भारतवर्ष की नदियों के नामकरण का अध्ययन

भारतवर्ष की नदियों के नामकरण का अध्ययन
भारतवर्ष की नदियों के नामकरण का अध्ययन

सारांश

देश में उपलब्ध सतही जल संसाधनों में नदियों का स्थान सर्वोपरि है। देश में उपलब्ध सतही जल का अधिकांश भाग हमें नदियों के द्वारा प्राप्त होता है। भारत की नदियों का देश के आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास में प्राचीनकाल से ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सिन्धु तथा गंगा नदियों की घाटियों में ही विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यताओं-सिन्धु घाटी तथा आर्य सभ्यता का आविर्भाव हुआ। आज भी देश की सर्वाधिक जनसंख्या एवं कृषि का संकेन्द्रण नदी घाटी क्षेत्रों में पाया जाता है। प्राचीन काल में व्यापारिक एवं यातायात की सुविधा के कारण देश के अधिकांश नगर नदियों के किनारे ही विकसित हुए थे तथा आज भी देश के लगभग सभी धार्मिक स्थल किसी न किसी नदी से सम्बद्ध हैं।

नदियों के देश कहे जाने वाले भारत के नदी तंत्र को मुख्यतः चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता हैं। (1) हिमालय से निकलने वाली नदियाँ, (2) दक्षिण प्रायद्वीप की नदियाँ, (3) तटवर्ती नदियां एवं (4) अंतर्देशीय नालों से द्रोणी क्षेत्र की नदियाँ। उत्तरी भारत में सिंधु, मध्य भारत में गंगा, उत्तर-पूर्व भारत में ब्रह्मपुत्र तथा प्रायद्वीपीय भारत में नर्मदा, कावेरी, महानदी आदि नदियां विस्तृत नदी प्रणाली का निर्माण करती हैं। देश की अधिकांश नदियों को उनकी स्थिति, व्यवहार एवं पौराणिक किवदंतियों के आधार पर उनके मूल नामों के साथ-साथ अन्य पौराणिक एवं वैकल्पिक नामों से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त देश की अनेकों नदियों के नाम भौतिक विशिष्टताओं, रंग, स्थलाकृति आदि से भी सम्बद्ध हैं। प्रस्तुत प्रपत्र में देश की प्रमुख नदियों के मूल, पौराणिक एवं वैकल्पिक नामों को वर्णित किया गया है।

Abstract

Rivers have served as the life line for mankind and play an important role in the available water resources of the country. Rivers carry a major part of available water resources as surface water and play an important role in the economic & social development of the country. From the ancient period of India, the oldest civilization such as Indus valley civilization and Aryan Civilization were developed on the banks of Indus and Ganga River basins. Presently, the maximum development of population as well as agriculture is being developed in the river valleys in India. Due to the trade & transport facilities during the ancient time, the major cities were developed on the banks of the rivers and today almost all the religious places of the country are located on the banks of any river.

Based on the topography, the river system of India can be classified into four groups. These are (i) Himalayan rivers, (ii)Deccan Rivers, (iii) Coastal Rivers and (iv) Rivers of the inland drainage basin. Indus river system in north India, Ganga River in Central India, Brahmaputra in North – East part of the Country and Narmada, Cauvery, Mahanadi etc rivers of peninsular part of are the major river systems of India.

Naming of rivers is as interesting topic and the Indian rivers are known from different mythological as well as other names based on their life, culture and behavior etc. In the present paper, different mythological and other names of Indian rivers in addition to their original names have been described.

प्रस्तावना

संस्कृतियां समय और समाज का प्रमाणिक आइना होती हैं। यूँ तो पर्वत, नभ, भूमि, वनस्पति, नदी जैसी प्राकृतिक संरचनाएं मानवों की उत्पत्ति से लेकर संस्कृतियों के विकास तक थी, लेकिन यही संस्कृतियाँ हमे विश्व के किस भूखण्ड के लोग, किस कालखण्ड में प्रकृति की किस रचना को किस नजरिए से देखते, ये समझने में हमे मदद करती हैं। सबसे अहम बात विश्व की संस्कृतियों का विकास किसी ना किसी नदी के किनारे ही हुआ है। जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो यह मूल रूप से वैदिक संस्कृति और वैदिक संस्कृति के चार मूल ग्रंथ-ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद और सामवेद के इर्द-गिर्द ही घूमती प्रतीत होती है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में नदियों का खासा महत्त्व रहा है। विश्व की संस्कृतियों का विकास किसी ना किसी नदी के तट पर ही हुआ है। शायद इसलिए भारतीय सामाजिक संस्कृति को भी हम गंगा-जमुनी संस्कृति कहते हैं। चित्र-1 में भारतवर्ष की प्रमुख नदियों का चित्रण किया गया है।

चित्र -1ः भारतवर्ष की प्रमुख नदियाँ

नदियों के देश कहे जाने वाले भारत के नदी तंत्र को मुख्यतः चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता हैं। (1) हिमालय से निकलने वाली नदियाँ, (2) दक्षिण प्रायद्वीप की नदियाँ, (3) तटवर्ती नदियाँ एवं (4) अंतर्देशीय नालों से द्रोणी क्षेत्र की नदियाँ। उत्तरी भारत में सिंधु, मध्य भारत में गंगा, उत्तर-पूर्व भारत में ब्रह्मपुत्र तथा प्रायद्वीपीय भारत में नर्मदा कावेरी महानदी आदि नदियाँ विस्तृत नदी प्रणाली का निर्माण करती हैं। देश की अधिकांश नदियों को उनकी स्थिति, व्यवहार एवं पौराणिक किवदंतियों के आधार पर उनके मूल नामों के साथ-साथ अन्य पौराणिक एवं वैकल्पिक नामों से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त देश की अनेकों नदियों के नाम भौतिक विशिष्टताओं, रंग, स्थलाकृति आदि से भी सम्बद्ध हैं। देश की प्रमुख नदियों के मूल, पौराणिक एवं वैकल्पिक नामों को निम्न खण्डों में वर्णित किया गया है।

हिमालय से निकलने वाली नदियाँ

गंगा नदी

गंगा नदी भारतवर्ष की सर्वाधिक पवित्र नदियों में से एक है। हिन्दुओं में गंगा नदी देवी के सामान पूज्यनीय है तथा इसे लोग गंगा माँ के नाम से पुकारते हैं। भारतवर्ष में गंगा शब्द को शुद्ध जल का पर्याय माना जाता है। गंगा नदी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेकों पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। जिनके आधार पर गंगा नदी को विष्णुपदी, भागीरथी, पाताल गंगा, जाह्नवी, मंदाकिनी, देवनदी, सुरसरी, त्रिपथगा इत्यादि विभिन्न नामों से जाना जाता है। चित्र-2 में गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं उनकी सहायक नदियों को दर्शाया गया है।

पुराणों के अनुसार गंगा नदी की उत्पत्ति भगवान विष्णु के चरणों से उत्पन्न पसीने से हुई है, इस कथा के अनुसार भगवान् विष्णु के चरणों से उत्पन्न पसीने को ब्रह्माजी ने अपने कमंडल में भर लिया तथा इस एकत्रित जल से गंगा की उत्पत्ति की। जिसके कारण इसे विष्णुपदी के नाम से जाना जाता है।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार राजा भागीरथ के पूर्वज द्वारा राजा सागर के साठ हजार पुत्र ऋषि अगस्त के श्राप द्वारा भस्म हो गए थे। जिनके उद्धार हेतु राजा भागीरथ ने कठोर तप कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। राजा भागीरथ के तप के परिणामस्वरूप ब्रह्माजी ने राजा सागर के पुत्रों के उद्धार हेतु गंगा को पृथ्वी पर अवतरित होने की अनुमति प्रदान की। राजा भागीरथ के द्वारा पृथ्वी पर गंगा को लाने के कारण इसे भागीरथी के नाम से जाना जाता है।

