बाढ़ के कारण क्षति मुख्य रूप से नदी के किनारों के ऊपर पानी बहने और परिणामतः नदियों के पास के क्षेत्रों में जलमग्न हो जाने से होता है। क्षति को कम करने के लिये, सुरक्षात्मक कदम उठाए जाते हैं जिनमें बाढ़ के प्रवाह को अवशोषित करने और विनियमित करने के लिये भंडारण बाँधों का निर्माण; जल प्लावन को रोकने के लिये तटबंधों का निर्माण आदि जैसे संरचनात्मक उपाय शामिल हैं
भारत के पास जहाँ दुनिया की आबादी का 16 प्रतिशत से ज्यादा है, वहीं दुनिया के जल संसाधनों का लगभग 4 प्रतिशत और दुनिया के भूभाग का 2.45 प्रतिशत इसके पास है। यहाँ तक कि देश में उपलब्ध ताजा जल संसाधनों के वितरण के मामले में भी क्षेत्र और समय (देश के विभिन्न भागों के बीच और एक साल में अलग-अलग समय में) के स्तर पर भिन्नता है।
देश में जल क्षेत्र को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे- बढ़ती आबादी के लिये भोजन की चुनौती; बेहतर जीवन के लिये उनकी बढ़ती आकांक्षाओं को पूरा करने की चुनौती; हर साल जीवन और आवास के लिये विनाशकारी साबित हो रहे बाढ़ और सूखे को नियंत्रित करने की चुनौती और एक नाजुक पर्यावरण और पारिस्थितिकी प्रणाली को संतुलित करते हुए सतत विकास की प्रक्रिया को सुनिश्चित करने की चुनौती।
बाढ़ और सूखे की समस्या
भारत औसतन 4000 अरब घन मीटर (बीसीएम) वर्षा प्राप्त करता है और नदियों में औसत वार्षिक प्रवाह 1953 बीसीएम तक का अनुमान लगाया गया है। शेष जल राशि तत्काल वाष्पीकरण और मिट्टी की नमी के रूप में खो जाता है। जल संसाधनों का दो तिहाई भाग गंगा- ब्रह्मपुत्र-मेघना (जीबीएम) नदियों की घाटी से प्राप्त होता है जो देश के भौगोलिक क्षेत्र के एक तिहाई भाग को कवर करता है। नतीजतन, शेष भागों को बचे हुए संसाधन से संतुष्ट होना पड़ता है।
इसके अलावा, भारतीय नदियों में 80 से 90 प्रतिशत से अधिक प्रवाह मानसून के चार महीनों (जून से सितंबर) में होता है जिसके फलस्वरूप मानसून के दौरान इन क्षेत्रों में अत्यधिक पानी से नुकसान होता है और गर्मियों में पानी की अत्यधिक कमी रहती है। इस तरह के निरंकुश और बदलती प्रकृति के साथ जीने के लिये हमें इसके अनुकूल बनना होगा या इन परिवर्तनों के लिये क्षतिपूर्ति करनी होगी। चूँकि कुछ ही महीनों में साल भर की वर्षा होती है अतः अतिरिक्त जल को जलाशयों में एकत्रित करने और वर्षभर इसे जरूरी स्थानों के लिये छोड़ने पर विनाशकारी बाढ़ और सूखे के बीच के अंतर को कम किया जा सकता है।
इसकी विशालता, विविध राहत सुविधाओं और भौगोलिक स्थानों की वजह से देश के विभिन्न क्षेत्रों में विविध मौसम और वर्षा का प्रारूप है। अतः एक ही समय में देश का एक हिस्सा गंभीर बाढ़ की चपेट में होने, जबकि दूसरा हिस्सा सूखे से प्रभावित होने में कुछ भी असामान्य प्रतीत नहीं होता। यहाँ तक कि एक ही वर्ष में कई बार ऐसा होता है कि राज्य के कुछ क्षेत्रों में भारी बारिश और फलस्वरूप बाढ़ की स्थिति होती है, जबकि कुछ अन्य क्षेत्रों में कम बारिश और फलस्वरूप सूखे की स्थिति नजर आती है। इस प्रकार, भारत के जल संसाधन की मुख्य विशेषता स्थान और समय के मोर्चे पर इसका असमान वितरण है, जिससे पानी की कमी और आधिक्य से स्थानीय और छिटपुट समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
