अपने चारों ओर के परिवेश को हमने इस कदर छेड़ा है कि बात अगर पर्यावरण की उठती हैं तो प्रदूषण का सवाल अपने आप ही आगे आ जाता है। चारों ओर सुनी जाने वाली यह ऐसी ‘बेताल पचीशी' है, जिसमें लाशों को ढोने वाला कोई एक विक्रम नहीं बल्कि हम सभी हैं। और सही उत्तर की प्रतीक्षा में वेताल हमारे साथ-साथ भी चल रहा है। बात प्रदूषण की उठे, तो लोग सामाजिक, सांस्कृतिक या भाषायी प्रदूषण की बात भी करते हैं। सामाजिक मान्यताओं को झकझोरने वाले व्यवहारिक प्रदूषण के दायरों का तो कोई आकलन नहीं। किंतु पर्यावरण प्रदूषण का क्षेत्र आज बढ़ता ही जा रहा है।
प्रदूषण क्या है?
पर्यावरण के किसी भी तत्व में होने वाला अवांछनीय परिवर्तन, जिससे जीव जगत् पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. प्रदूषण कहलाता है। पर्यावरण प्रदूषण में मानव की विकास प्रक्रिया तथा आधुनिकता का महत्वपूर्ण योगदान है। यहां तक मानव की वह सामान्य गतिविधियां भी प्रदूषण कहलाती हैं, जिनसे नकारात्मक फल मिलते हैं। परंपरागत रूप से प्रदूषण में वायु, जल, ध्वनि, जमीन, मृदा, प्राणीजगत्, रासायनिक, रेडियोधर्मिता आदि आते हैं। यदि इनका वैश्विक स्तर पर विश्लेषण किया जाए तो इसमें प्रकाश आदि का प्रदूषण भी सम्मिलित हो जाता है। गंभीर प्रदूषण उत्पन्न करने वाले मुख्य स्रोत हैं, रासायनिक उद्योग, तेल रिफाइनरीज, आणविक केंद्र, कूड़ा घर, प्लास्टिक उद्योग, कार उद्योग, पशु गृह, दाहगृह आदि। आण्विक संस्थान, तेल टैंक, दुर्घटना होने पर बहुत गंभीर प्रदूषण पैदा करते हैं। प्रदूषण विभिन्न प्रकार की बीमारियों को जन्म देते हैं जैसे कैंसर, अलर्जी, अस्थमा, प्रतिरोधक बीमारियां आदि ।
मानव एवं सभी प्रकार के जीवन में हलचल मचाने वाली समस्या और प्रदूषण के व्यापक प्रभाव वाले क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
- जल प्रदूषण
- वायु प्रदूषण
- ध्वनि प्रदूषण
- जमीन एवं मृदा प्रदूषण
- लुप्तप्राय प्राणी एवं जंतुओं का संकट
जल प्रदूषण
'जल ही जीवन है' वाली कहावत और इसकी सच्चाई में अगर हम विश्वास करते हों तो जलीय पर्यावरण की पवित्रता का दायित्व भी हमारा ही है। पिछले दशकों में विश्व की जनसंख्या में हुई भारी वृद्धि, शहरी जीवन जीने की ललक तथा विकास के नाम पर जल में बहाई जाने वाली गंदी नालियों को साफ करने की जिम्मेदारी सरकार पर छोड़कर निश्चिंत हो लेते हैं। नतीजन, समुद्री जल का बहुत बड़ा भाग और विश्व की लगभग सभी नदियां आज जीव-संसार के लिए जीवन की तरलता नहीं बल्कि मौत की कठोरता लेकर बह रही हैं। भारत में अगर आप कानपुर, इलाहाबाद वाराणसी या पटना जैसी लाखों की आबादी वाले शहर के निवासी होते तो क्या हमारा मन गंगा स्नान के लिए तरसेगा?