राजा भागीरथ के द्वारा गंगा के उद्गम के सम्बन्ध में पौराणिक कथाओं के अनुसार यह कहा जाता है कि जब गंगा भागीरथ के प्रयासों से पृथ्वी पर अवतरित हुई तो उनके तीव्र वेग से ऋषि जाह्नु की तपस्या में विघ्न उत्पन्न हुआ। ऋषि जाह्नु ने क्रोध में गंगा के सम्पूर्ण जल को पी लिया। बाद में देवताओं की प्रार्थना पर इस नदी को अपने कर्ण मार्ग से मुक्त कर दिया। अतः गंगा नदी को ऋषि जाह्नु की पुत्री जाह्नवी के नाम से भी जाना जाता है।

महाभारत में गंगा नदी को अर्जुन द्वारा भूजल से उद्गमित करने का वृत्तांत भी मिलता है। यह वर्णित किया गया है कि मृतु शैया पर लेटे भीष्म पितामह की आज्ञा से अर्जुन ने तीर द्वारा भूजल को पृथ्वी पर लाकर उनकी प्यास बुझाई। अर्जुन के इस कार्य द्वारा गंगा भूजल से पृथ्वी पर अवतरित हुई, जिसके कारण गंगा को पाताल गंगा के नाम से भी जाना जाता है।

चित्र -2ः गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं उनकी सहायक नदियाँ

ऋग्वेद में गंगा को पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में वर्णित किया गया है। महाभारत के अनुसार गंगा को राजा शांतनु की पत्नी तथा भीष्म पितामह की माता के रूप में जाना जाता है।
गंगा नदी का उद्गम उत्तराखंड के गंगोत्री हिमनद के देवनज (गोमुख) से माना जाता है। अलकनंदा तथा भागीरथी धाराओं के देवप्रयाग में संगम से बनी नदी को गंगा नदी के रूप में जाना जाता है।

अलकनंदा एवं भागीरथी नदी एवं पंच प्रयाग

उत्तराखंड के चार धामों में गंगा की कई धाराएं उद्गमित होती हैं। गंगोत्री से उद्गमित होने वाली गंगा की धारा को भागीरथी, केदारनाथ से उद्गमित होने वाली धारा को मंदाकिनी और बद्रीनाथ से उद्गमित होने वाली धारा को अलकनन्दा के नाम से जाना जाता है। अलकनंदा नदी का पौराणिक नाम विष्णुगंगा है। वास्तव में अलकनंदा नदी देवप्रयाग में भागीरथी से संगम के पश्चात ये दोनों नदियां गंगा में परिवर्तित होती हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भागीरथी एवं अलकनंदा नदियों को क्रमशः सास-बहू के रूप में जाना जाता है। अपने कोलाहल भरे प्रवाह के कारण भागीरथी नदी सास एवं अलकनंदा नदी को बहू के रूप में प्रसिद्ध हैं। अपने उदगम से भागीरथी में संगम तक अलकनंदा नदी में पांच विभिन्न नदियाँ मिलती हैं जिसके कारण उत्तराखंड में इस क्षेत्र को पंच प्रयाग कहा जाता है। प्रयाग उस स्थल को कहते है जहां दो नदियों का संगम होता है। उत्तराखंड के पंच प्रयाग क्षेत्र में अलकनंदा नदी में विभिन्न स्थलों पर क्रमशः विष्णुगंगा, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी, एवं भागीरथी नदियों का संगम होता है। इन स्थलों को क्रमशः विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग एवं देवप्रयाग के नाम से जाना जाता है। अलकनंदा नदी का उद्गम सतोपंथ हिमनद है।

यमुना नदी

यमुना नदी को भारत की पवित्रतम नदियों में से एक है। इस नदी को देवी का रूप माना जाता है। पुराणों में यमुना नदी के नाम देवियों के नाम पर ऐशिता, आशिता, असीता, भानुजा, सूर्यतन्या, तरानिजा, आदि वर्णित किये गए हैं। इस नदी का उद्गम उत्तराखंड के यमुनोत्री नामक स्थान से हुआ है जो उत्तराखंड के चार धामों में से एक है। कालिंदी पर्वत से उद्गमित होने तथा नदी के जल का रंग काला होने के कारण कादंबरी में इस नदी को कालिंदी नदी के नाम से भी वर्णित किया गया है। यमुना नदी गंगा नदी की प्रमुख सहायक नदी है, एवं पुराणों में इसे गंगा की छोटी भगिनी के रूप में वर्णित किया गया है। इस नदी को जमुना के नाम से भी जाना जाता है।

यमुना नदी को सूर्य एवं छाया की पुत्री एवं मृत्यु के देव यम की छोटी भगिनी के रूप में वर्णित किया गया है। यह कहा गया है कि सूर्य की पत्नी छाया के श्यामल वर्ण के कारण यमुना एवं उनके अग्रज यमराज का रंग भी श्यामल है। यमुना नदी को यमराज से यह वरदान प्राप्त है कि भाई दूज के दिन जो व्यक्ति यमुना में स्नान करेगा उसके ऊपर से अकाल मृत्यु का संकट दूर हो जाता है।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार यमुना को भगवान श्री कृष्ण की पत्नी माना जाता है। इस सम्बन्ध में सुखसागर में वर्णन मिलता है, कि जब श्री कृष्ण जन्म के समय वासुदेव कृष्ण को लेकर गोकुल जा रहे थे, तो यमुना अपने रौद्र रूप में थी, परन्तु श्री कृष्ण के चरण स्पर्श कर वह शांत हो गयी और सामान्य रूप में प्रवाहित होने लगी। जहाँ भगवान श्री कृष्ण ब्रज संस्कृति के जनक कहे जाते हैं, वहाँ यमुना इसकी जननी मानी जाती है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार मथुरा नगरी के निकट कालिया नामक एक विशाल नाग यमुना नदी में अपने परिवार के साथ रहता था, जिसके कारण नदी का जल विषैला हो गया था। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने यमुना में घुसकर कालिया मंथन कर इस नाग को यमुना छोड़कर समुद्र में जाने पर विवश कर दिया था। इस प्रकार यमुना नदी को सच्चे अर्थों में ब्रजवासियों की माता माना जाता है। ब्रज में इसे यमुना मैया कहते हैं।

सरस्वती नदी

सरस्वती नदी पौराणिक हिन्दू ग्रन्थों तथा ऋग्वेद में वर्णित मुख्य नदियों में से एक है। ऋग्वेद में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। ऋग्वेद के अनुसार सरस्वती नदी को अम्बितम (माताओं में श्रेष्ठ), नदितम (नदियों में श्रेष्ठ) एवं देवितम (देवियों में श्रेष्ठ) नामों से वर्णित किया गया है। सरस्वती नदी को मानवीकृत रूप में देवी सरस्वती का स्वरुप माना जाता था। हिन्दू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सरस्वती नदी को भगवान् नारायण की पत्नी माना गया है, जो श्राप के कारण पृथ्वी पर अवतरित हुई। यह कहा जाता है कि सरस्वती नदी स्वर्ग में बहने वाली दूधिया नदी है, जिसके पृथ्वी पर अवतरित होने के पश्चात यह नदी मानव मात्र के लिए मृत्यु के पश्चात मोक्ष पाने का एक द्वार है।

ऋग्वेद के नदी सूत्र के एक मंत्र में सरस्वती नदी को श्यमुना के पूर्वश् और श्सतलुज के पश्चिमश् में बहती हुई बताया गया है, उत्तर वैदिक ग्रंथों, जैसे ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सूखा हुआ वर्णित किया गया है, महाभारत में भी सरस्वती नदी के मरुस्थल में श्विनाशनश् नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन मिलता है। महाभारत में सरस्वती नदी के प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति, वेदवती आदि कई नाम हैं। महाभारत, वायु पुराण आदि में सरस्वती के विभिन्न पुत्रों के नाम और उनसे जुड़े मिथक प्राप्त होते हैं। महाभारत के शल्य-पर्व, शांति-पर्व, या वायुपुराण में सरस्वती नदी और दधीचि ऋषि के पुत्र सम्बन्धी मिथक थोड़े थोड़े अंतरों से मिलते हैं।

