ग्लेशियरों और समुद्री स्तर पर प्रभाव
हिमालय में मौजूद ग्लेशियर 50 फीट (15 मीटर) प्रतिवर्ष की दर से पीछे हट रहे हैं और यह स्थिति 1970 से, जबसे वायुमंडल की गर्माहाट में तेजी रिकॉर्ड की गई है, बराबर बनी हुई है। 1998 में डोक्रियानी बर्नाक ग्लेशियर में 20.1 मीटर की कमी आई जबकि उस वर्ष प्रचंड थीं। गंगोत्री ग्लेशियर 30 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पीछे हट रहा है। बास्पा ग्लेशियर से सर्दियों में निकलने वाले बहाव में 1966 से 75 प्रतिशत वृद्धि हुई है और सर्दियों में स्थानीय तापमान भी बढ़ा है जो सर्दियों में ग्लेशियर के पिघलने में बढ़ोत्तरी को प्रदर्शित करता है। वैज्ञानिकों का मत है कि इस दर से पिघलने पर समस्त मध्य और पूर्वी हिमालयी ग्लेशियर 2035 तक समाप्त हो जाएंगे।
मई 2002 की तपती गर्मियों में आंध्र प्रदेश में तापमान 48.9 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया जिससे एक सप्ताह में सर्वाधिक मौतों का आंकड़ा दर्ज किया गया। इस गर्म लहर को संपूर्ण एशिया में लंबे समय से देखे जा रहे बढ़ते तापमान के संदर्भ में देखा जा सकता है। भारत में, दक्षिण भारत सहित, हर सदी में 0.6 डिग्री सेल्सियस की दर से तापवृद्धि का रुझान देखा जा रहा है। पश्चिम बंगाल में, पिछले तीन दशकों में बढ़े समुद्री स्तर ने लगभग 7500 हेक्टेयर गरानी या कच्छ (मैंग्रोव) जंगलों को पानी में डुबो दिया है।
रोग प्रकोप पर प्रभाव
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हर वर्ष मलेरिया और डेंगू जैसे रोगों सहित अन्य रोग और दस्त एवं तापघात जैसी स्थितियों के कारण 77,000 लोग मौत के ग्रास बन जाते हैं। भारत में मलेरिया एक बड़ी चिंता का विषय है। यहां हर पांच से सात वर्षों में मलेरिया की महामारी फैल जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक मलेरिया के तीव्र प्रसार वाले देशों में इसके कारण आर्थिक वृद्धि में सालाना औसतन 1.3 प्रतिशत का नुकसान होता है। यदि कई वर्षों के नुकसान को जोड़ा जाए तो मलेरियाग्रस्त और मलेरियामुक्त देशों के सकल घरेलू उत्पादन में महत्वपूर्ण अंतर प्राप्त होता है। मलेरिया निर्धन लोगों और समुदायों को अपनी चपेट में लेता है और सीमांत जनसंख्या तथा निर्धन को एक समान रूप से रोगी बनाता है जो या तो उपचार वहन करने योग्य नहीं होते अथवा जिन्हें स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध नहीं होती। मलेरिया पर प्रत्यक्ष खर्च में रोग से बचाव व इसके उपचार में व्यक्तिगत एवं सामूहिक खर्चे सम्मिलित किए जा सकते हैं। रोग का प्रभाव निर्धनता बढ़ने, शिक्षा में बाधा, स्कूलों व कार्यस्थलों में उपस्थिति की कमी आदि के रूप में आजीवन पड़ता है।
यह संभावना व्यक्त की गई है कि वर्तमान मलेरिया प्रवृत्त राज्यों (उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ भाग) में मलेरिया स्थानिक रूप से प्रकोप फैलाता रहेगा। यह मध्य भारत क्षेत्र से दक्षिण, पश्चिमी तटीय प्रदेशों जैसे महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल की ओर बढ़ सकता है। नए क्षेत्र (हिमाचल प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर एवं मिजोरम) मलेरिया के नए आवास बनेंगे और उत्तरी तथा पश्चिमी प्रदेशों में संचरण काल बढ़ेगा जबकि दक्षिणी प्रदेशों में इस काल में कमी आएगी। बनासकांथा जिले में सात वर्षों (1985-91) तक तापमान, वर्षा, प्लाज्मोडियम वाइवैक्स और प्लाज्मोडियम फाल्सीपैरम के मासिक आंकड़ों के आकलन से ज्ञात हुआ है कि अल नीनो काल में मलेरिया के प्रकोप सबसे कम रहे परंतु ला नीनो की उपस्थिति में ये मामले चरम पर पहुंच गए।
तालिका 10 : जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य का संबंध और इसके दुष्प्रभाव