दिल्ली, आगरा या मथुरा जैसी जगहों पर अगर यमुना नदी को देख लें तो आप क्या विश्वास कर पाएंगे कि पुरातन काल से ही नदियों की प्रशंसा करने वाले भारत के निवासियों ने ही पावन यमुना, गंगा की ऐसी दुर्दशा की है? किसी भी जल में जीवन की संभावना होने के लिए उसमें घुले ऑक्सीजन की कम से कम मात्रा 5 मिलीग्राम लीटर होनी चाहिए, जबकि दिल्ली में किए गए एक नमूना परीक्षण के दौरान कई जगहों पर यमुना के जल में ऑक्सीजन पाया ही नहीं गया। वायुमंडलीय प्रदूषण या पर्वतीय पर्यटकों द्वारा फैलाई जाने वाली गंदगी का असर यह है कि पतित पावनी गंगा या यमुना नदी का उद्गम स्थल ही अत्यधिक प्रदूषित हो चुका है।
तैलीय रिसाव, विषैले रसायनों तथा रासायनिक एवं परमाणु कचरों के छोड़े जाने से समुद्र भी अब प्रदूषित हो रहा है। सागर में रहने वाली मछलियां तथा अन्य कई दुर्लभ जीवों का जीवन संकट से गुजर रहा है। समुद्री प्रदूषण फैलाने में विकसित राष्ट्र सबसे अग्रणी हैं। भूगर्भीय जल का अत्यधिक दोहन तथा प्रदूषण भी विश्व के अधिकांश देशों के लिए एक भयंकर समस्या है। पेय जल या सिंचाई के लिए निकाले गए भूमिगत जल की उच्च दर ने भूगर्भीय जल स्तर को काफी नीचे ले जाकर मरुस्थलीकरण की संभावना को बढावा दिया है। रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का कृषि में अत्यधिक प्रयोग, स्थलीय एवं भूगर्भीय जल को सीधे तौर पर प्रदूषित करता है।
वायु प्रदूषण
'हानिकारक गैसों, अतिसूक्ष्म धूलीकण या सूक्ष्मरुप से विसर्जित तरल पदार्थों का वायुमंडल में उसके मापदंडों की दर से ज्यादा मात्रा में छोड़ा जाना वायु प्रदूषण कहलाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण एक ऐसी स्थिति है, जिसके बाह्य वातावरण में मनुष्य और उसके पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले तत्व सघन रूप में एकत्रित हो जाते हैं। मानवीय छेड़छाड़ या प्राकृतिक घटनाओं के आधार पर इसका विस्तार स्थानीय, क्षेत्रीय, महादेशीय अथवा वैश्विक रूप में हो सकता है। कैंसर, अस्थमा और सांस की अन्य बीमारियां वायु प्रदूषण की देन है। अम्लीय वर्षा से ऐतिहासिक इमारतों और मूर्तियों का क्षय फसल एवं जंगलों की बर्बादी या जलीय प्रदूषण के लिए वायु प्रदूषण जिम्मेदार है।
अम्लीय वर्षा के लिए तो करें कोई और भुगते कोई और वाली कहावत चरितार्थ है। किसी एक जगह पर कारखानों या मोटरगाडियों से निकला धुंआ, दूसरे जगह गंधकाम्ल या नाईट्रिक अम्ल की वर्षा के रूप में पेड़-पौधों, ताजमहल, वेरुल, अंजता जैसी धरोहर पर बरस कर अपना कहर बरपा रहा है। महानगरों में बीत रही आपकी जिंदगी की हर सांस मौत का सुर सुनाती है।
हालात यही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब बाजार से शुद्ध ऑक्सीजन का पैकेट लेकर हम सांस लेते फिरेंगे। कुछ वर्ष पूर्व क्या हम यह सोचते थे कि पानी खरीद कर पीना पड़ेगा? ऐसा अनुमान है कि प्रकृति ने वायुमंडल की दूसरी परत में ओजोन गैसों के रूप में जो सुरक्षात्मक आवरण दिया है उसका दस प्रतिशत इस सदी के अंत तक नष्ट हो जाएगा। पिछले 40 वर्षो में पृथ्वी के वायुमंडलीय तापमान में 2 से 3 डिग्री की वृद्धि दर्ज की जा चुकी हैं और ऐसा अनुमान है कि अगले कुछ वर्षों में यह तापवृद्धि 4 से 5 डिग्री तक हो सकती है। 'ग्लोबल वार्मिंग का यह पहलू इसलिए अतिमहत्वपूर्ण है कि इतनी तापवृद्धि से पृथ्वी का सूक्ष्म तापीय समीकरण बिगड़ेगा और यह जैविक संतुलन की स्थायी रचना को छिन्न-भिन्न कर देगा। उदाहरणस्वरूप, ध्रुवों पर स्थायी रूप से जमी बर्फ पिघलेगी, समुद्रतल ऊंचा उठेगा और समुद्रतटीय शहर या महानगर जलमग्न हो जाएंगे।
