भारतीय वाङ्मय में प्रकृति संरक्षण की आवश्यकता


‘‘गंगा हमारे लिये मात्र नदी नहीं है, अपितु भारतीय संस्कृति की संवाहिनी भी है। गंगा अन्तःसलिला है, उसका वास हमारे हृदय में है। वह पुण्यतोया है, अतः पाप हारिणी भी। ऐसा शास्त्रोक्त मत है। पर आज मूल्य विहीन जीवनशैली में इतना अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया है कि राजा भगीरथ के पुरखों का कलुष धोने वाली, मुक्तिदायिनी गंगा शहरों का मल और फैक्टरियों की गन्दगी ढोते-ढोते स्वयं इस कदर दूषित हो गई है कि आज वह पीने योग्य नहीं रही, कई बीमारियों का घर बन चुकी है। विकास की यह कैसी धारा है, कैसा अभिशाप है, जिसने हमारी जीवनदायिनी सरिताओं की पवित्रता की अक्षुण्णता भंग कर दी है?’’

प्रकृति संरक्षणप्राकृतिक अनुराग और प्रकृति संरक्षण की चिरन्तन, शाश्वत धारा है भारतीय संस्कृति। प्रकृति अनुराग हमारी पुरातन संस्कृति में इस कदर रचा-बसा हुआ है, इस कदर समाया हुआ है कि हम प्रकृति से अपने जुदा अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते। सच भी है, हम प्रकृति के अनिवार्य और अविभाज्य अंग हैं। हम प्रकृति से और प्रकृति हम से जुदा होकर रह नहीं सकती।

भारतीय मनीषियों ने समूची प्रकृति ही क्या, सभी प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वरूप माना है। ऊर्जा के अपरिमित स्रोत को देवता माना- ‘सूर्यदेवो भव’। वस्तुतः सूर्य हमारा यानी इस ग्रह का जीवनदाता है। बिना उसके वनस्पतियों का और परोक्ष रूप से अन्य जीवों का अस्तित्व असम्भव है। तभी तो वैदिक ऋषि कामना करता है कि सूर्य से कभी हमारा वियोग न हो-

‘नः सूर्यस्य सन्दृशे मा युयोथाः।’ (ऋक., 2/33/1)

सूर्य को स्थावर-जंगम की आत्मा कहा गया है। यथा-

‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च’ (ऋक., 1/115/1)

उपनिषदों में सूर्य को प्राण की संज्ञा दी गई हैः

‘आदित्यो ह वै प्राणः’ (प्रश्न उप., 1/15)

वस्तुतः सूर्य सभी प्राणियों में, वनस्पतियों में जीवन का संचार करता है। सागरों की गोद में आज से अरबों वर्ष पूर्व जीवन का जो आदि रूप पनपा, उसमें सूर्य रश्मियों ने ही जीवन का संचार किया। तब से निरन्तर यह प्रक्रिया जारी है। वनस्पतियाँ सूर्य रश्मियों से ऊर्जा लेकर अपना आहार तैयार करती हैं और उन्हीं से अन्य पराश्रयी जीव-जन्तु अपना भरण-पोषण करते हैं।

ऐसे जीवनदाता के रूप में किसी दैवी शक्ति के प्रतीक रूप की कल्पना भारतीय मनीषियों ने की तो वह सर्वथा समीचीन थी। हमारे शाश्वत मूल्यों के संवाहक आज भी यही प्रयास करते हैं कि घर का द्वार पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख हो ताकि सूर्य का प्रकाश सम्पूर्ण रूप में वहाँ पहुँच सके:

‘प्राङ्मुखमुदङ्मुखं वाऽभिमुखतीर्थ कूटागारं कारयेत्’ (चरकः सु.अ. 14/16)

और-

‘प्राग्द्वारमुदग्द्वारं वा सूतिकागारं कारयेत्’ (चरकः शा.अ. 8/33)

उपनिषदों में वायु में दैवीय शक्ति की अवधारणा निहित है। वायु ही प्राण बनकर शरीर में वास करता है। यथा-

‘वायु है वै प्राणो भूत्वा शरीरमाविशत्’

वेदों में वायु को भेषज गुणों से युक्त माना गया है।

‘आ वात वाहि भेषजं विवात वाहि यद्रपः।
त्वं हि विश्वभेषजो देवानां दूत ईयसे।।’ - (ऋक.,137/3)


अर्थात- ‘हे वायु! अपनी औषधि ले आओ और यहाँ से सब दोष दूर करो; क्योंकि तुम ही सब औषधियों से युक्त हो।’

भारतीय संस्कृति में वृक्षों को देवतुल्य माना जाता है भारतीय संस्कृति में जल को भी देवता माना गया है। सरिताओं को जीवनदायिनी कहा गया है, कदाचित इसी नाते आदि संस्कृतियाँ सरिताओं के किनारे उपजीं, बसीं और वहीं से विस्तार पाती गईं। वर्जनाहीन समाज और निरन्तर पतनोन्मुखी जीवनशैली में भले ही मूल्य बदल गए हों पर हमारी पुरातन संस्कृति में सरिताओं, तालाबों, पोखरों में मल-मूत्र विसर्जन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थीः

