भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में चयनित कुछ मुद्दे एवं समस्याएँ - Some issues and problems in selected geographic perspective


पर्यावरण प्रदूषण - environmental pollution


पर्यावरण प्रदूषण मानवीय क्रियाकलापों के अपशिष्ट उत्पादों से मुक्त द्रव्य एवं ऊर्जा का परिणाम है। प्रदूषण के अनेक प्रकार हैं। प्रदूषकों के परिवहित एवं विसरित होने के माध्यम के आधार पर प्रदूषण को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है- (i) जल प्रदूषण, (ii) वायु प्रदूषण, (iii) भू-प्रदूषण, (iv) ध्वनि प्रदूषण।

जल प्रदूषण - Water Pollution


बढ़ती हुई जनसंख्या और औद्योगिक विस्तारण के कारण जल के अविवेकपूर्ण उपयोग से जल की गुणवत्ता का बहुत अधिक निम्नीकरण हुआ है। नदियों, नहरों, झीलों तथा तालाबों आदि में उपलब्ध जल शुद्ध नहीं रह गया है। इसमें अल्प मात्र में निलम्बित कण, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ समाहित होते हैं। जब जल में इन पदार्थों की सान्द्रता बढ़ जाती है तो जल प्रदूषित हो जाता है और इस तरह वह उपयोग के योग्य नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में जल में स्वतः शुद्धीकरण की क्षमता जल को शुद्ध नहीं कर पाती।

यद्यपि, जल प्रदूषण प्राकृतिक स्रोतों (अपरदन, भू-स्खलन और पेड़-पौधों तथा मृत पशु के सड़ने-गलने आदि) से प्राप्त प्रदूषकों से भी होता है, तथापि मानव स्रोतों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषक चिन्ता के वास्तविक कारण हैं। मानव, जल को उद्योगों, कृषि एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से प्रदूषित करता है। इन क्रियाकलापों में उद्योग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सहायक है।

तालिका 12.1: प्रदूषण के प्रकार एवं स्रोत


 

प्रदूषण प्रकार

सन्निहित प्रदूषण

प्रदूषण के स्रोत

वायु प्रदूषण

सल्फर के ऑक्साइड (SO2, SO3) नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, हाइड्रो कार्बन, अमोनिया, सीसा एल्डेहाइड्स एस्बेस्टोज एवं बेरिलियम

कोयले, पेट्रोल व डीजल का दहन (जलना), औद्योगिक प्रक्रम, ठोस कचरा निपटान, वाहित मल (जल-मल) निपटान आदि

जल प्रदूषण

बदबू, घुलित एवं निलम्बित ठोस कण, अमोनिया तथा यूरिया, नाइट्रेट एवं नाइट्राइट्स, क्लोराइड्स, फ्लोराइड्स, कार्बोनेट्स, तेल एवं ग्रीस (चिकनाई), कीटनाशकों एवं पीड़कनाशी के अवशेष, टैंनिन, कोलीफार्म एम पी एम (जीवाणु गणना), सल्फेट्स एवं सल्फाइड्स, भारी धातुएँ जैसे कि सीसा,आर्सेनिक, पारा, मैंगनीज आदि रेडियोधर्मी पदार्थ तत्त्व

वाहित मल निपटान, नगरीय वाही जल, उद्योगों के विषाक्त कृषित भूमि के ऊपर से बहता जल बहिःस्राव तथा नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र

भू-प्रदूषण

मानव एवं पशु मलादि विषाणु तथा जीवाणु तथा रोगवाहक विरलन कीटनाशक एवं उर्वरक अवशिष्ट क्षारीयता, फ्लोराइड्स, रेडियोधर्मी पदार्थ।

अनुचित मानव क्रियाकलाप, अनुपचारित औद्योगिक अपशिष्ट का निपटान, पीड़कनाशी एवं उर्वरकों का उपयोग।

ध्वनि प्रदूषण

सहन क्षमता से अधिक ऊँची ध्वनि का स्तर

वायुयान, मोटर-वाहन, रेलगाड़ियाँ, औद्योगिक प्रक्रम तथा विज्ञापन मीडिया

 

उत्पादन प्रक्रिया में, उद्योग अनेक अवांछित उत्पाद पैदा करते हैं जिनमें औद्योगिक कचरा, प्रदूषित अपशिष्ट जल, जहरीली गैसें, रासायनिक अवशेष, अनेक भारी धातुएँ, धूल, धुआँ आदि शामिल होता है। अधिकतर औद्योगिक कचरे को बहते जल में अथवा झीलों आदि में विसर्जित कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप विषाक्त रासायनिक तत्व जलाशयों, नदियों तथा अन्य जल भण्डारों में पहुँच जाते हैं जो इन जलों में रहने वाली जैव प्रणाली को नष्ट करते हैं। सर्वाधिक जल प्रदूषक उद्योग-चमड़ा, लुगदी व कागज, वस्त्र तथा रसायन हैं।