ध्वनि प्रदूषण
शहरी या औद्योगिक संस्कृति की एक अनचाही देन ध्वनि प्रदूषण है। मनुष्य या जानवरों को मानसिक या शारीरिक रूप से आघात पहुंचाने वाली किसी भी प्रकार के अनचाही और हानिकारक आवाज़ से संपर्क ध्वनि प्रदूषण कहलाता है। मात्रात्मक रूप में ध्वनि प्रदूषण को उसके दबाव, उच्चता अथवा तारत्व के आधार पर डेसिवेल इकाई में मापा जाता है। ध्वनि प्रदूषण का गुणात्मक स्वरूप का संबंध भाषाई समझ अथवा ध्वनि की कर्णप्रियता से है।
आप अगर हिंदी भाषी हैं और कोई चीनी या जापानी में बात करने लगे तो आप अपना सिर पीट लेंगे, हिंदुस्तानी अथवा कर्नाटकी शास्त्रीय संगीत के लिए आप अगर स्नेहभाव नहीं रखते तो पंडित भीमसेन जोशी के बाद स्वर भी आपको कर्णकटु लगेंगे। शादी के कुछ वर्ष आप अगर गुजार चुके हों, तो कभी संगीत जैसी मधुर तान सुनाई देने वाली पत्नी की बोली में आपको उच्च डेसीबेल स्तर के ध्वनि प्रदूषण की गुणात्मक झलक मिल जाएगी। किसी भी प्रकार के ध्वनि का मान अगर 50 डेसीबेल से ऊपर हो जाए तो मानवीय स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उसे ध्वनि प्रदूषण की स्थिति समझी जाती है। व्यस्त यातायात या कारखानों से निकली आवाज़ 90 डेसीबेल स्तर की होती है। इस स्तर की ध्वनि का लगातार सुना जाना कान के श्रवण तंत्र को असंवेदनशील बना देता है और व्यक्ति बहरा भी हो सकता है। उच्च ध्वनि स्तर वाले स्थानों पर काम करने वाले लोगों में अनिद्रा, कमजोर श्रवण शक्ति, उच्च रक्तचाप संबंधी बीमारियां पाई जाती है। औद्योगिकीकरण से उपजी इस बला को कम शोर करने वाली मशीनों का प्रयोग, कार्यस्थल पर इयरप्लग जैसी ध्वनिरोधक यंत्रों का इस्तेमाल तथा दीवार में ध्वनि शोषक पदार्थों का उपयोग कर काफी हद तक टाला जा सकता है।
जमीन और मृदा प्रदूषण
समाज के विकास को थोड़ा पीछे की ओर मुड़कर देखें तो कुछ दशक पूर्व जमीन प्रदूषण का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था। औद्योगिक कचरों तथा प्लास्टिक कहे जाने चमत्कारिक वैज्ञानिक खोज ने अपना यह जलवा दिखलाया है कि शहर में ही नहीं आज गांव में भी आप चले जाएं तो जमीन प्रदूषण की समस्या दिखाई देगी।
टीन के डब्बे, प्लास्टिक, कागज, शीशे की बनी छोटी वस्तुओं से लेकर लोहे की बनी कार या ट्रक तक के कचरों का एक स्थान पर जमाव या बिखराव ने भूमि प्रदूषण कर जो दृश्य उत्पन्न किया है उसे देखकर निश्वय ही आप परेशान हो जाएंगे। वैसे सभी वस्तुएं जिनका कार्बनिक या अकार्बनिक तरीके से सरल तत्वों में शीघ्र क्षय नहीं हो सकता, वह भूमि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। भूमि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार तत्वों के पुनर्नवीकरण के बजाए कोई भी तरीका पर्यावरण संरक्षण के लिए उपयुक्त नहीं समुद्र में इन कचरों को डालने पर जलीय प्रदूषण के साथ-साथ समुद्री जीवों का आवास नष्ट होता है जबकि जमीन पर जो ज्यादातर दलदली भाग होते हैं छोड़ने से उनमें रहने वाले विशिष्ट किस्म के जीवों का जीवन खतरे में आ जाता है।
