जम्बूद्वीप स्थित हिंदुस्तान का एक नाम भारत वर्ष है। भारत वर्ष एक समुचित अर्थपूर्ण मुहावरा है। भारत का अर्थ है- भरत (यानी शकुंतला और दुष्यन्त के पुत्र) से संबंधित, 'वर्ष' बहु अर्थीय शब्द है। वर्ष वर्षा को भी कहते हैं और धरती के भू-भाग को भी कहते हैं। वर्ष उस कालावधि को भी कहते हैं, जिसमें पृथ्वी सूर्य की निर्धारित परिक्रमा को पूरा करती है। भारत वर्ष के मुहावरे में वर्ष के ये तीनों अर्थ समाहित हैं। सरल भाषा में कहें तो भारत वर्ष उस देश का नाम है, जहां स्थान, समय और समृद्धि तीनों की पहचान वर्षा से होती है। राजस्थान की देशी पदावली में काल-अकाल समय के पर्याय हैं लेकिन उनका अर्थ बुरे समय से है। 'काल' उस समय को कहते हैं, जिसमें अन्न का अभाव हो जाय, 'दुकाल' उस समय को कहते हैं, जब अन्न और जल दोनों का अभाव हो जाय और 'त्रिकाल' उस समय को कहते हैं, जब अन्न, जल और तृण (घास) तीनों का अभाव हो जाये।
जुलाई अगस्त 2002 का प्रसंग है। हम लोग राजस्थान में हैं। दुकाल की चपेट में हम आ चुके हैं। अब ईश्वर से यही प्रार्थना कर सकते हैं कि 'मौसम विज्ञान विभाग' का आकलन (भविष्यवाणी) अंततः सही हो जाय और हम कम से कम त्रिकाल की मार से बच जाएं। अच्छा समय और अकाल का विश्लेषण अत्यंत व्यापक विषय है। यह निर्णय आसान नहीं कि बात का सिलसिला कहां से शुरू किया जाए। आजकल साईस के प्रताप की चर्चा जोरों पर है अतः सूखे की चर्चा हम साइन्स से ही शुरू करते हैं।
यह कैसी अनोखी 'मौसम साइन्स' है जो हमें पिछले तीन महीनों से निरन्तर आश्वस्त कर रही है कि मानसून बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से नियत समय पर चल चुका है और बस अब उत्तर भारत तक पहुंचने वाला है और मानसून है कि तटवर्ती क्षेत्रों में कहर ढाह कर वापस समुद्र की तरफ लौट जाता है और सारी विलायती 'मौसमी साइन्स' मुंह ताकती रह जाती है। 'मौसम विशेषज्ञ' फिर दो, चार, दस दिन की तारीख बढ़ा देता है। बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक संदेश चला जाता है कि हिन्दुस्तान के मौसम 'साईंटिस्टों' ने मानसून को एक बार पुनः समय से पहुंचने की अंतिम चेतावनी दी है लेकिन इस बार मानसून है कि आगे बढ़ता ही नहीं और मौसम 'साईंटिस्ट' हैं कि 'अंतिम चेतावनी की भविष्यवाणी से पीछे नहीं हटते।
मध्य जुलाई 2002 में मुझे अचानक पश्चिमी राजस्थान, मारवाड़ जाना पड़ा। वह क्षेत्र तो अकाल का घर ही है। शायद इसी वजह से वहां सुगन देखने की परम्परा साल भर चलती रहती है। फागुन में सुगन देखने की परम्परा सालों से चल रही है। फागुन में सुगन लिया गया, भगत-भोपो (स्थानीय ग्रामीण भविष्य दृष्टा तंत्र+मंत्र से इलाज आदि करने वाले) अनुभवी वरिष्ठ नागरिकों का आकलन 'मौसम साइंटिस्टों से मिलता-जुलता था। खेजड़ी (शमी वृक्ष) अपने ठीक समय से पल्लवित, पुष्पित और फलित हुई थी, यही हाल कैर की झाड़ी का था (कैर को पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्र में टैट, टेंटी कहते हैं। इसके कड़वे फलों को शोधित कर अचार डाला जाता है।) कैर का फल और सांगरी (शमी फल) मारवाड़ क्षेत्र