मैं, भीमकुण्ड अर्थात पानी का विशालकाय कुण्ड हूँ। लोेक कथाएँ बताती हैं कि मेरे जन्म का कारण, धार के महाप्रतापी परमार राजा भोज की जानलेवा बीमारी थी। इस बीमारी से निजात पाने के लिये किसी ऋषि ने उन्हें 365 नदी-नालों की मदद से बनवाए जलाशय में स्नान करने की सलाह दी थी। इसी कारण, राजा भोज (1010 से 1055) ने भोजपुर ग्राम में मेरा निर्माण कराया।
इस स्थान पर 356 नदी-नालों का पानी मिलता था। लोक कथाओं में कहा गया है कि नदी-नालों की संख्या की कमी को दूर करने के लिये गोंड सरदार कालिया ने एक गुप्त नदी को मुझमें मिलाने की सलाह दी। राजा भोज ने कालिया की सलाह मानकर गुप्त नदी का मार्ग बदलवाया और मुझे, 365 नदी-नालों का पानी जमा करने वाले भारत के विशालतम जलाशय अर्थात भीमकुण्ड का नाम मिला। राजा भोज ने मेरे जल में स्नान कर जानलेवा बीमारी से मुक्ति पाई।
इतिहासकार बताते हैं कि माण्डु के शासक होशंगशाह ने सन् 1430 में मेरी पाल तुड़वा दी थी। कहा जाता है कि गोंडों की सेना को उसे तोड़ने में लगभग तीन माह का समय, मेरे जलाशय को खाली होने में तीन साल और मेरी ज़मीन पर खेती प्रारम्भ होने में लगभग 30 साल का समय लगा।
भले ही आज से लगभग 570 साल पहले मेरा अन्त हो गया था पर खुशी की बात है कि आज भी लोग मुझे “ताल है भोपाल का, बाकी सब तलैया” कह कर सम्मान से याद करते हैं। इतिहास में मेरा नाम दर्ज है। लोग कहते हैं कि जलाशय के टूटने से हासिल ज़मीन गेहूँ की खेती के लिये बहुत मुफीद और देश की सर्वोत्तम जमीनों में से एक है। मेरे निर्माण में भारतीय विज्ञान और तकनीक को काम में लिया गया था। यह सुन-सुन कर मुझे अपना जीवन सार्थक लगता है।
सन् 1430 में मेरा अस्तित्व समाप्त हो गया पर समाज में प्रचलित लोक कथाओं ने मुझे आज तक जिन्दा रखा। भला हो अंग्रेज इतिहासकार डब्ल्यू. किनकेड का जिसने सन् 1888 में रेम्बल्स एमंग रुइन्स इन सेन्ट्रल इंडिया (द इंडियन एंटिक्वेरी, खंड 18, पेज 348 से 352) में मेरी कहानी प्रकाशित की। इस कहानी के छपने के बाद मेरा नाम दूर-दूर तक फैला। किनकेड के 20 साल बाद सी. ई. लार्ड ने भोपाल रियासत के गजेटियर में एक बार फिर मेरा जिक्र हुआ।
प्रारम्भ में मेरी कहानी किनकेड के लेख के विवरणों तक सीमित रही। उसने मेरे कुण्ड का क्षेत्रफल 250 वर्ग मील बताया था। किनकेड के अनुसार मेरा जलाशय भोपाल के दक्षिण में स्थित दुमखेड़ा ग्राम तक और दक्षिण में कालियाखेड़ी तक फैला था।
उसने मेरे वेस्टवियर का जिक्र किया था। किनकेड और लार्ड के बाद अनेक इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने मेरी कहानी कही है पर वह मुख्यतः पूर्व वर्णित तथ्यों तक ही सीमित रही है। मेरी कहानी के तकनीकी पक्ष पर शोध का अभाव है, इस कारण, कुछ लोगों के लिये मैं अजूबा हूँ तो कुछ लोग भोपाल के बड़े तालाब को मेरा अवशेष बताते हैं।
मध्य प्रदेश के भूजलवेत्ता के. जी. व्यास ने हाल ही में मेरी जन्मकुण्डली को खंगालकर मेरी कहानी के कुछ अनछुए एवं तकनीकी पहलुओं पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार, मेरा निर्माण पूरी तरह आधुनिक इंजीनियरिंग एवं वित्तीय मानकों के अनुसार हुआ था। वे बताते हैं कि स्थानीय मिट्टी से बनी मेरी पाल बहुत विशाल है और उसके दोनों तरफ सेंडस्टोन के तराशे पत्थरों की जमावट काबिले तारीफ और इतनी सटीक है कि हजार साल गुजरने के बाद भी उसका बाल बाँका नहीं हुआ है।
