बढ़ती आबादी की आवश्यकता पूर्ति के लिये होने वाली गतिविधियों से वन्य प्राणियों के प्राकृतिक वासस्थल लगातार सिमटते जा रहे हैं। फलस्वरूप दुनिया के पटल से अनेक प्रकार के सूक्ष्म व बड़े जीव-जन्तु लुप्त हो चुके हैं, कुछ लुप्तता के कगार पर हैं तथा कुछ संकटापन्न स्थिति में हैं।
भले ही सामान्य तौर पर यह दिखाई न दे किन्तु हर जीव-जन्तु की पर्यावरण चक्र में अपनी अलग भूमिका होती है। एक जन्तु के लोपन का दूसरे पर प्रभाव तो होता ही है। सभी प्रकार के जीव-जन्तु बचे रहें इनको बचाए रखने के लिये दुनिया भर के देशों में अनेक प्रकार के कानून लागू हैं फिर भी उनकी संख्या लगातार कम हो रही है।
वन्य जन्तुओं को संरक्षण प्रदान करने के लिये दुनिया के कोने-कोने में भिन्न स्थानों व परिवेश को दृष्टिगत रखते हुए अनेक अभयारण्य, पार्क व प्रक्षेत्र स्थापित हैं। इसमें विभिन्न प्रकार के स्थलीय, जलीय जीवों, व पक्षियों से लेकर सूक्ष्मजीवियों को कुछ हद तक आश्रय मिला है जिनमें वे अपनी प्रकृति के अनुसार रहते हैं।
भारत में ऐसे अनेक संरक्षण क्षेत्र हैं। इनमें बंगाल की खाड़ी में ओड़िशा के तहत केन्द्रपाड़ा जिले में मौजूद भीतरकणिका नमभूमि क्षेत्र एक अनूठा नम क्षेत्र है जो स्तलीय, जलीय व सागर तटीय क्षेत्र को मिलाकर बना है। इस नम क्षेत्र के तहत ताजे पानी की नदी धाराएँ, तालाब, पंकीय (कीचड़ युक्त) क्षेत्र, ज्वारीय बैकवाटर्स, मैंग्रोव, रेतीले तट, छोटे व बड़ी खाड़ियाँ व बड़े टापू आदि आते हैं। अपनी विभिन्न व अनूठी जलीय व स्थलीय संरचना के कारण भीतरकणिका नम क्षेत्र अनेक प्रकार के सूक्ष्मजीवियों से लेकर कशेरुकी व अकशेरुकी प्राणियों का प्राकृतवास है। विशिष्ट बनावट जलीय वनस्पतियों और वन्य जन्तुओं की बहुलता से कुछ लोग इसे भारत का ‘मिनी अमेजन’ भी कहते हैं।
विविधता भरे इस नम क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न माह के अनुसार अलग-अलग समय में भिन्न गतिविधियाँ देखने को मिलती हैं। इस नमक्षेत्र के अन्तरंग भाग (कोर-जोन) को राष्ट्रीय उद्यान का स्थान प्राप्त है। ग्रीष्म ऋतु आते ही इसका मध्य भाग बग्गहना अनेकों प्रकार के देशी व विदेशी पक्षियों का बसेरा बनने लगता है। हजारों पक्षी यहाँ आकर सहवास करते हैं, घोंसले बनाते हैं, अण्डे देते हैं और चूजों के निकलने तक उनको सेते हैं, उनका पालन-पोषण करते हैं।
अगस्त/सितम्बर में जैसे ही नन्हें पक्षी आत्मनिर्भर होने को होते हैं यहाँ से फुर्र हो जाते हैं। इसी नमक्षेत्र का दूसरे भाग, जिसके तहत बंगाल की खाड़ी का रेतीला तट आता है, में भी एक अन्य गतिविधि देखने को मिलती है। नवम्बर आते ही इसका रेतीला तट दुर्लभ प्रजाति के ओलिव रिडले कछुओं से पटने लगता है।