संस्कृत महाकवि बाण भट्ट के ग्रन्थ श्हर्षचरितश् में दिए गए वर्णन के अनुसार एक बार बारह वर्ष तक वर्षा न होने के कारण ऋषिगण सरस्वती का क्षेत्र त्याग कर इधर-उधर हो गए, परन्तु माता के आदेश पर सरस्वती-पुत्र, सारस्वतेय वहाँ से कहीं नहीं गया। फिर सुकाल होने पर जब तक वे ऋषि वापस लौटे तो वे सब वेद आदि भूल चुके थे। उनके आग्रह का मान रखते हुए सारस्वतेय ने उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया और पुनः श्रुतियों का पाठ करवाया। अश्वघोष ने अपने बुद्धचरितश्काव्य में भी इसी कथा का वर्णन किया है।

यह कहा जाता है कि सरस्वती नदी प्राचीन काल में सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होता थो। यह नदी पंजाब में सिरमूर राज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई कर्नाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी। यह कहा जाता है कि प्रयाग के निकट तक आकर यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बन गई थी। कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई, फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अंतरूसलिला होकर बहती है। मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भू-भाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। इस नदी को घघ्घर, रक्षी, चित्तग नामों से भी जाना जाता है।

राम गंगा नदी

रामगंगा नदी गंगा नदी की सहायक नदी है। स्कंदपुराण के मानसखण्ड में रामगंगा नदी का उल्लेख रथवाहिनी के नाम से हुआ है। इसके रहस्य व महत्व सारगर्भित पाये जाते हैं। उनमें से एक तथ्य, मानसखण्ड के उल्लेखानुसार द्रोणागिरी यानि दूनागिरी के दो श्रंगों ब्रह्मपर्वत व लोध्र पर्वत (भटकोट) के मध्य से रथवाहिनी नदी का उद्गम हुआ है। इन्हीं पौराणिक ग्रंथों में लोध्र-पर्वत शिखर (भटकोट) को जमदाग्नि ऋषि (परशुराम) की तपोभूमि बताया गया है। इसी कारण परशुराम के नाम पर ही इसका नाम रथवाहिनी पड़ा, जो बाद में परिवर्तित होकर रामगंगा हो गया।

उत्तराखण्ड के हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं के कुमाऊँ मण्डल के अन्तर्गत अल्मोड़ा जिले के दूनागिरी (पौराणिक नाम द्रोणगिरी) से इस नदी का उद्गम होता है। रामगंगा नदी अपने उद्गम के पश्चात पहाड़ी तथा मैदानी क्षेत्रों की यात्रा करने के पश्चात कन्नौज के निकट गंगा नदी की सहायक नदी के रूप में गंगा नदी में मिल जाती है। रामगंगा नदी पर कालागढ़ नामक स्थान पर एक बाँध बनाया गया है, जहॉं बिजली का उत्पादन तथा सिंचाई के लिए जल संचय किया जाता है।

घाघरा या सरयू नदी

घाघरा नदी का उद्गम दक्षिणी तिब्बत के मापचाचुंग ग्लेशियर से हुआ है, जहाँ इसे गोग्रा एवं कर्णाली के नाम से जाना जाता है। इसे ‘सरयू नदी’, सरजू, शारदा, आदि नामों से भी जाना जाता है। सरयू नदी वैदिक कालीन नदी है जिसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। सरयू नदी को बौद्ध ग्रंथों में सरभ के नाम से पुकारा गया है। इतिहासविद् कनिंघम ने अपने एक मानचित्र पर इसे मेगस्थनीज द्वारा वर्णित सोलोमत्तिस नदी के रूप में चिन्हित किया है और ज्यादातर विद्वान टालेमी द्वारा वर्णित सरोबेस नदी के रूप में मानते हैं।

पुराणों में वर्णित है कि सरयू नदी भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रकट हुई है। आनंद रामायण में उल्लेख है कि प्राचीन काल में शंकासुर दैत्य ने वेद को चुरा कर समुद्र में डाल दिया और स्वयं वहां छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण कर दैत्य का वध किया था और ब्रह्मा को वेद सौंप कर अपना वास्तविक स्वरूप धारण किया। उस समय हर्ष के कारण भगवान विष्णु की आंखों से प्रेमाश्रु टपक पड़े। ब्रह्मा ने उस प्रेमाश्रु को मानसरोवर में डाल कर उसे सुरक्षित कर लिया। इस जल को महापराक्रमी वैवस्वत महाराज ने बाण के प्रहार से मानसरोवर से बाहर निकाला। यही जलधारा सरयू नदी कहलाई।

रामायण में वर्णित है कि सरयू अयोध्या से होकर बहती है। रामचरित मानस में तुलसीदास ने इस नदी का गुणगान किया है। मत्स्य पुराण के अध्याय 121 और वाल्मीकि रामायण के 24वें सर्ग में इस नदी का वर्णन है। वामन पुराण के 13वें अध्याय, ब्रह्म पुराण के 19वें अध्याय और वायु पुराण के 45वें अध्याय में गंगा, यमुना, गोमती, सरयू और शारदा आदि नदियों का हिमालय से प्रवाहित होना बताया गया है।

घाघरा नाम संस्कृत शब्द घग्घर से लिया गया है। घग्घर शब्द का अर्थ है जल की गड़गड़ाहट की आवाज। वास्तव में इस नदी के जल प्रवाह से इसी प्रकार की आवाज सुनाई देती है, जिसके कारण इस नदी का नाम घाघरा पड़ा। यह नदी हिमालय से निकलकर बलिया और छपरा के बीच में गंगा में मिल जाती है।

गोमती नदी

गोमती नदी गंगा नदी की सहायक नदी है। पुराणों के अनुसार गोमती नदी को ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की पुत्री माना गया है। पुराणों के अनुसार एकादशी को इस नदी में स्नान करने से मानव के संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार गोमती भारत की उन पवित्र नदियों में से है जो मोक्ष प्राप्ति का मार्ग हैं। पौराणिक मान्यता ये भी है कि रावण वध के पश्चात श्ब्रह्महत्यश् के पाप से मुक्ति पाने के लिये भगवान श्री राम ने भी अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार इसी पवित्र पावन आदि-गंगा गोमती नदी में स्नान किया था एवं अपने धनुष को भी यहीं पर धोया था और स्वयं को ब्राह्मण की हत्या के पाप से मुक्त किया था, लोगों का मानना है कि जो भी व्यक्ति गंगा दशहरा के अवसर पर यहां स्नान करता है, उसके सभी पाप आदि गंगा गोमती नदी में धुल जाते हैं। गोमती नदी का उद्गम उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले से हुआ है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ इस नदी के किनारे बसी हुई है। यह वाराणसी के निकट सैदपुर के पास कैथी नामक स्थान पर गंगा में मिल जाती है।

गंडक नदी

गण्डकी नदी, नेपाल और बिहार में बहने वाली गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी है, जिसे बड़ी गंडक या केवल गंडक भी कहा जाता है। इस नदी को नेपाल एवं बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में सालिग्रामिनी या सालग्रामी, नारायणी और सप्तगण्डकी नामों से पुकारा जाता है। रामायण में इस नदी को कलिमही के नाम से वर्णित किया गया है। यूनानी के भूगोलवेत्ताओं की कोंडोचेट्स (ज्ञवदवकवबींजमे) तथा महाकाव्यों में उल्लिखित सदानीरा भी यही है। रामायण में इस नदी को कालीमही के नाम से संबोधित किया गया है।

पौराणिकताओं के अनुसार इस नदी की उत्पत्ति भगवान विष्णु के गंडे (ब्ीमंा) से उत्पन्न पसीने से हुई है। जिसके कारण इस नदी को गंडक नदी के नाम से जाना जाता है। महाभारत सभा पर्व में इस नदी को श्गंडकश् कहा गया है। गंडक देश विदेह या वर्तमान मिथिला के निकट प्रतीत होता है। गण्डकी हिमालय से निकलकर दक्षिण-पश्चिम बहती हुई भारत में प्रवेश करती है। नेपाल में इस नदी को काली नदी के नाम से भी जाना जाता है। त्रिवेणी पर्वत के पहले इसमें एक सहायक नदी त्रिशूलगंगा मिलती है। उत्तर प्रदेश तथा बिहार की सीमा में रहते हुए यह नदी पटना के पास गंगा नदी में समाहित हो जाती है।