आधुनिक कृषि में विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थों का उपयोग होता है जैसे कि अकार्बनिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवार नाशक आदि भी प्रदूषण उत्पादन करने वाले घटक हैं। इन रसायनों को नदियों, झीलों तथा तालाबों में बहा दिया जाता है। यह सभी रसायन जल के माध्यम में जमीन में स्रवित होते हुए भूजल तक पहुँच जाते हैं। उर्वरक धरातलीय जल में नाइट्रेट की मात्र को बढ़ा देते हैं। भारत में तीर्थ यात्राओं, धार्मिक मेले व पर्यटन आदि जैसी सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी जल प्रदूषण का कारण हैं। भारत में, धरातलीय जल के लगभग सभी स्रोत सन्दूषित हो चुके हैं और मानव के उपयोगके योग्य नहीं है।

जल प्रदूषण विभिन्न प्रकार की जल जनित बीमारियों का एक प्रमुख स्रोत होता है। सन्दूषित जल के उपयोग के कारण प्रायः दस्त (डायरिया), आँतों के कृमि, हेपेटाइटिस जैसी बीमारियाँ होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में लगभग एक-चौथाई संचारी रोग जल-जनित होते हैं।

वायु प्रदूषण - Air Pollution


वायु प्रदूषण को धूल, धुआँ, गैसें, कुहासा, दुर्गन्ध और वाष्प जैसे सन्दूषकों की वायु में अभिवृद्धि व उस अवधि के रूप में लिया जाता है जो मनुष्यों, जन्तुओं और सम्पत्ति के लिये हानिकारक होते हैं। ऊर्जा के स्रोत के रूप में विभिन्न प्रकार के ईंधनों के प्रयोग में वृद्धि के साथ, पर्यावरण में विषाक्त धुएँ वाली गैसों के उत्सर्जन के परिणामस्वरूप वायु प्रदूषित होती है। जीवाश्म ईंधन का दहन, खनन और उद्योग वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोत हैं। ये प्रक्रियाएँ वायु में सल्फर एवं नाइट्रोजन के ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, सीसा तथा एस्बेस्टास को निर्मुक्त करते हैं।

वायु प्रदूषण के कारण श्वसन तंत्रीय, तंत्रिका तंत्रीय तथा रक्त संचारतंत्र सम्बन्धी विभिन्न बीमारियाँ होती हैं।

नगरों के ऊपर कुहरा जिसे शहरी धूम्र कुहरा कहा जाता है, वस्तुतः वायुमंडलीय प्रदूषण के कारण होता है। यह मानव स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त घातक सिद्ध होता है। वायु प्रदूषण के कारण अम्ल वर्षा भी हो सकती है। नगरीय पर्यावरण का वर्षाजल विश्लेषण इंगित करता है कि गर्मियों के पश्चात पहली बरसात में पीएच का स्तर उत्तरवर्ती बरसातों से सदैव कम होता है।

तालिका 12.2 : गंगा एवं यमुना नदियों में प्रदूषण के स्रोत


 

नदी एवं राज्य

प्रदूषित पटरियाँ

प्रदूषण की प्रकृति

मुख्य प्रदूषक

गंगा (उत्तर प्रदेश, बिहार व पं.- बंगाल)

(अ) कानपुर का अनुप्रवाह

(ब) वाराणसी का अनुप्रवाह

(स) फरक्का बाँध

1- कानपुर जैसे नगरों से औद्योगिक प्रदूषण।

2- नगरीय केन्द्रों का घरेलू अपशिष्ट नदी में लाशों का विसर्जन।

कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना तथा कोलकाता जैसे नगर घरेलू कचरे को नदी में निर्मुक्त करते हैं।

यमुना (दिल्ली एवं उत्तर प्रदेश)

(अ) दिल्ली से चंबल के मिलन तक

(ब) मथुरा व आगरा

1- हरियाणा व उत्तर प्रदेश द्वारा पानी का सिंचाई हेतु निर्गमन।

2- कृषि गतिविधियों के कारण यमुना जल में उच्च स्तर पर सूक्ष्म प्रदूषकों का प्रवाह।

3- दिल्ली का घरेलू एवं औद्योगिक कचरे का नदी में प्रवाहित करना।

दिल्ली का अपने घरेलू अपशिष्ट को नदी में डालना।

 

ध्वनि प्रदूषण - Noise Pollution


विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न ध्वनि का मानव की सहनीय सीमा से अधिक तथा असहज होना ही ध्वनि प्रदूषण है। विभिन्न प्रकार के प्रौद्योगिकीय अन्वेषणों के चलते, हाल ही के वर्षों से यह एक गम्भीर समस्या बनकर उभरा है।

ध्वनि प्रदूषण के प्रमुख स्रोत विविध उद्योग, मशीनीकृत निर्माण तथा तोड़-फोड़ कार्य, तीव्रचालित मोटर-वाहन और वायुयान इत्यादि हैं। इनमें सायरन, लाउडस्पीकर, फेरी वाले तथा सामुदायिक गतिविधियों से जुड़े विभिन्न उत्सव सम्बन्धी कार्यों से होने वाली आवधिक किन्तु प्रदूषण करने वाले शोर को भी जोड़ा जा सकता है। सुस्थिर शोर के स्तर को डेसीबल के सन्दर्भ में ध्वनि स्तर के द्वारा मापा जाता है।

