![saaf mathe ka samaj](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/saaf%20mathe%20ka%20samaj_12_3.jpg?itok=l6wWTJxs)
saaf mathe ka samaj
पूरी दुनिया को रौंदने वाले इस विकास से पहले लगभग सभी समाजों में, यूरोप आदि में भी अपनी समस्याओं को अपने ढंग से हल करने की स्फूर्ति रही है। पर लम्बे समय की गुलामी और उसके बाद मिली विचित्र आजादी ने उन समाजों की उस स्फूर्ति का हरण कर लिया है। आज सभी मंचों से ‘परम्परागत ज्ञान’ का खूब बखान होने लगा है पर यह कुछ इस ढंग से होता है मानो परम्परा हमें पीछे लौटा ले जाएगी।हर समाज में उत्सव प्रियता की एक बड़ी जगह रहती है। इसमें मेले-ठेलों का आयोजन स्वागत योग्य ही होता है। लेकिन जोहान्सबर्ग में ‘स्थायी विकास पर विश्व सम्मेलन’ समझ से परे है।
दुनिया के अधिकांश देशों, भागों के ‘पिछड़ेपन’ पर तरस खाकर कोई साठ बरस पहले ‘विकास’ नाम की ‘जादुई दवा’ की पुड़िया हरेक को थमा दी गई थी। फिर 3 दशक बाद इन्हीं चिकित्सकों ने पाया कि विकास से विनाश भी हो रहा है। तो तुरन्त विनाश रहित विकास का नारा भी सामने आ गया था। फिर उससे भी दुनिया की समस्याएँ जब ठीक होती नहीं दिखीं तो ‘बुंटलैंड आयोग’ के समझदार सदस्यों ने पूरी दुनिया का चक्कर लगाकर ‘स्थायी विकास’ का विचार सामने रखा। तब से अब तक संयुक्त राष्ट्र संघ के ढाँचे में इसकी कोई सत्तर से अधिक परिभाषाएँ विकसित हो चुकी हैं।
हर देश में विकास के नाम पर अपने ही संसाधनों की छीना-झपटी चलती रही है। बाद में यह देशों की सीमाएँ लाँघकर बड़े क्षेत्र तक भी फैली है। और अब तो ‘भूमंडलीकरण’ जैसे विचित्र शब्दों की मदद से पूरी दुनिया में एक नए किस्म की लूटपाट का कारण बन गई है। संसाधनों की ऐसी लूटपाट पहले कभी देखी नहीं गई थी। इसमें माओ का चीन हो या गाँधी का भारत-सभी देश कोका-कोला के चुल्लू भर पानी डूब मरने को ही विकास का उत्सव मान बैठे हैं।
भूमंडलीकरण की होड़ में, ऐसी भगदड़ में फँसी सरकारों से, उनके कर्ता-धर्ताओं से किसी तरह के स्वस्थ, स्थाई विकास की उम्मीद कर लेना भोलापन या साफ शब्दों में कहें तो पोंगापन ही होगा। ‘स्थायी विकास’ की एक सर्वमान्य परिभाषा इसे ऐसा विकास बताती है जो देशों और दुनिया के स्तर पर कुछ ऐसा करे कि वर्तमान पीढ़ी की बुनियादी जरूरतें आने वाली पीढ़ी की जरूरतों को चोट पहुँचाए बिना सम्मानजनक ढंग से पूरी हो सकें। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि विकास का यह ढाँचा तो इसी पीढ़ी की जरूरतें पूरी नहीं कर पा रहा। वह इसी पीढ़ी के एक जरा से भाग की सेवा में शेष बड़े भाग को वंचित करता जा रहा है।
पूरी दुनिया को रौंदने वाले इस विकास से पहले लगभग सभी समाजों में, यूरोप आदि में भी अपनी समस्याओं को अपने ढंग से हल करने की स्फूर्ति रही है। पर लम्बे समय की गुलामी और उसके बाद मिली विचित्र आजादी ने उन समाजों की उस स्फूर्ति का हरण कर लिया है। आज सभी मंचों से ‘परम्परागत ज्ञान’ का खूब बखान होने लगा है पर यह कुछ इस ढंग से होता है मानो परम्परा हमें पीछे लौटा ले जाएगी। परम्परा का अर्थ है जो विचार और व्यवहार हमारे कल आज और कल को जोड़ सके। नहीं तो उसका गुणगान भी स्थायी विकास के ढोल की तरह होता जाएगा।
इस पखवाड़े जब दुनिया भर से जोहान्सबर्ग गए लोग वहाँ से अपने-अपने देश लौटेंगे तो क्या वे भगदड़ में पड़ी इस सभ्यता या असभ्यता के लिये एक स्थायी, कल आज और आने वाले कल के लिये टिक सकने वाले एक टिकाऊ विचार को वापस ला सकेंगे?
साफ माथे का समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम | अध्याय |
1 | |
2 | |
3 | |
4 | |
5 | |
6 | |
7 | |
8 | |
9 | |
10 | |
11 | |
12 | |
13 | |
14 | |
15 | |
16 | |
17 | |
18 | |
19 | |
20 | |
21 | |
22 | |
23 |
Path Alias
/articles/bhagadada-maen-padai-sabhayataa
Post By: Hindi