अपनी अप्रतिम सुन्दरता और बड़े आकार जैसी खासियतों से भोपाल का बड़ा तालाब एशिया के बड़े जलस्रोतों में गिना जाता है। पूरा भोपाल शहर इसी 31 किमी क्षेत्रफल में फैले बड़े ताल के आस-पास बसा है। शहर के बीचो-बीच जब इसका नीला पानी ठाठे मारता है तो पूरे शहर के बाशिंदे अपना तनाव भूलकर इसकी ऊँची–ऊँची लहरों को उठते–गिरते टकटकी लगाए देखने लगते हैं। हर शाम इसके किनारों पर हजारों लोग सैलानियों की तरह जुटते हैं। यह तालाब मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल शहर के एक बड़े हिस्से की प्यास भी बुझाता है। करीब आधी आबादी को यह रोज पीने के लिए करीब 30 मिलियन गैलन पानी देता है। लेकिन यह भी अब तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है। इसे लेकर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने गहरी नाराजगी जताई है।
करीब एक हजार साल पहले परमार वंश के राजा भोज ने इसे बनवाया था। तब से लेकर अब तक यह हर साल अथाह जल राशी समेटे इसी तरह भोपाल के बाशिंदों और बाहर से आने वाले बाशिंदों को लुभाता रहा है। लेकिन अब नये दौर के चलन के साथ हम इसे गंदा करते जा रहे हैं। बीते दिनों केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के दल ने अपने मुआयने के बाद इसके प्रदूषित होते जाने पर गहरी चिन्ता जताई है। इस मुआयने के दौरान केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण मंडल ने कई चौंकाने वाले तथ्य उजागर किये हैं। इसकी रिपोर्ट कहती है कि इस तालाब के नजदीक बसे 88 गाँवों सहित बैरागढ़ इलाके के करीब तीन हजार से ज्यादा घरों की गन्दगी सीधे तौर पर तालाब में मिल रही है। इनमें कई कल–कारखाने भी शामिल हैं जिनका अपशिष्ट रसायन भी इसमें मिल रहा है। बड़ी तादाद में गंदगी मिलने से तालाब के इस हिस्से के पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा भी कम होती जा रही है। हालाँकि तालाब किनारे के बैरागढ़ इलाके में सरकार ने वाटर ट्रीटमेंट प्लांट भी लगाया है पर यह ऊँट के मुँह में जीरा साबित हो रहा है। हालात इतने बुरे हैं कि यह प्लांट केवल 20 प्रतिशत ही गंदगी को साफ कर पा रहा है, बाकी 80 प्रतिशत गंदगी बिना किसी रोक-टोक के तालाब में मिल रही है।
सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है। बरसात के दिनों में जबकि ट्रीटमेंट प्लांट की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, प्लांट बंद ही हो जाता है। बाकी दिनों में भी मात्र 20 प्रतिशत ही गंदे पानी को यह साफ कर पाता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के अधिकारीयों ने प्लांट की स्थिति पर चिंता जताते हुए निर्देश दिए हैं कि सीवेज पानी का क्लोरिन और ओजोन से ट्रीटमेंट किया जाए। आँकड़े बताते हैं कि फिलहाल हर दिन 285 एमएलडी सीवेज (गंदा पानी) तालाब की ओर आता है पर इसमें से केवल 40 एमएलडी पानी ही ट्रीट हो पाता है बाकी का 245 एमएलडी पानी बिना किसी ट्रीटमेंट के हर दिन बड़े तालाब के पानी में मिलकर उसे भी प्रदूषित कर रहा है। सबसे बुरी स्थिति भोपाल शहर के ही बैरागढ़ इलाके में है।