में मई के अन्त तक तो तोड़ कर सुखा लिये जाते हैं। सभी लोग प्रसन्न थे कि इस बार जमाना होगा (जमाना माने अच्छी बरसात या अच्छा समय ।) लेकिन तभी जून की शुरुआत में ही ठंडी प्रातःकालीन पछवा चलने लगी। मारवाड़ के देशज भविष्यवक्ताओं का माथा ठनक गया। उन्होंने पुनः सुगन लेना शुरू किया। किस तिथि को कैसा चांद उगता है, कैसा छिपता है, कौन-सा नक्षत्र कहां दिखाई दे रहा है, कब उदय हो रहा है, कब अस्त हो रहा है। धरती और अनन्त आकाश का ऐसा अनगिनत डेटा संकलित किया जाने लगा। तभी कैर की झाड़ी पुनः पल्लवित पुष्पित हो गयी और जुलाई मध्य तक फलित हो गयी। इस लक्षण के स्पष्ट होते ही देशज दृष्टाओं ने अपनी पहली 'भविष्यवाणी' गलत घोषित कर दी और समस्त मारवाड़ को सूचित कर दिया कि अब 'जमाना' (अच्छा समय) सम्भव नहीं है और अकाल, दुकाल संभवतः त्रिकाल से जूझने की तैयारी में जुट जाएं। मारवाड़ के भोपे जिस तत्त्व-बोध के आधार पर मौसम भविष्य का निर्णय करते हैं उसमें 'भड्डरी' दम्पति नामक आदि मौसम वैज्ञानिक के अनगिनत सूत्रों (दोहों) का उपयोग करते हैं। उदाहरणार्थ-
तीतर पंखी बादरी, विधवा काजल रेख।
या बरसै, वा दूजा करे, ई मा मीन ना मेख ।।
बंगाल से गुजरात तक उत्तर भारत के अनेक अंचलों में भड्डरी दम्पति या घाघ की अवधारणा व्याप्त है। जिन लोगों ने 'भड्डुरी विज्ञान' का विस्तृत अध्ययन किया है उनका कहना है कि 'भड्डुरी शास्त्र में दो धाराएं समानान्तर चलती हैं। एक धारा सार्वभौमिक सूत्रों की है और दूसरी धारा नितान्त स्थानीय सूत्रों की हैं। ये परस्पर पूरक हैं, विरोधी नहीं। मौसम का आकलन और भविष्यवाणी करने के लिए प्रेरक प्रधानता (हेजमोनी) स्थानीयता या स्थानीय सूत्रों की है, ठीक उसी तरह जैसे कि इस देश में धार्मिक कर्मकांड में वरीयता / प्राथमिकता कुल देवी और स्थानीय देवताओं तथा स्थानीय लोकाचार की है। मानसून की प्रवृत्ति प्रकृति के नियमों में आबद्ध है। प्रकृति में विविधता के कारण स्थानीयता का सिद्धान्त प्रकृति विज्ञान का मौलिक सिद्धान्त है। विलायती मौसम 'विज्ञान' का अविष्कार 200 बरस से ज्यादा पुराना नहीं। भड्डुरी की अवधारणा अनैतिहासिक है। शायद उतनी ही पुरानी है जितनी कि भारत देश की सृष्टि/रचना। 'मौसम साइन्स' की अवधारणाएं एक विलायत नामक टापू की प्रकृति और प्रवृत्ति में आबद्ध है। भड्डुरी के न्यूनतम 500 अवतार इस देश में प्रचलित हैं।
संगठित प्रयास करने पर पिछले सौ डेढ़ सौ बरसों के अनुभव जनित आंकड़ों का अध्ययन कर और जन-मानस में व्याप्त लोक विद्या के भंडार की समझ बना कर यह तथ्य जांचा जा सकता है कि हमारा पारम्परिक जल विज्ञान और कृषि कला कितनी विशिष्ट और वैज्ञानिक थी। जैसलमेर और ऐसे पूर्ण मरुस्थल के किसानों से लेकर मालाबार त्रावणकोर-कोचीन तक के मछुआरों की आजीविका आज भी लोकविद्या पर आधारित है। इस देशज विवेक और व्यवस्था को नष्ट भ्रष्ट करने के आयोजन ने आजादी के बाद से निरंतर गति पकड़ी है।