बंगाल की खाड़ी हिन्द महासागर के विभिन्न हिस्सों से लाखों की संख्या में यह कछुए इस सुनसान तट पर सहवास करते हैं, रेत के अन्दर अण्डे देते हैं, उनकों सेते हैं व अण्डों से बच्चों के निकलने से पहले वापस समुद्र में अपने पुराने ठिकानों को चल देते हैं। इस नमभूमि का तीसरा क्षेत्र जो ‘भीतरकणिका अभयारण्य’ कहलाता है।
मुख्य रूप से यह नमकीन पानी में मिलने वाले दुर्लभ किस्म के मगरमच्छों की संरक्षणगाह है जिसमें फरवरी से मई के बीच उनका सहवासकाल चलता है। इसे बाद वे अण्डे देते हैं जिनमें से 70 से 80 दिनों के बाद यानी मई से जुलाई के मध्य अण्डों से बच्चे निकलने शुरू होते हैं। वर्षा ऋतु समाप्त होेने के बाद नन्हें बच्चों को जीवन के कठिन दौर से गुजरना होता है। परभक्षी उन्हें भोजन बनाने की ताक में रहते हैं, किन्तु इनमें से जो बच जाते हैं वे यहाँ राज करते हैं। अगस्त में इस अभयारण्य का प्रवेश द्वार खुलता है।
अभयारण्य से रामसर क्षेत्र तक
भीतरकणिका नम क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में समाहित होने वाली दो प्रमुख नदियों वैतरणी एवं ब्राह्मणी तथा स्थानीय नदी धमारा के मुहाने पर स्थित है। यद्यपि यह एक नम क्षेत्र है किन्तु इसमें दो अभयारण्य व एक राष्ट्रीय उद्यान निहित हैं।
बीसवीं सदी के सातवें दशक तक ओड़िशा का कणिका क्षेत्र बड़ी जमीदारों की शिकार स्थली थी। जमीदारों के उन्मूलन के बाद इसे राज्य में शामिल कर दिया गया। इसके बाद यहाँ चारों दिशाओं से अतिक्रमण होने लगा और इसमें मौजूद मगरमच्छ तेजी से मारे जाने लगे। यह देखते हुए मगरमच्छों पर एक अध्ययन किया गया था जिससे ज्ञात हुआ कि इस डेल्टा तंत्र में प्राकृतिक रूप से चमड़े के लिये शिकार किये जाने वाले मौजूद नमकीन पानी में मिलने वाले मगरमच्छों की संख्या काफी कम हो गई है। रपट में चिन्ता व्यक्त की गई कि यदि उनका निरन्तर शिकार जारी रहा तो यह दुर्लभ कछुए दुनिया के पटल से ही लुप्त हो सकते हैं।
इस बात को दृष्टिगत रखते हुए राज्य सरकार ने अप्रैल, 1975 में कणिका क्षेत्र के 672 वर्ग किमी. में भूभाग को ‘भीतरकणिका’ नाम से अभयारण्य बनाने का निर्णय लिया ताकि मगरमच्छों की यह शरणगाह संरक्षित हो सके। तदुपरान्त इससे सटे तटीय हिस्से ‘गहीरमाथा’, जो दूर-दराज से ओलिव रिडले प्रजाति के लाखों कछुओं के अण्डे देने की पसंदीदा जगह थी, को कच्छप अभयारण्य में बदल दिया गया। तब इसकी सीमा चारों ओर से खुली थी और कछुओं के अण्डे देने से लेकर उनके बच्चों के निकलने के लिये यह क्षेत्र बेहद असुरक्षित था। लाखों कछुए मौत का शिकार हो जाते थे।
इन खास प्रजाति के कछुओं के जीवनचक्र को सुरक्षित व संरक्षित करनेे के लिये राज्य सरकार ने सितम्बर 1997 में 1435 वर्ग किमी. में फैले इस निर्जन क्षेत्र को गहीरमाथा कच्छप अभयारण्य घोषित किया। तदुपरान्त भीतरकणिका अभयारण्य के मध्यवर्ती भाग, जिसमें दुर्लभ मैंग्रोव हैं, के 145 वर्ग किमी, क्षेत्र को 1998 को ‘भीतरकणिका राष्ट्रीय उद्यान’ का दर्जा दिया गया।