ध्वनि प्रदूषण के सभी स्रोतों में से यातायात द्वारा पैदा किया गया शोर सबसे बड़ा क्लेश है। इसकी तीव्रता और प्रकृति इन घटकों पर निर्भर करता है जैसे कि वायुयान/वाहन/रेलगाड़ी के प्रकार, उन सड़कों की दशा तथा साथ-ही-साथ वाहन की स्थिति (आटोमोबाइल के सन्दर्भ में जैसे कारकों पर निर्भर करती है।) समुद्री यातायात में शोर की तीव्रता माल को चढ़ाने व उतारने का निपटान करने वाले पत्तन तक अधिक सीमित रहती है। उद्योग भी ध्वनि प्रदूषण का कारण है जिसमें उद्योग के आधार पर तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है।

ध्वनि प्रदूषण स्थान विशिष्ट होता है तथा इसकी तीव्रता प्रदूषण के स्रोत जैसे कि औद्योगिक क्षेत्र, परिवहन मार्ग, हवाई अड्डे इत्यादि मुख्यमार्ग से दूर कम होती जाती है। भारत के कई बड़े शहरों एवं महानगरों में ध्वनि प्रदूषण बहुत खतरनाक है।

नगरीय अपशिष्ट निपटान - Urban waste disposal


नगरीय क्षेत्रों को प्रायः अति संकुल, भीड़-भाड़ तथा तीव्र बढ़ती जनंसख्या के लिये अपर्याप्त सुविधाएँ और उसके परिणामस्वरूप साफ-सफाई की खराब स्थिति एवं प्रदूषित वायु के रूप में पहचाना जाता है। ठोस अपशिष्टों (कचरे) के द्वारा होने वाला पर्यावरण प्रदूषण काफी महत्त्वपूर्ण हो चुका है क्योंकि विभिन्न स्रोतों द्वारा जनित अपशिष्ट की मात्रा बहुत अधिक होती जा रही है। ठोस कचरे के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के पुराने एवं प्रयुक्त सामग्रियाँ शामिल की जाती हैं जैसे कि जंग लगी पिनें, टूटे काँच के समान, प्लास्टिक के डिब्बे, पोलीथिन की थैलियाँ, रद्दी कागज, राख, फ्लॉपियाँ, सीडी आदि का भिन्न-भिन्न स्थानों पर लगाया जाता है। इस त्यागे गए समान को कूड़ा-करकट, रद्दी, गन्दगी एवं कबाड़ आदि कहते हैं जिनका दो स्रोतों से निपटान होता है- (i) घरेलू प्रतिष्ठानों से और (ii) व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से। घरेलू कचरे को या तो सार्वजनिक भूमि पर या निजी ठेकेदारों के स्थलों पर डाला जाता है जबकि औद्योगिक/व्यावसायिक इकाइयों के कचरा का संग्रहण एवं निपटान जन सुविधाओं (नगरपालिकाओं) के द्वारा निचली सतह की सार्वजनिक जमीन (गड्ढों) पर निस्तारित किया जाता है। कारखानों, विद्युत गृहों तथा भवन निर्माण या विध्वंस से भारी मात्रा में निकली राख या मलबे के परिणामस्वरूप गम्भीर समस्याएँ पैदा हो गई हैं। ठोस अपशिष्ट से अप्रिय बदबू, मक्खियों एवं कृतकों (जैसे चूहे) से स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम पैदा हो जाते हैं जैसे टाइफाइड (मियादी बुखार), गलघोटूँ (डिप्थीरिया), दस्त तथा हैजा (कॉलरा) आदि। इसके साथ ही यह कूड़ा-कचरा अक्सर क्लेश पैदा करते हैं जब कभी भी इनका लापरवाही से निपटान किया जाता है तो यह हवा से फैलने एवं बरसाती पानी से छितरने के कारण परेशानी का कारण बनता है।

नगरीय क्षेत्रों के आसपास औद्योगिक इकाइयों के संकेन्द्रण से भी औद्योगिक अपशिष्टों में वृद्धि होती है। औद्योगिक कचरे को नदियों में डालने से जल प्रदूषण की समस्या होती है। नगर आधारित उद्योगों तथा अनुपचारित वाहित मल के कारण नदियों के प्रदूषण से अनुप्रवाह में स्वास्थ्य सम्बन्धी गम्भीर समस्याएँ पैदा होती हैं।

