किसी देश की आर्थिक एवं सामाजिक समृद्धि को सुरक्षित रखने हेतु यह आवश्यक है कि देश में कृषि, उद्योगों एवं घरेलू उपयोग के क्षेत्रों के लिये आवश्यक स्वच्छ जल की पर्याप्त उपलब्धता हो।
![जल प्रबंधन](https://farm2.staticflickr.com/1700/25505769430_f3388f26f3.jpg)
पृथ्वी पर उपलब्ध जल का लगभग 97ः भाग सागरों एवं महासागरों में खारे जल के रूप में उपलब्ध है तथा कुल उपलब्ध जल का 2.7 प्रतिशत भाग ही स्वच्छ जल के रूप में पाया जाता है। इस स्वच्छ जल का लगभग 75 प्रतिशत भाग ध्रुवीय क्षेत्रों में हिम के रूप में तथा 22.6 प्रतिशत भाग भूजल के रूप में पाया जाता है। शेष जल का सूक्ष्म भाग नदियों एवं झीलों में उपलब्ध है। इस प्रकार पृथ्वी पर उपलब्ध जल का एक लघु अंश मात्र ही जनमानस के उपयोग हेतु उपलब्ध है।
सार्वभौम स्तर पर वार्षिक स्वच्छ जल उपलब्धता लगभग 3240 घन कि.मी. है। सम्पूर्ण विश्व में क्षेत्र के आधार पर जल उपयोग में वृहत्त परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। यदि भारतवर्ष के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो देश में उपलब्ध कुल सतही जल संसाधनों की मात्र 1953 घन कि.मी. प्रतिवर्ष है। इसके अतिरिक्त देश में उपलब्ध भूजल की मात्रा 431.43 घन कि.मी./वर्ष है। यदि देश में उपलब्ध स्वच्छ जल का इष्टतम उपयोग सम्भव हो तो देश में उपलब्ध जल की कोई कमी नहीं होगी। परन्तु उपलब्ध जल का अधिकांश भाग नदी नालों से बहता हुआ समुद्र में व्यर्थ चला जाता है।
![बाढ़ से प्रभावित लोगों के लिये किया जाने वाला बचाव कार्य](https://farm2.staticflickr.com/1641/25711355851_7c3d3d4e53.jpg)
वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतवर्ष की जनसंख्या लगभग 35 करोड़ थी तथा प्रतिव्यक्ति जल उपलब्धता 5100 घनमीटर थी। जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि होने के कारण देश की वर्तमान जनसंख्या लगभग 125 करोड़ तक पहुँच गई है जिसके सापेक्ष प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगभग 1400 घन मीटर/व्यक्ति तक पहुँच गई है तथा निकट दशकों में इस मान में और अधिक कमी होना सम्भावित है। घरेलू सीवेज, औद्योगिक बर्हि-प्रवाह तथा कृषि में उपयोग किये जा रहे रसायनों, उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग के परिणामस्वरूप उपयुक्त गुणवत्ता वाले जल की अधिक कमी हो रही है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि देश के जल संसाधनों का मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों ही स्वरूपों में निरन्तर क्षय हो रहा है। भारतवर्ष में जल संसाधन प्रबन्धन सम्बन्धी समस्याओं के प्रमुख कारण निम्नवत हैं।
1. उपलब्ध जल का असमान वितरण
2. बाढ़ एवं सूखा
3. भूजल से अनियंत्रित जल निकासी
4. जल ग्रसनता
उपलब्ध जल का असमान वितरण
![उत्तराखंड बाढ़ में ऋषिकेश का एक दृश्य](https://farm2.staticflickr.com/1702/25685474952_e844fc51c4.jpg)