इसके अलावा, बाढ़ के दौरान नदी घाटियों में मानव हस्तक्षेप के कारण समस्याएँ जटिल हो जाती हैं। नतीजतन, नदी के ऊपरी जलग्रहण का क्षरण हो रहा है जिसके चलते अवसाद नीचे आ जाते हैं और इससे बाढ़ के प्रकोप में वृद्धि होती है। फिर बाढ़ के मैदानों में अतिक्रमण कर बसे उन लोगों की गतिविधियों के कारण वहाँ के निवासियों के जान और माल को भारी क्षति पहुँचती है।
बाढ़ और सूखे की आवृत्ति जल संसाधनों को विकसित करने और उसका प्रबंधन करने में हमारी विफलता का प्रतिबिम्ब हैं। पानी से वंचितों का कहना है कि पानी का हमारे पारिस्थितिकी तंत्र का एक प्रमुख तत्व होने पर भी इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस पर ध्यान केवल तभी जाता है जब सूखे की मार से देश के ग्रामीण क्षेत्र की हरियाली सूखी डंठल में बदलने लगती हैं और बाढ़ भूमि और आवास क्षेत्र के एक बड़े हिस्से को उजाड़ने लगती है। फिर भी, बजाय असफलताओं से सीखने और स्पष्ट और उपलब्ध समाधान का सहारा लेने के प्रभावित लोगों को कुछ राहत प्रदान कर मुद्दे को अगले साल तक के लिये भुला दिया जाता है, जब तक कि समस्याएँ फिर से उत्पन्न न हो जाएँ।
बाढ़ नियंत्रण और प्रबंधन में पिछले प्रयास
पचास के दशक के आरम्भ में बाढ़ प्रबंधन की जरूरत महसूस की गई और 1954 में एक राष्ट्रीय बाढ़ प्रबन्धन कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया।1 तब बाढ़ सुरक्षा वाला क्षेत्र 30 लाख हेक्टेयर था, जिसके चारों ओर के तटबंधों की कुल लम्बाई 6000 किलोमीटर थी। 1954 में बनाई गई नीति में दिये गये वक्तव्य के अनुसार, राष्ट्र के समक्ष यह उद्देश्य निर्धारित किया गया था कि बाढ़ का नियंत्रण और प्रबंधन कर देश को बाढ़ के खतरे से बाहर निकालना है। हालाँकि, बाद में यह अहसास हुआ कि बाढ़ के नुकसान से भौतिक रूप में पूरी तरह से नहीं बचा जा सकता है। इसका कारण था बाढ़ से बिगड़ती स्थिति के दौरान मानव निर्मित गतिविधियों की अनिश्चितता। इसलिए, तब यह निर्णय लिया गया कि तकनीकी रूप से संभव और आर्थिक रूप से न्यायोचित पाए गए उचित सुरक्षा उपाय प्रदान किये जायें और बाढ़ प्रबंधन के साथ बाढ़ की भविष्यवाणी, बाढ़ चेतावनी आदि पर अधिक से अधिक जोर दिया जाये। जिसके फलस्वरूप मुद्दों के अध्ययन के लिये कई राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय समितियों का गठन किया गया और अंततः 1976 में भारत सरकार द्वारा एक राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (आरबीए)2 का गठन किया गया।
इस आयोग का कार्य, 1954 से किये गये बाढ़ सुरक्षा उपायों की समीक्षा और मूल्यांकन करना था तथा जल संसाधनों के इष्टतम और बहुउद्देशीय उपयोग के एक भाग के रूप में बाढ़ की समस्या पर एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित करना व जहाँ जरूरी लगे वहाँ सुधार के लिये सुझाव देना था। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के समय 340 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ प्रभावित क्षेत्र पाया गया जबकि 100 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को पहले से ही उचित सुरक्षा प्रदान किया जा रहा था। बाढ़ संभावित क्षेत्रों का एक बड़ा भूभाग गंगा- ब्रह्मपुत्र-मेघना (जीबीएम) नदियों की घाटी और प्रायद्वीपीय नदियों के तटीय डेल्टा वाले क्षेत्र में पाया गया। चूँकि बाढ़ के दौरान बाढ़ वाले क्षेत्रों से लोगों का बार-बार पलायन और पुनर्वासन एक सामान्य बात हो गई थी अतः आरबीए द्वारा की गई प्रमुख अनुशंसाओं में बाढ़ के मैदान का क्षेत्रीकरण और मानव निर्मित गतिविधियों कि विनियमन शामिल था।
