भीषण सूखे की चपेट में हैं सौराष्ट्र और कच्छ इलाके

उल्लेखनीय है कि सौराष्ट्र, कच्छ और उत्तरी गुजरात में वर्ष 1998 और 1999 में बारिश नहीं होने से पानी का भारी संकट उत्पन्न हो गया था और राज्य के इन तीन हिस्सों में जीवन नरक के समान हो गया था। लेकिन वर्ष 2001 से 2011 के बीच सामान्य मानसून रहने से लोग सूखे को भूल गए थे और गुजरात में कृषि के क्षेत्र में दोहरे अंकों में विकास हुआ। ऐसा लगता है कि राज्य सरकार ने भी अच्छी बारिश को देखते हुए स्थिति को हल्के में लिया और सूखा प्रभावित इलाकों की प्यास बुझाने के लिए शुरू की गई दो बड़ी परियोजनाएं तय कार्यक्रम के अनुसार नहीं बढ़ पाई। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही अपने प्रशासन की तारीफ के पुल बांध रहे हों, लेकिन उनका राज्य भीषण सूखे की चपेट में है और सौराष्ट्र व कच्छ का इलाका झुलस रहा है। लोग एक बाल्टी पीने के पानी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। पिछले करीब 11 सामान्य मानसून के बाद इस साल आए सूखे की वजह से एक अनुमान के मुताबिक 10 से 15 प्रतिशत नक़दी फसलें खराब हो गई हैं। गर्मी के मौसम की शुरुआत में ही लगभग आधे राज्य में पानी की स्थिति बहुत खराब हो गई है जबकि पानी के छोटे और बड़े जलाशय सूख गए हैं। इससे ग्रामीण इलाकों की महिलाओं को पानी के लिए प्रतिदिन काफी लंबी दूरी तय करनी पड़ रही है जो कई बार दो से तीन किलोमीटर तक हो जाती है।

उल्लेखनीय है कि मोदी ने हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी और क कोलकाता में दिए भाषणों में नर्मदा परियोजना की मदद से लंबी दूरी तक पाइप से पानी पहुंचाने का दावा किया था। लेकिन इससे जुड़े लोगों का मानना है कि सौराष्ट्र, कच्छ और राज्य के कुछ उत्तरी इलाकों में पानी का एक टैंकर आता है तो लोगों को पानी लेने के लिए धक्का-मुक्की का सामना करना पड़ता है।

राजकोट जिले के जेतपुर कस्बे के रहने वाले सरोज मकवाना ने कहा, 'हमारे बच्चे प्यासे हैं क्योंकि यहां पर पीने के पानी का भारी संकट है। अधिकारी हमसे केवल खोखले दावे कर रहे हैं। हमें टैंकर से पानी की आपूर्ति के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है।' इस इलाके में हर 10 दिन पर पानी की आपूर्ति की जाती है। अमरेली शहर की निराश चंपाबेन राबरी ने कहा, 'हमारा सबसे सूदूरवर्ती इलाक़ा है जहां 15 दिन में एक बार पीने के पानी की आपूर्ति होती है। स्थानीय नगरपालिका अधिकारियों से बार-बार कहे जाने के बावजूद स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।' प्रभावित इलाकों में विरोध प्रदर्शन और बंद होते रहते हैं। अमरेली शहर में पानी की आपूर्ति के मुद्दे पर हाल ही में पूरी तरह से बंद रखा गया था। खाली बर्तनों के साथ महिलाओं के विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने का दृश्य एक आम बात हो गई है।

उल्लेखनीय है कि सौराष्ट्र, कच्छ और उत्तरी गुजरात में वर्ष 1998 और 1999 में बारिश नहीं होने से पानी का भारी संकट उत्पन्न हो गया था और राज्य के इन तीन हिस्सों में जीवन नरक के समान हो गया था। लेकिन वर्ष 2001 से 2011 के बीच सामान्य मानसून रहने से लोग सूखे को भूल गए थे और गुजरात में कृषि के क्षेत्र में दोहरे अंकों में विकास हुआ। ऐसा लगता है कि राज्य सरकार ने भी अच्छी बारिश को देखते हुए स्थिति को हल्के में लिया और सूखा प्रभावित इलाकों की प्यास बुझाने के लिए शुरू की गई दो बड़ी परियोजनाएं (नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध और कल्पसर परियोजना) तय कार्यक्रम के अनुसार नहीं बढ़ पाई।

राज्य विधानसभा में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक, नहरों के निर्माण का 75 फीसदी काम राज्य सरकार ने अभी तक पूरा नहीं किया है। उधर, राजस्व मंत्री आनंदी पटेल ने 26 मार्च को घोषणा की थी कि सौराष्ट्र, कच्छ और उत्तरी गुजरात के 10 जिलों के चार हजार गांव और कस्बे पानी की कमी से जूझ रहे हैं जबकि विपक्ष का कहना है कि आंकड़ा बहुत कम है। विपक्ष के नेता शंकर सिंह वाघेला ने कहा कि राज्य सरकार को पिछले साल जून महीने में ही जल संकट की स्थिति का पूर्वानुमान लगा लेना चाहिए था क्योंकि कच्छ और सौराष्ट्र के कई इलाकों में बारिश कम हुई थी और उसने अभी भी स्थिति को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया है। दूसरी तरफ सरकार सूखे के संकट को ही नकार रही है। उसका दावा है कि वह कम से कम छह महीने से इलाके में और ज्यादा पानी की आपूर्ति कर रही है। सरकार के प्रवक्ता और वित्त मंत्री नितिन पटेल ने कांग्रेस के दावे को खारिज कर दिया और कहा, 'हम पहले से ही राजकोट, जामनगर, भावनगर, जूनागढ़ और अमरेली में अतिरिक्त पानी की आपूर्ति कर रहे हैं।'

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