भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा के साथ भारतीय वन सेवा (आई.एफ.एस.) तीन अखिल भारतीय सेवाओं में एक है। भारतीय वन सेवा ‘अखिल भारतीय सेवा अधिनियम 1951’ के अंतर्गत 1966 में अस्तित्व में आई। हालाँकि, यह 1865-1935 में ब्रटिश राज के दौरान अस्तित्व में रही एक सुसंगठित भारतीय वन सेवा का केवल एक पुनरुद्धार था। इस सेवा का मुख्य उद्देश्य वनों का वैज्ञानिक प्रबंधन था जिसका लाभ प्रधानतः काष्ठ उत्पादों की प्राप्ति में स्थाई रूप से प्राप्त किया जा सके।
जिस प्रकार ब्रिटिश काल में वन प्रबंधन का मुख्य बल काष्ठ उत्पादों की प्राप्ति में था, वह 1966 में भारतीय वन सेवा के पुनर्गठन के पश्चात भी उसी प्रकार जारी रहा। 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग की सिफारिशें वन प्रबंधन में एक मील का पत्थर परिवर्तन थी। पहली बार बायोमास जरूरतों के समाधान में मानवीय संवेदनाओं का ध्यान रखा गया और सामाजिक वानिकी के विस्तार द्वारा गतिविधियाँ शुरू की गईं।
लगातार उपज की अवधारणा का समाधान वन क्षेत्रों के आस-पास रहने वाले लोगों की बायोमास आवश्यकताओं के साथ मिलकर किया गया। संरक्षित क्षेत्र में वास प्रबंधन और भूमि की जैव विविधता के संरक्षण को भी समान महत्त्व दिया गया। आज देश में अनेक वन सेवा अधिकारी कार्यरत हैं। देश के राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के 31 वन विभागों में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के अतिरिक्त इनमें से एक अच्छी संख्या अधिकारी राज्य और केंद्र सरकार के अधीन विभिन्न मंत्रालयों और संस्थानों में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं।
संघ लोक सेवा परीक्षा से होता है चयन
संघ लोक सेवा आयोग विज्ञान पृष्ठभूमि के स्नातकों के लिये एक खुली प्रतियोगी परीक्षा आयोजित कर भारतीय वन सेवा के अधिकारियों की भर्ती करता है। लिखित परीक्षा योग्यता के बाद उम्मीदवारों को एक साक्षात्कार, दिल्ली प्राणी उद्यान में एक पैदल परीक्षण (4 घंटे में पुरुषों को 25 किमी. और महिलाओं को 14 किमी. की दूरी) तथा एक मानक चिकित्सकीय योग्यता परीक्षण से गुजरना होता है। चयनित अधिकारियों की शैक्षिक पृष्ठभूमि में मौजूदा रुझान विज्ञान, अभियांत्रिकी, कृषि और वानिकी विषयों में स्नातकोत्तर सहित उच्च योग्यताओं को दर्शाता है। बड़ी संख्या में अधिकारी विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर हैं।
वन्य अधिकारी के लिये पात्रता मानदंड में आयु सीमा इक्कीस से तीस वर्ष तक है। अधिकतम आयु सीमा में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को छूट दी जा सकती है। पशुपालन तथा पशु चिकित्सा विज्ञान, कृषि, वानिकी, वनस्पति विज्ञान, प्राणी विज्ञान, भू-विज्ञान, भौतिकी, रसायन शास्त्र, गणित, सांख्यिकी विषय सहित विज्ञान में डिग्री पूर्व-अपेक्षा है। संघ लोक सेवा आयोग प्रतिवर्ष परीक्षा आयोजित करता है। चयन प्रक्रिया दो चरणों में विभाजित है। पहला चरण लिखित परीक्षा का है। इंटरव्यू को भी हल्के रूप में नहीं लिया जा सकता। इस दौरान प्रायः सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय जागरूकता के साथ-साथ विषय के ज्ञान की भी थाह ली जाती है। उसके समूचे व्यक्तित्व पर ध्यान दिया जाता है।
