भारत में “हरित क्रान्ति” की शुरुआत से अर्थात 1960 से ही कृषि उत्पादन हेतु बड़ी मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग प्रारम्भ किया गया। खेती का यह मॉडल तथा विभिन्न केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा रासायनिक उर्वरकों तथा इसकी फ़ैक्ट्रियों को दी जाने वाली सब्सिडी की वजह से देश के अधिकतर भागों में कृषि कार्य हेतु रसायनों का भारी मात्रा में उपयोग हुआ। उर्वरकों के इस अंधाधुंध उपयोग की वजह से जहाँ एक तरफ़ पर्यावरण को काफ़ी नुकसान पहुँचा, वहीं दूसरी तरफ़ प्राकृतिक संसाधनों, जल और मिट्टी के साथ-साथ यह खतरा अब मानव जीवन पर भी मंडराने लगा है। “ग्रीनपीस” की भारतीय शाखा ने नाईट्रेट से भूजल पर प्रभाव पर एक रिपोर्ट तैयार की है।
अंतर्राष्ट्रीय संस्था “ग्रीनपीस” द्वारा विभिन्न रिसर्च प्रयोगशालाओं में हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक सिंथेटिक नाईट्रोजन उर्वरकों के भारी उपयोग के कारण पंजाब के कम से कम तीन जिलों का भूजल नाईट्रेट से प्रभावित हो चुका है। यह अध्ययन लुधियाना, मुक्तसर और भटिण्डा जिलों में औसतन 160 फ़ुट गहरे भूजल पर किया गया। अध्ययन में पाया गया कि 20 प्रतिशत से अधिक बोरवेल के पानी में नाईट्रेट की मात्रा 50 mg/l की सुरक्षित मात्रा से काफ़ी अधिक है। नाईट्रेट का यह प्रदूषण सीधे-सीधे नाईट्रोजन उर्वरकों के उपयोग की अधिकता की ओर इशारा करता है। WHO की अन्य रिपोर्टों के अनुसार खेतों में जितना अधिक यूरिया का इस्तेमाल किया जायेगा, भूजल में नाईट्रेट की मात्रा उसी अनुपात में बढ़ती जायेगी।
पीने के पानी में नाईट्रेट की अधिक मात्रा पाये जाने से मानव जीवन को गम्भीर खतरों का सामना करना पड़ता है, विशेषकर दुधमुँहे और छोटे बच्चों को। पेयजल में नाईट्रेट की अधिक मात्रा से होने वाली प्रमुख बीमारी है “ब्लू-बेबी सिण्ड्रोम” (Methemoglobinemia) और कैंसर। इस खतरे के बावजूद अधिक दुख की बात यह है कि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से कृषि का उत्पादन जितना बढ़ सकता था, बढ़ चुका। उलटे अब मिट्टी की क्षमता समाप्त होने की वजह से कृषि उत्पादन में कमी भी आने लगी है। किसानों के परिवार नाईट्रेट युक्त पानी पीने से बीमार होने लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ मिट्टी की उत्पादन क्षमता घट रही है। इन इलाकों में स्थिति बद से बदतर होती जा रही है और जल्दी ही इस दिशा में सरकारों और किसानों को कदम उठाने होंगे, ताकि खेती के लिये समृद्ध माने जाने वाले इस क्षेत्र में हालात विस्फ़ोटक होने से बच जायें। इस हेतु तुरन्त उपाय प्राकृतिक खाद और ईको-फ़्रेण्डली उर्वरकों का उपयोग करना ही है। पर्याप्त खाद्य सुरक्षा और मानव स्वास्थ्य ठीक रखने के लिये प्राकृतिक उपाय बेहद जरूरी हैं। खतरे से बचाव के लिये अब शोध, उचित नीतियाँ और राजनैतिक इच्छाशक्ति की सख्त जरूरत है।