भारत में नगरीय अपशिष्ट निपटान एक गम्भीर समस्या है मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई व बंगलूरु आदि महानगरों में ठोस अपशिष्ट के 90 प्रतिशत को एकत्रित करके उसका निपटान किया जाता है लेकिन देश के अन्य अधिकांश शहरों में, अपशिष्ट का 30 प्रतिशत से 50 प्रतिशत कचरा बिना एकत्र किये छोड़ दिया जाता। जो गलियों में, घरों के पीछे खुली जगहों पर तथा परती जमीनों पर इकट्टा हो जाता है जिसके कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी गम्भीर जोखिम पैदा हो जाते हैं। इन अपशिष्टों को संसाधन के रूप में उपचारित कर इनका ऊर्जा पैदा करने व कम्पोस्ट (खाद) बनाने में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। अनुपचारित अपशिष्ट धीरे-धीरे सड़ते हैं और वातावरण में विषाक्त गैसें छोड़ते हैं जिनमें मिथेन गैस भी शामिल हैं।

क्रियाकलाप


हम क्या फेंकते हैं और क्यों?
हमारा कचरा (अपशिष्ट) कहाँ जाकर समाप्त होता है?
रद्दी बीनने वाले बच्चे कचरे को क्यों खँगालते हैं। क्या इसका कुछ मूल्य होता है?
क्या हमारा नगरीय अपशिष्ट उपयोगी है?

ग्रामीण-शहरी प्रवास - Rural-urban migration


ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर जनसंख्या प्रवाह अनेक कारकों से प्रभावित होता है जैसे कि नगरीय क्षेत्रों में मजदूरों की अधिक माँग, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के निम्न अवसर तथा नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों के बीच विकास का असन्तुलित प्रारूप आदि हैं।

भारत में, नगरों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। चूँकि छोटे एवं मध्यम नगरों में रोजगार के कम अवसर उपलब्ध होते हैं, गरीब लोग सामान्यतः अपनी आजीविका के लिये इन शहरों को छोड़कर सीधे महानगरों में पहुँचते हैं।इस विषय पर बेहतर समझ बनाने हेतु नीचे एक अध्ययन दिया गया है। इसे ध्यानपूर्वक पढ़ें और ग्रामीण-नगरीय प्रवास की प्रक्रिया को समझने का प्रयास करें।

केस अध्ययन - case study


रमेश अनुबन्ध के आधार पर तलचर (उड़ीसा का कोयला क्षेत्र) में निर्माण स्थल पर पिछले दो वर्षों से एक वेल्डर के रूप में कार्य कर रहा है। वह अपने ठेकेदार के साथ-साथ देश-भर में विभिन्न जगहों, जैसे कि सूरत, मुम्बई, गाँधीनगर, भरूच, जामनगर आदि नगरों में जाता है। वह प्रतिवर्ष अपने पैतृक गाँव में पिता के पास रु. 20,000 भेजता है। उसके द्वारा भेजे गए पैसे मुख्यतः दैनिक उपभोग, स्वास्थ्य की देखभाल, बच्चों की पढ़ाई आदि पर खर्च होता है। कुछ पैसे कृषि, जमीन की खरीद तथा घरों के निर्माण पर भी खर्च होता है। रमेश के परिवार के रहन-सहन का स्तर सार्थक रूप से सुधरा है।15 वर्ष पहले, हालात ऐसे नहीं थे। परिवार बहुत ही कठिन परिस्थितियों से गुजर रहा था। उसके तीन भाई और उनके परिवार तीन एकड़ भूमि पर निर्भर थे। परिवार बुरी तरह से कर्ज में डूबा हुआ था। रमेश को अपनी पढ़ाई नवीं कक्षा में ही छोड़नी पड़ी। शादी के बाद तो वह और भी कठिन परिस्थितियों में घिर गया।

इसी समय, रमेश अपने गाँव के कुछ सफल उत्प्रवासियों से प्रभावित हुआ, जो लुधियाना में काम कर रहे थे और गाँव में अपने परिवारों को पैसे और उपभोक्ता वस्तुएँ भेज कर पाल-पोस रहे थे। इस तरह परिवार की कंगाली और लुधियाना में नौकरी का भरोसा पाकर वह अपने मित्र के साथ पंजाब चला आया। उसने 1988 में लुधियाना की एक ऊन फैक्टरी में रु- 20 प्रतिदिन की मजदूरी पर 6 माह तक काम किया। अपनी इस अल्प आय में वैयक्तिक खर्चों का इन्तजाम कर पाने की मुश्किल के साथ-साथ, उसे नई संस्कृति और पर्यावरण के साथ स्वयं को अनुकूलित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके बाद उसने अपने दोस्त के मार्गदर्शन पर लुधियाना से सूरत (गुजरात) में काम करने का निर्णय लिया। सूरत में उसने वेल्डिंग के कार्य करने का कौशल सीखा और इसके बाद वह उसी ठेकेदार के साथ अलग-अलग जगहों पर जाता रहता है। हालांकि रमेश के गाँव में उसकी परिवार की आर्थिक स्थिति सुधरी है, परन्तु उसे अपने से दूर रहने की पीड़ा झेलनी पड़ती है। वह अपनी पत्नी एवं बच्चों को अपने साथ नहीं ले जा सकता क्योंकि उसकी नौकरी अस्थायी और स्थानान्तरणीय है।