इसके बाद केंद्र सरकार ने आरबीए की अनुसंशाओं के प्रभाव की समीक्षा करने और अल्पकालिक और दीर्घकालिक उपायों आदि सुझाने के लिये 1996 में क्षेत्रीय टास्क फोर्स का गठन किया था। उनकी सिफारिशों3 में अन्य प्रशासनिक उपायों के अलावा, विशेषकर पूर्वोत्तर क्षेत्र में बड़े बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं का निर्माण और बाढ़ क्षेत्र में लोगों के अतिक्रमण से निपटने के लिये बाढ़ क्षेत्र क्षेत्रीकरण अधिनियम के लागू होने के बाद उसका अनुपालन करना शामिल था। 1999 में राष्ट्रीय जल संसाधन आयोग ने भी पाया कि भंडारण बाँधों और तटबंधों से भीषण बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्रों को प्रभावी सुरक्षा मिली है। बाढ़ के मैदानों में मानव हस्तक्षेप को रोकने के लिये आयोग ने बाढ़ क्षेत्र क्षेत्रीकरण अधिनियम को लागू करने की तत्काल आवश्यकता का सुझाव दिया था।
2004, में गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों में आई अभूतपूर्व बाढ़ ने केंद्र सरकार को सुधारात्मक उपाय सुझाने के लिये एक टास्क फोर्स (टीएफ) का गठन करने के लिये मजबूर किया। टास्क फोर्स ने बाढ़ प्रबंधन के प्रयासों को प्रभावी बनाने के लिये केंद्र की ओर से अधिक भागीदारी की सिफारिश की थी। तब के योजना आयोग के कार्य समूह ने भी केंद्रीय भागीदारी और एक केंद्रीय बाढ़ प्रबंधन संगठन की स्थापना की आवश्यकता पर बल दिया था। राष्ट्रीय जल नीति, 2012,5 में सुझाव दिया गया था कि जलाशय संचालन प्रक्रियाओं को विकसित किया जाये और इस तरह से इसे लागू किया जाये कि यह बाढ़ के पानी को संभालने और बाढ़ के मौसम में अवसादों को नीचे आने से रोकने में सक्षम हो। इसमें संभावित जलवायु परिवर्तनों से निपटने के लिये बाँधों में पानी संग्रहित करने की क्षमता आदि के विकास जैसे रक्षात्मक उपाय करने का भी सुझाव दिया गया था।
बाढ़ क्षति शमन उपाय
बाढ़ के कारण क्षति मुख्य रूप से नदी के किनारों के ऊपर पानी बहने और परिणामतः नदियों के पास के क्षेत्रों के जलमग्न हो जाने से होता है। क्षति को कम करने के लिये, सुरक्षात्मक कदम उठाए जाते हैं जिनमें बाढ़ के प्रवाह को अवशोषित करने और विनियमित करने के लिये भंडारण बाँधों का निर्माण; जल प्लावन को रोकने के लिये तटबंधों का निर्माण आदि जैसे संरचनात्मक उपाय शामिल हैं। इस प्रकार की परिस्थितियों में बाढ़ की समस्या को हल करने के लिये सम्बन्धित क्षेत्र के नहरों और अन्य जल निकासी व्यवस्थाओं में सुधार लाने सम्बन्धी कार्य किये जाते हैं। जहाँ कहीं भी जटिल जल निकासी कारणों से तटबंधों का निर्माण संभव नहीं होता, वहाँ गाँवों को ऊपर उठाने और उन्हें पास के सड़कों से जोड़ने के लिये योजनाओं को भी लागू किया जा रहा है।
1954 में राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किये जाने के बाद से बाढ़ नियंत्रण उपायों को बड़े पैमाने पर हाथ में लिया गया। तब से, 35,000 किलोमीटर से भी अधिक तटबंधों का निर्माण किया गया है और 39,000 किलोमीटर से अधिक जल निकासी स्रोतों में सुधार किया गया है। इसके अलावा 7000 से अधिक गाँवों को ऊँचा कर सुरक्षित किया गया है और इसी प्रकार के संरक्षण कार्यों को 2700 से अधिक कस्बों/गाँवों तक पहुँचाया गया है। इस दौरान काफी संख्या में भंडारण जलाशयों का निर्माण किया गया है, जिसकी कुल मौजूदा क्षमता लगभग 250 बीसीएम है।