ग्रीनपीस के इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने तीनों जिलों के कुँओं, बोरवेल और नहरों के पानी का परीक्षण किया, विशेषकर गेहूँ और चावल के खेतों के आसपास। शहरी क्षेत्रों में नाइट्रेट प्रदूषण मुख्यतः सीवेज के गंदे पानी का भूजल में मिलना और ग्रामीण कृषि क्षेत्रों में नाईट्रोजन उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण। अध्ययन के दौरान 50 बोरवेल में से 10 में (अर्थात 20%) तथा चार जिलों के 18 गाँवों में से 8 गाँवों का (अर्थात 44%) भूजल नाईट्रेट से प्रदूषित पाया गया, यहाँ पानी में नाइट्रेट की मात्रा सुरक्षित स्तर से बहुत अधिक पाई गई। प्रस्तुत ग्राफ़ से स्पष्ट है कि नाइट्रेट की यह मात्रा सिंथेटिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग की वजह से हुई है।(ग्राफ देखने के लिए अंग्रेजी मूल देखें) इसी प्रकार पेयजल में भी यह नाइट्रेट की मात्रा मानक स्तर से अधिक पाई गई। फ़र्टिलाइज़र असोसियेशन ऑफ़ पंजाब के अनुसार सन् 2006-07 में नाईट्रोजन युक्त उर्वरकों के छिड़काव की मात्रा प्रति हेक्टेयर 210 किलो थी, जबकि ग्रीनपीस द्वारा 50 किसानों पर किये गये अध्ययन के अनुसार यह मात्रा बहुत अधिक अर्थात 322 किलो प्रति हेक्टेयर पाई गई, जबकि सामान्य परिस्थितियों में किसी भी फ़सल के लिये 100 किलो प्रति हेक्टेयर की नाइट्रोजन खाद पर्याप्त होती है। वैज्ञानिक शोधों से यह भी स्पष्ट हुआ है कि इस 100 किलो रासायनिक खाद को भी यदि ऑर्गेनिक उर्वरकों और प्राकृतिक खाद के साथ मिलाकर डाला जाये तो परिणाम और भी अच्छे आते हैं तथा मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बढ़ती है, लेकिन नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने हालत खराब कर दी है।
सामान्यतः माना जाता है कि ज़मीन के भीतर गहरे पाया गया पानी अधिक साफ़ और कम रासायनिक प्रदूषित होता है। पंजाब के इस इलाके में भी भूजल काफ़ी गहरे जा चुका है, और यह भी एक चिंता का विषय है। क्योंकि जब काफ़ी नीचे स्थित पानी भी नाइट्रेट से प्रदूषित मिलना शुरु हो चुका है तब आसानी से सोचा जा सकता है कि स्थिति कितनी गम्भीर है।
नाइट्रेट प्रदूषित जल के दुष्प्रभाव :-
जैसा कि शोधों से ज्ञात हो चुका है कि पेयजल और कृषि उत्पादों में नाइट्रेट का स्तर नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के अधिक प्रयोग की वजह से बढ़ता है। नाइट्रोजन युक्त उर्वरक का बड़ा हिस्सा पौधों द्वारा अवशोषित नहीं किया जाता, और यह मिट्टी की ऊपरी सतह पर ही रह जाता है, और यहाँ से वह पर्यावरण, जलस्रोतों, भूजल, नदियों-नहरों में जाता है और पानी को संक्रमणयुक्त बनाता है। खेतों में काम कर रहे किसानों और मजदूरों के छोटे-छोटे बच्चे इन खेतों के आसपास बने कुंओं से पानी पीते हैं और नाइट्रेट प्रभावित हो जाते हैं। धीरे-धीरे पेयजल और सब्जियों आदि के जरिये नाइट्रेट की अधिक मात्रा बच्चों के शरीर में चली जाती है और ब्लू-बेबी सिण्ड्रोम तथा कैंसर जैसी घातक बीमारियों का कारण बनती है।
ब्लू-बेबी-सिण्ड्रोम :