नाप्सु मूत्रं पुरीषं वा ष्टोवनं समुत्सृजेत्।
अमेध्यलिप्तमन्यद्वा लोहितं वा विषाणि वा।। (मनुस्मृति, 4-56)


अर्थात- पानी में मल-मूत्र, थूक अथवा अन्य दूषित पदार्थ, रक्त या विष का विसर्जन न करें।

इतना ही नहीं, वैदिक ऋषि पवित्र जल की उपलब्धता की कामना करता है। यथा-

‘शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु.............।’ (अथर्व., भूमि-सूक्त, 12/1/30)

अर्थात- हमारे शरीर के लिये शुद्ध जल प्रवाहित होते रहें। सरोवरों में नहाने से पूर्व परम्परा यह थी कि एक कंकड़ी मारकर गंगा को जगाया जाता था, मानो गंगा सो रही हो (ऋषि गौतम का आख्यान), फिर उनका चरण स्पर्श कर जल स्रोत में शारीरिक आचमन किया जाता था। भारतीय मनीषा का एक अपूर्व, कल्पनातीत आख्यान!

गंगा हमारे लिये मात्र नदी नहीं है, अपितु भारतीय संस्कृति की संवहिनी भी है। गंगा अन्तःसलिला है, उसका वास हमारे हृदय में है। वह पुण्यतोया है, अतः इसीलिये पापहारिणी भी। ऐसा शास्त्रेक्त मत है।

पर आज मूल्य विहीन जीवनशैली में इतना अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया है कि राजा भगीरथ के पुरखों का कलुष धोने वाली, मुक्तिदायिनी गंगा शहरों का मल जल और फैक्टरियों की गन्द ढोते-ढोते स्वयं इस कदर दूषित हो गई है कि आज वह पीने योग्य नहीं रही, कई बीमारियों का घर बन चुकी हैं। विकास की यह कैसी धारा है, कैसा अभिशाप है, जिसने हमारी जीवनदायिनी सरिताओं की पवित्रता की अक्षुण्णता भंग कर दी है?

हमारी भारतीय संस्कृति में वृक्षों को भी देवता माना गया है। हमारे महान आयुर्विज्ञानियों की धारणा है कि संसार में ऐसी कोई वनस्पति नहीं जो अभैषज्य हो। सम्भवतः इसी नाते वृक्षों को वन्दनीय कहा गया है। यथा-

‘धत्ते भरं कुसुमपत्रफलावलीनां धर्मव्यथां वहति शीत भवा रुजश्च।
यो देहमर्पयति चान्यसुरवस्य हेतोस्तस्मै वदान्यगुरवे तरवे नमोऽस्तु।।’ (भामिनी विलासः)


अर्थात- ‘जो वृक्ष फूल-पत्ते और फलों के बोझ को उठाए हुए, धूप की तपन और शीत की पीड़ा सहन करता है, उस वन्दनीय श्रेष्ठ तरु को नमस्कार है।’ कैसी उदात्त भावना है वृक्षों के प्रति अनुराग की! इतना ही नहीं, मत्स्य पुराण में तो यहाँ तक कहा गया है-

अंधाधुंध वृक्ष कटान से पर्यावरण प्रभावित हो रहा है‘दश कूप समावापी दशवापी - समोहृदः।
दश-हृद-समःपुत्रो, दश-पुत्र समो द्रुमः।।


अर्थात- ‘दस कुओं के बराबर एक बावड़ी है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब है, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है।’

भारतीय वाङ्मय में तरुवन्दना की उदात्त भावना का उत्कर्ष तो अत्यन्त विरल है-

‘मूले ब्रह्मा त्वचे विष्णुः शाखा मध्ये महेश्वरः।
पात्रे-पात्रे देवानां वृक्षराज नमोऽस्तुते।।’


वृक्षों के प्रति ऐसे अप्रतिम अनुराग की छाया भी किसी अन्य देश की संस्कृति में सर्वथा दुर्लभ है। जहाँ वृक्षों को पुत्र से उच्च स्थान प्राप्त है, वृक्षों की पूजा की जाती हो, वहाँ उनके काटे जाने की बात भी अकल्पनीय है।

मनुष्य ईश्वर भीरु है और धर्म भीरु भी। कदाचित इसीलिये हमारे पूर्वजों ने सामाजिक वर्जनाओं को अनिवार्य बनाने के निमित्त उन्हें धर्म से सम्पृक्त कर दिया ताकि ठीक से उनका अनुपालन हो सके।

कृष्ण ने गीता में भाषित किया है-

‘अश्वत्थः वृक्षाणाम्’

अर्थात- ‘वृक्षों में मैं पीपल हूँ।’

