के लिये सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि भारतीय खाद्य निगम के भण्डारण में बफर स्टाक के रूप में 1.54 करोड़ (या 154 लाख) टन अनाज हर समय मौजूद रहेगा। विपरीत समय जैसे अकाल या युद्ध के समय इसका उपयोग किया जाता है। इसके साथ ही सरकार अपने केन्द्रीय भण्डार खाते में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से सीधे अनाज खरीद कर भण्डारण करती है। वर्ष 2001-2002 में इस भण्डारण का स्तर 4.21 करोड़ टन तक पहुंच गया था, यानी उस वक्त सरकार के गोदामों में छह करोड़ टन अनाज मौजूद था। बफर स्टाक के अन्तर्गत निगम ने यह मापदण्ड तय किया हुआ है कि किस समय कितना न्यूनतम भण्डारण होना चाहिए -
अनाज |
1 जुलाई |
1 अक्टूबर |
1 जनवरी |
1 अप्रैल |
चावल |
1.0 करोड़ टन |
0.65 करोड़ टन |
0.84 करोड़ टन |
1.16 करोड़ टन |
गेहूं |
1.43 करोड़ टन |
1.16 करोड़ टन |
0.84 करोड़ टन |
0.40 करोड़ टन |
कुल |
2.43 करोड़ टन |
1.81 करोड़ टन |
1.68 करोड़ टन |
1.508 करोड़ टन |
रियायतों का हश्र
सैद्धांतिक रूप से देखा जाये तो सरकार की खाद्य भण्डारण नीति तीन पहलुओं पर आधारित है
1. अनाज के बाजार भावों के उतार-चढ़ाव पर नियंत्रण रखते हुये किसानों को उनकी लागत के अनुरूप न्यूनतम किन्तु बेहतर दाम उपलब्ध कराना।
2. संकट के समय देश में खाद्य सुरक्षा की स्थिति सुनिश्चित करना।
3. जनकल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से गरीब और वंचित तबकों को भोजन उपलब्ध कराना।
स्वाभाविक है कि यह तीनों उद्देश्य रियायत और अतिरिक्त सरकारी निवेश की भूमि पर ही फल-फूल सकते हैं। भारत सरकार अनाज के भण्डारण और समग्र व्यवस्था के लिये भारतीय खाद्य निगम को अनुदान देती है। इस अनुदान के जरिये ही निगम के प्रबन्धन, भण्डार कक्ष, रेलवे परिवहन और अन्य जरूरतें पूरी की जाती हैं। सरकार ने खाद्य निगम को अधिकृत पूंजी के रूप में 2500 करोड़ रुपए और शोधित पूंजी के रूप में 2392.72 करोड़ रुपए दिये हैं। खाद्यान्न की खरीदी के वित्तीय पक्ष का समन्वय भारत सरकार के सहयोग से किया जाता है जबकि निगम को कार्यशील पूंजी भारत के 44 बैंकों के संघ द्वारा उपलब्ध कराई जाती है। भारतीय खाद्य निगम केन्द्रीय भण्डारण खाते के लिये अधिप्राप्ति मूल्य पर किसानों से अनाज खरीदता है और वही अनाज भारत सरकार द्वारा तय किये गये केन्द्रीय वस्तु मूल्य पर उपयोग के लिये जारी करता है। भारत सरकार द्वारा तय केन्द्रीय वस्तु मूल्य निगम द्वारा अनाज के क्रय करने से लेकर उसके प्रबंधन, भण्डारण और वितरण में आई लागत को पूरा नहीं करता है और अधिप्राप्ति मूल्य एवं केन्द्रीय वस्तु मूल्य के बीच के इसी अन्तर को सरकार रियायत देकर पूरी करती है। इस अनाज का उपयोग जन वितरण प्रणाली एवं अन्य योजनाओं में किया जाता है।
सरकार द्वारा निगम को दी गई सब्सिडी |
|
वर्ष |
करोड़ रुपए |
1995-96 |
5325.75 करोड़ |
1996-97 |
6016.73 करोड़ |