देश में इतना व्यापक गऊमार अकाल पड़ जाये, तब विवरण और विश्लेषण को साईंस या मौसम साईंस की टीका तक सीमित नहीं रखा जा सकता। अकाल के संदर्भ में पिछली दो सदियों से महत्त्वपूर्ण मुद्दा अन्न की उत्पादकता और उसके अभाव का है। इस मुद्दे पर बड़ी सतर्कता से और अत्यन्त व्यवस्थित ढंग से सोचना शुरू करें कि सूखा-अकाल आदि कोई असाधारण विपदा है या सृष्टि के चक्र का साधारण नियम है? यदि हम विकासवादियों और इतिहासवादियों द्वारा निर्धारित अवधारणाओं को ही एकमात्र सत्य मान लें तो भी भारत में गेहूं, चावल की खेती दस हजार बरस से पुरानी है और काल, अकाल, दुष्काल, दुर्भिक्ष आदि भी इतने पुराने जरूर होंगे। हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठ-चल कर जो मानसून पुण्य भूमि हिन्दुस्तान पर वर्षा आयोजित करता है, इसकी व्यवस्था भी पच्चीस-पचास लाख बरस पुरानी तो जरूर होगी। तब यह जानना पड़ेगा कि हिन्द महासागर से उठने वाली दक्षिण-पश्चिमी बरसाती हवाओं की अनिश्चितता एक नियमित स्वभाव है या कोई नवीन विकास । यदि विकास है तो इसमें कितना प्राकृतिक और कितना मानव निर्मित है। इतनी बात तो निर्विवाद रूप से स्वीकार करनी पड़ती है कि दक्षिण एशियाई मानसून के चरित्र में अनश्चितता एक स्थाई अंग है। पश्चिमी राजस्थान की सदियों पुरानी कहावत है-
सात काल, सत्ताईस जमाना,
तिरसठ कारा कूचा, बाकी तीन घीषाण ।'
यानी सौ बरस में 27 बरस ठीक-ठीक बरसात होती है, जमाना, अर्थात ठीक समय होता है। सात महाकाल होते हैं, 63 बरस ऐसे होते हैं, जिनमें घास-फूस, मामूली अन्न और जल हो जाता है लेकिन एक सदी में तीन बरस ऐसे होते हैं, जब महाकाल का तांडव होता है, जिसमें सबकुछ नष्ट हो जाता है। पारम्परिक हिन्दुस्तानी भूगोल में तीन तरह के बरसाती क्षेत्रों की व्यवस्था है- सम वृष्टि क्षेत्र, जैसे- कर्नाटक में कुर्ग, मंगलोर दक्षिण कन्नड आदि का इलाका और महाराष्ट्र में कोलाबा कोंकण ।अतिवृष्टि क्षेत्र, जैसे- असम का चेरापूंजी अनावृष्टि क्षेत्र, जैसे- मारवाड़, विदर्भ, तेलंगाना के कुछ हिस्से, कच्छ प्रदेश आदि ।
हिन्दुस्तानी विचार प्रणाली के अनुसार भी तीन-चार सदियों तक की लोक स्मृति को प्रमाणिक इतिहास माना जाता है। उससे पहले की अवधि में सिर्फ गाथा और आख्यान बचते हैं। इतिहास में अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं है। यदि हम सत्रहवीं और अट्ठारवीं शताब्दी की तुलना 'आधुनिकता' की दो सदियों-उन्नीसवीं एवं बीसवीं से कर लें तो इस संदर्भ के अनेक तथ्य स्वतः स्पष्ट हो जायेंगे। गौर से समझने का प्रयास करें तो हिन्दुस्तानी परम्परा में किसी भी तथ्य को जांचने परखने के लिए इतिहास के हवाले की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए। जैसे आज भी प्रमाणित करने की जरूरत नहीं है कि हमारे देश में कृषक जातियां कुल आबादी की 20 प्रतिशत से अधिक नहीं हैं।