स्वास्थ्य से संबंध | जलवायु परिवर्तन के चलते स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव |
तापमान संबंधी प्रभाव |
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रोगवाहक जनित रोग |
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प्रचंड मौसम का स्वास्थ्य पर प्रभाव |
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खाद्य उत्पादन में असुरक्षा के कारण स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव | कुपोषण, भूख (विशेषकर बच्चों में) |
हाल ही में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय संचार परियोजना के तहत मलेरिया शोध केंद्र द्वारा “भारत में मलेरिया पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव” विषय पर अध्ययन किया गया जिसमें जलवायु परिवर्तन के कारण विभिन्न अंचलों में संवेदनशीलता, मूल्यांकन और अनुकूलन विधियों की जानकारी एकत्र की गई। देश में मलेरिया की वर्तमान स्थिति को देखते हुए अध्ययन में निम्न विषय की ओर ध्यान दिया गया (1) भारत में जलवायु परिवर्तन के लिए संवेदनशील क्षेत्र; और (2) ग्लोबल वार्मिंग के कारण 2050 और 2100 में मलेरिया का परिदृश्य; आई.पी.सी.सी. (2001) द्वारा इस दौरान 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि और वर्षा में 7 प्रतिशत वृद्धि की भविष्यवाणी की गई है।
भारतीय विज्ञान की भूमिका
भारत द्वारा जलवायु परिवर्तन संबंधी भविष्यवाणी, प्रभाव और इसके न्यूनीकरण से संबंधित चार राष्ट्रीय स्तर के समन्वय निर्धारण पूर्ण कर लिए गए हैं। इनमें एशियाई विकास बैंक द्वारा सहायता प्राप्त जलवायु परिवर्तन अध्ययन, वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जी.ई.एफ) द्वारा सहायता प्राप्त एशियाई न्यूनतम लागत ग्रीनहाउस गैस उपशमन (ए.एल.जी.ए.एस.), भारत-यूनाईटेड किंगडम संयुक्त परियोजना के तहत जलवायु प्रभाव निर्धारण अध्ययन और जी.ई.एफ. सहायता प्राप्त राष्ट्रीय सम्प्रेषण सम्मिलित हैं। रोचक बात यह है कि सभी सहयोगी प्रयासों का समन्वयन पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा किया गया है। राष्ट्रीय सम्प्रेषण राष्ट्रीय स्तर का एक सफल प्रयास था जिसमें शोध और शिक्षा संस्थानों के 131 दल सम्मिलित थे और इस कार्यक्रम में जलवायु परिवर्तन के सभी तीन आयामों, जलवायु संबंधी भविष्यवाणी, प्रभाव और अनुकूलन तथा इसका न्यूनीकरण, को शामिल किया गया था।
संक्रमणों का प्रदुर्भाव : विशेषकर भारत की दृष्टि से
वैश्विक तापवृद्धि के कारण पारिस्थितिकी में हुए उच्च स्तरीय परिवर्तन, वननाशन/वनरोपण, बांधों या नहरों का निर्माण, बदली हुई कृषि पद्धतियां और पशुधन या पक्षियों को पालने जैसी क्रियाओं ने विषाणु/जीवाणुजनित रोगों के आविर्भाव को संबल प्रदान किया है। एक प्रकट होने वाला विषाणुजनित संक्रमण एक पूरी तरह से नया रोग हो सकता है और इसमें ऐसे लक्षण दिखाई दे सकते जो पहले पूरी तरह से अज्ञात थे। इसका एक उदाहरण क्यासानुर वन रोग (कर्नाटक) है; परंतु अधिकांशतः इस स्थिति में किसी क्षेत्र विशेष में ऐसे रोग का प्रादुर्भाव देखा जाता है जिसके बारे में कम जानकारी होती है और इस क्षेत्र में यह रोग पूर्व में नहीं देखा गया होता है – पीत ज्वर का विस्तार एक अच्छा उदाहरण है। बदलते कारणों के चलते विषाणु की उग्रता में परिवर्तन देखा जा सकता है। कई प्रकार के रक्तस्रावी ज्वर इस बिंदु को परिभाषित करते हैं।
भारत में आंत्र ज्वर एक प्रमुख जनस्वास्थ्य संबंधी समस्या है जिसके हर वर्ष 3 लाख से अधिक मरीज़ देखे जाते हैं। इस प्रकार की महामारियों में साल्मोनेल्ला टायफी सबसे आम रोगजनक है। यह एक जलजनित रोग है और मानसून के दौरान जल प्रदूषण इसका मूल कारण है। दूसरी ओर, इसकी जड़े वैश्विक तापवृद्धि पर जाकर मिलती हैं।
श्वसन संबंधी रोग