पार्जिटर के अनुसार इस नदी को सदानीरा के नाम से भी जाना जाता है। सदानीरा जिसका उल्लेख प्राचीन साहित्य में अनेक बार आया है, संभवतरू गंडकी ही है। सदानीरा कोसल और विदेह की सीमा पर बहती थी। गंडकी का एक नाम श्महीश् भी कहा गया है। विसेंट स्मिथ ने श्महापरिनिव्वान सुत्तंतश् में उल्लिखित श्हिरण्यवतीश् का अभिज्ञान गंडक से किया है। यह नदी मल्लों की राजधानी के उद्यान शालवन के पास बहती थी।बुद्धचरित के अनुसार कुशीनगर मे। निर्वाण से पूर्व तथागत ने हिरण्यवती नदी में स्नान किया था।

कोसी नदी

कोसी नदी का उद्गम प्रारंभिक रुप से अरुणा, तमोर, सन कोशी, दूध कोशी, भोत कोशी, तम कोशी, लिखू खोला एवं इन्द्रावती नामक सात धाराओं के संगम से हुआ है जो नेपाल, हिमालय तथा कंचनजंगा पर्वत से निकलती है, जिसके कारण कोशी नदी को सप्तकोशी के नाम से भी जाना जाता है। रामायण के अनुसार इस नदी का नाम कौशिकी था। इस नदी का कौशिकी नाम ऋषि विश्वामित्र के छोटी भगिनी के नाम पर पडा। पौराणिक मान्यता है कि विश्वामित्र को इसी नदी के किनारे ऋषि का दर्जा मिला था। वे कुशिक ऋषि के शिष्य थे और उन्हें ऋग्वेद में कौशिक भी कहा गया है। कहा जाता है, कि कौशिकी को अपने अग्रज ऋषि विश्वामित्र के सामान ही शीघ्र क्रोध आ जाता था। कोसी नदी अपने मार्ग परिवर्तन एवं बाढ़ के लिए प्रसिद्ध है।

चंबल नदी

चंबल नदी मध्य भारत में यमुना नदी की सहायक नदी है। यह नदी मध्यप्रदेश के श्जानापाव पर्वतश् महू से उद्गमित होतीहै। इस नदी का वर्णन महाभारत में मिलता है। महाभारत ग्रन्थ में इस नदी को चर्मनवती या चरमावती के नाम से वर्णित किया गया है। चर्मावती का अर्थ है चमड़ा, यह कहा जाता है कि इस नदी के तट पर प्राचीन काल में चमड़ा सुखाया जाता था। पुराणों के अनुसार प्राचीन काल में राजा रतिदेव द्वारा स्वर्ग की कामना के लिए इस नदी के तट पर पशुओं की बलि दी जाती थी, जिसके परिणामस्वरूप इस नदी का रंग लाल हो गया था। पशुओं की त्वचा को इस नदी के तट पर सुखाने के कारण यह नदी चमड़े वाली नदी के नाम से भी प्रसिद्ध हुई एवं इसका नाम चरमावती पड़ा।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार सरस्वती नदी क्षेत्र से विस्थापित लोग इस नदी के तट पर बस गए थे। तेलगू जैसी कुछ द्रविण भाषाओं के साथ साथ संस्कृत भाषा में चम्बल शब्द का शाब्दिक अर्थ मतस्य है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इस नदी के तट पर कुछ मत्स्य शासकों ने अपने शासन का उद्गम इस नदी तट पर किया।

चर्मनवती या चरमावती नदी की दक्षिणी सीमा महाभारत काल के पांचाल राज्य से मिलती थी। महाभारत के अनुसार राजा द्रुपद ने दक्षिणी पांचाल राज्य पर चर्मनवती या चरमावती नदी के तट तक शासन किया। इस नदी के बारे में यह कथा प्रचलित है कि कुंती ने अपने नवजात पुत्र को एक टोकरी में रखकर इस नदी में प्रवाहित कर दिया था। नवजात पुत्र सहित वह टोकरी प्रवाहित होते होते गंगा तट पर स्थित अंग राज्य की राजधानी चम्पापुरी पहुँची जहां कर्ण का बचपन व्यतीत हुआ।

बनास नदी

राजसमंद जिले के अरावली पर्वत श्रेणियों में कुंभलगढ़ के पास श्खमनोर की पहाडीश् से उद्गमित होने वाली बनास नदी एक पौराणिक नदी है, जिसका वर्णन पुराणों में वशिष्ठी नाम से मिलता है। इस नदी तट को भगवान परशुराम की तप स्थली, कर्म स्थली के रूप में वर्णित किया गया है। यह नदी अरावली पर्वत में बन$आस अर्थात बनास अर्थात (वन की आशा) के रूप में जानी जाती है। इसका उद्गम वेरों का मठ है, जो वीरों के मठ से अपभ्रंश हुआ है। दानवीर कर्ण को परशुराम ने यहीं शस्त्रशिक्षा दी थी। पूर्वोत्तर दिशा में बहती हुई चांडार के पास रामेश्वर घाट संगम में चम्बल (चर्मण्वती) में बनास का विलय होता है। पुराणों के अनुसार इसके किनारे मंदार वन था। अब वहां मंडावर गांव बसा है, सुरसर नाम का सरोवर अब सिरस गांव हो गया है।

बेतवा नदी

बेतवा नदी यमुना की एक सहायक नदी है जिसका उद्गम मध्य प्रदेश में है। बेतवा प्राचीन नदियों में से एक मानी गयी है। प्राचीन काल में बेतवा नदी को वेत्रवती के नाम से जाना जाता था। यह माना जाता है कि प्राचीन काल में यहाँ बेंत (संस्कृत में वेत्र) पैदा होता होगा, जिसके कारण इस नदी का नाम पड़ा था। संस्कृत के महाकवि बाणभट्ट ने कादम्बरी और कालिदास ने मेघदूत में भी वेत्रवती नदी का उल्लेख किया है।

पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार ‘सिंह द्वीप नामक एक राजा ने देवराज इन्द्र से शत्रुता का बदला लेने के लिए कठिन तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर वरुणदेव की पत्नी वेत्रवती मानुषी नदी का रूप धारण कर उसके पास आयी और बोली- मै वरुण की स्त्री वेत्रवती आपको प्राप्त करने आयी हूँ। स्वयं भोगार्थ अभिलिषित आयी हुई स्त्री को पुरुष स्वीकार नहीं करता, वह नरकगामी और घोर ब्रह्मपातकी होता है। इसलिए हे महाराज! कृपया मुझे स्वीकार कीजिये।’ राजा ने वेत्रवती की प्रार्थना स्वीकार कर ली तब वेत्रवती के पेट से यथा समय 12 सूर्यों के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ जो वृत्रासुर नाम से जाना गया। जिसने देवराज इन्द्र को परास्त करके सिंह द्वीप राजा की मनोकामना पूर्ण की।

सोन नदी

सोन नदी गंगा की प्रमुख सहायक नदी है, जो अमरकंटक पहाड़ी से उद्गमित होकर मध्यप्रदेश तथा बिहार में बहती हुई पटना में गंगा में समाहित हो जाती है। इसे स्वर्ण नदी एवं सोहन नदी के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन काल में सोन नदी को सुषोमा के नाम से जाना जाता था। अमरकोश में इस नदी को हिरन्यवाहा के नाम से भी जाना जाता है। सोन नदी की बालू (रेत) पीले रंग की है जो सोने की तरह चमकती है। जिसके कारण इस नदी का नाम सोन पड़ा। इस नदी का रेत भवन निर्माण आदि के लिए बहुत उपयोगी है तथा इसका उपयोग पूरे बिहार के साथसाथ उत्तर प्रदेश में भी भवन निर्माण के लिए किया जाता है, इस नदी पर बाण सागर परियोजना एवं रिहंद परियोजना संचालित है।