टिप्पणी


विकासशील देशों में, रमेश जैसे गरीब, अर्द्ध शिक्षित एवं अकुशल श्रमिक ग्रामीण क्षेत्रों से प्रायः शहरी क्षेत्रों के असंगठित एवं अनौपचारिक क्षेत्रों के छोटे मोटे धन्धे परिवार का पोषण करने के लिये प्रवास करते रहते हैं। चूँकि गन्तव्य स्थान पर मजदूरी काफी कम होती है, इसलिये पत्नियों को गाँव में बच्चों और बड़ों की देखभाल के लिये छोड़ दिया जाता है। इसी कारण ग्रामीण-नगरीय प्रवास में पुरुषों का प्रभुत्व होता है।

गन्दी बस्तियों की समस्याएँ


‘नगरीय या नगरीय केन्द्र’ की अवधारणा को ग्रामीण से विभेदित करने के लिये आवासीय भूगोल में परिभाषित किया गया है जिसके बारे में आप पहले ही इस पुस्तक के कुछ अध्यायों में पढ़ चुके हैं। ‘मानव भूगोल के सिद्धान्त’ नामक पुस्तक में पढ़ चुके हैं कि इस अवधारणा को विभिन्न देशों में अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया गया है।

नगरीय एवं अनगरीय बस्तियाँ अपने प्राकार्यों में भिन्न होती हैं और कई बार वे दूसरे के पूरक होती हैं। इन सबके बावजूद ये नगरीय और ग्रामीण क्षेत्र दो भिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं प्रौद्योगिक वातावरण में विकसित हुई हैं।

भारत, जिसमें ग्रामीण जनसंख्या अधिक है और (इसकी 2011 में लगभग 69 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है) जहाँ गाँवों को महात्मा गाँधी ने आदर्श गणतंत्र माना था, वहाँ अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र अभी भी गरीब हैं और प्राथमिक क्रियाकलापों में संलग्न हैं। यहाँ पर अधिकतर ग्राम प्रमुख नगरीय क्रोड के पृष्ठप्रदेश की रचना करते हुए इनके परिशिष्ट के रूप में विद्यमान हैं।

इससे ऐसा लगता है कि नगरीय केन्द्र ग्रामीण क्षेत्रें के विपरीत अभेदीकृत एवं एकरूप इकाइयाँ हैं। इसके विपरीत, भारत में नगरीय केन्द्र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक-सांस्कृतिक एवं विकास के अन्य संकेतकों के किसी अन्य क्षेत्र की अपेक्षा कहीं अधिक विविधतापूर्ण हैं। सबसे भी ऊपर फार्म हाउस तथा उच्च आय वर्ग की बस्तियाँ हैं जिनमें चौड़ी सड़कें, स्ट्रीट लाइट, जल एवं स्वच्छता सुविधाओं, पार्कों-उपवनों तथा सुविकसित हरित-पट्टियों, खेल के मैदानों एवं वैयक्तिक सुरक्षा के प्रावधान तथा वैयक्तिता के अधिकार के रूप में सुविकसित नगरीय अवसंरचना है। दूसरे छोर पर झुग्गी-बस्तियाँ, गन्दी बस्तियाँ, झोपड़पट्टी तथा पटरियों के किनारे बने ढाँचे खड़े हैं। इनमें वे लोग रहते हैं जिन्हें ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों में आजीविका की खोज में प्रवासित होने के लिये विवश होना पड़ा या वे ऊँचे किराए और जमीन की महंगी कीमत के कारण पर अच्छे आवासों में नहीं रह पाते। वे लोग पर्यावरण की दृष्टि से बेमेल और निम्नीकृत क्षेत्रों पर कब्जा कर रहते हैं। गन्दी बस्तियाँ न्यूनतम वांछित आवासीय क्षेत्र होते हैं जहाँ जीर्ण-शीर्ण मकान, स्वास्थ्य की निम्न सुविधाएँ, खुली हवा का अभाव तथा पेयजल, प्रकाश तथा शौच सुविधाओं जैसी आधारभूत आवश्यक चीजों से अभाव पाया जाता है। यह क्षेत्र बहुत ही भीड़-भाड़, पतली-संकरी गलियों तथा आग जैसे गम्भीर खतरों के जोखिम से युक्त होते हैं। इसके अतिरिक्त गन्दी बस्तियों की अधिकांश जनसंख्या नगरीय अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में कम वेतन और अधिक जोखिम भरा कार्य करते हैं। परिणामस्वरूप ये लोग अल्प-पोषित होते हैं और इन्हें विभिन्न रोगों और बीमारियों की सम्भावना बनी रहती है। ये लोग अपने बच्चों के लिये उचित शिक्षा का खर्च भी वहन नहीं कर सकते। गरीबी उन्हें नशीली दवाओं, शराब, अपराध, गुंडागर्दी, पलायन, उदासीनता और अन्ततः सामाजिकबहिष्कार के प्रति उन्मुख करती है।