बाढ़ नियंत्रण और भंडारण बाँधों से संतुलन
बाढ़ नियंत्रण के लिये तैयारी करते समय भंडारण बाँधों को लेकर यह योजना होनी चाहिए कि पानी के उच्च प्रवाह वाले महीनों के दौरान जलाशय के स्तर को कम बनाए रखा जाए और इसकी क्षमता का उपयोग बाढ़ के अतिरिक्त जल को समाहित करने के लिये किया जाए। जैसे ही बाढ़ के जलस्तर में कमी आए, जलाशय के स्तर को पुनः एक निश्चित सीमा तक कम किया जाना चाहिए ताकि अगली बार फिर से बाढ़ का सामना करने में जलाशय सक्षम हों। हालाँकि, केवल बाढ़ संतुलन के लिये इस तरह की परियोजनाओं का निर्माण आमतौर पर आर्थिक रूप से तार्किक नहीं होता है।
वहीं, दूसरी ओर, सिंचाई और बिजली लाभ के लिये बनी बहुउद्देशीय परियोजनाओं में बाढ़ संतुलन के लाभों को भी शामिल करने की योजना बनाई जा सकती है। यदि सिंचाई और बिजली ही केवल प्राथमिक उद्देश्य हों, तब प्रयास यह होना चाहिए कि जलाशय के भरने की अवधि (सितम्बर) के अंत तक जलाशय स्तर को पूरा कर लिया जाए। विभिन्न लाभों के लिये परियोजना तैयार करते समय जिसमें बाढ़ संतुलन भी शामिल किया गया हो, तब घोषित उद्देश्यों और वांछित लाभों को ध्यान में रखते हुए जलाशय के नियोजित संचालन के जरिये संभावित उद्देश्यों के बीच एक उचित संतुलन बनाने का प्रयास किया जाता है।
अतः मानसून के दौरान बाढ़ की समस्या का एक तर्कसंगत आर्थिक समाधान मानकर गैर-मानसून के महीनों में इसे सिंचाई, बिजली और अन्य उपयोगों के लिये पानी की माँग के साथ जोड़ा जाए। इस प्रकार, उच्च प्रवाह की अवधि में बाढ़ संतुलन प्रदान करने और अगले मानसून के आगमन तक संग्रहित पानी का विभिन्न जरूरतों को पूरा करने के लिये एक सिंचाई और जल विद्युत योजना तैयार की जा सकती है।
बाढ़ नियंत्रण पहलू को ध्यान में रखकर जब नियोजित या अनियोजित बहुउद्देशीय जलाशय परियोजना तैयार की जाती है, तब संचालन प्राधिकारी को हमेशा ही घोर दुविधा का सामना करना पड़ता है। विशेष तौर पर यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब जल भरने के मौसम के अंत में भारी बाढ़ आ जाए।
बाढ़ नियंत्रण का लाभ प्रदान करने वाली बड़ी परियोजनाएँ
1954 में राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किये जाने के बाद से बाढ़ नियंत्रण उपायों को बड़े पैमाने पर अपनाया गया। तब से, तटबंधों के निर्माण, नदी जल निकासी स्रोतों आदि में सुधार के अलावा, कई भंडारण जलाशयों का भी निर्माण किया गया, जो आवश्यकता पड़ने पर भारी बाढ़ को समाहित और विनियमित कर सकता है। हालाँकि, वर्तमान स्थिति में हम प्रतिवर्ष उपलब्ध मानसूनी वर्षा के केवल 10 प्रतिशत से थोड़े अधिक भाग को ही संरक्षित कर पाते हैं। जल संसाधन विकास परियोजनाओं को क्रियान्वित करने के मार्ग में पर्यावरण, सामाजिक-आर्थिक और अन्य दूसरे रुकावटों के कारण, पिछले कुछ दशकों से भंडारण परियोजनाओं के निर्माण की प्रगति धीमी रही है, नतीजतन हम आज भी बाढ़ और सूखे से उत्पन्न जल संकट का सामना कर रहे हैं।