बागमती नदी

बागमती नदी नेपाल और भारत की एक बहुत महत्त्वपूर्ण नदी है। पुराणों के अनुसार बागमती नदी को विष्णुपुराण में बागवती, स्वयम्भू एवं वर्धपुराण में बागमती एवं बौध साहित्य में बाचमती के नामों से वर्णित किया गया है। विनय पत्रिका एवं नन्दबग्गा में इस नदी का वग्गुमुदद्दा के नाम से भी वर्णन प्राप्त होता है जो वज्जी राज्य की सीमाओं में प्रवाहित होती थी। वर्तमान समय में इसी वग्गुमुदद्दा नदी को वागमती के नाम से जाना जाता है। नेपाल के तराई क्षेत्र में इस नदी के तट पर बहुतायत में बाघों (जपहमत) के पाए जाने के कारण विपत्ति द्वारा इस नदी को बाघवती का नाम भी दिया गया था। बत्थासुत्तानता में इस नदी को बाहुमती के नाम से वर्णित किया गया है।

नेपाली सभ्यता में इस नदी का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दुओं एवं बौद्धों में इस नदी को पवित्र एवं पूज्यनीय माना जाता है तथा गंगा के समान ही इस नदी के तट पर मृत्यु के पश्चात दाह संस्कार किया जाता है। यह कहा जाता है कि मृत्यु के पश्चात मृत शरीर की बागमती के जल में तीन डुबकी लगाने से मनुष्य पृथ्वी पर आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है।

नेपाल का सबसे पवित्र तीर्थ स्थल पशुपतिनाथ मंदिर भी इसी नदी के तट पर अवस्थित है। इस नदी का उद्गम स्थान बागद्वार है। काठमांडू के टेकु दोभान में विष्णुमति नदी इसमें समाहित होती है।यह नदी अंततः बूढी गंडक नदी मैं मिल जाती है।

काली नदी

पिथौरागढ़ जिले में काली गंगा के नाम से प्रचलित यह नदी गंगा नदी की सहायक नदी है। इसे शारदा नदी के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता कि देवी काली के नाम से इसका नाम काली गंगा पड़ा। काली नदी का उद्गम भारत के उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले में 3600 मीटर की ऊँचाई पर स्थित कालापानी नामक स्थान से होता है है। इस नदी का नाम काली माता के नाम पर पड़ा जिनका मंदिर कालापानी में लिपु-लेख दर्रे के निकट भारत और तिब्बत की सीमा पर स्थित है।
काली नदी जौलजीबी नामक स्थान पर गोरी नदी से मिलती है। यह स्थान एक वार्षिक उत्सव के लिए जाना जाता है। उसके बाद यह काली नदी के नाम से आगे बढ़ती है और पंचेश्वर में उत्तराखण्ड के कुमांऊ क्षेत्रों की लगभग सभी बड़ी नदियों को अपने में समेट कर आगे बढ़ती है, और टनकपुर होते हुये बनबसा में पहुंचती है, और यहां से इसे शारदा नदी के नाम से जाना जाता है, आगे चलकर यह नदी, करनाली नदी से मिलती है और बहराइच जिले में पहुँचने पर इसे एक नया नाम मिलता है, सरयू, जो आगे चलकर यह गंगा नदी में समाहित हो जाती है।

हुगली नदी

हुगली गंगा नदी की सहायक नदी है। इस नदी को प्राचीन काल में ओगोलिन के नाम से जाना जाता था। मुगल शासक शाहजहाँ ने अपने शासन काल में पुर्तगालिओंको बंगाल में व्यापार करने की अनुमति प्रदान की पुर्तगालिओं ने बंगाल में एक चर्च का निर्माण किया। चर्च के चारों और हुगला नामक घास उत्पन्न हुई, जिसके कारण इसके निकट बहने वाली नदी का नाम ओगोलिन रखा गया। बाद में ओगोलिन शब्द परिवर्तित होकर पहले उगली तथा बाद में हुगली पडा। इसी नदी के तट पर कोलकाता बन्दरगाह स्थित है जिसको पूर्व का लंदन कहा जाता है। दामोदर, एवं जलांगी इस नदी की सहायक नदियाँ है।

ब्रह्मपुत्र नदी

ब्रह्मपुत्र, हिमालय के कैलाश पर्वत के निकट मानसरोवर झील से उद्गमित एक दुर्गम एवं तेज बहाव का महानद है। भारत की अधिकाँश नदियों के नाम स्त्रीलिंग हैं जबकि ब्रह्मपुत्र का नाम पुल्लिंग है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मपुत्र नदी को भगवान् ब्रह्मा के पुत्र के रूप में जाना जाता है अतः इसका नाम ब्रह्मपुत्र पड़ा है। इस नदी के नाम के सम्बन्ध में एक किवदंती प्रचलित है कि कैलाश पर्वत पर शांतनु नामक एक साधू अपनी सुंदर पत्नी अमोधा के साथ निवास करते थे। एक बार ब्रह्मा जी अमोधा के सौन्दर्य से मंत्र मुग्ध हो गए। परन्तु अमोधा ने ब्रह्मा जी के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। तथापि शांतनु मुनि के द्वारा ब्रह्मा जी के वीर्य को अमोधा के गर्भ में स्थापित कर देने के कारण अमोधा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम ब्रह्मपुत्र पडा। वास्तव में कैलाश क्षेत्र में आज भी एक जल स्रोत है जिसे ब्रह्मकुंड के नाम से जाना जाता है। इस जल स्रोत से ही ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम होता है।

ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत में सांगपो के नाम से जानी जाती है तथा भारत में अरुणाचल प्रदेश से प्रवेश करने के बाद यह दिहांग कहलाती है। असम में इसे ब्रह्मपुत्र नाम से जाना जाता है तथा बांग्लादेश में इसे जमुना कहा जाता है। गंगा एवं ब्रह्मपुत्र के संगम के बाद दोनों की सम्मिलित धारा को मेघना कहा जाता हैं। इस नदी पर असम राज्य में विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली द्वीप स्थित है।

तिस्ता नदी

तीस्ता का शाब्दिक अर्थ है, तृष्णा, अर्थात जिसका कभी अंत न हो। ‘तीस्ता’ का अन्य अर्थ श्त्रि-स्रोताश् या श्तीन-प्रवाहश् भी है। वास्तव में यह नदी तीन नदियों करतोया, अत्रे एवं जमुनेश्वरी नदियों का संगम है अतः इसे ‘तीस्ता’ (‘त्रि-स्रोता’) के नाम से जाना जाता है। तीस्ता नदी को पाली भाषा में तंडा के नाम से भी जाना जाता है। कालिकापुराण में इस नदी का वर्णन किया गया है। पुराणों के अनुसार तीस्ता नदी को हिमालय की छोटी पुत्री के रूप में जाना जाता है। कहा जाता है कि यह यह नदी देवी पार्वती के स्तन से निकली है। इस नदी के सम्बन्ध मेंकालिका पुराण में एक कथा प्रचलित है। एक बार असुरों की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें शक्ति का वर दिया। यद्यपि असुर शिव भक्त थे, परन्तु वे भगवान शिव की पत्नी देवी पार्वती को पसंद नही करते थे। उन्होंने देवी पार्वतीका अपमान कर दिया जिसके परिणामस्वरुप देवी पार्वती एवं असुरों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में घायल होने के पश्चात असुरों ने देवी पार्वती की प्रार्थना की, जिससे प्रसन्न होकर असुरों की प्यास बुझाने के लिए देवी के स्तनों से दूध जैसी अमृत धारा उद्गमित हुई, यही धारा तिस्ता के नाम से प्रसिद्ध है।

तिस्ता नदी ब्रह्मपुत्र नदी की प्रमुख सहायक नदी है। इस नदी को सिक्किम और उत्तरी बंगाल की जीवनरेखा कहा जाता है। यह सिक्किम और पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी विभाग की मुख्य नदी है। तिस्ता नदी भारत के सिक्किम तथा पश्चिम बंगाल राज्य तथा बांग्लादेश से होकर बहती है। चमकीली हरे (मउमतंसक) रंग की यह नदी सिक्किम और पश्चिम बंगाल से बहती हुई यह बांग्लादेश में प्रवेश करती है और ब्रह्मपुत्र नदी में मिल जाती है।

