भगीरथ की गंगा और ज्ञान गंगा

जिस प्रकार भगीरथ की गंगा के साथ जो अन्याय अनेक दशकों से होता आ रहा है और जिसके लिये चार-पाँच दशकों से लगातार सुधार की घोषणाएँ तथा धन आवंटन होते रहे हैं, मगर परिणाम नगण्य ही रहे हैं। ठीक उसी प्रकार की स्थिति भारत की शिक्षा व्यवस्था की भी है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने बहुत पहले ही यह समझ लिया था कि आजादी के बाद शिक्षा ही आशा की एकमात्र किरण होगी। भौगोलिक बन्धनों से पूर्णरूपेण मुक्त गंगा की पवित्रता की अविरल धारा भारत की सभ्यता की आत्मा के रूप में प्रस्फुटित होती रही है। गंगा के प्रति अथाह आस्था का सागर किसी धरम या पंथ के ऊपर कभी आश्रित नहीं रहा है, आज भी करोड़ों परिवारों को जीवन देती है गंगा की धारा। और उससे कहीं अधिक लोगों को आध्यात्मिक तथा मानसिक संबल प्रदान करती है उनकी अपनी गंगा।

ऐसी गंगा का हजारों वर्ष से चला आ रहा अविरल निर्मल प्रवाह अब केवल एक मर्माहत यात्रा मात्र बनकर रह गई है। गंगा माता पुकारने वाले उसके ही पुत्रों ने उससे प्राप्त तो सब किया मगर इस प्रक्रिया में उसे उसी तरह जर्जर कर दिया जैसे आज के समय की सन्तान अपने माता-पिता के धन-धान्य का उत्तराधिकार लेने को तो उतावली रहती है मगर उसके बाद उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने में हिचकती नहीं है।

संयुक्त परिवार की भारत की परम्परा में यह कल्पना करना भी असम्भव था कि इस देश में कभी वृद्ध आश्रमों की आवश्यकता भी पड़ सकती है, ठीक वैसे ही जैसे यह असम्भव माना जाता था कि मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये, भौतिक उपलब्धियों के लिये ममतामयी गंगा की गोद को ही दूषित एवं प्रदूषित करता जाएगा। जिस समाज में यज्ञ के लिये लकड़ी काटने के पहले पेड़ से भी विनम्रतापूर्वक अनुमति ली जाती थी, वह इतना हृदयहीन कैसे हो गया?

विकास की उधार ली गई अवधारणा को अपनाते हुए व्यवस्था ने जैसे चाहा, गंगा की अविरल धारा को बाँधा, तोड़ा, मरोड़ा, उसके मार्ग को अवरुद्ध किया। उसके स्वरूप को क्षत-विक्षत कर आगे शहरों और कस्बों में उसका स्वागत हर प्रकार के कूड़े-कचरे, नि:स्राव, कारखानों के त्याज्य जहरीले रसायनों को नि:संकोच उड़ेल कर किया।

आज सारी घोषणाओं के उपरान्त भी सुबह-शाम आरती का आयोजन करने वाले थोड़ी ही दूरी पर उसी धारा में प्रवाहित हो रहे नालों के अस्तित्व से बेखबर बने रहते हैं। हम सब बड़ी नादानी से, अपने अनेक दशकों के अनुभव के विपरीत, आशा करते हैं कि सुस्त, संवेदनहीन तथा भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था ठेके देकर गंगा की धारा को फिर उसके भागीरथी स्वरूप में ले आएगी।

गंगा की पवित्रता की यदि किसी से समकक्षता की जा सकती है तो वह केवल ज्ञान गंगा ही हो सकती है। ज्ञान गंगा के लिये गीता में कहा गया है कि ज्ञान से पवित्र और कुछ भी नहीं होता है। ज्ञान गंगा का प्रवाह भी सुचारू रूप से तभी चल सकता है जब उसे अनगिनत पीढ़ियाँ अपने बुद्धिबल से प्रयत्नपूर्वक सिंचित और समृद्ध करती रहें।

भारत की अविरल ज्ञान सर्जन, अर्जन और ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ उपयोग की परम्परा अनेक कारणों से अनेक अवसरों पर अवरुद्ध कर इसे समाप्त करने के प्रयास भी किये गए, और सत्तासीनों द्वारा आधिकारिक रूप से किये गए, मगर यह इसकी आन्तरिक शक्ति का ही परिणाम था कि इसकी धारा कभी सूखी नहीं।

आज के समय ज्ञान के अर्जन, सर्जन, उपयोग तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी आदान-प्रदान को शिक्षा के अन्तर्गत समेटा जाता है। औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत जानबूझकर इसका स्वरूप बदला गया, इसके विकास के लिये नहीं, वरन बाहरी शासकों के अपने स्वार्थ के लिये। भारतीयों को भारत से अलग करने का यह सबसे सशक्त उपाय माना गया। इसको पूरी तरह समाप्त करने की इच्छा से एक बाहर से लाया गया स्वरूप तथा चिन्तन भी यहाँ लाकर रोपा गया।