रेस्पिरेटरी सिन्सीशियल विषाणु (आर.एस.वी.) नवजात एवं छोटे बच्चों में अधःश्वसन तंत्र का गंभीर संक्रमण पैदा कर सकता है। कभी-कभी यह न्यूमोनिया का कारण भी बन सकता है आर.एस.वी. मौसम से संबंधित होता है और अधिकांश लोगों को शरदऋतु या सर्दियों में संक्रमित करता है। श्वसन संबंधी रोग और तापमान के बीच संबंध के कारणों पर अभी रहस्य का पर्दा है। यह ज्ञात तथ्य है कि तापमान में ठंडक आने के साथ कई प्रकार के श्वसन संबंधी संक्रमण बढ़ जाते हैं। हालांकि पिछले दो दशकों से बढ़ता वैश्विक तापमान भारत में गंभीर श्वसन संबंधी रोगों के मौसम को छोटा करने के लिए जिम्मेदार हो सकता है।
चिकनगुन्या ज्वर – भारत में उभरता रोग
वैश्विक तापवृद्धि को भारत में डेंगू की तरह के एक रोग को उभारने के लिए दोषी छहराया जाता है। यह दरअसल चिकनगुन्या ज्वर है जो मच्छरों द्वारा फैलने वाला एक विषाणुजनित रोग है। रोग के प्रमुख लक्षण तीव्र, कभी-कभी लगातार बना रहने वाला, जोड़ों का दर्द, ज्वर और पित्तियां होना है परंतु यह सामान्यतः जानलेवा नहीं होता। फिर भी, रोग का अत्यंत विस्तार भारी रुग्णता और आर्थिक हानि के लिए जिम्मेदार है। अक्टूबर 2006 तक, भारत के 8 राज्य/प्रांतों के 151 जिले चिकनगुन्या की चपेट में आ चुके थे। ये प्रभावित राज्य आंध्र प्रदेश, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, केरल और दिल्ली थे। देशभर में चिकनगुन्या के 12 लाख 50 हजार से अधिक रोगी पाए गए जिनमें से 7,52,245 रोगी कर्नाटक में और 2,58,998 महाराष्ट्र में थे।
डेंगू
उष्णकटिबंध में डेंगू विषाणु 30 डिग्री उत्तर और 20 डिग्री दक्षिण अक्षांश के मध्य संचारित होते हैं क्योंकि पाला और लगातार ठंडा मौसम प्रौढ़ मच्छरों को मार देता है और अंडों एवं लार्वा को जमा देता है। इसलिए तापवृद्धि के रूझान रोगवाहकों और रोग के वितरण को उच्च अक्षांशों पर ले जा सकते हैं।
1996 में भारत की राजधानी में डेंगू का एक गंभीर प्रकोप देखा गया था। इस महामारी के कुल मिलाकर 10 हजार मामले दर्ज हुए और 400 मौतें हुई थी। 2006 में दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में उच्च मृत्यु दर वाले मामले देखे गए थे। दिल्ली और अधिक महामारियों के लिए अति संवेदनशील बनी हुई है।
डेंगू के रोगवाहक मच्छर ने पर्वतीय क्षेत्रों की ओर भी पहुंचना आरंभ कर दिया है। जहां जम्मू में पहले कभी डेंगू का प्रकोप नहीं देखा गया था, 1974 में वहां भी डेंगू का प्रकोप हो गया। 1996 में लुधियाना में भी इसकी महामारी दर्ज की गई जो कि इस क्षेत्र में पहली बार थी। यह साफ तौर पर दर्शाता है कि डेंगू देश में नए स्थानों पर फैल रहा है।
लू के थपेड़े
वैश्विक तापवृद्धि के एक प्रमुख प्रभाव के रूप में लू की संख्या और इसकी प्रचंडता में वृद्धि होना है। भारत में, अन्य स्थानों के समान ही, जब तापमान किसी सीमा विशेष को पार कर जाता है तो प्रतिदिन मृत्यु दर में एकदम दर में एकदम से वृद्धि हो जाती है। अत्यंत प्रचंड लू के समय, तापघात (हीट वेव) से होने वाली मौतों में आश्चर्यजनक वृद्धि देखी जाती है।
चक्रवात और भारी वर्षा
जलजनित रोगों का प्रकोप बहुधा उन विपदाग्रस्त राज्यों में देखने को मिलते हैं जहां प्रचंड चक्रवाती तूफानों और इसके बाद आने वाली बाढ़ से लाखों लोग बेघर हो गए होते हैं। चूंकि मलबे को साफ करने में कई सप्ताह लग जाते हैं इसलिए वहां महामारी फैलने की संभावना अधिक रहती है। हजारों लोग गैस्ट्रो-एंटेराईटिस और दस्त से पीड़ित हो जाते हैं।
भारत में अत्यधिक तीव्रता वाले तूफान 1990, 1989, 1977 और 1999 में देखे गए थे। 1977 के चक्रवात में आंध्र प्रदेश में लगभग 10,000 लोगों की मौत हुई थी। 1999के उड़ीसा में आया भीषण चक्रवात लगभग 15 लाख लोगों के बेघर होने का कारण बना था। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के ऊपर मात्र तबाही का खतरा ही नहीं मंडराता वरन् बाढ़ के पानी से बेघर हुए लोगों के जले पर नमक छिड़कने के लिए बहुत सी बीमारियाँ बाढ़ के समय या इसके तुरंत बाद अपना प्रकोप दिखाने लगती है।