1954 में राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किये जाने के बाद, बाढ़ नियंत्रण का लाभ देने वाली कुछ बड़ी परियोजनाएँ पूरी की गईं, जिनमें दामोदर घाटी निगम के बाँध, महानदी पर हीराकुंड बाँध, तापी पर उकाई बांध, और सतलुज पर भाखड़ा बाँध शामिल हैं। इन परियोजनाओं की कुछ प्रमुख विशेषताओं पर आगे चर्चा की गई है।
इन परियोजनाओं द्वारा विनियमित बाँधों के जरिये निचले गाँवों और कस्बों को संरक्षित करने के उद्देश्य से भारी बाढ़ की स्थिति में जल के प्रवाह को समाहित और सही समय पर पानी को छोड़ा जाता है। हालाँकि, जब अनिश्चित अंतराल पर भारी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है, (जैसे 25 वर्ष में एक बार) तब अतिक्रमित बाढ़ क्षेत्रों में विशेषकर नदी के किनारे और कभी-कभी नदी के प्रमुख स्रोतों में भी जान-माल को अमानवीय क्षति पहुँचती है। बाँध सुरक्षा कारणों से नीचे की नदी स्रोतों में विनियमित पानी छोड़ जाता है। इस प्रकार की स्थितियों को नियंत्रित करने के लिये बाढ़ क्षेत्र क्षेत्रीकरण अधिनियम को लागू किया जाना ही केवल एक उपाय होता है।
हीराकुंड बाँध
1957 में महानदी नदी पर निर्मित यह एक प्रमुख बाँध है और इसकी प्रत्यक्ष धारण क्षमता 52220 लाख घन मीटर (एमसीएम) है। पूर्ण भंडारण का उपयोग मानसून के दौरान बाढ़ को संतुलित करने के लिये किया जाता है और उसके बाद संग्रहित जल को सिंचाई और बिजली पैदा करने के लिये प्रयोग किया जाता है। बाँध के निर्माण से पहले लगभग हर साल महानदी डेल्टा बाढ़ से तबाह हो जाता था।
दामोदर घाटी निगम के तहत बाँध
बाढ़ के समायोजन और सिंचाई व बिजली लाभों के लिये दामोदर और बार्कर नदियों पर 4 बाँधों की एक श्रृंखला का निर्माण किया गया है। इन चार बाँधों के नाम हैं - कोनार, मैथन, पंचेत और तिलैया। इनमें 16030 लाख घन मीटर की बाढ़ भंडारण क्षमता है और ये सन1958 से संचालित हो रही हैं। यद्यपि मैथन और पंचेत बाँध अपने बाढ़ नियंत्रण की क्षमता से कम पर संचालित हो रही हैं, फिर भी ये दामोदर के निचले हिस्सों में बाढ़ को काफी हद तक संतुलित कर सकते हैं।
उकाई बाँध
तापी पर उकाई बाँध का निर्माण कार्य 1977 में पूरा हुआ। इसकी वर्तमान भंडारण क्षमता 66150 लाख घन मीटर है। इसने काफी हद तक, निचले इलाकों में बाढ़ के कहर को कम किया है और सूरत शहर को बाढ़ के प्रकोपों से बचाया है। परियोजना से सिंचाई और बिजली उत्पादन जैसे अन्य लाभ भी प्राप्त होता है।
भाखड़ा बाँध
जब सतलुज नदी पर भाखड़ा बाँध की योजना बनाई गई थी, तब सबसे अधिक जोर उस क्षेत्र को सूखे से निजात दिलाने पर दिया गया था और इस तरह सिंचाई लाभ मुख्य विषय था और बाढ़ सम्बन्धी मुद्दे महत्त्वपूर्ण नहीं थे। हालाँकि, 71900 लाख घन मीटर की काफी बड़ी भंडारण क्षमता का उपयोग हमेशा ही इस तरह से किया गया कि निचले हिस्से को बाढ़ समायोजन का लाभ प्राप्त होता रहे। 1963 में बाँध के शुरू होने के बाद, इसके संचालन के पहले कुछ वर्षों में आई बाढ़ जलाशय में समाहित हो गये। नदी के जलग्रहण का जो 65 प्रतिशत हिस्सा तिब्बत (चीन) में पड़ता है, अक्सर नदी के ऊपरी हिस्से में अचानक आई बाढ़ की सूचना निचले हिस्सों में तब तक नहीं आती जब तक कि बाढ़ का पानी बहकर वहाँ तक न पहुँच जाए। इस प्रकार की भीषण बाढ़ वर्ष 2000 में आई थी जब बादल फटने और नदी के तिब्बत में आने वाले हिस्से में अस्थायी रुकावट आ जाने के कारण सतलुज नदी का जलस्तर में अचानक 15 मीटर तक ऊपर आ गया था। यद्यपि बाढ़ से भाखड़ा बाँध का ऊपरी हिस्सा प्रभावित हुआ था तब भी इसके भीतर बाढ़ का पानी पूरी तरह इसमें समाहित हो गया और जलाशय पर धक्का लगने से यह बाहर की ओर फैल गया। इस प्रकार नीचे की ओर बढ़ रही तबाही से पंजाब के मैदानी इलाके बच गए।