सत्रहवीं-अट्ठारहवीं शताब्दी से संबंधित हजारों तथ्य और 'प्रत्यक्ष साक्षियां' यह घोषणा करती दिखायी पड़ती हैं कि मुगलकालीन भारत कृषि प्रधान नहीं, कौशल-प्रधान देश था। यह दुनिया का केंद्रीय कारखाना था। यह सिर्फ लोहा और कपड़ा ही नहीं बल्कि दुनिया भर में नौकायान और उसकी शिल्प विद्या भी निर्यात करता था। उस हिन्दुस्तान का परिचय, जो 19वीं-20वीं सदी में भी मधुबनी से ढाका तक पांच हजार किस्म का सूती कपड़ा बनाता था, अचानक 19वीं सदी के अंत में कृषि प्रधान देश में कैसेबदल गया? यह शिल्पी वैविध्य आज भी पूरी तरह से नष्ट नहीं हो सका है। सृष्टि की रचना से लेकर 19वीं सदी के मध्य तक कहीं कोई सबूत नहीं मिलता कि भारत भूमि पर कृषि प्रधान समाज बसता था। वेद व्यास की महाभारत या कहीं किसी अन्य साहित्य वांग्मय या लोकोक्ति में कहीं कोई ऐसा तथ्य नहीं जो यह प्रमाणित कर दे कि हमारे देश का मुख्य धंधा कृषि था। अहीर, जाट, गुर्जर, रांगड़ आदि जिन्हें हमने किसान जाति मान लिया है,वे भी मध्य काल में तो गोपालक जातियां ही थीं। डेल्टा भूमि को छोड़कर अन्य कहीं भी किसानी मुख्य धंधा नहीं था। समस्त भारत के तटीय प्रदेश में भी कपड़ा उद्योग कृषि उद्योग से कई गुना विस्तृत था, क्योंकि उत्तम कोटि का सूत और सिल्क तो तटीय आर्द्र क्षेत्र में ही काता-बुना जा सकता है।
भारत, हिन्दुस्तान या दक्षिण एशिया
यह प्रत्यक्षतः प्रमाणित है कि आदिकाल से दक्षिण एशिया विश्वभर में पायी जाने वाली मानव की समस्त नृवंशीय जातियों का निजी घर है। यदि थोड़ी देर के लिए उस 'इतिहास दर्शन' को, जो हमें पिछले 200 वर्षों में गुलामी के दौरान पढ़ाया गया है, भूल सकें तो इस तथ्य का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं कि नीग्रो, आस्ट्रेलियायी, मंगोल, नोरडिक यह सभी भारत देश के समान रूप से मूल निवासी हैं। चंद तुर्की, इरानी, अफगान और मध्य एशियायी मुसलमान और पारसी (अन्य कोई मतावलंबी इसमें शामिल नहीं) को छोड़ कर एक भी जाति समूह या समुदाय ऐसा नहीं, जिसकी विदेशी मूल की कोई धुंधली सी 'जाति स्मृति' भी हो। विस्तृत लोक साहित्य, भाट-चारणों की आदि परंपरा, और उपनिषद-रामायण से लेकर महाभारत, कालीदास तक श्रेष्ठ कोटि के संपूर्ण वांग्मय में कहीं इक्का-दुक्का संदर्भ भी उपलब्ध नहीं, जिससे यह प्रमाणित हो सके कि भारत के नोरडिक यूरोप से आये थे और नीग्रो अफ्रीका से।
'आधुनिकतावादी' विश्व दृष्टिकोण और 'इतिहासवादी' दर्शन के प्रभाववश यह बात सिरे से भुलाई जा रही है कि भारत आदिकाल से कोल, किरात, किन्नर, भील, बानर, केवट, सुर-असुर, ब्राह्मण, क्षत्रिय, मंगोल, बलूच, अफगान और न जाने कितनी असंख्य जातियों, प्रजातियों, उपजातियों का देश है। इस अनूठी भारतीय विलक्षणता के कारण ऐसी कोई सूरत नहीं, जिसके रेखांकन में हिन्दू-भारतीय या दक्षिण एशियायी की अनेक स्तरीय बहुलता और वैविध्य को किसी एक पंथ या संप्रदाय की परिभाषा के तहत संगठित करके 'हिन्दू राष्ट्र' जैसी किसी कल्पना को साकार कर लिया जाय, जैसा कि यूरोप में हिटलर ने और हिन्दुस्तान में जिन्नाह ने करके भी दिखाया है। फिर भी जब 'हिटलर' और 'जिन्नाह' की धारा चलती है तो दो जर्मनी, दो हिन्दुस्तान, दो पाकिस्तान बनते हैं, जुड़ते नहीं।इसके विपरीत समस्त हिन्दुस्तानी,भारतीय या दक्षिण एशियायी जन उस अकेली स्थली के बाशिंदे हैं, जहां सदा सर्वदा से इंसान की समस्त नृवंशीय जातियां पलीं, पनपीं और विभिन्न जातीय स्वरूपों में मिश्रित होकर विकसित हुई। हिन्दुस्तान को छोड़ कर धरती का एक भी कोना या ठिकाना ऐसा नहीं जहां दो से अधिक मानव प्रजातियां वहां की मूल निवासी होने का दावा कर सकें।