1997-98 |
7900.00 करोड़ |
1998-99 |
9049.34 करोड़ |
1999-2000 |
9002.31 करोड़ |
2000-2001 |
11652.0 करोड़ |
2001-2002 |
16724.00 करोड़ |
2002-2003 |
22678.72 करोड़ |
2003-2004 |
23874.04 करोड़ |
अपने आप में यह एक बड़ा आंकड़ा है कि हर साल 35 हजार करोड़ रुपए अलग-अलग खाद्य योजनाओं में लोगों की खाद्य सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के लिये खर्च किये जाते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि इस सब्सिडी में से 66.4 फीसदी राशि केवल अनाज के परिवहन और भण्डारण में ही खर्च हो जाती है। विश्व बैंक (जून 2000) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय खाद्य निगम के भण्डारण में 50 फीसदी अनाज दो वर्ष पुराना, 30 फीसदी अनाज 2 से चार वर्ष पुराना और एक बड़ा हिस्सा 16 वर्ष पुराना है। भण्डारण में 10 से 30 प्रतिशत अनाज अन्तर्राष्ट्रीय गुणवत्ता मानकों के अनुरूप नहीं है। अलग-अलग अध्ययन बताते हैं कि
• खाद्य निगम में भण्डारण बढ़ा है किन्तु भण्डारण तकनीक का आधुनिकीकरण नहीं किया गया है।
• भ्रष्टाचार के जरिये रियायत का दुरूपयोग होता है और अनाज मिलों को बेच दिया जाता है।
• लोगों को तय सरकारी दाम से 10 से 14 प्रतिशत ज्यादा मूल्य देना पड़ता है।
• प्रति वर्ष 10 से 25 फीसदी अनाज निगम की भण्डारण क्षमता के अभाव के कारण खुले आसमान के नीचे रखा जाता है।
• आंकड़ों के मुताबिक राज्य अपने हिस्से के 54 से 70 फीसदी अनाज का ही उठाव करते हैं।
• लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत रियायती मूल्य का 36 फीसदी गेहूं और 31 फीसदी चावल वास्तविक हितग्राहियों तक नहीं पहुंचता है।
निगम की भण्डारण क्षमता (1 जुलाई 2004 को) |
|
स्थाई भण्डारण |
क्षमता |
स्वयं के |
1.285 करोड़ टन |
किराये के |
1.590 करोड़ टन |
कुल |
2.340 करोड़ टन |
अस्थाई भण्डारण |
क्षमता |
स्वयं के |
0.219 करोड़ टन |
किराये के |
0.122 करोड़ टन |
कुल |
0.341 करोड़ टन |
इस बिन्दु में ज्यादातर पक्ष व्यवस्था से जुड़े हुये हैं। भारतीय खाद्य निगम की कुल भण्डारण क्षमता 2.85 करोड़ टन है। इसमें से भी 1.50 करोड़ टन अनाज का भण्डारण निगम के अपने भण्डारों में होता है जबकि 1.18 करोड़ टन अनाज रखने के लिये किराये के ठिकानों का उपयोग किया जाता है। इसी क्षमता में निगम द्वारा प्लास्टिक के कवर से ढंक कर रखे जाने वाला अनाज भी शामिल है। इसके स्पष्ट मायने यह हैं कि भण्डारण की उपयुक्त व्यवस्था के अभाव में 12 से 20 फीसदी अनाज पूरी तरह से बेकार चला जाता है। यह पुन: उल्लेखनीय है कि रियायत का एक बड़ा हिस्सा अनियोजित और राजनीति से प्रेरित व्यवस्था के स्वार्थ के कारण परिवहन में खर्च हो जाता है। निगम अपने विज्ञापनों में दर्ज करता है कि वह अतिरिक्त उत्पादन करने वाले राज्यों से आज उठाकर कम उत्पादन करने वाले राज्यों को भेजता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि किन राज्यों से आज खरीदा जायेगा यह पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित निर्णय होता है। जिस राज्य की किसान लाबी का सरकार पर दबाव होता है, सरकार अनाज की खरीद भी वहीं से करती है। यह आंकड़ा इस बिन्दु को भी स्पष्ट कर सकता है :-