लोहित नदी

लोहित नदी ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी है। असम भाषा में लोहित शब्द लुइत है जो संस्कृत शब्द लोहित से बना है, जिसका अर्थ है लाल नदी संभवतः वर्षा से इस क्षेत्र की लाल मिटटी बहकर आने से इस नदी के जल का रंग लाल हो जाता है।

लोहित नदी के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि महर्षि भ्रगु के पौत्र तथा ऋषि जमदग्नि एवं रेणुका के पुत्र राम एक आज्ञाकारी पुत्र थे। एक बार रेणुका ने नदी के तट पर चित्रताका नामक एक गन्धर्व कन्या को नदी की लहरों के साथ अठखेलियाँ करते देखा जिसपर रेणुका मोहित हो गयी। जब ऋषि जमदग्नी को इसका पता चला तो वह बहुत क्रोधित हुए तथा उन्होंने पुत्र राम से माता का वध करने को कहा। आज्ञाकारी पुत्र राम ने माता के मस्तक को परसु से काट दिया। जिसके बाद राम का नाम परशुराम पडा। परशुराम ने प्रायश्चित करने के लिए लोहित नदी में स्नान किया जिससे लोहित नदी का रंग माता के खून से लाल हो गया जिसके कारण इस नदी को लोहित नदी के नाम से जाना गया।

सिंधु नदी

सिन्धु या सिंध नदी का भारत और हिन्दू इतिहास में बहुत महत्व है। इसे इंडस भी कहा जाता है। इसी के नाम पर भारत का नाम इंडिया रखा गया। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों (ऋग्वेद) में इस नदी का नाम सिन्धु नदी के नाम से वर्णित है। जिसका शाब्दिक अर्थ है सागर या पानी का बड़ा समूह। ईरान में इस नदी को हिंदु के नाम से जाना जाता है। इस नदी के नाम पर ही हमारे देश का नाम हिन्दुस्तान पडा। यूनानी इस नदी को इंडोस के नाम से जानते है जो रोमन में परिवर्तित होकर इंडस हो गया है।
वेदों में इन्द्र की स्तुति में गाए गए मंत्रों की संख्या सबसे अधिक है। इन्द्र के बाद अग्नि, सोम, सूर्य, चंद्र, अश्विन, वायु, वरुण, उषा, पूषा आदि के नाम आते हैं। अधिकांश मंत्रों में इन्द्र एक पराक्रमी योद्धा की भांति प्रकट होते हैं और सोमपान में उनकी अधिक रुचि है।

बादलों के कई प्रकार हैं उनमें से एक बादल का नाम भी इन्द्र है। कुछ प्रसंगों में इन्द्र को मेघों के देवता के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन ऐसी कल्पना इसलिए है क्योंकि वे पार्वत्य प्रदेश के निवासी थे और पर्वतों पर ही मेघों का निर्माण होता है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि उनके पास एक ऐसा अस्त्र था जिसके प्रयोग के बल पर वे मेघों और बिजलियों को कहीं भी गिराने की क्षमता रखते थे। माना जाता है कि इन्द्र ने अपने काल में कई नदियों की रचना की थीं और उन्होंने सिंधु नदी की दिशा भी बदली थी। चित्र-3 सिन्धु एवं उसकी सहायक नदियों को दर्शाया गया है।
इस नदी का उद्गम तिब्बत स्थित मानसरोवर झील से हुआ है। इस नदी के किनारे ही वैदिक धर्म और संस्कृति का उद्गम और विस्तार हुआ है। सिन्धु के तट पर ही भारतीयों के पूर्वजों ने प्राचीन सभ्यता और धर्म की नींव रखी थी। सिन्धु घाटी में कई प्राचीन नगरों को खोद निकाला गया है। इसमें मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा प्रमुख हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता लगभग 3500 हजार ईसा पूर्व विकसित हो गई थी।

चिनाब नदी

चिनाब नदी हिमाचल प्रदेश के लाहौल बारालाचा दर्रे से चलती है। प्राचीन काल में चिनाब नदी को आस्किनी के नाम से जाना जाता था। इस नदी के सम्बन्ध में रोमांस की कथाएँ जुडी हैं। एक कथा के अनुसार सोहनी इस नदी मार्ग से अपने प्रेमी महिवाल से मिलने जाया करती थी। एक बार जब सोहनी, महिवाल से मिलने जा रही थी तो नदी के तीव्र बहाव के कारण वह नदी में डूब गयी। यहाँ के स्थानीय निवासी मानते हैं कि चेनाब एवं रावी नदियों के तट पर मिर्जा एवं साहिबान की प्रेम कथाएँ जुडी हैं।

चिनाब नदी पीर पंजाल के समांतर बहते हुए किश्तबार के निकट पीरपंजाल में गहरी घाटी बनाती है। यह पाकिस्तान में जाकर सतलज नदी में मिल जाती है। चिनाब नदी की प्रमुख सहायक नदी चंद्रभागा है।

चित्र -3 सिन्धु एवं उसकी सहायक नदियाँ

क्षिप्रा नदी

क्षिप्रा का शाब्दिक अर्थ होता है तीव्र गति। स्कंद पुराण के अनुसार यह नदी साक्षात् कामधेनु से प्रकट हुई है। बैकुण्ठ लोक से उत्पन्न होकर क्षिप्रा नदी तीनों लोकों में विख्यात है। भगवान वाराह के हृदय से यह सनातन नदी प्रकट हुई है। यह नदी बैकुण्ठ में-क्षिप्रा, देवलोक में-ज्वरघ्नि, यमद्वार में-पापघ्नि, पाताल में-अमृत सम्भवा, वाराह कल्प में-विष्णु देहा आदि नामों से प्रसिद्द थी। वर्तमान में इस नदी को क्षिप्रा के नाम से जाना जाता है।

क्षिप्रा नदी का पौराणिक महत्व है। क्षिप्रा चम्बल की एक प्रमुख सहायक नदी है जिसका उद्गम मालवा के इन्दौर जिले के ‘काकरी वरडी’ नामक पहाड़ी से हुआ है। शिप्रा नदी मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में स्थित काकरी बरडी पहाड़ी से निकलती है। यह नदी इन्दौर से उद्गमित होकर देवास और उज्जैन जिलों में बहती हुई अन्त में चम्बल नदी में मिल जाती है। इस नदी को मार्कंडेय के नाम से भी जाना जाता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग इसी नदी के तट पर स्थित है। यह नदी इंदौर की जानापाव पहाड़ियों से निकली है। 12 वर्षों में पढ़ने वाला कुंभ का मेला कि क्षिप्रा नदी के तट पर संपन्न होता है।

मोक्षदायिनी क्षिप्रा का स्कंद पुराण में बड़ा महत्व बताया गया है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि शिवजी के द्वारा जो रक्त गिराया गया वही यहाँ अपना प्रभाव दिखाते हुए नदी के रूप में प्रवाहित है। ऐसी भी कथा वर्णित है कि विष्णु की अँगुली को शिव के द्वारा काटने पर उसका रक्त गिरकर बहने से वह नदी के रूप में प्रवाहित हुई।

साबरमती नदी

साबरमती गुजरात की एक प्रमुख नदी है। प्राचीन काल में इस नदी के तट पर साम्भर बहुतायत में पाए जाते थे जिसके कारण इस नदी का नाम साबरमती पडा। इस नदी के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि दधीचि ने दैत्यों पर विजय प्राप्त करने के लिए इसी नदी के तट पर अपने जीवन का बलिदान कर देवराज इंद्र को वज्र नामक अस्त्र के निर्माण के लिए अपनी अस्थियाँ प्रदान की थी। हमारे देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को साबरमती के संत की उपाधि दी गयी है तथा उनका आश्रम इसी नदी के तट पर स्थित है।