चुने हुए उम्मीदवारों को सिविल सर्वेंट्स के समान प्रारम्भिक प्रशिक्षण के लिये लालबहादुर शास्त्री अकादमी में भेजा जाता है जहाँ उन्हें इतिहास, विधि, लोक प्रशासन, कार्मिक प्रबंधन तथा कम्प्यूटर जैसे विषयों की जानकारी दी जाती है।
प्रशिक्षण के बाद उम्मीदवार को इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय वन अकादमी, देहरादून भेजा जाता है। यहाँ आदिवासी कल्याण, वन प्रबंधन, मृदा संरक्षण, वन्य जीव प्रबंधन, अस्त्र की व्यवस्था, सर्वेक्षण करने तथा अन्य विभिन्न ऑन-द-जॉब प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रशिक्षण के बाद साहस एवं निष्ठा की भावना से युक्त भारतीय वन अधिकारियों के साथ उसकी तैनाती की जाती है।
आवश्यक कौशल
विशिष्ट वन अधिकारी को पहले संरक्षणवादी होना चाहिए, उसके बाद सुपरवाइजर, अर्थशास्त्री, तकनीशियन एवं योग्य प्रशासक होना चाहिए। उसे उस समय संवेदनशील होना चाहिए जब उसे वन्यजीवन तथा प्रकृति को समझना होता है। इस कार्य में तस्करों और शिकारी चोरों का थोड़ा खतरा रहता है। भारतीय वन अधिकारी के संवर्ग में निम्नलिखित रैंक होते हैं - सहायक वन संरक्षक, जिला वन संरक्षक, वन संरक्षक, प्रमुख वन संरक्षक, प्रधान वन संरक्षक, वन महानिरीक्षक।
प्रारम्भिक अवस्था में मुख्य जिम्मेदारी नीतियों का निचले स्तर पर कार्यान्वयन है। धीरे-धीरे यह जिम्मेदारी बढ़ती जाती है। उच्च स्तरों पर नीतिगत निर्णय लेने होते हैं। उम्मीदवार की नेशनल पार्क, प्राणि/वनस्पति उद्यानों में तैनाती की जा सकती है। इनकी वन्यजीव अभ्यारण्य में तैनाती की जाती है, साथ ही उम्मीदवार को फील्ड ड्यूटी भी दी जा सकती है। भारतीय वन सेवा में करियर बेजोड़ के साथ-साथ जोखिम से भरा है।
ध्यान में रखें ये बातें
इस नौकरी के इच्छुक उम्मीदवार में स्वभावगत साहसिक कार्य करने की विशेषता होनी चाहिए। व्यक्ति को अधिकांश समय घर से बाहर रहना पड़ता है तथा कम आबादी वाले क्षेत्रों में भी जाना पड़ता है, जहाँ आदिवासी लोग ही रहते हैं। उसे आदिवासी क्षेत्रों के कल्याणार्थ सरकारी नीतियों के कार्यान्वयन में सक्रिय रूप से भाग लेना पड़ता है। इसके लिये व्यक्ति को शांत होना चाहिए। साथ ही धैर्य एवं संयम अन्य आवश्यक विशेषताएँ हैं क्योंकि उसे नीतियों के कार्यान्वयन के समय अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। साथ ही उसे जनसम्पर्क में भी कुशल होना चाहिए क्योंकि उसे सरकारी एवं सामाजिक संगठनों के साथ सम्पर्क में आना पड़ता है। सबसे ऊपर व्यक्ति प्रकृति-प्रेमी हो और जैव विविधता के संरक्षण एवं समाज में वन की महत्ता के बारे में लोगों को बताने में रुचि रखता हो। यदि व्यक्ति में ये कौशल हैं तो वह वन अधिकारी के रूप में उपयुक्त पात्र है।
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