देश में जल संसाधनों में असमान वितरण का प्रमुख कारण असमान वर्षा प्राप्त होना है। हमारे देश में उपलब्ध वर्षा का लगभग 75-80 प्रतिशत भाग वर्षा ऋतु के चार महीनों में प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त देश के अलग-अलग भागों में प्राप्त वर्षा की मात्र में अत्यधिक अन्तर पाया जाता है।
![उत्तराखंड बाढ़ से प्रभावित केदारनाथ मंदिर](https://farm2.staticflickr.com/1718/25806451075_3d974c374d.jpg)
बाढ़ एवं सूखा
बाढ़ देश के विभिन्न भागों में बारम्बार पाई जाने वाली एक प्राकृतिक आपदा है। भारतवर्ष में वर्षा का 80-90 प्रतिशत भाग मानसून के चार महीनों में ही प्राप्त होने के कारण इस ऋतु में देश का एक बड़ा भाग बाढ़ ग्रस्त हो जाता है। बाढ़ के प्रमुख कारणों में जल के उच्च प्रवाह हेतु नदी खण्डों की अपर्याप्त क्षमता, नदी तटों में बढ़ता अवसादन एवं जल निकासी में अवरोधकता प्रमुख है। इसके अतिरिक्त चक्रवात एवं बादलों के फटने के कारण भी बाढ़ आपदा की समस्या पाई जाती है।
![उत्तराखंड बाढ़ के दौरान बचाव कार्य](https://farm2.staticflickr.com/1599/25179818533_f2e48afc4c.jpg)
(1). संरचनात्मक पद्धतियाँ
संरचनात्मक पद्धतियों के अन्तर्गत जलाशय, बाँध, तटबन्ध बैराज, चैनल सुधार तकनीकें, एवं बाढ़ जल मार्गाभिगमन से सम्बद्ध संरचनाओं के निर्माण द्वारा क्षेत्र को बाढ़ सम्बन्धी आपदा से मुक्त किया जा सकता है। यद्यपि इनके निर्माण हेतु अत्यधिक धन एवं समय की आवश्यकता होती है।
(2). असंरचनात्मक पद्धतियाँ
इन संरचनाओं के अन्तर्गत जनमानस को बाढ़ मैदानी क्षेत्र से दूर रखा जाता है ताकि बाढ़ से उनके जीवन एवं धन सम्पदा की हानि को बचाया जा सके। बाढ़ पूर्व चेतावनी के द्वारा सम्भावित बाढ़ से लोगों को पूर्व में ही सचेत कर दिया जाता है ताकि वे बाढ़ के समय मैदानी क्षेत्रों को छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर अपने जान-माल की सुरक्षा कर सकें।
भारत में उत्तराखण्ड राज्य में वर्ष 2013 में बाढ़ से होने वाली त्रासदी इस समस्या का नवीनतम उदाहरण है। वर्ष 2013 में 14 से 17 जून के मध्य बादलों के फटने के कारण उत्तराखण्ड में आई विनाशकारी बाढ़ एवं भूस्खलन देश में 2004 के सुनामी के बाद की सबसे बड़ी आपदा है। इस अवधि में क्षेत्र में सामान्य से लगभग 375 प्रतिशत अधिक वर्षा रिकार्ड की गई है। जिसके कारण उत्तराखण्ड में, विशिष्टतः केदारघाटी एवं रुद्रप्रयाग जिले में, भयंकर तबाही हुई। एक अनुमान के अनुसार हजारों लोग मृत्यु को प्राप्त हो गए। पुलों एवं सड़कों के नष्ट होने के कारण लगभग एक लाख तीर्थयात्री विभिन्न स्थानों पर मार्ग में फँस गए जिन्हें भारतीय वायु सेना द्वारा हेलीकाप्टरों से सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया। कई हजार मकान ध्वस्त हो गए तथा हजारों गाँव इससे प्रभावित हुए।
![बाढ़ के कारण जलमग्न शहर](https://farm2.staticflickr.com/1648/25780371436_5458454dd2.jpg)
उत्तराखण्ड में आई इस बाढ़ का परिणाम दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों तक देखा गया। उत्तर प्रदेश के 23 जिलों के 608 गाँव के 7 लाख लोग इस बाढ़ से प्रभावित हुए तथा सैकड़ों लोग काल के ग्रास बन गए।