यहाँ करीब तीन हजार घरों की गंदगी सीधे तौर पर तालाब में मिल रही है। यहाँ के पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा अब चिंताजनक रूप से कम हो रही है। यहाँ दस साल पहले तक पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा 8 मिलीग्राम प्रति लिटर हुआ करती थी जो अब घटकर केवल 4.8 मिलीग्राम प्रति लिटर ही रह गई है। तब यहाँ बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड 2.6 मिलीग्राम प्रति लिटर हुआ करती थी जो अब बढ़कर 8.9 मिलीग्राम प्रति लिटर तक हो गई है। विशेषज्ञ बताते हैं कि इसकी अधिकतम मात्रा 5 मिलीग्राम प्रति लिटर होनी चाहिए। इतना ही नहीं बड़े तालाब को सबसे ज्यादा पानी देने वाली कोलांस नदी भी अब तेजी से सिकुड़कर प्रदूषित होती जा रही है। यह नदी समीपवर्ती सिहोर जिले से निकलकर भोपाल के बडे तालाब में मिलती है। करीब 57 किमी का सफर तय करने वाली नदी कई जगह पर बहुत उथली और प्रदूषित हो रही है। इसके प्राकृतिक रास्ते में गाद और गंदगी भर जाने से एक तरफ यह नदी बरसात के दिनों में खेतों और गाँवों में जा घुसती है वहीं इसके पानी का लाभ बड़े तालाब को कम ही हो पाता है।
बताते हैं कि कभी यह तालाब 31 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ था लेकिन इन दिनों इसका केचमेंट घटकर मात्र 10 से 20 किलोमीटर ही रह गया है। बड़े और छोटे तालाब को जोड़कर पूरे जलक्षेत्र को भोज वेटलेंड कहा जाता है। करीब 20 साल पहले मध्यप्रदेश सरकार ने इसे भोज वेटलैंड घोषित कर इसे संरक्षित करने और इसके केचमेंट क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त रखने और साफ़ सुथरा बनाने के लिए करीब 300 करोड़ रूपये की भारी भरकम राशि भी खर्च कर दी पर भोपाल के लोग बताते हैं कि तालाब के आस-पास मात्र सौन्दर्यीकरण के अलावा तालाब के जल स्रोत को बढ़ाने और उसे साफ सुथरा बनाने पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। यही वजह है कि इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी आज हालत यह है कि मानव बस्तियों की गंदगी सीधे–सीधे तालाब में आकर उसे भी गंदा कर रही है। भोज वेटलैंड का उस समय काफी प्रचार किया गया और इसे अंतर्राष्ट्रीय रामसर सम्मलेन के घोषणापत्र में भी सम्मिलित किया गया लेकिन अब फिर वही ढर्रा..।
भोपाल के रहवासी राधेश्याम माकवा बताते हैं कि वे 1950 के दशक से भोपाल में रह रहे हैं और तभी से इस तालाब से जुड़े हुए हैं। यह तालाब उनकी जिन्दगी की कई खुशियों के पलों का साक्षी रहा है। वे बताते हैं कि सरकारी नौकरी से जब भी समय मिलता था, शाम को परिवार के साथ तालाब के किनारे बैठकर इसकी उठती–गिरती लहरों को देखना उन्हें बहुत भाता है। वे बताते हैं कि 1963 में इस तालाब में पानी की आवक बढ़ाने के उद्देश्य से कुछ दूरी पर भदभदा के नाम से एक बाँध बनाया गया, आज भी इसका पानी इस तालाब में आता है। करीब 50 वर्षों से भोपाल में ही रह रही पेशे से शिक्षिका श्रीमती कल्पना उपाध्याय बताती है कि योजनाएँ जब कागज पर होती हैं तो वे बहुत अच्छी लगती हैं लेकिन जैसे ही उसके जमीन पर उतरने की बारी आती है, वैसे ही गड़बड़ियाँ शुरू हो जाती हैं। पूरे भोपाल में कहीं भी गन्दे पानी की सही निकास व्यवस्था ही नहीं है। वे इस बात से खासी नाराज हैं कि नगर निगम के अधिकारी कभी इस बात पर ध्यान नहीं देते कि शहर में सीवेज का एक सही सिस्टम विकसित हो सके।
यहीं के रहने वाले अंकुर नागर बताते हैं कि इसमें कोई शक नहीं कि बड़ा तालाब उन दिनों की बेहतरीन जल अभियांत्रिकी का बेजोड़ नमूना तो है ही, तब के लोगों में पानी के सदउपयोग की प्रवृत्ति को भी इंगित करता है। हमारी खुशकिस्मती है कि हमारी पुरानी पीढ़ी ने आज से करीब 1000 साल पहले ही पानी का इतना मोल समझा और एशिया के बड़े जल स्रोतों में से एक यह ताल हमें धरोहर के रूप में सौंपा पर आज हम क्या कर रहे हैं। गर्मी के दिनों में बूँद–बूँद तरसते मध्यप्रदेश की इस सबसे बड़ी धरोहर को सहेजने और संवर्धित करने की जगह हम उसे गंदगी और गाद से पाटने को आमादा हैं। हमारे अधिकारी और नेता आखिर कब समझेंगे पानी का मोल।