भू-निम्नीकरण - Land degradation


कृषि योग्य भूमि पर दबाव का कारण केवल सीमित उपलब्धता ही नहीं, वरन इसकी गुणवत्ता में कमी भी इसका कारण है। मृदा अपरदन, लवणता (जलाक्रान्तता) तथा भू-क्षारता से भू-निम्नीकरण होता है। भू-उर्वरकता के अप्रबन्धन के साथ इसका अविरल उपयोग होने पर क्या स्थिति होगी? भू-निम्नीकरण होगा तथा उत्पादकता में कमी आएगी। भू-निम्नीकरण का अभिप्राय स्थायी या अस्थायी तौर पर भूमि की उत्पादकता की कमी है।

यद्यपि सभी निम्नकोटि भूमियाँ! व्यर्थ भूमि नहीं हैं, लेकिन अनियंत्रित प्रक्रियाएँ! इसे व्यर्थ भूमि में परिवर्तित कर देती हैं।

भूनिम्नीकरण दो प्रकियाओं द्वारा तीव्रता से होता है। ये प्रक्रियाएँ! प्राकृतिक तथा मानवजनित हैं। भारतीय दूर-संवेदन संस्थान ने व्यर्थ भूमि को दूर-संवेदन तकनीक की सहायता से सीमांकित किया है और इन प्रक्रियाओं के आधार पर इनको वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे- प्राकृतिक खड्ड मरुस्थलीय या तटीय रेतीली भूमि, बंजर चट्टानी क्षेत्र, तीव्र ढाल वाली भूमि तथा हिमानी क्षेत्र। ये मुख्यतः प्राकृतिक कारकों द्वारा घटित हुई हैं। प्राकृतिक तथा मानवजनित प्रक्रियाओं से निम्नकोटि भूमियों में जलाक्रान्त व दलदली क्षेत्र, लवणता व क्षारता से प्रभावित भूमियाँ! झाड़ी सहित व झाड़ियों रहित भूमियाँ; आदि सम्मिलित हैं। कुछ अन्य निम्नकोटि भूमियाँ! भी हैं जैसे- स्थानान्तरित कृषि जनित क्षेत्र, रोपण कृषि जनित, क्षरित वन, क्षरित चरागाह तथा खनन व औद्योगिक व्यर्थ क्षेत्र जो मानवीय प्रक्रियाओं से कृषि के अयोग्य हुई हैं। तालिका 12.3 से यह प्रदर्शित है कि प्राकृतिक प्रक्रियाओं की अपेक्षा मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा अधिक व्यर्थ भूमि का विस्तार हुआ है।

तालिका 12.3 : भारत में कृषिरहित बंजर भूमि का उनकी प्रक्रियाओं के आधार पर वर्गीकरण


 

संवर्ग

भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत

सकल कृषि रहित बंजर निम्नीकृत भूमि

17.98

बंजर व कृषि अयोग्य बंजर

2.18

प्राकृतिक कारकों जनित निम्नीकृत भूमि

2.4

प्राकृतिक तथा मानवजनित निम्नीकृत भूमि

7.51

मनुष्य जनित निम्नीकृत भूमि

5.88

सकल निम्नीकृत कृषिरहित भूमि

15.8

 

स्रोत : भारतीय दूरसंवेदन संस्थान द्वारा तैयार वेस्टलैंड एटलस, 2000

केस अध्ययन - case study


झाबुआ जिला मध्य प्रदेश के अति पश्चिमी कृषि जलवायु क्षेत्र में अवस्थित है। यह वास्तव में हमारे देश के सर्वाधिक पाँच पिछड़े जिलों में से एक है। जनजातीय जनसंख्या विशेषतः भील का उच्च सांद्रण इसकी विशेषता है। लोग गरीबी के कारण कष्ट झेल रहे हैं और यह गरीबी जंगल एवं भूमि दोनों संसाधनों के उच्च दर से निम्नीकरण के कारण प्रबलित हो गई है। यहाँ भारत सरकार के ‘ग्रामीण विकास’ तथा ‘कृषि मंत्रालय’ दोनों ही से जल सम्भरण प्रबन्धन कार्यक्रम फंड अनुदानित हैं, जिन्हें झाबुआ जिले में सफलतापूर्वक क्रियान्वित किया गया है। यह निम्नीकरण को रोकने तथा भूमि की गुणवत्ता को सुधारने में सफल सिद्ध होगा। जल सम्भरण प्रबन्धन कार्यक्रम भूमि, जल तथा वनस्पतियों के बीच सम्बद्धता को पहचानता है और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन एवं सामुदायिक सहभागिता से लोगों के आजीविका को सुधारने का प्रयास करता है। पिछले पाँच वर्षों में, ग्रामीण विकास मंत्रालय से निधि प्राप्त राजीव गाँधी मिशन द्वारा क्रियांवित जल सम्भरण प्रबन्धन ने अकेले झाबुआ जिले की लगभग 20 प्रतिशत भूमि का उपचार किया है।

