गंगा हमारे रिहायशी घर के पीछे से बहती है। बचपन से ही मैंने उसके साथ एक मजबूत रिश्ता बनाया था। साल के एक खास समय में नदी आवेश में आ जाती और दूसरे समय में सूख भी जाती मैं उसे ज्वार और भाटे दोनों की स्थिति में रोज देखता था। नदी मेरे लिए किसी जीव की तरह थी जो हमेशा परिवर्तनशील रहती। शाम के समय में उसके किनारे पूरे मन से बैठता था। नदी की लहरें किनारों को तोड़ती रहती थीं। और बहते हुए मधुर गीत गुनगुनाती रहती थीं जैसे ही अँधियारा आसमान से उतरता और दुनिया का शोर धीरे-धीरे क्षीण हो जाता, मैं गंगा की गुनगुनाहट में कई सारी आवाजें सुन पाता था में अक्सर पूछता था-
"गंगा, तुम कहाँ से आती हो उत्तर देतीं। "महादेव की जटाओं से।”
तब मैं भागीरथ द्वारा गंगा को पृथ्वी पर उतार लाने की कहानी याद करता। मैंने इस बारे में तमाम स्पष्टीकरण और व्याख्याएँ पढ़ी हैं कि नदियाँ कैसे बनती हैं। लेकिन जब भी में गंगा के किनारे शाम के शांत अंधेरे में बैठता में हर बार यही उत्तर सुनता-
"मैं महादेव की जटाओं से निकलती हूँ।”
एक बार गंगा के किनारे, मैंने अपने किसी बहुत ही प्रिय का अंतिम संस्कार देखा था एक झटके में जो प्रेम की शरण मैंने बचपन से आज तक संजोकर रखी थी, धुएँ की तरह उड़ गई। प्रेम की आत्मा जिसने मुझे पाला-पोसा था, किसी अनजानी धरती में जाकर खो गई। क्या जो इस धरती से एक बार चला जाता है कभी वापस नहीं आता? क्या वह अमरत्व में खो जाता है? क्या जीवन, मृत्यु के साथ ही खत्म हो जाता है मरने के बाद कोई कहाँ जाता है?
मेरा खोया हुआ प्रिय आज कहाँ है "महादेव के चरणों में" मैं नदी की गुनगुनाहट में बहुत साफ- साफ सुन पाया था।
"हम वहीं चले जाते हैं जहाँ से आते हैं।”
घर से बाहर एक लंबी यात्रा तय करने के बाद हम वापस घर लौट जाते हैं।" अँधियारा घिरते समय नदी यह कहते हुए प्रतीत होती थी। जब भी मैंने प्रश्न पूछा- "प्रिय नदी, तुम कहाँ से आती हो " मैंने हमेशा यही पुराना उत्तर पाया है, "महादेव की जटाओं से"।
एक दिन मैंने गंगा से कहा, "गंगा हमारा नजदीकी रिश्ता तमाम सालों पुराना है। तुम मेरी सबसे पुरानी दोस्त हो। तुम मेरी जिंदगी में इतनी गहराई से शामिल रही हो। सच तो यह है कि तुम मेरे अस्तित्व का एक हिस्सा हो, फिर भी मैं तुम्हारे उद्गम का स्रोत नहीं जानता। मैं आपके साथ-साथ यात्रा करके खुद देखना चाहता हूँ कि तुम कहाँ से जाती हो?"