इस नदी का उद्गम राजस्थान के उदयपुर जिले में अरावली पर्वतमालाओं से है। राजस्थान और गुजरात में दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर बहते हुए यह अरब सागर की खंभात की खाड़ी में समाहित हो जाती है। इसके तट पर राज्य के अहमदाबाद और गांधीनगर जैसे प्रमुख नगर बसे हैं, और धरोई बाँध योजना द्वारा साबरमती नदी के जल का प्रयोग गुजरात में सिंचाई और विद्युत् उत्पादन के लिए होता है।

ताप्ती नदी

ताप्ती या तापी पश्चिमी भारत की प्रसिद्ध नदी है। इस नदी को सूर्यपुत्री भी कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि सूर्य देव ने स्वयं को अपने ताप से बचाने के लिए तापी नदी का उद्गम किया। वेदों में इस नदी को वेदों की धात्री भी कहा जाता है। यह मध्य प्रदेश राज्य के बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सतपुड़ा पर्वत प्रक्षेपों के मध्य से पश्चिम की ओर बहती हुई महाराष्ट्र के खानदेश के पठार एवं सूरत के मैदान को पार करती हुई अरब सागर में गिरती है। नर्मदा नदी और माही नदी के समान ही पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली भारत की मुख्य नदियों में से एक है। पुर्तगालियों एवं अंग्रेजों के इतिहास में इसके मुहाने पर स्थित स्वाली बंदरगाह का बड़ा महत्व है।

दक्षिण क्षेत्र से निकलने वाली नदियाँ

दक्षिण क्षेत्र में अधिकांश नदी प्रणालियाँ सामान्यतः पूर्व दिशा में बहती हैं और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं। गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, आदि पूर्व की ओर बहने वाली प्रमुख नदियाँ हैं और नर्मदा, ताप्ती पश्चिम की बहने वाली प्रमुख नदियाँ है। दक्षिणी प्रायद्वीप में गोदावरी दूसरी सबसे बड़ी नदी का द्रोणी क्षेत्र है जो भारत के क्षेत्र 10 प्रतिशत भाग है। इसके बाद कृष्णा नदी के द्रोणी क्षेत्र का स्थान है जबकि महानदी का तीसरा स्थान है। डेक्कन के ऊपरी भूभाग में नर्मदा का द्रोणी क्षेत्र है, यह अरब सागर की ओर बहती है, बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं।

नर्मदा नदी

पुण्यसलिला मेकलसुता मां नर्मदा के पुण्य प्रताप से हर कोई परिचित है। वैसे तो आमतौर अनेक नदियों से कोई न कोई कथा जुड़ी हुई है, लेकिन नर्मदा इनमें सबसे भिन्न हैं। नर्मदा नदी सामान्यतः नर्बदा के नाम से प्रचलित है। इस नदी को रीवा नदी भी कहा जाता है। पुराणों में इस नदी के अनेकों नाम मिलते है जिनमे दक्षिण गंगा, मेकलसूत्र, मेकल्कन्यका, पूर्व गंगा, मेकल्द्रिजा, सोम्भावा, इन्दिजा आदि प्रमुख हैं।

नर्मदा नदी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेकों कथाएँ प्रचलित हैं। इनमें से एक कथा के अनुसार नर्मदा, अमरकंटक में रहने वाले एक चरवाहे सौन्दर्यपूर्ण की पुत्री थी। नर्मदा प्रतिदिन अपने पिता को भोजन पहुंचाने खेतों में जाती थी। मार्ग में कुछ समय एक योगी की कुटिया में विश्राम कर लेती थी। कुछ समय बाद कन्या ने बिना कारण बताए आत्महत्या कर ली। जब योगी को पता चला तो उसने भी भांग पीकर आत्महत्या कर ली। मृत्यु के बाद उस योगी के कंठ से एक जलधारा निकली जिसका नाम नर्मदा पडा। यह भी कहा जाता है कि नर्मदा नामक वह कन्या गर्भवती हो गयी थी तथा उसने कपिलधारा नामक जलप्रपात में कूदकर जान दे दी थी। कन्या नें जिस नदी में कूदकर जान दी उस नदी का नाम कन्या के नाम पर नर्मदा पडा।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव तपस्या में ध्यानमग्न थे तब उनके शरीर से पसीना बहना शुरू हो गया। भगवान शिव का पसीना एक ताल में एकत्रित हो गया जिसने नदी के रूप में प्रवाहित होना प्रारम्भ कर दिया जिसका नाम नर्मदा पड़ा। मान्यता है कि एक बार क्रोध में आकर नर्मदा नदी ने अपनी दिशा परिवर्तित कर ली और चिरकाल तक अकेले ही बहने का निर्णय लिया। ये अन्य नदियों की तुलना में विपरीत दिशा में बहती हैं। इनके इस अखंड निर्णय की वजह से ही इन्हें चिरकुंआरी कहा जाता है। चिरकुंआरी मां नर्मदा के बारे में कहा जाता है कि चिरकाल तक मां नर्मदा को संसार में रहने का वरदान है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव ने मां रेवा को वरदान दिया था कि प्रलयकाल में भी तुम्हारा अंत नहीं होगा। अपने निर्मल जल से तुम युगों-युगों तक इस समस्त संसार का कल्याण करोगी।

पुराणों में ऐसा बताया गया है कि इनका जन्म एक 12 वर्ष की कन्या के रूप में हुआ था। समुद्र मंथन के बाद भगवान शिव के पसीने की एक बूंद धरती पर गिरी जिससे मां नर्मदा प्रकट हो गईं। इसी वजह से इन्हें शिवसुता भी कहा जाता है।

वैसे तो नर्मदा को लेकर अनेक मान्यताएं हैं लेकिन ऐसा बताया जाता है कि जो भी भक्त पूरी निष्ठा के साथ इनकी पूजा व दर्शन करते हैं उन्हें ये जीवनकाल में एक बार दर्शन अवश्य देती हैं। जिस प्रकार गंगा में स्नान का पुण्य है उसी प्रकार नर्मदा के दर्शन मात्र से मनुष्य के कष्टों का अंत हो जाता है। ऐसी पुरातन मान्यता है कि गंगा स्वयं प्रत्येक साल नर्मदा से भेंट एवं स्नान करने आती हैं। मां नर्मदा को मां गंगा से भी अधिक पवित्र माना गया है कहा जाता है कि इसी वजह से गंगा हर साल स्वयं को पवित्र करने नर्मदा के पास पहुंचती हैं। यह दिन गंगा दशहरा का माना जाता है।
नर्मदा नदी मध्य प्रदेश के विंध्याचल पर्वत में स्थित अमरकंटक की पहाड़ियों से निकलती हैं। इस नदी पर इंदिरा सागर परियोजना, ओंकारेश्वर परियोजना एवं सरदार सरोवर परियोजना निर्मित है।

गोदावरी नदी

दक्षिण-गंगा गोदावरी नदी का उद्गम महाराष्ट्र के नासिक जिले से होता है। गोदावरी नदी दक्षिण भारत की सबसे लंबी नदी है। अपने विशाल आकार के कारण इस नदी को दक्षिण की गंगा एवं वृद्ध गंगा नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार, गोदावरी नदी का नामकरण तेलुगु भाषा के शब्द श्गोदश् से हुआ है, जिसका अर्थ मर्यादा होता है। एक बार महर्षि गौतम ने घोर तप किया। इससे रुद्र प्रसन्न हो गए और उन्होंने एक बाल के प्रभाव से गंगा को प्रवाहित किया। गंगाजल के स्पर्श से एक मृत गाय पुनर्जीवित हो उठी। इसी कारण इसका नाम गोदावरी पड़ा। गौतम से संबंध जुड जाने के कारण इसे गौतमी भी कहा जाने लगा। इसमें नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं। गोदावरी की सात धारा वसिष्ठा, कौशिकी, वृद्ध गौतमी, भारद्वाजी, आत्रेयी और तुल्या अतीव प्रसिद्ध है। पुराणों में इनका वर्णन मिलता है। इन्हें महापुण्यप्राप्ति कारक बताया गया है।