तालिका 11 : भारतीय उपमहाद्वीप में लू चलने के दिनों और मौतों की संख्या
वर्ष | लू चलने के दिनों की संख्या | मृतकों की संख्या | प्रभावित राज्य |
1989 | 15 | राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र | 43 |
1990 | 6 | राजस्थान | - |
1991 | 10 | राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र | 250 |
1992 | 13 | राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र | 114 |
1993 | 13 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश | 73 |
1994 | 25 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र | 234 |
1995 | 29 | हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश | 410 |
1996 | 9 | राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश | 17 |
1998 | 27 | पंजाब, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, दक्षिण तमिलनाडु | 1300 |
लेप्टोस्पाईरोसिस
बाढ़ के बाद लेप्टोस्पाईरोसिस का प्रकोप होना सामान्य बात है। लेप्टोसाईरोसिस ‘लेप्टोस्पाईरा’ नामक जीवाणु से होने वाला रोग है। यह रोग आमतौर से इंसानों में पशुओं के मूत्र के दूषित पानी द्वारा फैलता है। लैप्टोस्पाईरा का संक्रमण बहुत से लक्षण प्रदर्शित करता है और कुछ रोगग्रस्त लोगों में कोई भी लक्षण नजर नहीं आता। लेप्टोस्पाईरोसिस का आरम्भ फ्लू जैसे लक्षणों से होता है। इसके बाद दूसरे चरण के आरंभ से पूर्व ये लक्षण कुछ हद तक हल्के पड़ जाते हैं। दूसरे चरण में मस्तिष्कशोथ, यकृत को क्षति और किडनी या वृक्कों का काम नहीं करना जैसे लक्षण प्रदर्शित होते हैं। अत्यंत विस्तारित लक्षणों के कारण इस संक्रमण का निदान अक्सर गलत हो जाता है। इसके कारण वास्तव में इस रोग से संक्रमित मामलों की तुलना में पंजीकृत रोगों की संख्या घट जाती है।
फाइलेरियेसिस
लिम्फैटिक फाइलेरियेसिस, जिसे आमतौर पर हाथीपांव या श्लीपद के नाम से जाना जाता है, सभी उष्णकटिबंधीय रोगों में सर्वाधिक दुर्बलता लाने वाले और शरीर को भद्दा करने वाले रोगों में से है। यह संक्रमण परजीवी कृमियों द्वारा होता है जिनका प्रसार मच्छरों के माध्यम से होता है। भारतीय उपमहाद्वीप दुनिया भर में लिम्फैटिक फाइलेरियेसिस रोग का आधा भार उठाता है।
मलेरिया और डेंगू जैसे रोगवाहकों के माध्यम से प्रसारित होने वाले रोगों के पुनः प्रादुर्भाव के साक्ष्य 1970 के दशक में एशिया और और अमेरिकी क्षेत्रों में पहली बार देखे गए। रोगवाहकों के माध्यम से प्रसारित होने वाले क्षेत्रों के प्रादुर्भाव/पुनरुत्थान के लिए जिम्मेदार कारक अत्यंत जटिल हैं। इनमें कीटनाशी और औषधि का प्रतिरोध, कृषि पद्धतियों में बदलाव और वननाशन, जनसांख्यिकीय और सामाजिक बदलाव तथा रोगणुओं में आनुवंशिक परिवर्तन सम्मिलित हैं। अनियोजित और अनियंत्रित शहरीकरण (अपर्याप्त आवास, खराब होता जल, मलजल और कूड़ा प्रबंधन तंत्र) मच्छरों-कृंतकों और जल के माध्यम से प्रसारित होने वाले रोगों के अधिकाधिक विस्तार के लिए आदर्श स्थितियाँ प्रदान करता है। यह अनुमान लगाया गया है कि आने वाले 25 वर्षों में दुनिया की जनसंख्या वृद्धी में लगभग संपूर्ण वृद्धि विकासशील देशों के शहरी केंद्रों पर होगी। इनमें से बहुत से स्थान उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में है जहां रोग वाहकों के माध्यम से होने वाले रोग सर्वाधिकता से पाए जाते हैं। इसलिए, आने वाले वर्षों में अधिकांश उद्गामी और पुरनरुत्थानशील रोगवाहक जनित रोगों के प्रसारण को बाधित करने के लिए रोगवाहकों का नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है।
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