मेरी जिन्दगी की दूसरी बहुत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तत्कालीन कारीगरों ने मेरे वेस्टवियर की ऊँचाई का निर्धारण इतनी दक्षता से किया था कि 400 साल की लम्बी अवधि में कभी भी बरसाती पानी ने पाल नहीं लाँघी और मैं कभी भी जलप्रलय का पर्याय नहीं बना क्योंकि मेरे टूटने का अर्थ था भोजपुर से विदिशा तक के भूभाग का पूरी तरह नेस्तनाबूद हो जाना।
व्यास ने कम्प्यूटर तकनीक का उपयोग कर मेरा क्षेत्रफल, भौगोलिक स्थिति और कैचमेंट को ज्ञात किया है। इस गणना के अनुसार मेरा क्षेत्रफल, किनकेड के अनुमान का लगभग 60 प्रतिशत (40 हजार हेक्टेयर) तथा कैचमेंट लगभग 1 लाख 48 हजार हेक्टेयर है। किनकेड ने मेरे जलाशय से केवल एक द्वीप (मंडी द्वीप) का जिक्र किया है पर व्यास की कम्प्यूटर गणना बताती है कि मेरे जलाशय में पाँच द्वीप थे। इस जानकारी ने मेरे जीवन की कहानी पर पड़ी धुंध को छाँटने का प्रयास किया है।
किनकेड ने मेरी अधिकतम गहराई 100 फुट (लगभग 30 मीटर) मानी थी। व्यास ने मेरे जलाशय क्षेत्र के 18 ग्रामों में खोदे नलकूपों की मदद से मेरी गहराई का अनुमान लगाया है जिसके अनुसार सम्भवतः मेरी अधिकतम गहराई लगभग 40 मीटर और औसत गहराई 20 मीटर रही होगी। मेरी जन्मकुण्डली बताती है कि यह अधिकतम गहराई, कलियासोत और बेतवा नदियों की तली में, मेरी पाल के निकट, रही होगी।
कुण्डली बताती है कि मेरे जलाशय को पूर्व-पश्चिम, पश्चिम और दक्षिण में स्थित विन्ध्याचल की पहाड़ियों से हर साल लगभग 81 हजार हेक्टेयर मीटर और मेरे जलाशय क्षेत्र पर बरसने वाले पानी से लगभग 44 हजार हेक्टेयर मीटर पानी मिलता था अर्थात हर साल मेरे जलाशय में लगभग एक लाख पच्चीस हजार हेक्टेयर मीटर पानी जमा होता था। पानी की यह मात्रा बीस लाख की आबादी वाले भोपाल जैसे शहर को लगभग पन्द्रह साल तक पानी उपलब्ध करा सकती थी।
कहानी बताती है कि होशंगशाह ने सन् 1430 में मुझे तुड़वा दिया था। मेरे टूटने के कारण समाज को बहुत उपजाऊ ज़मीन हासिल हुई। यह ज़मीन, कैचमेंट के पानी के साथ आई हल्के पीले रंग की चिकनी मिट्टी के जमा होने के कारण बनी है। इसकी परत की अधिकतम मोटाई 28 मीटर से भी अधिक है।
मेरे बनने से सबसे अधिक बदलाव कलियासोत और कोलांश नदियों की घाटियों में हुये। कोलांश नदी के जीवनकाल में तीन उतार-चढ़ाव आये। मौजूदा कलियासोत नदी का सफरनामा, सन् 1430 के बाद का है। इस सफरनामे के अनुसार, वह अपने उद्गम (भदभदा जल-विभाजक रेखा के पास) से चल कर, मेरी एक किलोमीटर लम्बी पाल के पास पहुँचती है जहाँ से वह लगभग 90 डिग्री के कोण से घूम कर पश्चिम की ओर चलती हुई भोजपुर से लगभग 500 मीटर पहले बेतवा को मिल जाती है।
कलियासोत के जीवन की कहानी का दूसरा भाग, बड़े तालाब के बनने के बाद शुरू हो सन् 1430 में खत्म हो जाता है। इस दौर में वह, अपने मूल उद्गम से तो निकलती है पर उसका सफर बिलखिरिया खुर्द ग्राम के पास आकर समाप्त हो जाता है। यहाँ उसका मिलन मेरे जलाशय से होता है। कलियासोत का सबसे पुराना दौर, मेरे निर्माण के पहले का करोड़ों साल पुराना दौर है।