राज्य |
अनाज की मात्रा खरीद |
प्रतिशत |
पंजाब |
14619000 टन |
47 प्रतिशत |
हरियाणा |
4856000 टन |
15 प्रतिशत |
आंध्रप्रदेश |
5498000 टन |
18 प्रतिशत |
अन्य राज्य |
6414000 टन |
20 प्रतिशत |
कुल |
313879000 टन |
100 प्रतिशत |
कितना परिवहन |
||
वर्ष |
कुल अनाज |
|
1996-97 |
2.48 करोड़ टन |
|
1997-98 |
2.02 करोड़ टन |
|
1998-99 |
2.02 करोड़ टन |
|
1999-2000 |
2.28 करोड़ टन |
|
2000-01 |
1.65 करोड़ टन |
|
2001-02 |
2.08 करोड़ टन |
|
2002-03 |
2.50 करोड़ टन |
|
2003-04 |
2.99 करोड़ टन |
पंजाब और हरियाणा के कृषि उद्योगपति (उन्हें किसान कहना अब वाजिब नहीं है) हमेशा से भारत सरकार पर हावी रहे हैं, जबकि आंध्र प्रदेश की सरकार 1998 के बाद बड़े दबाव समूह के रूप में उभरी है। इतना ही सरकार ने पंजाब के किसानों को गेहूं-चावल की उपलब्धता के लिए 8400 करोड़ और आंध्रप्रदेश के किसानों को 4500 करोड़ रुपए की विशेष मदद का भुगतान किया। अब यदि हम यह मानते हैं कि भारत में केवल पंजाब, हरियाणा और आंध्रप्रदेश ही ज्यादा उत्पादन करने वाले राज्य हैं और बाकी सब अनुग्रह के आकांक्षी है तो यह धारणा समय रहते दुरूस्त कर ली जानी चाहिए। जब इस तरह भारतीय खाद्य निगम केन्द्रीकृत खरीद करता है तो स्वाभाविक है कि उसे परिवहन की मद में बहुत ज्यादा व्यय करना पड़ेगा। भारतीय खाद्य निगम हर साल लगभग 2.2 करोड़ टन अनाज औसतन 1500 किलोमीटर परिवहन करता हे। केवल गेहूं और चावल की खरीद करने की नीति के कारण निगम को उत्तरी भारत के राज्यों से ज्यादा खरीद करना पड़ती है। निगम हर रोज औसतन 4 लाख अनाज बैग का रेल, सड़क और जलमार्ग से परिवहन करता है। जिस पर साल में 14 से 16 हजार करोड़ रुपए की रियायत का व्यय होता है। परिवहन पर व्यय का पक्ष नकारात्मक इसलिये हो जाता है क्योंकि सरकार अभी भी विकेन्द्रीकृत खरीद की व्यवस्था को नहीं अपना रही है और एक राज्य में दूसरे राज्य का अनाज भेजा जाता है जिससे लागत बढ़ती है।
मूल्य की राजनीति
बाजार से सरकार किस मूल्य पर खाद्यान्न खरीदेगी इस मूल्य के निर्धारण की प्रक्रिया भी समग्र रूप से राजनैतिक अर्थशास्त्र से प्रेरित है। भारत में अनाज का मूल्य निर्धारित करने का दायित्व कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (एग्रीकल्चर कास्ट्स एण्ड प्राईसेस) को सौंपा गया है। यह दायित्व निभाते समय आयोग व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को नैतिक आधार बनाता है।
• यह सुनिश्चित करना कि उत्पादकों को उनकी फसल का गुणवत्ता के अनुरूप उचित मूल्य मिले।
• उत्पादन की लागत कितनी है?