हाल ही में, भागीरथी (गंगा) में टिहरी हाइड्रो परियोजना जैसी प्रमुख परियोजनाओं के चलते उत्तराखण्ड क्षेत्र में अचानक आई बाढ़ की वजह से ऋषीकेश और हरिद्वार में बाढ़ के नुकसान कम किया जा सका। जलाशय में अचानक घुसे 2.5 लाख क्यूसेक पानी को बाँध ने समाहित कर लिया और नियंत्रित कर लिया तथा केवल 7 प्रतिशत से कम बाढ़ प्रवाह को नदी के निचले स्रोतों में छोड़ा गया। इसी प्रकार, नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर परियोजना भी बाढ़ के प्रवाह को विनियमित कर नीचे की ओर बाढ़ के प्रकोपों को कम करने में सक्षम रहा है।
इस सम्बन्ध में भारतीय नदीजोड़ो परियोजना (आईआरएल) के तहत पानी की कमी वाले क्षेत्रों में नदी जल के समान वितरण और इसके समुचित उपयोग के लिये देश भर में भंडारण बाँधों के निर्माण और नहर प्रणालियों का एक नेटवर्क तैयार इसमें ब्रह्मपुत्र सहित अन्य बड़ी नदियों के बाढ़ जल को मोड़ने की परिकल्पना की गई है। यह देश में बार-बार बाढ़ और सूखे से उत्पन्न होने वाली संकटों को कम करने का एक महत्त्वपूर्ण उपलब्ध विकल्प है।
निष्कर्ष
अंत में, ज्यादातर मामलों में बड़ी नदियों पर भंडारण बाँध निर्मित एक निश्चित सीमा तक बाढ़ की आवृत्ति को रोकने और उससे होने वाले नुकसान कम करने में सहूलियत होती है। यह भीषण बाढ़ को अपने भीतर समाहित कर लेते हैं और नदी के जल निकासी स्रोतों में धीरे-धीरे जल छोड़ते हैं। प्रस्तावित आईआरएल परियोजना विनाशकारी बाढ़ की समस्या को हल करने का एक बेहतर विकल्प साबित होगी।
हालाँकि, ऐसा कोई सार्वभौमिक समाधान नहीं है जो पूरी तरह से बाढ़ से सुरक्षा प्रदान कर सके। अतः बाढ़ से उत्पन्न दुर्दशा को कम करने के लिये देश को भंडारण बाँधों के अलावा भी, बाढ़ की भविष्यवाणी और चेतावनी सहित बाढ़ के मैदानों के कुशल प्रबंधन, आपदा तैयारियों व प्रतिक्रिया नियोजन तथा आपदा राहत, बाढ़ बीमा आदि जैसे अन्य गैर-संरचनात्मक उपायों के लिये रणनीति तैयार करने की जरूरत है।
संदर्भः
डॉ. के.एल. रावः भारत की जल सम्पदा,-ऑरिएंट लांगमैन लिमिटेड, 1975;
जल संसाधन मंत्रालयः राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की रिपोर्ट, 1980;
जल संसाधन मंत्रालयः बाढ़ प्रबंधन पर टास्क फोर्स की रिपोर्ट, 1997;
जल संसाधन मंत्रालयः एकीकृत जल संसाधन विकास योजना पर राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट, 1999;
जल संसाधन मंत्रालयः राष्ट्रीय जलनीति, 2012;
केंद्रीय जल आयोगः जल संसाधन एक नजर में, 2016
लेखक परिचय
लेखक केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के राष्ट्रीय जल संसाधन आयोग के साथ काम कर चुके हैं। योजना आयोग में जल संसाधन सलाहकार भी रहे हैं। वह भारतीय राष्ट्रीय सिंचाई एवं ड्रेनेज समिति के सदस्य भी रहे हैं। नेपाल व भूटान जैसे देशों को अपनी विशेषता की सेवाएँ दे चुके हैं तथा भारत सरकार की ओर से ईराक में इस विषय पर सहयोग के लिये प्रतिनियुक्ति पद पर रह चुके हैं। ईमेलः msnenon30@gmail.com
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