मैंने सुना था कि हमारे देश के उत्तर-पश्चिम में बरफ से ढकी हुई चोटियों जाह्नवी (गंगा का दूसरा नाम) का स्रोत हैं। मैंने अपनी यात्रा कस्बों, शहरों, जंगलों और पहाड़ियों के बीच से तय करनी शुरू की और एक स्थान कुमांचल पहुंचा जो हमारे महाकाव्यों में भी वर्णित है। सरयू नदी का स्रोत खोज लेने के बाद, में दानवपुर पहुँचा। तब मैंने कई पहाड़ियों और चोटियाँ पार की ओर उत्तर की ओर आगे बढ़ता चला गया।
एक दिन, इस अंतहीन यात्रा से पूरी तरह थककर में बैठ गया। मैंने अपने चारों ओर पर्वतों और जंगलों की एक श्रृंखला देखी एक विशाल बोटी, आकाश को चीरती हुई, अपने पीछे सब कुछ छिपाती हुई, मेरे सामने खड़ी थी। मेरे गाइड (मार्गदर्शक) ने कहा, "आपके सपने साकार हो जाएंगे, अगर आप इस पर्वत पर चढ़ाई कर सकें। नीचे वह एक चाँदी-सी चमकती हुई रेखा देखिए। यही बाद में गंगा बन जाती है और आपके देश भर में विचरण करती है, कभी-कभी अपनी राह में आने वाले किनारों को बाढ़ में डूबोते हुए। यदि आप । यदि आप इस पहाड़ पर चढ़ाई कर सकते हैं तो आप गंगा का स्रोत देखने में सक्षम हो जाएँगे।
मेरे गाइड ने अचानक कहा,
"उस तरफ देखिए।" "जय नंदादेवी! जय त्रिशूल!" उसने जयघोष किया।
मैंने जैसे ही पहाड़ी पर चढ़ाई की, मेरे सामने जो दृश्य थोड़ा-सा पीछे होने पर अस्पष्ट था, ऐसा लगा जैसे किसी ने अब परदा उठा दिया हो। नीला आसमान दूर तक फैला हुआ था, दो बरफ से ढंके पर्वत सामने खड़े थे, अपने सिर को ऊंचा उठाए हुए एक सौम्य और दयालु प्रतीत हो रहा था, जैसे धरती माँ जिनकी गोद में सभी का जीवन पुष्पित-पल्लवित होता है, वहीं दूसरा अत्यधिक लंबा और नुकीला, जैसे कोई मजबूत भाला धारण किए हो आकाश और धरती को चीरता हुआ।
मैं 'सृजन और विनाश' दोनों को अगल-बगल एक साथ देख सकता था। "आपकी आग की चढ़ाई बहुत ही जटिल है, यदि आप दो दिन और चढ़ाई करते रहेंगे तो आपको जमी हुई नदी दिखाई देगी। - मेरे गाइड ने कहा।दो दिन तक पहाड़ियों, जंगलों, घाटियों और गुफाओं से होते हुए दुर्गम यात्रा करने के बाद अंततः में बरफ की घाटी पहुंच गया। नदी की मधुर गुनगुनाहट जिसे मैं हमेशा सुन पाता था। वह अचानक बंद हो गई। इतनी अचानक कि जैसे उसने जादू की छड़ी की किसी आज्ञा का पालन कर लिया हो। नदी का तरल प्रवाह बर्फीली चुप्पी में जम गया। कुछ जगहों पर लहरें जम गई थी, लग रहा था जैसे कि उछल-कूद मचाती हुई लहरों को किसी ने 'सावधान' कह दिया हो। ऐसा लग रहा था, जैसे महान सृजक ने धरती के सारे नगीने इसी जमे हुए महासागर को बनाने में इस्तेमाल कर लिए हो।