• उपभोक्ताओं की स्थिति और अपेक्षाएं
देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता (कि.ग्रा.) |
|||
वर्ष |
अनाज |
दलहन |
कुल खाद्यान्न |
1989-92 |
159.3 |
14.2 |
173.5 |
1982-95 |
156.5 |
13.6 |
170.1 |
1985-98 |
156.6 |
12.7 |
169.3 |
1998-2001 |
148.1 |
11.8 |
159.9 |
परन्तु सच्चाई यह है कि खाद्यान्न के मूल्य का निर्धारण मूलत: सरकार द्वारा किया जाता है। यह मूल्य आयोग द्वारा निर्धारित किये गये मूल्य से कहीं ज्यादा होता है, क्योंकि सरकार कोई अमूर्त संरचना नहीं है वह एक राजनैतिक दल, राजनैतिक हित और विचारधारा के अधीन सत्ता चलाने वाली व्यवस्था है। हमें यह ध्यान देना होगा कि पिछले वर्षों में खाद्यान्न के घरेलू उपभोग के औसत में काफी कमी आई है। वास्तव में देश में खाद्यान्न उपयोग की जो स्थिति उभर रही है वह सरकार की असमान नीतियों के प्रभाव का परिणाम है। खाद्यान्न के प्रति व्यक्ति उपभोग की मात्रा में गिरावट के रहस्य का उद्घाटन नेशनल सैम्पल सर्वे के आंकड़ों से होता है। उन आंकड़ों से पता चलता है कि 1970 एवं 1980 के दशकों में जब प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही थी उस समय 0.5 प्रतिशत की दर से खाद्यान्न उपभोग में कमी आ रही थी। 1980 के दशक में ही देश के अधिकांश हिस्सों में खाद्यान्न की उपलब्धता के स्तर पर भी आंकड़ों के उतार-चढ़ाव को समझने की जरूरत है। स्वतंत्रता के बाद जब हम यह बार-बार दावा करते हैं कि देश में अनाज का उत्पादन कई गुना बढ़ गया है तो फिर प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता और उपभोग कम क्यों हो रहा है, यह खोजबीन करने की हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
लोगों तक खाद्यान्न न पहुंचने के छह कारण हैं -
• मोटे अनाज की पैदावार में कमी
• लाभ वाली नकद फसलों को बढ़ावा
• दलहन की पैदावार में नकारात्मक रूख
• जनसंख्या
• मोटे अनाज का उपयोग बढ़ना
• भारतीय खाद्य निगम के भण्डारों में अनाज का जमा होते जाना और क्रय क्षमता के बढ़ते अभाव में गरीबों द्वारा उसे न खरीद पाना।
पिछले 25 वर्षों में सरकार ने अनाज के समर्थन मूल्य में लगातार वृद्धि की है। हालांकि ऐसी वृद्धि करके सरकार अपना घाटा कम करने की कोशिश करती है, तो वही दूसरी और बड़े उद्योगपतियों द्वारा हजम किये गये डेढ़ लाख करोड़ रुपए के डूबते खाते में डाल रही हैं पिछले दो-ढाई दशकों में समर्थन मूल्य में लगभग साढ़े पांच गुना बढ़ोतरी हुई है और जिसका भार सीधे-सीधे गरीब और वंचित वर्गों पर पड़ा है जिन्हें मिलने वाली रियायत को सरकार ने कम किया है। इस दौरान धान का समर्थन मूल्य 105 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़कर 580 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया, वहीं दूसरी ओर गेहूं का मूल्य भी 117 रुपए से बढ़कर 630 रुपए प्रति क्विंटल हो गया। इस वृद्धि को राजनैतिक नजरिये से देखा जाना चाहिए। हालांकि सरकार का यह दावा रहा है कि कृषि के बीच के अंतर को उचित बनाये रखने की कोशिश कर रही है। आंकड़ों का विश्लेषण करने से यह जरूर पता चलता है कि सरकार ने हमेशा किसानों को (बड़े और समपन्न किसानों) को समर्थन मूल्य के रूप में खुले बाजार से कहीं अधिक फायदा दिया है और समर्थन मूल्य बाजार मूल्य से ज्यादा तय किये जाते रहे हैं।
वर्ष |
समर्थन मूल्य सूचकांक (धान एवं गेहूं का) |
बाजार मूल्य सूचकांक (धान एवं गेहूं के बाजार मूल्य से संबद्ध) |
सामान्य मूल्य सूचकांक (उपभोक्ता वस्तुओं का औसत) |
1980-81 |
100 |
100 |
100 |
1990-91 |