बदलाव तो प्राकृतिक प्रक्रिया में अवश्यम्भावी है, मगर यह आन्तरिक प्रेरणा से तथा उपयोगी पाये गए विचारों तथा कौशलों की सन्दर्भित स्वीकार्यता से प्रस्फुटित होना चाहिए, सत्ता के आदेशों से नहीं। स्वतंत्र देश में तर्कसंगत तो यही मानी जाएगी कि उसकी अपनी शिक्षा व्यवस्था की पुनर्स्थापना तथा उसे पुन: अपनी गतिशीलता प्राप्त करने में अधिक समय नहीं लगना चाहिए था।

जिस प्रकार भगीरथ की गंगा के साथ जो अन्याय अनेक दशकों से होता आ रहा है और जिसके लिये चार-पाँच दशकों से लगातार सुधार की घोषणाएँ तथा धन आवंटन होते रहे हैं, मगर परिणाम नगण्य ही रहे हैं। ठीक उसी प्रकार की स्थिति भारत की शिक्षा व्यवस्था की भी है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने बहुत पहले ही यह समझ लिया था कि आजादी के बाद शिक्षा ही आशा की एकमात्र किरण होगी।

देश के लिये महात्मा गाँधी ने न केवल एक उपयुक्त शिक्षा तंत्र को स्वरूप दे दिया था वरन उसका क्रियान्वयन करके भी उसकी उपयोगिता परख ली थी। उस बेसिक शिक्षा या बुनियादी तालीम में भारत की माटी की सुगन्ध थी। उसकी जड़ें भारत की परम्परागत ज्ञानार्जन प्रणाली में गहरे तक समाई हुई थीं।

1947-50 में निर्णय लेने का अवसर आया था कि रोपित व्यवस्था को बनाए रखना है या अपनी व्यवस्था की पौध लगानी है। नीति-निर्धारक अंग्रेजियत के प्रभाव से अपने को मुक्त नहीं कर पाए और निरन्तरता में ही प्रसन्न बने रहे। आज विश्व भर में यह स्वीकार्य है कि प्रत्येक देश की शिक्षा की जड़ें उसकी अपनी संस्कृति में गहरे जानी चाहिए और प्रगति तथा नए विचारों को ग्रहण करने के प्रति पूरी प्रतिबद्धता होनी चाहिए।

यदि भारत की शिक्षा व्यवस्था ने अपने को भारतीय आस्था से अलगाव को प्रश्रय देकर यहाँ के जनमानस की संवेदनाओं को नकारा न होता तो, न तो गंगा इतनी मैली होती और न शिक्षा व्यवस्था धनार्जन लोलुपों के हाथों में जकड़ती जाती। आज असीमित प्रदूषण से ग्रसित है लगभग पूरी शिक्षा व्यवस्था! कहाँ गई समान स्कूल व्यवस्था की संकल्पना? कैसे तिरोहित हो गई गाँधी की बुनियादी तालीम! अब तो लगता है कि जो पश्चिम में हो रहा है, केवल वही उपयोग, सराहनीय और स्वीकार्य है, वही अनुसरणीय है।

ऐसे में तो ‘प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों को केवल भोगमात्र के लिये सृजित किया गया है’ के सोच वाली संस्कृति ही पनपेगी, और वही हो रहा है। ऐसी सोच में भगीरथ की गंगा तो मात्र एक और नदी भर रह जाती है। उस पर जहाँ चाहो बाँध बनाओ, बिजली संयंत्र लगाओ, होने दो उत्तराखण्ड की त्रासदी, उसका प्रभाव जिन पर पड़ा उनकी चिन्ता क्यों की जाए! आवश्यकता तो इस सोच में बदलाव की है। और यह हम सब पर समान रूप से लागू होता है।

भारत की संस्कृति में तो मानव और प्रकृति के बीच संवेदनशीलता से बँधी परस्परता की समझ हजारों साल पहले ही विकसित हो चुकी थी। इस सोच को इस समय विश्व के समक्ष रखने की आवश्यकता है। मगर भारत जो स्वयं इसका पालन नहीं कर रहा है, औरों को राह कैसे दिखा सकता है? अभी भी समय है कि ज्ञान गंगा से भारत की भावी पीढ़ियों को भारत और भारतीयता से जोड़ें, उनका दृष्टिकोण परिवर्तन कर उनकी विश्लेषण क्षमता विकसित करें और निर्णय उन्हीं के ऊपर छोड़ दें।

भारत को भारत की दृष्टि से देखने और समझने वाले थोड़े से लोग देश के अनेक भागों में तन-मन-धन से गंगा और ज्ञान गंगा को उनका मूल स्वरूप देने में लगे हुए हैं। आवश्यकता तो उनके साथ खड़े होने की है। वे युवा पीढ़ी के लिये आदर्श हैं और इसी रूप में उन्हें प्रस्तुत किया जाना होगा।

लेखक एनसीइआरटी के निदेशक रह चुके हैं।

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