कृष्णा नदी

कृष्णा नदी दक्षिणी भारत में पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली एक विशाल नदी है। पुराणों में इस नदी को क्रिश्नावेना एवं योगीनितंत्र में कृष्णावेणी के रूप में वर्णित किया गया है। इस नदी को सम्राट अशोक के शासनकाल में खरावेला द्वारा रचित हथिगुम्फा लिपिक में कन्हापेना के नाम से एवं जातक में कान्हापेंना के नाम से भी वर्णित किया गया है। यह कहा जाता है कि पेशवाओं के शासनकाल में इस नदी के तट पर अनेकों स्मारको का निर्माण कराया गया। यह नदी महाराष्ट्र कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में बहते हुए विजयवाड़ा के निकट विभिन्न शाखाओं में बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। कृष्णा नदी पर नागार्जुन सागर परियोजना तथा श्री शैलम परियोजना निर्मित है।

भीमा नदी

महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों से होकर प्रवाहित होने वाली कृष्णा नदी की प्रमुख सहायक नदी भीमा को पुण्यदायनी भीमा नदी के नाम से जाना जाता है। इस नदी को भीमरथी नदी के नाम से भी जाना जाता है। दक्षिणी भारत में भीमा नदी को गंगा नदी के समान ही पवित्र एवं सम्माननीय माना जाता है।
भीमा नदी के उद्गम के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि त्रिपुरसुर नामक दैत्य का वध करने के पश्चात जब भगवान् शिव भीमशंकर पर्वत पर पहुंचे तो उन्होंने वहां अयोध्या के महाराज भीमक को तपस्या में ध्यानमग्न पाया। महाराज भीमक ने भगवान शिव से यह वरदान माँगा कि भगवान शिव के पसीने से वहां एक नदी उद्गमित हो। भगवान शिव से प्राप्त वर के अनुसार वहां एक नदी उद्गमित हुई जिसे महाराज भीमक के नाम पर भीमा नदी के नाम से जाना गया। भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग इसी नदी के तट पर स्थित है।

तुंगभद्रा नदी

तुंगभद्रा नदी का जन्म तुंगा एवं भद्रा नदियों के मिलन से हुआ है। रामायण में तुंगभद्रा को पंपा के नाम से जाना जाता था। इसे वेदों की धात्री (मिडवाइफ) भी कहा जाता है। यह कहा जाता है कि वेदों की रचना सप्तसिंधव (सात नदियों वाले देश) में हुई थी जबकि वेदों के ठींेीलं को तुंगभद्रा नदी के तट पर लिखा गया।

स्कन्दपुराण में तुंगभद्रा नदी के उद्गम के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा मिलती है। स्कन्दपुराण में वर्णित कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु अपने बाराह अवतार में बाराह पर्वत पर विश्राम कर रहे थे। तभी उनके सामने के दोदांतों से जल टपकना प्रारम्भ हो गया।यह जल दो जल धाराओं में प्रवाहित हुआ। जिन्होंने दो नदियों का रूप ले लिया। बाएँ दांत से उद्गमित होने वाले नदी को तुंगा एवं दाहिने दांत से उद्गमित होने वाले नदी को भद्रा के नाम से जाना गया। तुंगा एवं भद्रा नदियों को परस्पर बहनों के रूप में जाना जाता है। कुंडली नामक स्थल पर इन दोनों नदियों के संगम के पश्चात ये तुंगभद्रा नदी के रूप में प्रवाहित होती हैं।उत्तर-पूर्व की ओर बहती हुई, आंध्रप्रदेश में महबूब नगर जिले में गोंडिमल्ला में जाकर ये कृष्णा नदी से मिल जाती है। कृष्णा नदी को इन नदियों की माता के रूप मैं जाना जाता है। कृष्णा नदी के जल को पेय जल के रूप में विश्व में श्रेष्ठ माना जाता है।

कावेरी नदी

कावेरी कर्नाटक तथा उत्तरी तमिलनाडु में बहनेवाली एक सदानीरा नदी है। कावेरी नदी का उद्गम कर्नाटक राज्य के कुर्ग जिले में स्थित ब्रह्मगिरि की पहाड़ियों से हुआ है। इसे दक्षिण भारत की गंगा भी कहते है। कावेरी नदी के उद्गम के बारे में एक पौराणिक किवदन्ती प्रचलित है। यह कहाजाता है कि राजा कावेर की कावेरी नामक एक पुत्री थी जिसका विवाह अगस्त्य मुनि के साथ हुआ था। एक बार अगस्त्य मुनि स्नान करने जा रहे थे तब मुनि ने अपनीपत्नी की सुरक्षा हेतु उसे जल में परिवर्तित करके जल को कमंडल में भर लिया। तभी कौए के रूप में भगवान गणेश ने आकर कमंडल को उलट दिया जिससे कमंडल का जल गिरकर एक जल धारा में परिवर्तित हो गया तथा उससे कावेरी नदी का उद्गम हुआ। कावेरी नदी की प्रमुख सहायक नदियाँ हेमावती, लोकपावना, शिमला, भवानी, अमरावती, स्वर्णवती आदि हैं।

महानदी

महानदी अपने नाम के अनुरूप ही छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा अंचल की सबसे बड़ी नदी है। प्राचीनकाल में महानदी का नाम चित्रोत्पला था। महानन्दा एवं नीलोत्पला भी महानदी के ही नाम हैं। छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा में पवित्र पावनी गंगा कही जाने वाली इस नदी का उद्गम के आश्रम के निकट से होता है। इस नदी के उद्गम के सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है जिसका विवरण पुराणों में मिलता है। एक बार उस क्षेत्र के समस्त ऋषि कुम्भ में स्नान को जाने के लिए महर्षि श्रंगी ऋषि के आश्रम में आये। महर्षि श्रंगी ऋषि उस समय ध्यान अवस्था में थे। अतः ऋषियों ने महर्षि श्रंगी ऋषि को ध्यान मग्न छोड़कर कुम्भ की और प्रस्थान किया। जब ऋषि तपोवन वापिस लौटे तब भी महर्षि श्रंगी ऋषि को ध्यानमग्न पाया। तब ऋषियों ने महर्षि श्रंगी ऋषि के कमंडल में अपने-अपने कमंडल से थोड़ा-थोड़ा जल डालकर उसे भर दिया तथा वहां से प्रस्थान कर गए। जब महर्षि श्रंगी ऋषि का ध्यान भंग हुआ तो उनका हाथ कमंडल मैं लग गया जिससे कमंडल के भरा होने के कारण उसका जल बह निकला। जो नदी के रूप में परिवर्तित हो गया। इस नदी को महानदी के नाम से जाना गया। यह कहा जाता है कि महानदी के पवित्र जल में स्नान से लाखों लोगों की इच्छाओं की पूर्ति होती है।

सिंध नदी (काली सिंध)

सिंध नदी यमुना की प्रमुख सहायक नदी है। विष्णु पुराण के अनुसार सिंध में प्रवाहित होने वाली दसारना नदी को सिंध नदी के रूप मैं चयनित किया गया है। सिंध नदी को काली सिंध के नाम से भी जाना जाता है। मेघदूत में भी काली सिंधनदी को सिंध नदी के रूप में वर्णित किया गया है। महाभारत में इस नदी को दक्षिण सिंध के रूप में भी वर्णित किया गया है। वरहा पुराण में काली सिंध नदी को सिंध पुराण कहा गया है।

उपसंहार

नदियाँ किसी भी देश के लिए जीवन रेखा स्थापित करती हैं. विश्व की अनेकों महान सभ्यताएं नदियों के तटों पर ही विकसित हुई हैं। हिन्दुओं में नदियों को आराध्य माना गया है. जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो यह मूल रूप से वैदिक संस्कृति और वैदिक संस्कृति के चार मूल ग्रंथ- ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद और सामवेद के इर्द-गिर्द ही घूमती प्रतीत होती है। नदियों के किनारे विकसित होने वाली सभ्यता के कारण इन नदियों को श्रद्धेय माना गया है।

Refernce

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Post By: Shivendra
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