अब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने खुद इस पर संज्ञान लेते हुए केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण मंडल से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की स्थिति के मुआयने की रिपोर्ट पेश करने के आदेश दिए हैं। उम्मीद है कि अब हालात बदल सकेंगे।
करीब एक हजार साल पहले परमार वंश के राजा भोज ने इसे बनवाया था। तब से लेकर अब तक यह हर साल अथाह जल राशी समेटे इसी तरह भोपाल के बाशिंदों और बाहर से आने वाले बाशिंदों को लुभाता रहा है। लेकिन अब नये दौर के चलन के साथ हम इसे गंदा करते जा रहे हैं। बीते दिनों केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के दल ने अपने मुआयने के बाद इसके प्रदूषित होते जाने पर गहरी चिन्ता जताई है। इस मुआयने के दौरान केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण मंडल ने कई चौंकाने वाले तथ्य उजागर किये हैं। इसकी रिपोर्ट कहती है कि इस तालाब के नजदीक बसे 88 गाँवों सहित बैरागढ़ इलाके के करीब तीन हजार से ज्यादा घरों की गन्दगी सीधे तौर पर तालाब में मिल रही है। इनमें कई कल–कारखाने भी शामिल हैं जिनका अपशिष्ट रसायन भी इसमें मिल रहा है। बड़ी तादाद में गंदगी मिलने से तालाब के इस हिस्से के पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा भी कम होती जा रही है। हालाँकि तालाब किनारे के बैरागढ़ इलाके में सरकार ने वाटर ट्रीटमेंट प्लांट भी लगाया है पर यह ऊँट के मुँह में जीरा साबित हो रहा है। हालात इतने बुरे हैं कि यह प्लांट केवल 20 प्रतिशत ही गंदगी को साफ कर पा रहा है, बाकी 80 प्रतिशत गंदगी बिना किसी रोक-टोक के तालाब में मिल रही है।
सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है। बरसात के दिनों में जबकि ट्रीटमेंट प्लांट की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, प्लांट बंद ही हो जाता है। बाकी दिनों में भी मात्र 20 प्रतिशत ही गंदे पानी को यह साफ कर पाता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के अधिकारीयों ने प्लांट की स्थिति पर चिंता जताते हुए निर्देश दिए हैं कि सीवेज पानी का क्लोरिन और ओजोन से ट्रीटमेंट किया जाए। आँकड़े बताते हैं कि फिलहाल हर दिन 285 एमएलडी सीवेज (गंदा पानी) तालाब की ओर आता है पर इसमें से केवल 40 एमएलडी पानी ही ट्रीट हो पाता है बाकी का 245 एमएलडी पानी बिना किसी ट्रीटमेंट के हर दिन बड़े तालाब के पानी में मिलकर उसे भी प्रदूषित कर रहा है। सबसे बुरी स्थिति भोपाल शहर के ही बैरागढ़ इलाके में है।
यहाँ करीब तीन हजार घरों की गंदगी सीधे तौर पर तालाब में मिल रही है। यहाँ के पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा अब चिंताजनक रूप से कम हो रही है। यहाँ दस साल पहले तक पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा 8 मिलीग्राम प्रति लिटर हुआ करती थी जो अब घटकर केवल 4.8 मिलीग्राम प्रति लिटर ही रह गई है। तब यहाँ बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड 2.6 मिलीग्राम प्रति लिटर हुआ करती थी जो अब बढ़कर 8.9 मिलीग्राम प्रति लिटर तक हो गई है। विशेषज्ञ बताते हैं कि इसकी अधिकतम मात्रा 5 मिलीग्राम प्रति लिटर होनी चाहिए। इतना ही नहीं बड़े तालाब को सबसे ज्यादा पानी देने वाली कोलांस नदी भी अब तेजी से सिकुड़कर प्रदूषित होती जा रही है। यह नदी समीपवर्ती सिहोर जिले से निकलकर भोपाल के बडे तालाब में मिलती है। करीब 57 किमी का सफर तय करने वाली नदी कई जगह पर बहुत उथली और प्रदूषित हो रही है। इसके प्राकृतिक रास्ते में गाद और गंदगी भर जाने से एक तरफ यह नदी बरसात के दिनों में खेतों और गाँवों में जा घुसती है वहीं इसके पानी का लाभ बड़े तालाब को कम ही हो पाता है।