193 |
179 |
185 |
1991-92 |
225 |
216 |
218 |
1992-93 |
161 |
242 |
235 |
1993-94 |
296 |
261 |
251 |
1994-95 |
314 |
293 |
283 |
1995-96 |
333 |
313 |
304 |
1996-97 |
375 |
354 |
379 |
1997-98 |
406 |
363 |
340 |
1998-99 |
455 |
384 |
379 |
समर्थन मूल्य में वृद्धि के विरोध को इस नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए कि यह किसानों के विरोध की बात है। बल्कि इस राजनीति को भली-भांति समझ लेना होगा कि रियायत (सब्सिडी) के नाम पर वास्तव में छोटे और सीमांत किसानों को छला जा रहा है। इन किसानों के पास इतने संसाधन और सुविधायें ही नहीं हैं कि वे अपनी फसल को ऐसे स्थान और समय पर बेंच सकें जहां उन्हे समर्थन मूल्य का लाभ मिले। भारत में 83 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान हैं जिन्हें फसल के बाद तत्काल आर्थिक सहयोग की जरूरत होती है, ऐसे में उन्हें मजबूरी में अपने खेत में ही फसल गांव या क्षेत्र के सम्पन्न किसानों को बेच देना पड़ती है। अगर वास्तव में सरकार किसानों का हित सोच रही है तो आंध्रप्रदेश में पिछले पांच सालों से किसान लगातार आत्महत्या क्यों कर रहे हैं और पंजाब में किसान अपनी जमीने क्यों बेच रहे हैं इसका जवाब ढूंढा जाना चाहिए। इस मुद्दे पर चर्चा करते समय हमें उस समीकरण पर भी नजर डालना होगी जिससे यह पता चलता है कि समर्थन मूल्य और सब्सिडी की राजनीति से समाज में खाद्य असुरक्षा और असमान आपूर्ति का दुष्चक्र तेजी से अपना दायरा फैलाता जा रहा है।
खाद्य व्यवस्था का दुष्चक्र
दुष्चक्र का पहला चरण - • सरकार देश की खाद्य सुरक्षा और कृषि क्षेत्र को मदद देने के लिए समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदती है। इस खाद्यान्न का उपयोग सार्वजनिक वितरण और जनकल्याणकारी योजनाओं के जरिये 35 करोड़ गरीब एवं वंचितों तक खाद्यान्न का लाभ पहुंचने के लिये किया जाता है। गरीबों को यह राशन रियायती मूल्य पर मिलता है।
दुष्चक्र का दूसरा चरण -
• देश में उत्पादन बढ़ता तो अनाज की खरीद भी बढ़ती है और भारतीय खाद्य निगम के भण्डारों में वृद्धि होती है।
दुष्चक्र का तीसरा चरण -
• भण्डारण में वृद्धि होने के कारण खाद्य निगम की भण्डारण एवं प्रबंधन लागत में भी वृद्धि होती है। सरकार को इस पर रोज 30 से 45 करोड़ रुपए खर्च करना पड़ते है।
दुष्चक्र का चौथा चरण -
• इस बढ़ती लागत का भार सरकार पर पड़ता है और खर्च में वृद्धि होती है।
दुष्चक्र का पांचवा चरण -
• सरकार पर सब्सिडी कम करने का अन्तर्राष्ट्रीय और स्थानीय बाजार का दबाव रहता है। तब सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली है राशन का बिक्री मूल्य बढ़ाती है। अब तक सरकार ने एक बार भी इस मूल्य में कमी नहीं की है।
दुष्चक्र का छठवां चरण -
• सरकार तो दाम बढा देती है पर गरीबों की क्रय क्षमता कम होने के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली की बिक्री कम होती पाती है। स्वाभाविक है कि गरीबी का स्तर समान्तर रूप से बढ़ता जाता है।
दुष्चक्र का सातवां चरण -
• जनकल्याणकारी योजनाओं के जरिये निगम से अनाज का उठाव तो कम होता जाता है परन्तु सरकार अपनी खरीद को जारी रखती है और समर्थन मूल्य साल-दर-साल बढ़ता रहता है। यह व्यवस्था गरीबों और जनकल्याण की अवधारणा के बीच की खाई को इतना बढ़ा रही है जिसे पाटना असंभव हो जायेगा और इसके बाद दूसरे चरण से यह प्रक्रिया फिर शुरू हो जाती है और निरन्तर चलती रहती है।
/articles/bhaukhamarai-kae-daaura-maen-khaadayaanana-sabasaidai-kai-hakaikata