इस त्रासदी के अवसर पर भारतीय सेना, वायु सेना, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, सीमा सुरक्षा बल इत्यादि द्वारा सम्मिलित रूप से बचाव कार्य चलाए गए। हेलीकाप्टरों एवं वायु सेना के हवाई जहाजों द्वारा इस बचाव कार्य में पूर्ण योगदान प्रदान किया गया।
सूखा
देश के अधिकांश भागों में सूखे की समस्या पाई जाती है। अधिकांशतः किसी स्थान विशेष पर वर्षा की कमी या आवश्यक जल की अनुपलब्धता की स्थिति को सूखे के रूप में व्यक्त किया जाता है।
किसी क्षेत्र विशेष में वर्षा के विलम्बित होने या वर्षा के न होने के कारण सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है। सूखे की अवस्था में आवश्यक उपयोगों के लिये जल उपलब्ध नहीं हो पाता है।
जल की उपलब्धता में 50 प्रतिशत या अधिक कमी होने की स्थिति को तीव्र सूखे एवं 25-50 प्रतिशत के मध्य कमी होने पर माध्य सूखे के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। क्षेत्र में सूखे की स्थिति में पेयजल उपलब्धता, सिंचाई हेतु जल, घरेलू उपयोग, जल शक्ति, नौकायन, आर्थिक उन्नति इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र प्रभावित होते हैं।
सूखे की समस्या का नवीनतम उदाहरण वर्ष 2012 में जून से सितम्बर माह के दौरान निम्न वर्षा होने के कारण वर्ष 2013 में महाराष्ट्र में विगत 40 वर्षों की तुलना में पड़ने वाला सर्वाधिक भयंकर सूखा है। इस सूखे से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों में महाराष्ट्र के सोलापुर, अहमदनगर, सांगली, पुणे, सतारा, बीड एवं नासिक जिले हैं। इसके अतिरिक्त लातूर, उस्मानाबाद, नांदेड, औरंगाबाद, जालना, जलगाँव एवं धुले जिलों के निवासी भी सूखे की इस समस्या से अत्यधिक प्रभावित हुए।
![तीव्र सूखे का कृषि पर प्रभाव](https://farm2.staticflickr.com/1645/25175954614_a267941c18.jpg)
इसके परिणामस्वरूप देश में बाढ़ एवं सूखे दोनों से ही सम्बन्धित समस्याओं का समाधान सम्भव हो सकेगा। यद्यपि इस योजना के क्रियान्वयन के लिये अत्यधिक धन की आवश्यकता होगी तथापि योजना को उपलब्ध धन के आधार पर विभिन्न चरणों में पूर्ण किया जा सकता है।
भूजल से अनियंत्रित जल निकासी
भारतवर्ष में कृषि क्षेत्र के विकास में भूजल का अत्यधिक योगदान है। विशिष्टतः विगत चार-पाँच दशकों में भूजल से सिंचाई में अत्यधिक वृद्धि हुई है। इसके कारण कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति आ गई है यद्यपि इसके कारण भूजल का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है तथा भूजल निकासी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। नागराज तथा अन्य द्वारा दिये गए आँकड़ों के अनुसार देश में 1950 में जहाँ लगभग 38 लाख कूप एवं 3000 गहरे ट्यूबवेल उपलब्ध थे वहीं चार दशकों के पश्चात यह संख्या बढ़कर 1 करोड़ कूप, 54 लाख प्राइवेट ट्यूबवेल तथा 60,000 गहरे ट्यूबवेल तक पहुँच गई है। भूजल की अत्यधिक निकासी के कारण कुछ नदी बेसिनों के जल स्तर में तीव्र गिरावट पाई गई है। दक्षिण भारत के कठोर-चट्टानी क्षेत्रों में, जहाँ सतही जल के स्रोत सीमित हैं तथा वर्षा अनियमित हैं, भूजल की स्थिति क्रान्तिक स्तर तक पहुँच गई है।