अपनी अभिन्न व अनूठी जलीय व स्थलीय संरचना के कारण भीतरकणिका नम क्षेत्र अनेक प्रकार के सूक्ष्मजीवियों से लेकर कशेरुकी व अकशेरुकी प्राणियों का प्राकृतवास है। विशिष्ट बनावट जलीय वनस्पतियों और वन्य जन्तुओं की बहुलता से कुछ लोग इसे भारत का मिनी ‘अमेजन’ भी कहते हैं।
इसके उपरान्त भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण विभाग ने भी इन तीनों संरक्षणगाहों के लगभग 2672 वर्ग किमी, क्षेत्रफल को मिलाकर वैश्विक स्तर का रामसर नमस्थल घोषित करवाने के प्रयास किये जिसे 2002 में रामसर स्थल की मान्यता प्रदान कर दी। भीतरकणिका नमक्षेत्र आज भारत के 26 विशिष्ट रामसर नमक्षेत्रों में से एक है।
इस नमक्षेत्र के लगभग 500 वर्ग किमी. में 58 प्रजातियों के मैंग्रोव वृक्षों की प्रजातियाँ मिलती हैं और सुन्दरवन के बाद यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। जैवविविधता से परिपूर्ण इस अनूठे क्षेत्र को अब यूनेस्को विश्व विरासत स्थल की सूची में शामिल कराने का प्रयास किये जा रहे हैं।
भीतरकणिका अभयारण्य
कहने को तो भीतरकणिका अभयारण्य में की प्रकार के जीव-जन्तुओं को संरक्षण मिला है किन्तु मुख्य रूप से यह खारे पानी के मगरमच्छों (क्रोकोडायलस पोरोसस crocodylus porosus) का संरक्षणगाह है। सन 1970 से पूर्व अभयारण्य बनने से पहले यहाँ पर इन मगरमच्छों का चमड़े के लिये शिकार आम था। इसी चिन्ता को देखते हुए इन मगरमच्छों को बचाने व उनकी जनसंख्या को बढ़ाने व उनके पुनर्वासन के लिये एक परियोजना लागू की गई ताकि मगरमच्छों के अण्डे व बच्चे जंगली जानवरों के शिकार से बच सकें व इनके बड़ा होने पर इनको अभयारण्य के विभिन्न भागों में छोड़ा जा सके।
परियोजना के तहत इस अभयारण्य के आन्तरिक भाग डंगमाल में एक हैचरी स्थापित की गई जिसने अपनी भूमिका को बखूबी से निभाया है। हैचरी में इन मगरमच्छों के अण्डों को विभिन्न इलाकों से एकत्रित कर उनको कृत्रिम वातावरण में सेंका जाता है और उनके थोड़े बड़ा होने पर इन नदियों के डेल्टा तंत्र में छोड़ दिया जाता है। परियोजनान्तर्गत इसके संरक्षण के लिये कई दूसरे कदम भी उठाए गए।
अभयारण्य बनने से यहाँ पर संकटग्रस्त प्रजाति के मगरमच्छों (क्रोकोडायलस पोरोसस) की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी। 1975 में उनकी संख्या जो 300 से भी कम हो गई थी वर्तमान में 1500 के आस-पास है। यह मगरमच्छ इस क्षेत्र व नदी अपवाह तंत्र में प्रवास करते हैं जो दक्षिण पूर्व एशिया में मगरमच्छों का सबसे बड़ा अभयारण्य है।