भारतवर्ष 19 महानदी घाटियों का देश है। हिमालय से कन्याकुमारी तक ये महानदियां हजारों सहायक नदी-नालों का जल लेकर समुद्र तक जाती हैं। इन नदी घाटियों में सैकड़ो हजारों सभ्यताएं, संस्कृतियां जन्मी, पलीं और विलीन होती रही हैं। करोड़ों वर्ष की इस समुचित प्रक्रिया का नाम हिन्दुस्तान है, न कि सिर्फ उस धारा का जो कि 200 वर्ष की गुलामी के दौरान हमने ओढ़ ली। इक्कीसवीं सदी में हिन्दुस्तानी को अपने दिल और दिमाग का दायरा न्यूनतम दक्षिण एशिया की सरहदों तक विस्तृत करना होगा। वास्तव में हमारा सांस्कृतिक एवं आर्थिक प्रभाव उत्तर में मध्य एशिया यानी बाबर के पैतृक घर तक, पश्चिम में ईसा के जन्म स्थान तक और दक्षिण पूर्व में मलेशिया तक विस्तृत है। आर्थिक-सांस्कृतिक मानस के ऐसे विस्तार से ही हम अपनी गृहनीति, सुरक्षानीति और विज्ञान विकासनीति निर्धारण की क्षमता हासिल कर सकेंगे।
दक्षिण एशिया के भूगोल की संरचना ही कुछ ऐसी है कि भारत के लिए अकेले समृद्ध और संपन्न हो जाना संभव नहीं। अंतर्राष्ट्रीय समृद्धि की जिस दौड़ में हिन्दुस्तान हिस्सा लेना चाहता है, वह तभी संभव होगा जब समस्त दक्षिण एशिया में स्थायी अमन कायम हो। हिमालय की चोटियों और विशाल पर्वत श्रृंखला के दक्षिणी ढाल ने समस्त दक्षिण एशिया के भूगोल और पारिस्थितिकी को ऐसी एकता के सूत्र में बांधा है कि उसे नकार कर नेपाल, हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, बांग्ला देश आदि सर्वांगीण प्रगति के रास्ते चल ही नहीं सकते। दक्षिण एशिया की समृद्धि का एकमात्र आधार इस क्षेत्र की 19 महानदी घाटियों में उपलब्ध जल और मिट्टी को संजोने, संवारने से ही संभव हो सकता है। समूचे क्षेत्र में यदि प्यास और भुखमरी से लड़ना है तो क्षेत्रीय सहकार के अलावा कोई मार्ग नहीं।
भारतीय मानस का भूगोल
हिमालय का स्वरूप केवल भौतिक नहीं है। वह देव भूमि है, स्वर्ग है। तिब्बत को संस्कृत में त्रिविष्टप कहा जाता है। हिमालय में रहने वाली अनेक जातियों को देव योनि तक कहा गया है। कहने का मतलब यह कि भारत में भौगोलिक चेतना और जलवायु चेतना अनादि काल से सांस्कृतिक चेतना का मूल अंग थी। कैलाश मानसरोवर शिव-पार्वती का निवास स्थान है।
रामायण, महाभारत, कालिदास और हर्षचरित तक में भारत के भूगोल, संस्कृति तथा एकता के प्रमाण उपलब्ध हैं। हिमालय को ठीक से समझने के लिये भारत के अन्य क्षेत्रों के बारे में भी भारतीय मानस की समझ को सावधानी से समझना होगा तभी हिमालय की समझ बनेगी और हिमालय के साथ अन्य क्षेत्रों के रिश्तों की समझ से देश के सामाजिक भूगोल की समझ हो सकेगी।