जमीन प्रदूषण से मिलता जुलता एक अन्य विकार जो शायद उससे कहीं घातक है, वह है मृदा प्रदूषण हरित क्रांति या उन्नत पैदावार के लिए अपनाई गई रासायनिक कृषि मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने के बजाए उसे स्थाई तौर पर बर्बाद कर रही है। प्रकृति में मिट्टी एक महत्वपूर्ण और जीवंत इकाई है। मृदा हजारों प्रकार के शैवाल, विषाणु एवं केंचुओं जैसे अन्य जीवों की शरण स्थली भी हैं। मिट्टी के पोषण शक्ति को बढ़ाने के लिए रसायनों, कीटनाशकों एवं जहरीले तत्वों का प्रयोग होता है, जो आहार चक्र के माध्यम से जानवरों एवं मनुष्य के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। उपजाऊ भूमि पर हो रहे नित्य नए निर्माण तथा वनों की कटाई से बाढ़ तथा मृदाक्षरण की प्रक्रिया में तेजी आई है।
लुप्तप्राय प्राणी एवं जतुओं का संकट
जलीय स्थलीय एवं आकाशीय क्षेत्र में निवास करने वाले विविध समुदाय और निर्जीव वातावरण के बीच स्थापित परस्पर संबंध को प्रकृति तंत्र कहा जाता है। समूचे प्रकृति तंत्र में विभिन्न तत्वों के बीच अनादि काल से एक प्रकार का संतुलन स्थापित है और जब भी यह संतुलन बिगड़ा है तो विनाश की स्थिति सामने आई है। जैविक संसार में होने वाली स्वाभाविक सता संघर्ष के अतिरिक्त मानव जाति ने आज अपनी आवश्यकताओं, वैज्ञानिक खोजों या मनोरंजन के लिए प्रकृति तंत्र में गहरी छेड़छाड़ की है। जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां आज या तो लुप्त हो गई हैं या लुप्तप्राय हैं।
'रेड बुक ऑफ वाइल्ड' के अनुसार 1600 ई. से 1900 ई. के बीच 36 स्तनधारियों और 94 पक्षियों की प्रजातियां लुप्त हो गई हैं, जबकि स्तनधारियों की 236 प्रजातियां तथा पक्षियों की 287 प्रजातियां आज लुप्त होने के कगार पर हैं।
प्रकृति का आधारभूत सिद्धांत यह है कि यदि प्राणियों के आवास नष्ट हो जाएं तो उनमें बसने वाली जैव प्रजातियां स्वतः विलुप्त हो जाएंगी। इस सिद्धांत और वनों के विनाश की दर के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि वनों में निवास करने वाली 15% जीवों की प्रजातियां आने वाले वर्षों में हमेशा के लिए गायब हो जाएंगी।
स्थलीय विविधता, सक्रिय जलवायु लंबे सागर तट तथा अनेक समुद्री द्वीपों के चलते प्रकृति ने विविधता के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप को विशेष रूप से संवारा है। भारतीय भूमि क्षेत्र में निवास करने वाली जीव-जंतुओं की कुछ शानदार प्रजातियां जैसे बाघ, तेंदुआ, एशियाई सिंह, हाथी, हिम तेंदुआ, सुनहरा लंगूर जंगली गधा, घडियाल, सोन चिड़िया, सफेद पंखों वाला जंगली बतख आदि आज संकटग्रस्त जीव जंतुओं की श्रेणी में हैं। शेर, बाघ, हाथी, हीरन या कछुए जैसे वन्य जीवों के विभिन्न अंगों को अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में ऊंची कीमत अवैध कारोवार को बढ़ावा देती है। सख्त सरकारी कानूनों के अतिरिक्त वन संपदा के प्रति हमारी मानवीय चेतना की जागरूकता इस दिशा में कारगर सिद्ध हो सकती है। वनस्पति जगत् के बिना प्राणी जीवन की कल्पना ही संभव नहीं। जंगली पशु- पक्षियों की तो छोड़िए, आदिमानव युग से लेकर आज तक भी आदिवासी जीवन का तानाबाना वनस्पतियों के साथ जुड़ा है।
प्रदूषण की रोकथाम के लिए उपाय
हम इंसान होने के नाते प्रकृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इंसानों ने प्रकृति पर सबसे ज्यादा आक्रमण किया है, इसलिए वह कुछ सावधानियां और उपाय ढूंढे।
अपने स्तर पर किए जाने वाले उपाय निम्नानुसार है-
अ. जल प्रदूषण से बचने के लिए
- नालों कुआँ तालाबों नदियों में गंदगी न करें ।
- सार्वजनिक जल वितरण के साथ छेड़छाड़ न करें।