झाबुआ जिले का पेटलावाड विकास खण्ड, जिले के सर्वाधिक उत्तरी छोर पर स्थित है तथा सरकार एवं गैर सरकारी संगठनों की साझेदारी तथा जल सम्भरण प्रबन्धन हेतु समुदाय की प्रतिभागिता का सफल और रोचक प्रकरण प्रस्तुत करता है। पेटलावाड विकास खण्ड के भील (कारावट गाँव के सतरूंडी बस्ती) समुदाय ने अपना स्वयं का प्रयास करके विस्तृत भागों की साझी सम्पदा संसाधनों को पुनर्जीवित किया है। प्रत्येक परिवार ने साझी सम्पदा में एक पेड़ लगाया और उसे अनुरक्षित किया। इसके साथ ही प्रत्येक परिवार ने चरागाह भूमि पर चारा घास को बोया और कम से कम दो वर्षों तक उसकी सामाजिक घेराबन्दी इसके बाद भी, उनका कहना था, इन जमीनों पर कोई खुली चराई नहीं होगी और पशुओं की आहार पूर्ति हेतु नाद बनाए जाएँगे और इस प्रकार से उन्हें यकीन था कि जो चरागाह उन्होंने विकसित किये हैं, वे भविष्य में उनके पशुओं का सतत पोषण करते रहेंगे।

इस अनुभव का एक रोचक पक्ष यह है कि समुदाय इस चरागाह प्रबन्धन प्रक्रिया की शुरुआत करते कि इससे पहले ही पड़ोसी गाँव के एक निवासी ने उस पर अतिक्रमण कर लिया। गाँव वालों ने तहसीलदार को बुलाया और साझी जमीन पर अपने अधिकारों को सुनिश्चित कराया। इस अनुवर्ती संघर्ष को गाँववालों द्वारा सुलझाया गया जिसके लिये उन्होंने साझी चरागाह भूमि पर अतिक्रमण करने वाले दोषी को अपने प्रयोक्ता समूह का सदस्य बनाकर उसे साझी चरागाह भूमि की हरियाली से लाभांश देना आरम्भ किया। (साझी सम्पदा संसाधन के बारे में ‘भूमि-संसाधन एवं कृषि’ वाले अध्याय को देखें।)

दौराला में पारिस्थितिकी के पुनर्भरण और मानव स्वास्थ्य के सुरक्षण का एक अनुकरणीयउदाहरण: केस अध्ययन

‘प्रदूषक भोगता है’ के वैश्विक नियम के आधार पर मेरठ के निकट दौराला में लोगों की प्रतिभागिता के सहारे पारिस्थितिकी के पुनर्भरण और मानव स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिये प्रयास किया गया है। मेरठ के एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) द्वारा पारिस्थितिकी पुनर्भरण के एक मॉडल की रचना के तीन वर्ष बाद परिणाम आने आरम्भ हो गए। दौराला स्थित उद्योगों के पदाधिकारियों, गैर-सरकारी संगठनों, सरकारी अधिकारियों और अन्य पणधारियों की मेरठ में हुई मीटिंग में परिणाम सामने आये। लोगों के शक्तिशाली तर्कों, प्रामाणिक अध्ययनों और दबाव ने इस गाँव के 12,000 निवासियों को एक नया जीवनदान दिया है। यह सन 2003 की बात है जब दौरालावासियों की दयनीय दशा ने एक जनहित सभा (सिविल सोसायटी) का ध्यान आकृष्ट किया। 12,000 लोगों की जनसंख्या वाले इस गाँव का भूजल भारी धातुओं के सम्पर्क से सन्दूषित हो चुका था। इसका कारण यह था कि दौराला के उद्योगों के अनुपचारित अपशिष्ट जल का भूजल स्तर में निक्षालन हो रहा था। एन-जी-ओ- के कार्यकर्ताओं ने घर-घर जाकर लोगों के स्वास्थ्य-स्तर सम्बन्धी सर्वेक्षण किया और एक रिपोर्ट बनाई। उस संगठन, ग्रामीण समुदाय और जन-प्रतिनिधियों ने आपस में बैठकर इन समस्याओं के टिकाऊ समाधान ढूँढने का प्रयास किया। उद्योगपतियों ने पारिस्थितिकी की गिरती दशा को नियंत्रित करने में गहरी रुचि दिखाई। गाँव की उपरली टंकी (over hand tank) की क्षमता बढ़ाई गई और समुदाय को पीने योग्य जल उपलब्ध कराने के लिये 900 मीटर की अतिरिक्त पाइपलाइन बिछाई गई। गाँव के गाद-युक्त तालाब को साफ किया गया और इसे गाद-विमुक्त करके पुनः जल से भर दिया गया। बड़ी मात्र में गाद को हटाकर अधिक मात्र में जल का मार्ग प्रशस्त किया गया तथा जलभृतों में जल पुनः भरा जाये। जगह-जगह वर्षाजल संग्रहण की संरचनाएँ बनाई गई। जिनसे मानसून के पश्चात भूजल के सन्दूषण में कमी आई। एक हजार वृक्षों की लगाए गए जिनसे पर्यावरण का संवर्धन हुआ।



क्या आप जानते है?