दोनों तरफ विशाल पर्वत अपने हाथ ऊपर किए हुए खड़े हुए थे, और तलहटी में अनंत संख्या में पेड़ इन्हें उपहार अपने फूल न्योछावर कर रहे थे। ग्लेशियर (हिमनद) से घाव की तरह पिघलते ग्लेशियर (हिमनद) से घाव की तरह पिघलता हुआ पानी नीचे घाटी में गिर रहा था। नंदादेवी और त्रिशूल अब कोहरे के धुंध में गोते लगा चुके थे और दिखाई नहीं दे रहे थे। यदि मैं कोहरे के परदे को पार कर पाता तो पहाड़ियाँ फिर से दिखने लगतीं। मैं जमी हुई नदी के किनारे-किनारे और यात्रा करता गया। यह नदी धवलगिरि से नीचे आ रही थी। जब यह नीचे गोता लगा रही थी, तो बड़े-बड़े पत्थर टूटकर दूर-दूर तक चारों ओर बिखर जा रहे थे। जैसे-जैसे में और ऊपर चढ़ता गया, एक चट्टान से दूसरी चट्टान हवा और महीन होती गई तथा दैवीय महक भी बढ़ती गई। सांस लेना मुश्किल हो गया। थकावट से पार न पाने से मैं बेहोश होकर नंदा देवी के चरणों में ढहकर गिर पड़ा।
अचानक मेरे कानों में हजारों शखों का नाद सुनाई देने लगा, मैं पर्वतों और जंगलों में आयोजित की जा रही पूजा को अपनी अधखुली आँखों से देख पाया था। पवित्र पात्र की विशालधारा से जल नीचे की ओर गिर रहा था, पेड़ अपने पुष्प अर्पित कर रहे थे और हजारों शंखों का नाद चारों दिशाओं में गूँज रहा था। मैं यह भी तय नहीं कर पा रहा था कि यह आवाज हजारों शंखों की है या बर्फ की चट्टानें नीचे की और धड़धड़ाते हुए जा रही हैं।
मैं खुशी से रोमांचित और अभिभूत हो गया जब मैंने आगे और देखा कि नंदादेवी और त्रिशूल को ढंकने वाला कोहरे का परदा उठा लिया गया है। नंदादेवी की चोटी के चारों ओर एक चकाचौंध है जिसे देखना कठिन है। कोहरे के धुंध के उठने से एक धुआँ उठा, जिसने आसमान ढक लिया। क्या वह महादेव की तथाकथित जटाएं थीं, उन्होंने नंदादेवी को एक छत की तरह ढक लिया था। बरफ की बूँदें आसमान से गिर रहे हीरों की तरह चमक रही थी, ये त्रिशूल को और नुकीला बनाते हुए नंदादेवी की चोटी के चारों ओर हीरों का मुकुट बना प्रतीत हो रही थीं। 'शिव और रुद्र' रक्षक और विनाशक, मैंने पौराणिक कथा का अर्थ महसूस किया। मैंने अपनी आंखों से देखा कि पानी की बूंदे (पर्वत पर इकट्ठी होकर समुद्र तक की अपनी यात्रा करते हुए) कैसे भाप बनकर यहीं दोबारा वापस आ जाती हैं। सृजन और विनाश का चिरकालिक और अनादि चक्र मैंने अपनी आँखों से स्पष्ट देखा।
पानी की बूंदें विशालकाय पर्वतों के इन शरीरों को चीरकर उन्हें तोड़ देती है। चट्टानें इस तरह विस्थापित होकर गड़गड़ाहट की आवाज के साथ नीचे लुढ़कती जाती हैं। पानी की बूँदें जमकर नीचे बरफ का एक बिस्तर बना देती हैं। टूटी हुई महाशिलाएं जैसे ही बरफ के बिस्तर पर गिरती हैं, पानी की बूंद आपस में एक-दूसरे को कहती हैं-"आओ! इन चट्टानों की टूटी हुई हड्डियों से एक नई दुनिया का निर्माण करें।"