एशिया का ज्यादातर पानी कहां से आता है, इसका प्रत्यक्ष जवाब ज्यादा मुश्किल नहीं है। एशिया का मूल जल विभाजक तथा दस महानदियों का स्रोत तिब्बत का पठार है। तिब्बत का पानी ग्यारह देशों में बहता है और कहा जाता है कि यह एशिया की 85 प्रतिशत जनता को ताजा पानी उपलब्ध कराता है, जो दुनिया की कुल आबादी का 50 प्रतिशत है। विश्व की दस महानदियों में से तीन- ब्रह्मपुत्र (यारलंग सांगपो), येंगजी, मिकांग, सांगपो के जल शीर्ष तिब्बत में हैं। तिब्बत से निकलने वाली अन्य महानदियां हैं- हुआंग हो (पीली नदी), सलमीन, अरुण, कारनाली, सतलुज और सिंधु। इन नदियों का लगभग नब्बे प्रतिशत पानी नीचे की ओर बहता हुआ चीन, भारत, नेपाल, पाकिस्तान, थाईलैंड, म्यांमार, लाओस, कंबोडिया और वियतनाम में जाता है।
दक्षिण एशिया में हमारी चिंता मुख्य रूप से गंगा, ब्रह्मपुत्र, अरुण, कारनाली, सतलुज और सिंधु के लिये है जो अपने अनुप्रवाह में रहने वाले लोगों को जीवन देती हैं। हिमनदों की मुख्य विशेषता यह है कि ये मानसून पर निर्भर नदियों को अपने सतत प्रवाही जल से भर कर उन्हें सदानीरा बना देते हैं अन्यथा वे नदियां केवल कुछ महीनों तक ही बहने वाली हो कर रह जाएं। इस प्रकार ये नदियां दक्षिण एशिया को सुदृढ़ बनाने का काम करती हैं।
अंग्रेजी का मानसून या हिंदी का मौसम अरबी-फारसी के 'मौसिम' शब्द से बना है। यह वैसी समुद्री हवा के चलने को बताता है, जब अरब सौदागर अपने देश लौटने की खुशी या मौज में आ जाते थे। इस प्रकार यह शब्दभूमध्य रेखा के आसपास से उठ कर हिमालय की ओर बहने वाली हवाओं के लिये एक विशेष संज्ञा के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। इस हवा के साथ भारी मात्रा में बादलों का आना मानसून शब्द का पूरा अर्थ बनाता है। इस अर्थ के अतिरिक्त किसी भी अन्य क्षेत्र की वायुमंडलीय गतिविधि के लिये मानसून शब्द का जो प्रयोग हो रहा है, वह जानबूझ कर भ्रांति फैलाने वाला काम है।
मानसून बेशक भारतीय उपमहाद्वीप पर सर्वाधिक प्रभावी रहता है लेकिन भूमध्यरेखा से उठने वाली तथा हिमालय के द्वारा अपनी ओर खींची जानेवाली आर्द्र हवाएं पृथ्वी की अपनी गति तथा भौगोलिक अवरोध के कारण विभक्त भी हो जाती हैं और भारत के पश्चिमी तथा पूर्वी दोनों तरफ मुड़ कर (एक) दक्षिण एशिया में बरसात लाती हैं और (दो) चीन की तरफ जाती हैं। (तीन) अफगानिस्तान होते हुए ठेठ पश्चिम एशिया की ओर बढ़ती हैं। पश्चिम एशिया की ओर जाने वाली हवाएं जाड़े में फिर वापस आ कर तराई की नमी को उठा कर मैदानी क्षेत्र में बारिश करती हैं और मध्य हिमालय में बर्फबारी । पश्चिम से पूरब की ओर जाने वाली ये हवा सिंधु, झेलम, चिनाब, सतलुज, जमना-गंगा, ब्रह्मपुत्र के मैदान तथा तराई के क्षेत्र से आर्द्रता ग्रहण करती हैं। म्यांमार में अराकान से टकरा कर बंगाल की खाड़ी में प्रवेश करती है, जो उड़िया तट से शुरू होकर समूचे आन्ध्र तट पर चक्रवात का पर्यावरण बनता है और आगे तमिलनाडु के तटीय क्षेत्रों में व्यापक बरसात होती है।
तराई एवं मैदानी क्षेत्र की आर्द्रता कम होने के कारण अब जाड़े की बरसात तथा मध्य हिमालय की बर्फबारी दोनों कम होने लगी है। इतना ही नहीं साल 2011 के दिसंबर में तो जाड़े की सर्द हवा केरल तक चली गई। यह सब स्थानीय अंचलों के पर्यावरण में भारी बदलाव के कारण हुआ, जिसमें सतह पर जलाशयों की दुर्गति तथा वनस्पतियों का कम होना मुख्य कारण है।
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