वर्तमान समय में, विश्व की 6 अरब जनसंख्या में से 47 प्रतिशत जनसंख्या नगरों में रहती है और निकट भविष्य में इसमें और अधिक जुड़ जाएँगे। इस अनुपात का 2008 तक 50 प्रतिशत तक पहुँचने का अनुमान है। ये सरकारें दबाव बनाएँगी कि वे जीवन की वांछित गुणवत्ता के लिये ईष्टतम अवसंरचना के साथ नगरीय क्षेत्रों को जीने के लिये बेहतर स्थान बनाएँ।2050 तक, विश्व की अनुमानित दो-तिहाई जनसंख्या नगरों में रह रही होगी जो क्षेत्र की अवसंरचना और नगरों के संसाधनों पर और अधिक दबाव डालेगी। यह दबाव स्वच्छता, स्वास्थ्य, आपराधिक समस्याओं तथा नगरीय गरीबी के रूप में व्यक्त होगा।

नगरीय जनसंख्या में वृद्धि एक प्राकृतिक वृद्धि के परिणामस्वरूप (जब मृत्यु दर की अपेक्षा वृद्धि दर अधिक हो), निवल अप्रवास (जहाँ बाहर जाने वालों की अपेक्षा आने वाले अधिक हो) और कभी-कभी नगरीय क्षेत्रों का पुनः वर्गीकरण जिसमें आसपास की ग्रामीण जनसंख्या को शामिल कर लिया जाता है, के कारण बढ़ती है। भारत में एक अनुमान के अनुसार 1961 के बाद शहरी क्षेत्रों की जनसंख्या में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई और इसमें से 29 प्रतिशत जनसंख्या ने ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर प्रवास किया।


धारावी - एशिया की विशालतम गन्दी बस्ती (स्लम)
बसें सिर्फ बस्ती की परिधि से गुजरती हैं। ऑटो रिक्शा अपवादस्वरूप भी उसके अन्दर नहीं जा सकते। धारावी केन्द्रीय मुम्बई का एक हिस्सा है जहाँ तिपहिया वाहनों का प्रवेश भी निषेध है।

इस गन्दी बस्ती से केवल एक मुख्य सड़क गुजरती है। इसे ‘नाइंटीफुट रोड’ के गलत नाम से जाना जाता है। जो अपनी चौड़ाई में घटकर आधे से कम रह गई है। कुछ एक गलियाँ एवं पगडंडियाँ इतनी संकरी हैं कि वहाँ से एक साईकिल का गुजरना भी मुश्किल है। समूची बस्ती अस्थायी निर्माण के भवन हैं जो कि दो से तीन मंजिल ऊँची है तथा उनमें जंग लगी लोहे की सीढ़ियाँ ऊपर को जाती हैं जहाँ एक ही कमरे को किराए पर लेकर पूरा परिवार रहता है। कई बार तो यहाँ एक कमरे में 10-12 लोग रहते हुए देखे जा सकते हैं। यह एक प्रकार से विक्टोरिया लंदन के पूर्वी सिरे की औद्योगिक इकाइयों का उत्कट अनुवर्ती संस्करण जैसा है।

लेकिन धारावी बहुत ही निराशाजनक रहस्यों का पालक है, अपेक्षाकृत धनाढ्य मुम्बई के निर्माण में इसकी भूमिका है। यहाँ पर छायारहित स्थान, वृक्षरहित, सूर्य की रोशनी (धूप), असंगृहीत कचरा, गन्दे पानी के ठहरे हुए गड्ढे, जहाँ केवल अमानवीय प्राणी जैसे काले कौओं और लम्बे भूरे चूहे के साथ-साथ कुछेक सर्वाधिक सुन्दरतापूर्ण तथा भारत में निर्मित मूल्यवान एवं उपयोगी सामान बनाए जाते हैं। धारावी से मृत्तिका शिल्प (सेरेमिक्स), मिट्टी के बर्तन, कसीदाकारी एवं जरी का काम, परिष्कृत चमड़े का काम, उच्च फैशन, वस्त्रादि, महीन पिरवाँ (रॉट), धातु (रॉटमैटल) का कार्य, उत्कृष्ट आभूषण सेट, लकड़ी की पच्चीकारी तथा फर्नीचर आदि भारत एवं दुनिया भर के धनाढ्यों के घरों तक जाता है।

धारावी वस्तुतः सागर का एक हिस्सा है जोकि व्यापक रूप से कचरे से भरी गई जगह पर है जिसे (कचरा) मुख्यतः यहाँ पर रहने के लिये आने वाले लोगों द्वारा उत्पादित किया गया था जो अधिकतर अनुसूचित जाति और गरीब मुसलमान आदि थे। यहाँ नालीदार चादरों से बनी 20 मीटर ऊँची जगह/भवन इधर-उधर सम्बद्ध पड़ी हैं जिनमें खाल एवं चमड़ा शोधन के कार्य होते हैं। यहाँ पर खुशी का हिस्सा यह है कि सभी जगह कूड़ा-कचरा छितराया होता है।

(सीब्रूक, 1996, प्र- 50, 51-52)


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