बताते हैं कि कभी यह तालाब 31 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ था लेकिन इन दिनों इसका केचमेंट घटकर मात्र 10 से 20 किलोमीटर ही रह गया है। बड़े और छोटे तालाब को जोड़कर पूरे जलक्षेत्र को भोज वेटलेंड कहा जाता है। करीब 20 साल पहले मध्यप्रदेश सरकार ने इसे भोज वेटलैंड घोषित कर इसे संरक्षित करने और इसके केचमेंट क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त रखने और साफ़ सुथरा बनाने के लिए करीब 300 करोड़ रूपये की भारी भरकम राशि भी खर्च कर दी पर भोपाल के लोग बताते हैं कि तालाब के आस-पास मात्र सौन्दर्यीकरण के अलावा तालाब के जल स्रोत को बढ़ाने और उसे साफ सुथरा बनाने पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। यही वजह है कि इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी आज हालत यह है कि मानव बस्तियों की गंदगी सीधे–सीधे तालाब में आकर उसे भी गंदा कर रही है। भोज वेटलैंड का उस समय काफी प्रचार किया गया और इसे अंतर्राष्ट्रीय रामसर सम्मलेन के घोषणापत्र में भी सम्मिलित किया गया लेकिन अब फिर वही ढर्रा..।
भोपाल के रहवासी राधेश्याम माकवा बताते हैं कि वे 1950 के दशक से भोपाल में रह रहे हैं और तभी से इस तालाब से जुड़े हुए हैं। यह तालाब उनकी जिन्दगी की कई खुशियों के पलों का साक्षी रहा है। वे बताते हैं कि सरकारी नौकरी से जब भी समय मिलता था, शाम को परिवार के साथ तालाब के किनारे बैठकर इसकी उठती–गिरती लहरों को देखना उन्हें बहुत भाता है। वे बताते हैं कि 1963 में इस तालाब में पानी की आवक बढ़ाने के उद्देश्य से कुछ दूरी पर भदभदा के नाम से एक बाँध बनाया गया, आज भी इसका पानी इस तालाब में आता है। करीब 50 वर्षों से भोपाल में ही रह रही पेशे से शिक्षिका श्रीमती कल्पना उपाध्याय बताती है कि योजनाएँ जब कागज पर होती हैं तो वे बहुत अच्छी लगती हैं लेकिन जैसे ही उसके जमीन पर उतरने की बारी आती है, वैसे ही गड़बड़ियाँ शुरू हो जाती हैं। पूरे भोपाल में कहीं भी गन्दे पानी की सही निकास व्यवस्था ही नहीं है। वे इस बात से खासी नाराज हैं कि नगर निगम के अधिकारी कभी इस बात पर ध्यान नहीं देते कि शहर में सीवेज का एक सही सिस्टम विकसित हो सके।
यहीं के रहने वाले अंकुर नागर बताते हैं कि इसमें कोई शक नहीं कि बड़ा तालाब उन दिनों की बेहतरीन जल अभियांत्रिकी का बेजोड़ नमूना तो है ही, तब के लोगों में पानी के सदउपयोग की प्रवृत्ति को भी इंगित करता है। हमारी खुशकिस्मती है कि हमारी पुरानी पीढ़ी ने आज से करीब 1000 साल पहले ही पानी का इतना मोल समझा और एशिया के बड़े जल स्रोतों में से एक यह ताल हमें धरोहर के रूप में सौंपा पर आज हम क्या कर रहे हैं। गर्मी के दिनों में बूँद–बूँद तरसते मध्यप्रदेश की इस सबसे बड़ी धरोहर को सहेजने और संवर्धित करने की जगह हम उसे गंदगी और गाद से पाटने को आमादा हैं। हमारे अधिकारी और नेता आखिर कब समझेंगे पानी का मोल।
अब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने खुद इस पर संज्ञान लेते हुए केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण मंडल से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की स्थिति के मुआयने की रिपोर्ट पेश करने के आदेश दिए हैं। उम्मीद है कि अब हालात बदल सकेंगे।
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