नाइट्रेट प्रदूषित पानी पीने से चार माह की आयु तक के बच्चे ब्लू-बेबी सिण्ड्रोम बीमारी से ग्रस्त होने की सम्भावना सबसे अधिक होती है। इस बीमारी में बच्चे को सिरदर्द, चक्कर आना, सायनोसिस, कोमा अथवा मौत भी हो सकती है। सन् 1945 से अब तक लगभग 3000 से अधिक बच्चों में ब्लू-बेबी सिण्ड्रोम की बीमारी पाई गई है, जिसमें से सभी बच्चे खेतों के आसपास स्थित नाईट्रेट प्रदूषित कुओं से पानी पीने की वजह से बीमार पाये गये हैं, इन सभी कुओं में नाइट्रेट का स्तर 50 mg/l के मानक से काफ़ी अधिक था। अधिकतर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि ब्लू-बेबी सिण्ड्रोम नामक बीमारी कई बार डॉक्टरों द्वारा सही तरीके से पहचानी नहीं जाती।
कैंसर –
पेयजल तथा खाद्य पदार्थों में नाइट्रेट की मौजूदगी से दूसरा सबसे बड़ा खतरा आँतों के कैंसर का होता है। कई मामलों में यह Lymphoma तथा Bladder और गर्भाशय कैंसर के रूप में भी विकसित हो जाता है। नाइट्रेट और कैंसर के बीच सम्बन्ध इसलिये होता है, क्योंकि पेट और भोजन पचाने वाली आँत से निकलने वाले N-Nitroso कम्पाउण्ड को पानी में मौजूद नाइट्रेट अतिरिक्त नाइट्रोजन की आपूर्ति करता है। ये नाईट्रोअमीन सामान्यतः पशुओं और मनुष्य में “कार्सिनोजेनिक” प्रभाव को बढ़ाने में मदद करते हैं जो कि कैंसर का मुख्य कारक है। कुछ शोधों में तो यह भी पाया गया है कि नाइट्रेट की मानक मात्रा 50 mg/l से कम ग्रस्त पेयजल को भी लगातार कई वर्षों तक पीने से भी कैंसर के कई मरीज पाये गए हैं। उदाहरण के लिये अमेरिका के आयोवा प्रांत में पानी में नाइट्रेट का स्तर WHO के मान स्तर से कम है, लेकिन फ़िर भी वर्षों तक व्यक्तिगत कुओं और म्युनिसिपल पानी पीने की वजह से यहाँ की महिलाओं में ब्लैडर और गर्भाशय के कैंसर का प्रतिशत काफ़ी अधिक है। लगभग ऐसा ही शोध ताईवान में भी सामने आया है जहाँ नाइट्रेट युक्त पानी पीने से ब्लैडर कैंसर के मरीज बढ़े हैं।
निष्कर्ष और सुझाव –
रासायनिक उर्वरकों के कारण दिनोंदिन हमारे खाद्य पदार्थों और पेयजल तथा ज़मीन-मिट्टी की स्थिति खराब होती जा रही है, जिसका मुख्य कारण इन्हें मिलने वाली सरकारी सब्सिडी है… अतः ग्रीनपीस संस्था माँग करती है कि –
1) सरकार को बजट एवं अन्य स्रोतों के जरिये प्राकृतिक उर्वरकों और ईकोलॉजिकल खेती के तौरतरीकों को भी सब्सिडी देना चाहिये ताकि मिट्टी में ऑर्गेनिक तत्वों की बढ़ोतरी की जा सके, जिससे मिट्टी की क्षमता में भी वृद्धि होगी।
2) रासायनिक उर्वरक उद्योगों तथा खेतों में रसायनयुक्त छिड़काव को हतोत्साहित करने के लिये सब्सिडी नीति पर पुनर्विचार होना चाहिये। ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा मिलना चाहिये।
3) वैज्ञानिकों एवं रिसर्च लेबोरेटरियों द्वारा पर्यावरण-मित्र खेती के नये-नये तरीके और आविष्कार किये जाने चाहिये, जो छोटे किसानों की हितैषी हों।
इन उपायों को लागू करने पर ही आने वाली पीढ़ियों के लिये सुरक्षित और स्वस्थ खाद्य व्यवस्था तथा साफ़ पेयजल का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकेगा।
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