करोड़ों और अरबों पानी की बूँदें अपने सूक्ष्म बलों को इकट्ठा करके इन चट्टानों को नीचे की ओर थकेल देती हैं। इस तरह घाटियां बनती हैं। अंतहीन घर्षण से पत्थर धूल में परिवर्तित हो जाते हैं। जहाँ मैं बैठा था, कहाँ कई बड़े पत्थरों को इकट्ठा होते हुए देखा। बरफ पिघलती है और बहते हुए पानी में बदल जाती है, जो कई बड़े पत्थरों को अपने साथ बहा ले जाती हैं, कस्बे और शहर बसते हैं। यदि रास्ते में कोई मरुस्थल आता है, तो यहाँ बाढ़ आ जाती है और घिसे हुए पत्थरों से बनी धूल-मिट्टी रेगिस्तान पर बैठ जाती है और रेगिस्तान पानी के साथ में आई हड्डियों से उर्वर हो उठता है, कुछ ही समय में रेगिस्तान में हरे मैदान लहलहा उठते हैं। बारिश और पानी का बहाव धरती को साफ करता है और कूड़ा-करकट अपने साथ ले जाकर समुद्र में डाल देता है, यहाँ एक और नई दुनिया का निर्माण होता है, जो मनुष्यों को दिखाई नहीं देती।
पानी की बूँदें जो समुद्र में बहती हैं, हवाओं के साथ बहकर तटीय क्षेत्रों तक आ जाती हैं, इसके बाद वे धरती के अंदर जाकर बहती हैं, जैसे धरती के अंदर की अनंत आग को अपनी आहुति देती हो और उस यज्ञ से उठी यह अग्नि-धारा पृथ्वी की सतह को चीरती हुई ज्वालामुखियों के रूप में बाहर आ जाती है। इस सबके बीच पृथ्वी थरथरा उठती है। महासागर के बिस्तर के नीचे की धरती और नीचे की ओर डूब जाती है; इस प्रक्रिया में धरती के कई टुकड़े महासागर के नीचे से ऊपर की और आकर नए द्वीप-महाद्वीपों का निर्माण करते हैं।
पानी की बूँदें तब भी आराम नहीं कर पाती, जब वे महासागर में मिल जाती है। कह सूरज की आग में तपकर आसमान की ऊंचाई तक पुनः उठ जाती है। हवाओं और तूफानों के सहारे वे पुनः पहाड़ों पर वापस लौट जाती हैं। फिर यहाँ जाकर यह कुछ देर तब तक विश्राम करती हैं, जब तक यह पुनः पिघलकर बह जाने से पहले बरफ के विस्तर पर पड़ी होती हैं। यह एक अनंत और अंतहीन चक्र है।
यहाँ तक कि अब भी जब में भागीरथी के किनारे बैठा हूँ और नदी की गुनगुनाहट सुन रहा हूँ, मैं उसे मेरे पुराने प्रश्न का वही पुराना उत्तर देते हुए सुन रहा हूँ वह प्रश्न जो में तमाम सालों से पूछता आया हूँ। लेकिन अब मुझे उसके उत्तर को समझ पाने में मुश्किल नहीं है। "ओ नदी तुम कहाँ से आती हो " अब मैं उसका उत्तर साफ और बुलंद आवाज में सुन पाता हूँ- "महादेव की जटाओं से। "
जगदीश चंद्र बोस (30 नवंबर, 1858-23 नवंबर 1937):- प्रसिद्ध भौतिकविद् तथा पादपक्रिया वैज्ञानिक ने मिलीमीटर तरगें केस्कोग्राफ जैसी खोजें कीं। उन्होंने कारकोनी के प्रदशर्न के दो वर्ष पहले ही 1885 में रेडियो तरंगों द्वारा बेतार के संचार का प्रदर्शन किया था। बोस ने ही सूर्य से आने वाले विद्युत चुंबकीय विकिरण के अस्तित्व का सुझाव दिया था, जिसकी पुष्टि 1944 में हुई।
डॉ. मेहेर वान- वे पेशे से वैज्ञानिक हैं। विज्ञान एवं समाज के संबंधों में उनकी गहरी रुचि है। वे हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला भाषा में विज्ञान संचार करते हैं।
संपर्क : meherwan24@gmail.com
स्रोत :- पुस्तक संस्कृति ,22 जनवरी-फरवरी 2022
स्रोत - 1895, 'अव्यक्त’, लेखक - जगदीश चंद्र बोस की पुस्तक से साभार, मूल बांग्ला से हिंदी में अनुवाद डॉ. मेहेरवान
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