यहाँ पर 7 मीटर तक लम्बाई वाले विशालकाय मगरमच्छ भी देखे गए हैं। फरवरी से अप्रैल के मध्य यह सहवास करते हैं। उसके बाद एक मादा रेत के अन्दर औसतन 40-45 अण्डे देती है। इनसे तीन माह से भी कम समय में बच्चे निकल जाते हैं। यद्यपि मादा अण्डे देने वाले स्थान के निकट ही होती है लेकिन शत्रु भी कम नहीं होते हैं जो अण्डों व जब बच्चे छोटे होते हैं उनको चट कर जाते हैं। इस संघर्ष में जो बच जाते हैं वह यहाँ पूरी जिन्दगी राज करते हैं। मगरमच्छों को शीतकाल में नदियों के किनारे या मुहाने पर आराम करते या धूप सेंकते, विचरण या शिकार करते देखा जा सकता है।
इस संरक्षित क्षेत्र के अलग-अलग भाग में अनेक प्रकार के सरीसृप, पक्षी, उभयचर, मछलियों से लेकर दूसरे बड़े स्तनपाई जलचर व स्थलीय जानवर मिलते हैं। सरीसृपों में 9 प्रकार की छिपकलियाँ व 14 प्रकार के सर्पों की पहचान की जा चुकी हैं जिनमें अजगर, किंग कोबरा, रसल वाइपर सामान्य रूप से पाये जाते हैं। इसे अतिरिक्त स्तनपाई जन्तुओं की 26 प्रजातियों में सांभर, चीतल, चितकबरा हिरन, जंगली सुअर, हाइना, सियार, जंगली बिल्ली व डॉल्फिनें मिलती हैं। 15 प्रकार की मछलियाँ, कई प्रकार के मेंढक व कछुए आदि भी यहाँ पर पाये गए हैं। यह जन्तु आमतौर पर पूरे क्षेत्र में दिखते हैं किन्तु इनकी सबसे अधिक संख्या डंगमाल में रहती है।
गहीरमाथा कच्छप अभयारण्य
यह अभयारण्य बंगाल की खाड़ी में भीतरकणिका नम क्षेत्र के पूर्वी भाग, जहाँ पर नदियों का एस्चुरीन क्षेत्र (Estuarine zone) समाप्त हो जाता है, से आगे रेतीले तट के रूप में है। नवम्बर से मार्च के मध्य यह तट दक्षिण पूर्व एशिया के सागरीय क्षेत्रों से ओलिव रिडले प्रजाति के प्रवासी कछुओं से पटा होता है जो यहाँ पर प्रवास व सहवास करते हैं। सहवास के कुछ समय के बाद मादाएँ रेत के अन्दर अण्डे देती हैं व इसके बाद उनकों दबा देती है। अण्डे देने का यह क्रम और एक दो बार भी जारी रहता है।
अण्डे देने के उपरान्त यह कछुए समुद्र में चले जाते हैं। अण्डे देने के लगभग 50 से 60 दिनों में अण्डों से बच्चे निकलने लगते हैं जो निकलते ही समुद्र का रुख करते हैं। इनमें से अधिकांश जीवन के प्रथम संघर्ष में ही मारे जाते हैं। अण्डों से निकलते ही चारों ओर से भोजन की तलाश में बैठे दूसरे परभक्षी जन्तु जैसे आवारा कुत्ते, सिआर, पक्षी उन पर हमला करने की प्रतीक्षा में रहते हैं और उनके बाहर निकलने पर उन पर टूट पड़ते हैं किन्तु जो सागर में प्रवेश कर जाते हैं वे 16 साल के बाद युवा होे पर कछुओं की इस परम्परा को आगे बढ़ाते हैं।
नवम्बर से मार्च के मध्य तक सहवास, अण्डे देने, अण्डों से बच्चों के निकलने व उनके सागर से लौटने के साथ ही इन कछुओं का अनूठा चक्र पूर्ण होता है। प्रवासी कछुए, उनके बच्चों के अपने मूल गन्तव्यों को लौटने से यह क्षेत्र अगले 8 माह तक वीरान नजर आता है और 7-8 माह के सन्नाटे के बाद यह विलक्षण चक्र फिर से आरम्भ होता है।