- विसर्जन नियत स्थान पर ही करें।
- पानी की एक भी बूंद बर्बाद न करें।
- जल प्रदूषण संबंधी सभी कानूनों का पालन करें।
आ. ध्वनि प्रदूषण से बचने के लिए
- घर में टी.वी., संगीत संसाधनों की आवाज धीमी रखें।
- कार का हार्न अनावश्यक न बजाएं।
- लाउड स्पीकर का प्रयोग न करें।
- शादी-विवाह में बैंड-बाजे पटाखे आदि व्यवहार में न लाएं।
- ध्वनि प्रदूषण संबंधी सभी कानूनों का पालन करें।
इ. वायु प्रदूषण से बचने के लिए
- घर, फैक्ट्री वाहन के धुंए को सीमा में रखें।
- पटाखों का इस्तेमाल न करें।
- कूड़ा-कचरा न जलाएं अथवा नियत स्थान पर डालें।
- वायु प्रदूषण संबंधी सभी कानूनों का पालन करें।
ई. रासायनिक प्रदूषण से बचने के लिए
- रासायनिक की जगह जैविक खाद, प्लास्टिक की जगह कागज, पोलिस्टर की जगह सूती कपड़े आदि का इस्तेमाल करें।
- प्लास्टिक की थैलियां आदि रास्ते में न फेंके।
- ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधे, हरियाली बनाए रखें।
- रसायन संबंधी सभी कानूनों का पालन करें।
निष्कर्ष
जलवायु एवं परिवेश को दूषित कर हम शांत जीवन की तलाश में पहाड़ों की ओर भागते हैं, लेकिन अब तो वहां भी स्वच्छ वायु, निर्मल जल और खामोशी की अनुगूंज वाली बात बेमानी लगती है। मनुष्य के कदम जहां-जहां पड़े, वहां उसकी बेपरवाही के चलते प्रकृति और पर्यावरण की बहुत बड़ी हानि हो गई है।
मनुष्य की इसी बेपरवाही पर व्यंग्य करते हुए कवि सतीश सिंह 'इंसान' कविता में लिखते हैं-
"आंखें बंद हैं कान भी बंद है और
मर रहे हैं चुपचाप पेड़, पहाड़, नदी और
हवा बस आनंद ही आनंद है।"
विश्व गांव और विकास के नाम पर फैलाई गई गंदगी का प्रभाव अब स्थानीय नहीं बल्कि वैश्विक हो गया है। अविकसित या अर्धविकसित राष्ट्र ज्यादा औद्योगीकरण किए बिना भी प्रदूषण के शिकार हैं। पिछले दशकों में अपनी विकास प्रक्रिया को तेज गति देकर विकसित देशों ने वायुमंडल में विषैली गैसों का गुबार छोड़ा और जब परिणाम सामने आने लगा तो हाय तौबा मचाना शुरू किया। जवाब में विकासशील देशों का तर्क यह ठहरा कि मुझे भी उतना ही आगे आने दो फिर पर्यावरण संरक्षण की बात सोचेंगे। विकसित देश अब उपदेशक हो गए है लेकिन पर्यावरण को किए गए नुकसान की भरपाई के लिए जिम्मेदारी लेने से भागते हैं। पर्यावरण के लिए आई अंतर्राष्ट्रीय चेतना के बावजूद आज भी अविकसित या अल्प विकसित देशों की बहुत बड़ी जनसंख्या कम आबादी वाले औद्योगिकृत राष्ट्रों द्वारा फैलाए जा रहे परमाण्विक वायुमंडलीय या भूमि प्रदूषण की सजा भोगने को अभिशप्त हैं। जो भी विकसित देशों पर दोषारोपण कर अविकसित राष्ट्र भी अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। प्रदूषण की समस्या न ही एक दिन में पैदा हुई है और न एक दिन में खत्म होने वाली है। समय और परिस्थिति से निर्मित समस्याओं की डिबिया खुलने पर कोई जिन्न बाहर नहीं आने वाला है, जो 'क्या हुक्म है आका?' कहकर पलक झपकते ही समस्याओं को सुलझा दे, और हम चैन की नींद सो जाएं। पर्यावरण सुधार के लिए अगर समुचित प्रयास में हम विफल रहते हैं तो इससे अच्छा है कि 'आ अब लौट चलें' वाले नारे को बुलंद करें।
स्रोत-डॉ. विजय शिंदे, देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र)
ब्लॉग साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे, ईमेल drvtshinde@gmail.com
फोन नं. 08275354589
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