इस दौर में उसका उद्गम तो भदभदा की जल-विभाजक रेखा के निकट ही था पर उसका पुराना संगम, वर्तमान संगम से लगभग 1500 मीटर आगे था। मेरे प्राचीन मार्ग को सेटेलाईट चित्रों, सर्वे आफ इण्डिया की टोपोशीट (55-1/4 E/12-1/2) और नंगी आँखों से देखा जा सकता है। मैं, आज भी, पाल के उस पार की अपनी कहानी के भूगोल को संजोय हूँ ताकि आप मेरी कहानी की पुख्ता तसदीक कर सकें।
व्यास ने परमारकालीन पुरानी गुमनाम नदी के पुनः जिन्दा होने की कहानी का सच जानने के लिये बड़े तालाब, भदभदा और कलियासोत नदी की जल-विभाजक रेखा के आसपास के क्षेत्र में प्रवाहित नदी नालों को प्रदर्शित करने वाले नीचे दिये सेटेलाईट नक्शे का अध्ययन किया है।
इस नक्शे को देखकर पता चलता है कि सामान्य परिस्थितियों में, कोलांश नदी-घाटी का पानी, जल-विभाजक रेखा पार कर, अर्थात गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध कलियासोत-घाटी में प्रवाहित नहीं हो सकता। नदी-विज्ञान से जुड़े आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों की रोशनी में कहा जा सकता है कि पुरानी गुमनाम नदी के पथ परिवर्तन या पुनः जिन्दा होने की परमारकालीन कहानी सच नहीं है। मैं इस खोज से खुश हूँ क्योंकि इस खोज से समाज में प्रचलित गलतफहमियों पर विराम लगेगा।
कोलांश नदी की कहानी कलियासोत की कहानी से अधिक रोमांचक है। कहते हैं कि राजा भोज ने कोलांश पर बड़ा तालाब बनवा कर उसके अतिरिक्त पानी को कलियासोत के रास्ते भीमकुण्ड पहुँचाया। नीचे दिये सेटेलाईट मैप में बड़ा तालाब, छोटा तालाब, कोलांश नदी का जल मार्ग (हल्के रंग की रेखा) और लीनियामेंटों को दर्शाया है। चित्र में कोलांश नदी कमला पार्क की दिशा में जाती दिख रही है इसलिये लगता है यदि कमला पार्क पर पाल नहीं बनाई जाती तो वह इसी प्रकार आगे बढ़ती और फिर इस्लामनगर के पास बेतवा में मिल जाती।
बड़े तालाब के बनने से कोलांश की कहानी में जो बदलाव आया वह जानने लायक है। यह घटनाक्रम मेरी कहानी का सबसे अधिक दिलचस्प भाग है। दसवीं सदी में बड़ा तालाब बना। उसका अतिरिक्त पानी भदभदा के स्पिल-वे, कमला पार्क की सुरंग और रेतघाट के रास्ते बहता था।
कमला पार्क की सुरंग और रेतघाट से निकला पानी नाले की शक्ल में, कोलांश नदी के पुराने जलमार्ग से बहता था। सन् 1794 में छोटे खान ने छोटा तालाब बनवाया जिसके कारण दसवीं सदी के नाले की पहचान खो गई। छोटे तालाब की पाल से बाहर निकले पानी ने पातरा नाले को जन्म दिया जिसका संगम इस्लामनगर के पास है।
भोपाल के नवाबों ने सम्भवतः बीसवीं सदी के प्रारम्भ में भदभदा के निकट बड़े तालाब का लगभग चार फुट ऊँचा स्पिल-वे बनवाया था। सन् 1963 में मध्य प्रदेश की सरकार ने बड़े तालाब की क्षमता बढ़ाने के लिये भदभदा वेस्ट-वियर बनवाया।
मध्य प्रदेश सरकार ने बाढ़ से निचले हिस्सों को बचाने के लिये रेतघाट की ऊँचाई बढ़वाई। कमला पार्क की पाल को सुरक्षित करने के लिये सुरंग की मरम्मत करा, उसका मुँह बन्द कराया। बस यही है मेरी आधी अधूरी कहानी। भारत की गौरवगाथा का यह छोटा सा विस्मृत आख्यान है। गुज़ारिश है, बन पड़े तो इसे सँवारें।
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