यह कछुए अण्डमान निकोबार द्वीप होते हुए श्रीलंका, पाक जलडमरूमध्य व म्यामांर तट से आते हैं। दुनिया में इस प्रजाति के कछुओं का अण्डे देने का यह सबसे बड़ा सागरीय तट है। इस तट पर कछुओं के प्रवास, सहवास, अण्डे देने में कोई व्यवधान न हो इसके लिये ही गहीरमाथा कच्छप अभयारण्य की स्थापना की गई। इसका 1408 वर्ग किमी, क्षेत्र सागरीय व 27 वर्ग किमी, क्षेत्रफल संरक्षित वन्य क्षेत्र है में अाता है।
अभयारण्य के पूर्व में अकाकुला है जो इस कच्छप अभयारण्य का एक सुनसान तटीय कोना है वहीं पश्चिम में इस तट का केन्द्रीय स्थान हवालीखाटी है। डंगमाल के दूसरी ओर वैतरणी नदी की ओर कुछ और टापू हैं जिनमें कालीभंजडिया सबसे बड़ा है।
भीतरकणिका राष्ट्रीय उद्यान
इस नम क्षेत्र के तहत तीसरी संरक्षणगाह भीतरकणिका राष्ट्रीय उद्यान के रूप में जानी जाती है। यहाँ पर अनुछुए मैंग्रोव हैं। इस हिस्से में इसकी अनेक किस्मों को संरक्षण मिला है। मैन्ग्रोव का तात्पर्य ऐसी वृक्ष वनस्पतियों से है जो सागर तट पर ही मिलती हैं और नमकीन जल में उत्पन्न व विकसित होती हैं। उद्यान के आन्तरिक भाग के सुरक्षित व शान्त होने से यह स्थान पक्षियों की पसन्दीदा जगह है। हर साल ग्रीष्मकाल में यहाँ हजारों पक्षियों का जमावड़ा लगता है, जहाँ वे निश्चिन्तता के साथ घोसलें बनाकर अण्डे देते हैं, सेते हैं और उनका पालन पोषण कर बच्चों को आत्मनिर्भर बनाते हैं। मैंग्रोव के मध्य भोजन की प्रचुरता भी उनको यहाँ खींचती है।
वैसे तो पूरे नम क्षेत्र में पक्षी देखने को मिलते हैं किन्तु ज्यादातर पक्षी डंगमाल से करीब 8 किमी. की दूरी पर बग्गहना क्षेत्र को ही अपना प्रवास बनाना पसन्द करते हैं।
लगभग 4 हेक्टेयर में फैला कटोरेनुमा क्षेत्र किसी भी बाहरी शोर व प्रदूषणमुक्त है। यहाँ पर जून से लेकर सितम्बर के मध्य हजारों देशी व विदेशी पक्षी प्रजनन करते हैं। यहाँ पर चारों ओर पक्षियों का सैलाब दिखता है जिनकी संख्या 1 लाख तक जा पहुँचती है। इस दौरान पक्षियों के कलरव से यहाँ का वातावरण गुंजायमान मिलता है। इस पूरे क्षेत्र में 215 प्रकार की पक्षी प्रजातियाँ देखी व दर्ज की जा चुकी हैं। यहाँ अाने वाले पक्षियों में आधे दर्जन से अधिक प्रकार की किंगफिशर, नाइट हेरोन, पेलिकन गूज, ब्राह्मनी डक आदि पक्षी प्रजातियाँ प्रमुख रूप हैं। सारीबन एक अन्य ऐसा स्तान है यहाँ भी पक्षियों की भारी तादाद रहती है।
मानवीय दबाव
इस पूरे नम क्षेत्र की परिधि में लगभग 300 तक गाँव आते हैं जिनकी आबादी लगातार बढ़ रही है। यहाँ के ग्रामीण चारा व ईंधन के लिये इसी क्षेत्र पर निर्भर हैं। इस परिधि में हो रहे खेती के प्रसार, बढ़ते तालाबों में मछली पालन के प्रचलन से मैंग्रोव कम हो रहे हैं। आस-पास के गाँवों में आबादी यहाँ के मैंग्रोव के वृक्षों को घर बनाने, बाड़े बनाने व ईंधन के लिये इनको चोरी छिपे काटती रही है। बढ़ते प्राउन उत्पादन के तालाबों के बनने से प्रवासी पक्षियों का आना कम हुआ है।