भूजल की अनियंत्रित निकासी के कारण भूजल स्तर में तीव्र कमी के साथ-साथ जल की गुणवत्ता में भी ह्रास पाया गया है। तटीय क्षेत्रों में यह स्थिति समुद्री जल के अनधिकृत प्रवेश के कारण भी पाई गई है।
जल ग्रसनता
![बाढ़ से प्रभावित निवासी](https://farm2.staticflickr.com/1717/25179817433_6d7092d44d.jpg)
जल ग्रसनता उत्तरी भारत के गंगा मैदानी क्षेत्रों, राजस्थान एवं गुजरात के शुष्क भागों एवं तटीय क्षेत्रों में पाई जाती है। इन क्षेत्रों में फसल उत्पादकता पूर्णतः प्रभावित होती है।
भूजल एवं सतही जल के संयुग्मी उपयोग द्वारा जल ग्रसनता की समस्या का समाधान सम्भव है। भूजल एवं सतही जल के संयुग्मी उपयोग द्वारा सिंचाई मूल्यों में यथा सम्भव बचत तथा उपलब्ध जल का इष्टतम उपयोग किया जा सकता है।
अन्य समस्याएँ
![सूखे के दौरान दूरस्थ क्षेत्र से जल ले जाता एक कृषक](https://farm2.staticflickr.com/1701/25806449795_eb8afedb48.jpg)
1. घरेलू सीवेज, औद्योगिक वहिःप्रवाह तथा कृषि में उपयोग किये जाने वाले रसायनों, कीटनाशकों एवं उर्वरकों के प्रयोग के कारण इनसे प्राप्त व्यर्थ जल प्रदूषित होता है। इस जल को बिना उपचार किये सामान्यतः नदी जल में प्रवाहित कर दिया जाता है जिसके कारण नदी का शुद्ध जल दूषित हो जाता है। अतः यह आवश्यक है कि इस दूषित जल का नदी जल में प्रवाहित करने से पूर्व उपचार किया जाये। जिससे नदी जल को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।
2. जल का पुनः उपयोग, भूजल का पुनःपूरण, पारिस्थितिकीय तंत्र की अविरलता।
3. जल संरक्षण के क्षेत्रों में अपर्याप्त सतर्कता।
4. जल सम्बन्धी अधिकार जो भू-स्वामियों को अपनी जमीन से भूजल के दोहन सम्बन्धी असीमित अधिकार प्राप्त करता है परिणामतः भू-स्वामी अपने स्वामित्व वाली भूमि में भूजल का अत्यधिक दोहन करते हैं।
निष्कर्ष
हमारे देश में जल संसाधनों की उपलब्धता की कमी नहीं है। परन्तु जल संसाधनों का उपयुक्त प्रबन्धन आवश्यक है। बढ़ती जनसंख्या एवं जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग न होने के कारण इस क्षेत्र में देश को जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। यदि उपलब्ध जल संसाधनों के इष्टतम प्रबन्धन करने के प्रयत्न सम्भव नहीं हुए तो जल के क्षेत्र में भयंकर चुनौती सामने आ सकती है। अतः जल संसाधन प्रबन्धन के क्षेत्र में जल के प्रति लोगों में जागरुकता होना भी आवश्यक है। सरकार द्वारा किये जाने वाले प्रयासों के साथ-साथ जन मानस को जल की प्रत्येक बूँद के इष्टतम उपयोग के लिये प्रयास करने होंगे अन्यथा हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिये जल संकट से उत्पन्न त्रासदी के जिम्मेवार सिद्ध होंगे।
सम्पर्क करें
पुष्पेन्द्र कुमार अग्रवाल, वैज्ञानिक ‘बी’, रा.ज.सं., रुड़की
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