कुछ कथित प्रगतिशील लोग इसे हमारी जड़ता और अन्ध धार्मिकता कहते हैं। अन्ध धार्मिकता ही सही, लेकिन इसी के कारण हमारे पीपल और बरगद कटने से बच गए। पर्यावरण शोधन के साथ ही बादल-वर्षा-वृक्ष और वनस्पतियों का एक नैसर्गिक चक्र है। इसी नैरन्तर्य को बनाए रखने के लिये ऋषियों ने सरिताओं को दूषित करने और वृक्षों को काटने के लिये वर्जनाएँ कीं जिसका मूल मंन्तव्य मात्र प्राकृतिक सम्पदाओं को अपने और भावी पीढ़ियों के लिये अक्षुण्ण रखना था। आधुनिक सतत् विकास (Sustainable Development) की अवधारणा की खोज भारतीय वाङ्मय में की जा सकती है। यही हमारे ऋषियों की थाती है जो आज भी प्रासंगिक और समीचीन है। परन्तु आज, मूल्य बदल गए हैं। हम अपनी सांस्कृतिक वाणी सुन पाने में असमर्थ हैं और आज इसी का कुफल है कि प्रकृति को लूटने-खसोटने की होड़ मची है। हमारी प्राचीन संस्कृति प्रकृति में दैवी स्वरूप का दर्शन पाती थी, उसकी अर्चना करती थी, प्रकृति को माता की संज्ञा दी गई है पर आज के मूल्य विहीन जीवनशैली में हम अपनी पहचान भूल गए हैं, मूल्यों की रक्षा का तो प्रश्न ही नहीं और इसी का दुष्परिणाम यह है कि आज मानव और प्रकृति के रिश्ते नापाक हो गए हैं और अपने ही कृत्यों से हमने अपने पर्यावरण को बिगाड़ लिया है, जो आज जीने लायक नहीं रह गया है।

शहरों एवं फैक्ट्रियों का जल कई बिमारियों का कारण बन चुका है प्राकृतिक शक्तियों में दैवी स्वरूप की अवधारणा मात्र इंगित करती है कि हम इनकी रक्षा करें, इनसे अनुराग रखें और स्वस्थ, सन्तुलित जीवनयापन करें। लेकिन आज के इस वर्जनाहीन समाज में न तो जल शुद्ध रह गया है, न हवा। हवा में ज़हर, पानी में जहर, यहाँ तक कि वादियों, घाटियों में भी घुल गया है जहर।

भारतीय संस्कृति में निहित इन बिन्दुओं को यदि नैतिकता-अनैतिकता की सीमा रेखा में न भी बाँधें तो भी ये प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की संवाहक प्रतीत होती हैं और भारतीय चिन्तन धारा की यही प्रमुख विशेषता रही है जो इस प्रदूषण अभिशप्त सदी में हमें अपने अतीत की याद बार-बार दिलाती है।

जिस संस्कृति में धरती और सभी संसाधन यथा जल, वनस्पतियाँ नैवेद्य की वस्तुएँ समझी जाती रहीं हों, उनके नियामक निःसन्देह अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्हें इस बात का भान था कि ये संसाधन हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये हैं, अपव्यय करने पर शीघ्र ही चुक जाएँगे पर हमने इन्हें लूटा-खसोटा और आज प्राकृतिक संसाधनों के चुक जाने का आसन्न संकट हमारे सामने है।

भारतीय चिन्तकों की मान्यता थी कि संसाधन हमारी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के उपादान हैं, लूट-खसोट की वस्तु नहीं। वस्तुतः यही शाश्वत तथ्य है पर हमारी लालसा ने पर्यावरण में भयानक रूप से कुछ ऐसी तब्दीलियाँ कर दी हैं कि वे आज हमारी अस्तित्व रक्षा के लिये घातक बन बैठी हैं। परिणामस्वरूप हम प्रकृति से निरन्तर कटते चले गए और हमारी रगों में प्रकृति अनुराग की धड़कन ठप सी हो गई।

प्रकृति को वश में करने की प्रवृत्ति और उसे लूटने-खसोटने का दुष्प्रभाव यह पड़ा है कि आज ऊर्जा के प्राकृतिक भण्डार जवाब दे रहे हैं, वे हमारे औद्योगिक युग की बढ़ती माँगों को पूरा कर पाने में असमर्थ हो चुके हैं।

निश्चय ही हमारी अगली पीढ़ी अपने पुरातन गौरवशाली मूल्यों, स्थापनाओं की विरोधी धारा में जी रही होगी। आइए, ऐसे क्षण में हम अपनी पुरातन थाती और वैदिक ऋषियों की वाणी की रक्षा का शुभ संकल्प लें।

‘माता भूमिः पुत्रोऽहमं पृथिव्याः।’

अर्थात- ‘धरती हमारी माँ है और हम धरती के पुत्र।’

‘नमो मात्रो पृथिव्यै। नमो मात्रो पृथिव्यैः।’

आइए, ऐसी पवित्र अवधारणा के सन्देश से धरती और उसके संसाधनों के संरक्षण का हम शुभ संकल्प लें और उनका अनुपालन करें ताकि हमारी हरी-भरी धरती बची रह सके और मनुसन्तानें भी। अस्तु!

सम्पर्क करें
शुकदेव प्रसाद, (सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार विजेता), 135/27-सी, छोटा बघाड़ा, इलाहाबाद- 211002

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