मगरमच्छों की बढ़ती आबादी के कारण कभी मगरमच्छ भोजन की तलाश में अपनी सीमा से बाहर आकर मनुष्य पर हमला करते हैं वहीं कई बार ग्रामीण अभयारण्य क्षेत्र में मछली के शिकार के कारण मगरम्छों का निवाला बन जाते हैं। साल में इस प्रकार की तीन से चार घटनाएँ यहाँ औसतन होती हैं।
दूसरी ओर प्रतिबन्धित क्षेत्र में मछली पकड़ने के कारण कई कछुए मछली के जालों में फँस कर मारे जाते हैं खासतौर पर यंत्रीकृत नौकाओं में वृद्धि होने के बाद से यह दर बढ़ रही है। निकटवर्ती पराद्वीप बन्दरगाह में स्थापित रासायनिक फैक्टरियों का जल भी परोक्ष रूप में यहाँ के जल जीवन को प्रभावित करता रहा है। समीप में धमारा में नए बन्दरगाह एवं रेलवे स्टेशन के बनने से इस शान्त क्षेत्र में मानवीय गतिविधियाँ बढ़ी हैं।
पर्यटन महत्त्व
भीतरकणिका की विशिष्टता को देखने को देश-विदेश के हजारों पर्यटक, वन्य जन्तु प्रेमी, अध्येता, शोधार्थी, स्कूली छात्र यहाँ आते हैं। यहाँ आने के दो प्रवेश द्वार हैं। भुवनेश्वर से कटक राजनगर होते हुए या भद्रक से चाँदबाली होते हुए। दोनों रास्तों का अपना-अपना आकर्षण है। भद्रक से चाँदबाली लगभग 60 किमी, दूर है। इस नमक्षेेत्र का ज्यादातर भाग जलीय क्षेत्र में आता है इसलिये राजनगर से गुप्ती व चाँदबाली से आगे खोला तक का सफर मोटर नौका से ही होता है। सामान्यतः यहाँ घूमने को दो दिन चाहिए तथा अन्दर जाने के लिये प्रवेश पास लेना होता है।
मैंग्रोव के बीच से नौका से गुजरने का अद्भुत अनुभव होता है जहाँ हम उस जमीनी अनुभव से अवगत होते हैं कि मैंग्रोव के जलीय हिस्से में वन्य जीव जन्तुओं के अधिवास के लिये कैसा वातावरण चाहिये व पक्षी कैसे वातावरण को पसन्द करते हैं। बाहरी दुनिया का किसी भी तरह का शोर यहाँ आने नहीं पाता है। बीच-बीच में पक्षियों की चहचाहट से ही वातावरण की नीरवता टूटती है।
यह क्षेत्र मोबाइल सिग्नल की पहुँच से दूर है। दोनों ओर से डंगमाल तक आने में लगभग ढाई से तीन घंटे लग जाते हैं। इसके अन्दर आवास के लिये टापुओं अकाकुला, हवालीखाटी, डंगमाल व गुप्ती में वन विभाग के विश्रामगृह है। डंगमाल में ही इन मगरमच्छों के हैचरी रियरिंग कॉम्पलैक्स में इन मगरमच्छों के बारे में जानकारी मिलती है। पक्षियों को देखने के लिये दूर वॉच टावर बने हैं।
मानसूनी वर्षा के पूर्व यह क्षेत्र मई से लेकर अगस्त तक बन्द रहता है। यहाँ आने का उचित समय सितम्बर से मार्च रहता है। वन्य-जन्तुओं की जिन्दगी में कोई व्यवधान न हो इसलिये यहाँ आने वाले पर्यटकों को कड़े नियमों का पालन करना होता है।
श्रीललित कोटीयाल, स्वतंत्र विज्ञान लेखक
गुरु भवन, पौड़ी गढ़नाल 246001 (उत्तराखण्ड)
मो.: 09412413720;
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